मेरे पिछले लेख पर मुझे बहुत सारी टिप्पणियाँ मिलीं। बहुत से मित्रों को लगा कि आज के युग में हमारी महरी, महाराज, धोबी आदि किसी भी बड़ी दुकान, मॉल में जाकर सामान खरीद सकते हैं। सही है, उन्हें कोई रोक भी नहीं सकता। उन्हें हर उस दुकान पर जाना चाहिए, जहाँ मूल्य के अनुसार बढ़िया से बढ़िया सामान मिले, या कहिए पैसा वसूल हो। इतनी मेहनत करने के बाद वे भी क्यों न वातानुकूलित मॉल में जाकर खरीददारी के साथ साथ ठंडक का भी आनन्द उठाएँ?
शायद कोई कानून उन्हें कहीं भी जाने से रोकता न हो, किन्तु क्या हमारे मॉल, होटल, रेस्टॉरन्ट, हाउसिंग सोसायटी आदि के नाम ही उन्हें पराए, उच्चारण व याद रखने में कठिन या कहिए असम्भव नहीं लगेंगे? क्या ऐसे नाम जिन्हें कोई एक वर्ग उच्चारित ही न कर सके, उस वर्ग को आमन्त्रित करते हुए लगेंगे? ये मॉल्स, होटल, रस्टॉरन्ट, हाउसिंग सोसायटीज़ क्या ऐसे नाम रखकर उस वर्ग को बाहर रखने का यत्न नहीं कर रहे हैं, जो न इन नामों को समझ पाते हों, न जिन्हें इन नामों में से किसी अपनेपन, अपनी भाषा या संस्कृति का बोध होता हो , जिन्हें ये लोग न याद रख पाते हों, न उच्चारित कर पाते हों? ये नाम रखने के पीछे की मानसिकता शायद यही है कि ये आज के भारत के आभिजात्य वर्ग के लिए बनी हैं, या कम से कम अंग्रेजी जानने वालों के लिए बनी हैं। यह मॉल में लगने वाले ॉ का उच्चारण भी तो बिल्कुल नया है।
कोई व्यक्ति अपनी मातृभाषा या अन्य किसी भारतीय भाषा में महारत रखता हो, चाहे उसमें लिखता भी हो, कितना भी पढ़ता क्यों न हो वह यदि अंग्रेजी नहीं जानता तो इन दुकानों के नाम भी नहीं पढ़ पाएगा, वहाँ किस वस्तु का क्या मूल्य है, किसपर कितनी छूट मिल रही है, क्या नई स्कीम आई है, किस डिब्बे के अन्दर क्या माल है यह सब नहीं जान पाएगा। व्यावहारिक रूप से वह अनपढ़ ही है। उससे जब पूछोगे कि किस दुकान में गए थे तो वह प्रायः सही नाम नहीं बता पाएगा। कुछ मिलता जुलता नाम ही बोलकर काम चलाएगा।
मैंने गूगल में एक दो जगह जैसे http://www.mumbai77.com/pages/shopping/malls/ जाकर नामों की लिस्ट बनाई। (नाम देते देते रुक गई हूँ, क्योकि यह न जाने अपराध ही न हो।)
उनमें लगभग २५ नाम शुद्ध विदेशी हैं। तीन मिले जुले और ५ ही चाहे मॉल तो लगाते हैं अपने नाम के साथ किन्तु नाम भारतीय हैं। वे किसी भी भारतीय को याद रखने या उच्चारण करने सरल लगेगें। एक नाम को अलग अलग लोग अलग उच्चारित करते हैं जैसे डिमान्ड, डीमैट, डिम आर्ट व और भी न जाने क्या कहा जाता है। किन्तु महरी, ड्राइवर आदि को सही उच्चारण करते अभी तक नहीं सुना है। मजे की बात तो यह है कि मैं स्वयं उसका नाम भूल जाती हूँ और अपने ड्राइवर से जो नाम सुनती हूँ वही मुझे याद रहता है यानि डीमैट! सोचती हूँ कि डिम आर्ट ही यद रख पाती तो अक्षरों को जरा सरका कर नाम तो ठीक बनता।
ऐसा नहीं है कि ये लोग अनपढ हैं किन्तु अपनी भाषा में पढवा कर इनके माता पिता ने अपना पैसा और इनका समय ही बर्बाद करवाया। यदि कई वर्ष स्कूल जाकर भी आप दुकानों के नाम, सामान के नाम, उपयोग करने की विधि आदि नहीं पढ़ सकते तो क्या लाभ? क्या इन लोगों ने ही मातृभाषा प्रेम को ढोने का जिम्मा लिया है? क्यों नहीं इस प्रेम को अमीरो, नेताओं, पूँजीपतियों के मजबूत कंधे ढोते? या फ़िर भाषा के लिए मरने मारने को उतारू होने वाले लोग? उनके बच्चे तो सदा या तो विदेशों में पढ़ते हैं या फ़िर शहर के सबसे बढिया अंग्रेजी स्कूल में।
