यदि
मानव आदिमानव ही रहता
न फर गँवाता
न ठंड से ठिठुरता.
न काटता वन
न लू से मरता.
न धरती होती बंजर
न पक्षी खोते डेरा.
न खोते हाथी गलियारे
न मरते चीते सारे.
धरा होती अब से कितनी बेहतर
यदि हुई होती उन्नति कुछ कमतर.
घुघूती बासूती
Friday, January 07, 2011
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सही कह रही है शायद बेहतर होता, किन्तु तब हम सब ब्लोगिंग कैसे करते और एक दूसरे के इन विचारो से परिचित कैसे होते |
ReplyDeleteप्रकृति सधी रहती तब।
ReplyDeleteतब मनुष्य शायद सभ्य न कहलाता
ReplyDeleteन हममें से कोई किसी को
सभ्य या असभ्य बताता
मानव की प्रगति थम जाती
तो आज की चिंताएँ हमें कहाँ सताती
प्रकृति है तो प्रगति है
प्रगति है तो चिंता है
चिंता है तो उद्यम है
उद्यम है तो साधन है
साधन है तो समाधान है
समाधान है तो प्रगति है
इसी प्रगति में जीवन है
जीवन बहुत सुंदर है
पता नहीं क्यों, आपकी कविताएँ मुझे बहुत सोचने का साधन देती हैं। सादर प्रणाम।
सभ्य बनकर मानवता का राग अलापने से तो बेहतर होता अदि मानव ही बने रहना |
ReplyDeleteकुछ खोना है, कुछ पाना है.
ReplyDeleteयह बात नेट पर नहीं होती.
ReplyDeleteहम अपने ज्ञान-विज्ञान का प्रयोग प्रकृति संरक्षण में लगायें, भौतिकतावादी अंधी भाग-दौड़ से बचें तो तो अभी भी कुछ बेहतर होने की संभावना है।
ReplyDelete...चिंतन के लिए प्रेरित करती कविता।
पता नहीं क्या होता ऐसा होता तो....
ReplyDeleteचमत्कृत कर दिया. परन्तु अब वापस लौटना संभव नहीं है.
ReplyDeleteसच प्रकृति का यह हाल तो बिल्कुल ना होता......
ReplyDeleteकुछ मायनों में तो आज का मानव आदि मानव जैसा ही है ।
ReplyDeleteअच्छा होता यदि मानव आदिमानव ही रहता तो दुनियां में भ्रष्टाचार का बोल बाला भी नहीं होता|
ReplyDeleteशायद सही कह रही हैं।
ReplyDeleteयदि ऐसा न होता तो चंद्रयान ना होता
ReplyDeleteयदि ऐसा ना होता तो कल्पना चावला न होती
यदि ऐसा होता तो घुघूती बासूती न होती
सही कहा आपने...
ReplyDeleteयदि उन्नति हुई होती कमतर...
मनुष्य स्वयं ही अपने को विनाश की और तेजी से भगाए लिए जा रहा है ,कोई क्या करे...
सार्थक,बहुत ही सुन्दर रचना..
आभार इस सुन्दर रचना के लिए...
सुन्दर कविता. ऐसा इसलिए लिखा क्योंकि मुझे कविता समझ आ गयी और मैं इसके बारे में कुछ अच्छा या बुरा लिख सकता हूँ. अक्सर होता ये है की मुझे कवितायेँ समझ ही नहीं आतीं.
ReplyDeleteमेरे हिसाब से आज की जो भी पर्यावरणीय समस्याए हैं वो सभी विकास की वजह से नहीं बल्कि आदमी के लालच की वजह से हैं. मानव का विकास तो प्राकृतिक घटना हैं. उत्तम से सर्वोत्तम की ओर बढाने का रास्ता तो हमें प्रकृति ही दिखलाती है. अगर हम आपने लालच पर थोडा नियंत्रण कर लेन तो सब कुछ सही रहे.
अच्छी रचना.
ReplyDeleteबहुत गहन अभिव्यक्ति.अच्छा लगा पढना.
ReplyDeleteयदि मानव आदिमानव ही रहता तो कविता में उल्लिखित बाकी सारे भी आज जैसे कहां होते ?
ReplyDeleteखाल उधड़ गयी
ReplyDeleteकपड़े पहन लिए
फितरत नहीं बदली
wakai takniki rup main humne kafi tarrqui kr li hai lakin afsos ki mansik starpr jitni tarraqui honi chahiye thi wo nahi ho paai hai ,
ReplyDeleteaapka afsos jayaj hai.....