सुना है नया साल आया है। पहले इस दिन यूरोपियों का नया साल होता था अब हमारा भी इस दिन होता है और याद आ जाए तो उस दिन भी जिस दिन पुरखे मनाते थे और उस दिन भी जिस दिन आस पास के लोग मनाते हों। अभी दो दीपावली पहले तक तो दीपावली से अगले दिन गुजराती मित्रों के साथ नया साल मना लेते थे। हम भारतीय तो हरेक के मुँह से 'हमारे यहाँ' तो ऐसा होता है या वैसा होता है सुनने के इतने आदी होते हैं कि यदि कोई ७ मार्च, १५ जुलाई, २७ सितम्बर या होली, श्रावण त्रयोदशी या माघ के तीसरे बुधवार को भी अपना नया वर्ष कहे तो हम, बिना पलक झपकाए, बिना यह पूछे कि बन्धु यह आज के दिन कैसा नया साल होता है तुम्हारा, हो सके तो, उसकी ही भाषा में 'बेसतो बरस मुबारक', या 'नूतन वर्ष' या 'नब बर्ष की शुभकामनाएँ' या 'नवें साल दी वधाइयाँ' या 'तुहानूँ वी वधाइयाँ जी' कहते हुए मिठाई माँग लेंगे।
यदि कोई शोध करे तो पाएगा कि हमारे देश में यदि हर छोटे बड़े प्रान्त, जाति, समुदाय के अलग अलग नव वर्ष को गिनें तो ५२ नव वर्ष तो होंगे ही और यदि केवल मुख्य को लें तो १२ तो होंगे ही। उसपर भी यदि कोई कल हमें आकर बता दे कि अमुक दिन कखग ग्रहवासी चिमटे बजाकर, एक दूसरे को गुदगुदी करते हुए तीन टाँग का पजामा पहन, एक कान के पीछे पीला फूल लगा, अमुक पेड़ की शाखा पताका की तरह पकड़, सिर पर घास की टोपी पहन निकटवर्ती टीले या सबसे ऊँची छत पर चढ़ चाँद निकलने पर उसकी ओर ताकते हुए ढ़ोढ़ोढ़ोढ़ो की आवाज कर नव वर्ष का स्वागत मैदे, मक्खन, चीज़, मेवों व अंडे से बने 'टिलपायनो' नामक वयंजन को खाकर करते हैं तो हम वह भी करने लगेंगे।
खैर, ये सब विचार तो हर पुराने साल के जाते व नव वर्ष के स्वागत के समय मेरे मन में आते थे किन्तु इस बार तो मैं 'बकरियों और बकरों के नव वर्ष' के बारे में सोच रही थी। हम बाजार से गुजर रहे थे। रास्ते में बहुत सारी कसाइयों की दुकानें आती हैं। लटकते 'भूतपूर्व बकरों' व वर्तमान हड्डी व माँस के लोथड़ों को देख मन सदा ही दहल जाता है। किन्तु इस बार जो दृष्य देखा वह और भी हृदयविदारक था, विशेषकर बकरी बकरों के लिए। लटकते हुए माँस के अतिरिक्त मेज पर काफी सारे कटे हुए सर भी पड़े थे। मेरे लिए ही वह दृष्य देख पाना कठिन था तो फिर वहाँ छोटी से भी छोटी रस्सी से बिल्कुल सर जोड़कर बँधे नन्हे मेमनों के लिए वह दृष्य और सामने नजर आती मृत्यु का आभास व प्रतीक्षा कैसी अनुभूति दे रहा होगा!
हम कितने भाग्यवान हैं कि मेमने हमारी भाषा में नहीं बोलते। यदि बोलते होते तो क्या वे हमें नव वर्ष की शुभकामनाएँ दे रहे होते या फिर उसके रात से भी अधिक काले, दर्द से भी अधिक दर्दीले, दुख से भी अधिक दुखमय व ऐसी ही न जाने कितनी ही बद्दुआओंयुक्त होने की कामना न करते। शायद करते भी हों किन्तु अपनी मूक भाषा में। न समझ पाना भी कितना बड़ा सौभाग्य है!