इस विषय पर फ़िर कभी। आज तो मैं केवल यह बात कर रही हूँ कि जब आप मेरे स्वागत के लिए बिछे पाँवपोछ से लेकर ऊपर टंगे बोर्ड, नाम पट्टी तक मुझे समझ न आने वाली भाषा में लिखते हैं तो आप बिना मुँह खोले मुझे यही कह रहे हैं कि ’जा फ़ूट, यह जगह तेरे जैसे के लिए नहीं है’। ’यह शहर, यह प्रदेश तेरा नहीं है’ । माँ को तो यही लगता है, यह बात और है कि बचपन में उन्होंने घर घर जाकर बेटियों को स्कूल भेजने का यत्न किया था। कुछ समय पहले ही तो मैंने उनके मुख से वह गीत सुना था जो माता पिता से बेटियों को पढने भेजने का संदेश देता था। या कि उन्होंने भी बचपन में ही स्वतन्त्रता के लिए निकलने वाले जलूसों में भाग लिया, पुलिस के डंडे खाए। या कि यह कि उन्होंने ७५ साल पहले १२ साल की उम्र में( माँ ने बारह साल में ही शायद इतना उत्पात मचाया था कि सरकारी नौकरी वाले नानाजी ने उन्हें गाँव भेजने में ही अपनी नौकरी व माँ की सुरक्षा समझी होगी) अपने गाँव में घूँघट नहीं करूँगी का विद्रोही एलान किया था और इसे निभाया भी था। या यह कि उन्होंने जहाँ भी पिताजी की बदली हुई उस जगह के पुस्तकालय की पूरी हिन्दी पुस्तकें( जो कि सौ पचास नही, कई अलमारी भर होती थीं) पढ डाली। या यह कि हिन्दी में लिखी पुस्तकें या किसी अन्य भाषा के हिन्दी अनुवाद वाली पुस्तकें खरीदने के लिए हर साल जब सूची बननी होती थी तो माँ से सलाह ली जाती थी। या यह कि आज भी मैं माँ के लिए कुछ और नहीं केवल पुस्तकें खरीदती हूँ। या यह कि पिताजी के सेवा निवृत होने पर जब वे महाराष्ट्र आए तो माँ ने स्थानीय व सबसे ताजा समाचार पढने के लिए मराठी समाचार पत्र पढने शुरु कर दिए। किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से वे अनपढ हैं। जब भारत परतन्त्र था तब उन्हें ऐसा कभी नहीं लगा, किन्तु हमारी स्वतन्त्रता जितनी पुरानी होती जा रही है उतना ही यह सच उनके सामने आ रहा है। और यही कटु सत्य भी है।
घुघूती बासूती
पुनश्च:
और विडम्बना यह है कि यदि हम इस बडी भारतीय आबादी के लिए स्थानीय या भारतीय भाषाओं के उपयोग की बात करते हैं तो हम अपने बच्चों को ठीक उनकी स्थिति में डाल रहे हैं क्योंकि अब हमारे बच्चे भारतीय भाषाओं को ठीक से पढ नहीं पाते, और दैनिक बातों से अधिक समझ नहीं पाते। इसे जो चाहे कहें किन्तु बहुत से लोगों के लिए यह भी सत्य है।
घुघूती बासूती
Tuesday, October 19, 2010
पिछले लेख से आगे...... एक कटु सत्य!...........................घुघूती बासूती
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..कटु सत्य की सुंदर विवेचना करती पोस्ट।
ReplyDelete..दम साधे, 'भारत वर्ष' को 'इण्डिया' बनते देखने रहने की विवशता कष्टप्रद तो है ही।
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ReplyDeleteHam zaroor chahenge aaj bhi ki,hamare naukar chakar unhen jahan jana chahe jayen...ham bhi to wahi madhyam vargeey log hain...mall ke naam chahe mushkil hon,kya farq padta hai? Ab chhotee dukane to rahee nahee! Jana hai to mall hee me jao! Big Bazar jaise malls hain,jinke naam maharee ko bhee jane pahchane hain...haan, Oberoi jaisee hotels yaa malls me wo nahee yaqeenan nahee jayengi!
ReplyDeleteRaha Hindi bhashikon ka sawal,to kal ko gar yahan French bolne lag jate hain log to angrezi bolnewale anpadh to nahi kahla sakte na!Aapki maa jaisee mahilaon pe is desh ko garv hai...hona chahiye!
गर्व होने से वे अपनी दवा की शीशी पर लिखी जानकारी तो नहीं पढ सकतीं। किसी केवल अंग्रेजी अक्षर और कुछ शब्द जानने वाले से भी सहायता लेनी पडती है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
आपकी चिंता मुझे वाजिब नहीं लगाती. आप चिंतित हैं कि निचले तबके के लोग उच्च वर्ग के लिए बनी दुकानों के नाम नहीं पढ़ पाते या उन में नहीं जा पाते. इसके लिए आप उनकी शिक्षा के माध्यम को दोषी ठहराती हैं. मैं भी इसी निम्न वर्ग से हूँ. मुझे नहीं लगता कि ये बड़े बड़े माल ये महँगी दुकाने हमारे लिए हैं. दिल्ली में जितने भी माल हैं वहां आम आदमी कि जरुरत का समान नहीं मिलाता और मिलाता भी है तो उच्च वर्ग को भाने वाली उची कीमतों पर. तो क्या जरुरत है ऐसी जगहों पर जाने कि. सिर्फ दिखावे के लिए. ये कोई दर्शनीय स्थल तो हैं नहीं. हमें अपनी भाषा पर गर्व होना चाहिए. अगर हम विदेशी नामों को उच्चारित नहीं कर पाते तो इसके लिए अपनी भाषा को दोष देना ठीक नहीं. शायद आपको पता नहीं कि ९९ प्रतिशत जापानी अंग्रेजी ठीक से नहीं बोल पाते क्योंकि उनकी भाषा में वे अक्षर ही नहीं हैं. वहां के बुद्धिजीवियों को शर्म नहीं आती खुद पर. आपको और दुसरे पढ़े लिखे गुनी भारतीयों को आती है और शायद इसलिए ही हम पिछड़े हैं.
ReplyDeleteएक और बात पूछना चाहता हूँ कि क्या कुमाउनी स्त्रियाँ घूँघट करती हैं?
क्या इन लोगों ने ही मातृभाषा प्रेम को ढोने का जिम्मा लिया है? क्यों नहीं इस प्रेम को अमीरो, नेताओं, पूँजीपतियों के मजबूत कंधे ढोते? या फ़िर भाषा के लिए मरने मारने को उतारू होने वाले लोग? उनके बच्चे तो सदा या तो विदेशों में पढ़ते हैं या फ़िर शहर के सबसे बढिया अंग्रेजी स्कूल में
ReplyDeleteयह तो आपने बिल्कुल ठीक कहा है..
मुझे आपकी इस बात से कोई दो राय नहीं की माल्स के नाम अंग्रेजी या अंग्रेजीनुमा होते हैं. जहाँ तक सवाल है ड्राईवर मेहरी तथा दुसरे लोगों का इनमे जाने का तो मुझे लगाता है क्या इन लोगों की आम ज़रूरत का सामान यहाँ मिलता है.. क्या इन लोगों को अंदर आने से पहले गार्ड घूरती नज़र से नहीं देखेगा.