घुघूती बासूती
Thursday, January 06, 2011
नया साल बकरों व मेमनों का! ...............................घुघूती बासूती
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सूअरों के साथ, मुर्गों के साथ, गाय के साथ भी यही होता है. आदमी से बड़ा जानवर कोई है क्या...
ReplyDeleteइन बेचारों का नया वर्ष होता ही नहीं।
ReplyDeleteभयावह!
ReplyDeletePoor mother can't congratulate
Her child of the day
Since none of her children
Shall die natural way.
They grace dinner tables
Since scores of generations
By offering their bodies
Without expectations.
इस तरह के भयावह दृश्य वाले इलाके से गुजरते वक्त अक्सर मैं भी मुंह फेरकर दूसरी ओर कर लेता हूं.....संभवत: अपने आप को मानसिक कष्ट से बचाने हेतु.....लेकिन वही जो आपने कहा कि उन मेंमनों का क्या जो कि वहीं बंधे होते हैं, जबकि उनके सामने ही उनके परिजनों के कटने मारने का वीभत्स दृश्य हो रहा हो ।
ReplyDeleteदुनिया में बहुत से मनुष्यों की गिनती भी भेड़-बकरियों में की जाती रही है।
ReplyDeleteऐसे द्रश्य हड्डियों तक सिहरन पैदा कर देते है ...खून मांस ...एक बार अल्मोड़ा में बलि के बाद कटा सर देखा तो बेहोश हो गई थी ....
ReplyDeletesahi kaha ...aise drashya dekhkar man andar tak hil jata hai! par ham insaan hain...hame doosron ...wo bhi bejubaan praaniyon ke kasht se kya?
ReplyDeleteकुछ कहने की स्थिति मे नही हूँ…………निशब्द्।
ReplyDeleteमेमने हमारी जुबान तो नहीं बोलते परन्तु उनकी आँखों में आँखे डालकर देखें तो उनकी मूक अभिव्यक्ति भी समझी जा सकती है. एक बार हम बुड्ढे लोगों को चस्का चढ़ा और गोवा घूमने गए. मडगांव में मुझे छोड़ सभी ने वहां के ख़ास पाम फिश की फरमाईश करी. छोटे डोंगियों में पूरा साबूत परोसा गया था. मर जाने के बाद भी मछली की आँखे कुछ कह रही थीं. हमने दोस्तों से कहा तुम लोगों को धिक्कार है. इतना ज्यादा हल्ला किया की सबने लौटा दी और अब तक कोसते हैं.
ReplyDeleteवाह सुब्रमन्यन जी. काश हम सब आपकी तरह हल्ला कर पाते.उल्टा हम तो पकाते हैं.खाते न भी हैं तो भी धिक्कार तो हमें है.
ReplyDeleteघुघूती बासूती
"न समझ पाना भी कितना बड़ा सौभाग्य है!"
ReplyDeleteसही कहा...हमारा यही सौभाग्य है कि हम उनकी भाषा नहीं समझते.
पर ये दृश्य तो आम हो चले हैं...चाहे नव-वर्ष हो...शादी-ब्याह हो..या कोई अन्य समारोह.
मैं vegetarian by choice हूँ....पर परिवार-जन...दोस्त सबलोग नौन-वेज के शौक़ीन हैं...और कहाँ सोचते हैं ये सब.
बचपन में एक पहेली बुझते थे
ReplyDeleteएक मुर्गा चश्मदिदम चलते चलते थक गया
लाओ छूरी काटो गर्दन फिर से चलने लग गया
उत्तर -पेन्सिल
कित्न्तु आज भी वही द्रश्य आँखों के सामने रहता है पेन्सिल नहीं |
आपका लेख पढ़कर अचानक यद् आ गया |
आप ने जिस द्रश्य का वर्णन किया है हमारे घर के पास भी वैसा ही एक दुकान सजती है किन्तु केवल रविवार के दिन लोग टूटे पड़े रहते है | बाकि दिन पूछो तो कहते है की आज फला दिन है तो फला दिन पूजा का है नहीं खायेंगे पर रविवार को लगता है जैसे छे दिन किये पुन्य को आज पाप कर बराबर करने पर तुले है |
ReplyDeleteएक एक शब्द आपने मेरे मन की कह दी है...