मेरे ऑफिस का चपरासी 'नं १' साबुन इस्तेमाल करता है, मैंने उस साबुन को माल्स में ढूँढने की कोशिश की मगर मुझे नहीं मिला, हालाँकि वह गोदरेज द्वारा उत्पादित प्रोडक्ट है, एकबारगी किसी छोटी कंपनी का प्रोडक्ट शायद ना मिले पर इसके मिलने की उम्मीद थी. फिर इन माल्स में खाने (processed foods) की चीज़ों की बाढ़ आई हुई, ऐसे कई कंपनी नाम और चीज़ें जो बिल्कुल अनजानी है और आम भारतीय खाने में काम नहीं आती, तो क्या यह हमारी ज़रूरतों में घुसने की साज़िश नहीं है, या उनकी भाषा में कहें तो 'एक नया मार्केट' तलाशने जैसा.
इस बार मेहरी से पूछता हूँ वह कौनसा शेम्पू इस्तेमाल करती है :)
जहा तक बात सामानों पर लिखी भाषा का है तो ये समस्या हमें समझनी चाहिए की कोई एक कंपनी कितने भाषा में अपने उत्पाद पर लिखे भारत में कोई एक बोली तो बोली नहीं जाती है सो वो अंग्रेजी में लिखा देता है | पर ये बात भी तय है की यदि वो स्थानीय भाषा में लिख भी दे तो भी कोई उसे पढ़ने की जहमत नहीं उठाने वाला है | कितने लोग है जो किसी उत्पाद पर लिखे सामग्री को पढ़ते है ये समझ तो पढ़े लिखो में भी नहीं है | खुद मैंने भी अपनी बेटी होने के बाद उसे पढ़ना शुरू किया है तो किसी और को क्या कहु |
ReplyDeleteविचार शून्य जी,
ReplyDelete७५ वर्ष पहले करती रही होंगी। हो सकता है हर समय नहीं भी तो किन्हीं विशेष पुरुषों के सामने। वैसे यह भी हो सकता है कि अलग अलग जाति की स्त्रियों पर अलग बन्धन य नियम कायदे लागू होते हों।
घुघूती बासूती
कभी-कभी मैं भी निराश हो जाती हूँ ये सब देखकर. पर ये बात सच है कि किसी भी मॉल में मैं आज तक नहीं गयी हूँ, महरी आदि की तो बात ही छोड़िये. छोटे शहरों और गाँवों में अब भी बड़े लोग भी उन्हीं पुरानी परचून की दुकानों से सामान खरीद रहे हैं. लेकिन मॉल कल्चर और अंगरेजी का जिस तरह से प्रसार हो रहा है, डर लगता है.
ReplyDeleteलेकिन आशा का दामन नहीं छोड़ना चाहिए. है ना?
vikas aur purani cheejon ka vilopan - dono saath hi aate hain !
ReplyDeleteold is always gold but then there is always hunger and excitement for new and unknown stuff ..that;s why west is turnign more towards yoga, joint family and east life style and we asians are getting crazy about west ,,,this is how common human psychology tends ....
ये नहीं कहूँगी कि मॉल में नहीं जाते खरीददारी करने , जरुरत का सारा सामान एक साथ मिल जाने का लालच वहां खींच ले जाता है कई बार ....और कुछ मॉल्स की अपेक्षाकृत कम कीमत भी आकर्षित करती ही है ...
ReplyDeleteदूसरे शहरों के बारे में नहीं बता सकती लेकिन जयपुर के मॉल्स में कई बार अत्यंत ही साधारण पृष्ठभूमि से आये लोगों को तफरी करते , मूल्यों की पूछताछ करते, सामान खरीदते देखा है ...कई मॉल्स में अटेंडेंट होते हैं अंग्रेजी नहीं समझने वालों की मदद के लिए भी ...
हालाँकि भारत के इंडिया बनने का क्षोभ मुझे भी है ..!
मॉल में सामान खरीदने गया। अब बचपन से मसालों और सब्जियों के नाम तो हिन्दी में ही याद हैं। सहायकों से पूछना पड़ा, वो भी केवल कन्नड़ जानते थे। अब आप समझ सकते हैं, वहाँ की परिस्थिति। यही देश में हो रहा है, जिन दो व्यक्तियों के बीच संवाद होना है, उनके लिये भाषायी माध्यम तीसरा व्यक्ति निश्चित कर रहा है।
ReplyDelete.
ReplyDelete.
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आपकी बात कुछ हद तक सही है... मॉल्स व कालोनियों के Exotic नाम रखने का फैशन सा चल रहा है... पर स्थितियाँ बदल रही हैं... दवाइयों तक में अब हिन्दी या स्थानीय भाषाओं में नाम लिखे आ रहे हैं।... पर मॉल्स में निम्न वर्ग के न जाने के पीछे असली कारण आत्मविश्वास की कमी है... और इस तरह का आत्मविश्वास केवल और केवल जेब के भारी ब भरे होने से ही उपजता है... जिनकी जेब भरी है ऐसे बहुत से अनपढ़ मुझे अक्सर दिखते हैं मॉलों में...
...
कितने लोग 'नामों' को उनके 'अर्थ' के साथ 'पहचान' कर उच्चारते होंगे ?
ReplyDeleteबढ़िया आलेख !
सोचने को मजबूर करता आलेख्।
ReplyDelete...ऐसा नहीं है कि ये लोग अनपढ हैं किन्तु अपनी भाषा में पढवा कर इनके माता पिता ने अपना पैसा और इनका समय ही बर्बाद करवाया।.........
ReplyDeletelakin desh evm samaj hit main ek sukhad phlu yh bh hai ki aaj bhi hamarey desh main samaj ka ek bahut bada vrg sarkari skulon main padta hai, aaj bhi hamarey desh main samaj ka ek bahut bada vrg rehri market main soping krta hai,bavjud iskey bhi uskey dil main desh ke prti samman hain ,usey apni sanskriti or apney rshmon-riwajon se lagav hai ,usey is baat ka koi gm nahi hai ki wh bhog-vilason ke in addon tk nahi pahunch saka hai,
bhrhaal swabhimaan or swdesi ki bhawna ka nirantr hras ho raha hai jo ek chinta ka vishay hai,
chintniy vishy ko post ka madhyam aapne banaya iskey liye abhaarrrrr,
kuch takniki kaarno se tippani ko benami ke rup main prakashit kr raha hun,
regard :-
P.S.Bhakuni(Paanu)
(Buransh (Ek Prateek)
क्षमा करें। मैंने आपके लेख का पहला हिस्सा भी पढ़ा था और यह भी। ऐसा लगता है यहां भी केवल वे लोग ही चर्चा कर रहे हैं जो मॉल संस्कृति से सरोकार रखते हैं।
ReplyDeleteबहुत सारे बिन्दुओं पर विमर्श हो सकता है। पर आपके लेख में मुझे यह पंक्तियां कुछ अखर रही रही हैं।
'ऐसा नहीं है कि ये लोग अनपढ हैं किन्तु अपनी भाषा में पढवा कर इनके माता पिता ने अपना पैसा और इनका समय ही बर्बाद करवाया। यदि कई वर्ष स्कूल जाकर भी आप दुकानों के नाम, सामान के नाम, उपयोग करने की विधि आदि नहीं पढ़ सकते तो क्या लाभ?'