ReplyDeleteआपकी इस बात पर तो आपके चरणस्पर्श को मन मचल उठा है मेरा...
मन इतना विरक्त और दुखी था यह सब देख सुनकर की मैंने तो तीस तारिख को ही अपने मोबाइल का गला टीप दिया और फिर से तीन तारिख को उसे ऑन किया क्योंकि ओफ्फिसिअल काम काज के दिन में उसे ऑफ नहीं रख सकती थी ...
दूसरों के पर्व त्यौहार में उत्साहित हो सम्मिलित होने में कोई हर्ज़ नहीं, लेकिन अपनी मस्ती के लिए लाखों कड़ोरों जीवों के प्राण ले लेना ...कोई एक बार ठहरकर, सोचना चाहता भी है ???
आधी रात को भूत प्रेत पिशाचों की तरह मद्य मांस भक्षण और हुडदंग ये संस्कृति और संस्कार कौन से नव वर्ष की खुशियाँ लायेंगी,पता नहीं...
सात्विक अनुष्ठान से ही सात्विक फल की आशा राखी जा सकती है,न कि दानवी अनुष्ठान से सात्विक सुख की...
मै रंजना जी से पूर्णतः सहमत हूँ. किन्तु मैं उनकी तरह मोबाइल का गला नहीं टीप पाया, इसलिए कि जो लोग साल भर दूर दूर मुंह फेरे खड़े रहते हैं वे होली, दीवाली और नए वर्ष (भले ही यह नया वर्ष हमारा न हो) में "मोबायिली शुभकामनायें" तो भेज ही देते हैं ......... वैसे नए साल के आरम्भ में ही आपने क्या राग छेड़ दिया है घुघूती जी, बकरों की लटकी लाशें और टेबल में कटे सिर पढ़कर न जाने ज्यू कैसा कैसा हो रहा है........
ReplyDeleteनया साल आपको मुबारक हो ..... नया वर्ष आपके जीवन में सुख समृद्धि, और संतोष ले कर आये ....इन्ही शुभकामनाओं के साथ.
जीव जीव का दुश्मन है ।
ReplyDeleteक्या मांसाहारी लोगों को भी ऐसा ही लगता होगा ।
कहीं पढा था जीव जीवन्स्य जीवन्म
ReplyDelete.....
ReplyDeleteकेवल स्वाद के लिये दूसरे जीव का भक्षण इंसान के अलावा कोई जानवर नहीं करता। ये सच है कि हम लोगों में से बहुत से माँस खाने वाले भी सिर्फ़ एक दिन इस प्रक्रिया को देख लें तो उन्हें इस विषय पर पुनर्विचार करना होगा।
ReplyDeleteहम भारतीय तो हरेक के मुँह से 'हमारे यहाँ' तो ऐसा होता है या वैसा होता है सुनने के इतने आदी होते हैं कि यदि कोई ७ मार्च, १५ जुलाई, २७ सितम्बर या होली, श्रावण त्रयोदशी या माघ के तीसरे बुधवार को भी अपना नया वर्ष कहे तो हम, बिना पलक झपकाए, बिना यह पूछे कि बन्धु यह आज के दिन कैसा नया साल होता है
ReplyDeleteसही आबज़र्वेशन
हम वाक़ई हिंसक हो गये हैं
Badi gazab ki post likhi hai madam.ek alag sa ahsaas hua naye saal mein.nav varsh ki shubhkamnaein.
ReplyDeleteबस ऐसी ही हो ब्लॉग्गिंग. बहुत सुन्दर. सहज किंतु, प्रभावोत्पादक.
ReplyDeleteशाकाहार-मांसाहार की चर्चा में मानवता और मानवीयता का रंग चटख होता है, खास कर तब, जब कोई आप की तरह शब्द चित्र बनाए.
ReplyDeleteशाकाहार-मांसाहार की चर्चा में मानवता और मानवीयता का रंग चटख होता है, खास कर तब, जब कोई आप की तरह शब्द चित्र बनाए.
ReplyDeleteदोस्तों
ReplyDeleteआपनी पोस्ट सोमवार(10-1-2011) के चर्चामंच पर देखिये ..........कल वक्त नहीं मिलेगा इसलिए आज ही बता रही हूँ ...........सोमवार को चर्चामंच पर आकर अपने विचारों से अवगत कराएँगे तो हार्दिक ख़ुशी होगी और हमारा हौसला भी बढेगा.
http://charchamanch.uchcharan.com
अलग अलग समाजों ने अपने आपको व्यवस्थित करने की गरज़ से 'टाइम प्लान' किया है तो इसमे किसी 'एक' दिवस का आग्रह व्यर्थ है नये साल की शुरुआत कहीं से भी हो उसे उस समाज विशेष अथवा अन्य समाजों की स्वीकृति से जोड़ कर ही देखा जाना चाहिए !
ReplyDeleteउत्सव प्रियता मनुष्य की अपनी विशिष्टता है सो आहार वैविध्य भी ! अब कौन कब उल्लसित हो और क्या खाये उसको लेकर पारस्परिक चिंताएं स्वाभाविक हैं ! इन मुद्दों विचार करते समय अपने आग्रहों के साथ दूसरे बन्दों के आग्रहों को भी सहिष्णुतापूर्ण स्पेस दिया जाना चाहिए ! जैसे कि शाकाहारी होकर भी आप मांसाहारी व्यंजन तैयार करने सोच सकती हैं व्यवहार कर सकती हैं ! बेहतर सामाजिकता के लिए यही ज़ज्बा ज़रुरी भी है ! सुब्रमनियन जी के दोस्त अगर टुंड्रा प्रदेश में रहते होते तो क्या होता ?
मनुष्य के उल्लास अवसरों / खान पान की आदतों पर विचार करते हुए पारिस्थितिकी की भूमिका को भी ध्यान में रखना चाहिए !
हस्तक्षेप के लिये क्षमा चाहता हूँ, पर इस विषय पर बोले बिना रहा नहीँ जाता. मैं स्वयँ भी शुद्ध शाकाहारी हूँ पर जैव वैज्ञानिक होने के नाते जानता हूँ कि हम लोग सर्वभक्षी हैँ. हमारे नाखून, छोटी आहार नाल, सामने की ओर स्थित आँखें जो मस्तिष्क में त्रिआयामी दृश्य बनाती हैँ, हमें शिकार पकड़ने, चीरने व पचाने के लिये प्रकृति ने प्रदान किये हैं.
ReplyDeleteजहाँ तक स्वाद का प्रश्न है, वास्तविकता यह है कि प्रकृति ने हमारे भोजन में वैविध्य, कमजोर व अति सुलभ जीवों को भी बचाये रखने की युक्ति के रूप में स्वाद कलिकायें विकसित की हैं ताकि हम जायका बदलते रहें और एक ही प्रकार का भोजन बार बार न करें. पर प्रकृति के इन समायोजनों का मानवीय दुरुपयोग यह होता है कि हम स्वाद को लेकर कई प्रयोग करते हैं जिनमें अक्सर बलि चढ़ते हैं मासूम जानवर.
विश्व के किसी भी भाग में लोग पूरी तरह शाकाहारी या माँसाहारी नहीँ हैं और निर्दयता से जानवरोँ को मारना सभी जगह आम है. अपनी चेतना के विकास के साथ ही हम यह प्रश्न, "शाकाहारी या माँसाहारी" तथा जीव हत्या के औचित्य पर करते आ रहे हैं, पर हकीकत में यह सच्चाई है कि जीव हत्या तो अनिवार्य है, हाँ, तरीके थोड़े मानवीय बनाये जा सकते हैँ.
is dharati per manav se badkar koi janwar he kya.Pahle to log nkaha karte the ki hame janwaro se darna chahiye.Magar aaj to janwar manushyo se darte he kyoki kya pata kal wo hi manushya usi janwar ki hatya karde.Jabki science yeh prove kar chuka he ki meat khana apni health ke liye dangerous he.Phir bhi manav nahi manta he.
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