हो सकता है आपने इन्हें व्यंग्य में लिखा हो पर व्यंग्य उभर नहीं रहा।
संयोग से मुझे भी बहुत अच्छी अंग्रेजी नहीं आती। लेकिन मैं यह कैसे कह सकता हूं कि मेरे माता पिता ने मुझे नहीं पढ़वाया । वे जो बेहतर कर सकते थे उन्होंने किया। आज मैं यह समझ पाया हूं कि इसमें हमारी शिक्षा प्रणाली में विदेशी भाषा को पढ़ाने की जो तकनीक है वही गलत रही है। इसलिए स्वतंत्रता के बाद की कम से कम दो पीढि़यां ऐसी हैं जो अंग्रेजी में अपने को असहाय पाती हैं।
इस मुद्दे पर संवेदनशीलता की जरूरत है।
हिंदी पढ़े लिखे होने से अपराध बोध हों, निराशजनक है. आवश्यकता इस बात की है की इन दुकानों, बाजारों , माल्स, एवं वस्तुओं के नाम अंग्रेजी के बजाय हिंदी में भी लिखे जाये जिससे हिंदी पढ़ा लिखा व्यक्ति भी इस सब के बारे में जानकारी हासिल कर सके . बदलाव के लिए आन्दोलन की आवश्यकता है
ReplyDeleteआप से एक बात पूछनी हैं क्या आप मानती हैं कि अगर आमदनी १००० रूपए महिना हो तो हमको उन दुकानों पर जाना चाहिये जहां एक एक सामान कि कीमत इस आमदनी से ज्यादा हो । फिर उस दूकान का नाम इंग्लिश मे हिंदी मे हो या फारसी मे क्या फरक हैं ।
ReplyDeletePLease think realistically mam
बात केवल मॉल की ही नहीं है। अपने ही देश में यदि कोई कुछ जगह( बहुत सारी जगह ) जाने में परेशानी महसूस करे तो यह सही कदापि नहीं कहला सकता। बात केवल हिन्दी की भी नहीं है। हर राज्य की भाषा की है। यदि कर्नाटक में कन्नड़ के जानकार को अड़चन आए तो भी गलत होगा।
ReplyDeleteकिसी व्यक्ति की आठ घंटा काम करने से आय १००० रूपए महीना होनी ही नहीं चाहिए। ऐसा कौन सा काम है जो इतना निकृष्ट है कि आठ घंटा काम करने पर भी उसे केवल १००० रूपए महीना मिले?
लोग गेहूँ व चने खरीदने बड़ी दुकान भले ही न जाएँ किन्तु प्रैशर कुकर और स्टोव खरीदने तो जाना ही चाहिए। बात किसी पर दया की नहीं हो रही| मानव, नहीं, नागरिक के अधिकारों की हो रही है।
हम या तो दया करना चाहते हैं क्योंकि उससे हमारे अहम की तुष्टि होती है या फ़िर अपने व अन्य के लिए अलग माप दंड रखने चाहते हैं। यदि हमें कोई सामान रशियन निर्देशों के साथ मिले तो हम कितने परेशान हो जाएँगे।
स्वाभाविक है कि हममें से बहुत से यह ही नहीं समझ पाते कि जिसे अंग्रेजी नहीं आती वह मॉल जाए ही क्यों या होटल में क्यों जाए या हिन्दी फ़िल्म के अंग्रेजी शीर्षक,अभिनेताओं के नाम आदि देखकर क्यों कसमसाए।
भारत में यदि बहुत सी भाषाएँ हैं तो यह आकार में भी बहुत बड़ा है। कितने ही राज्य यूरोपीय देशों से बड़े हैं।
खैर यदि दूसरे के जूते में अपना पाँव रखना इतना ही सरल होता तो बात ही क्या थी!जीवन एक सीढ़ी के समान है| यदि बहुत से लोग हमसे नीचे वाली पर हैं तो बहुत से हमसे ऊँची वाली पर हैं। हमसे ऊपर वाले भी यही सोचते होंगे कि हमें जीवन की बहुत सी वस्तुएँ व सुविधाएँ चहिए ही क्यों! क्यों हमारे मरीज को हमारी हैसियत से ऊपर का इलाज चाहिए, या हमारे बच्चे को हमारी हैसियत से ऊपर की पढ़ाई चाहिए।
घुघूती बासूती
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ReplyDeleteआप १००० कि जगह ३००० मान ले पगार
ReplyDeleteलेकिन मै फिट भी कहूँगी कि हर जगह हर कोई जाए ये संभव ही नहीं हैं । बात सम्मान कि होनी चाहिये ना कि बराबरी कि । हमे सब को सम्मान देना चाहिये । बराबर समझना चाहिये जहाँ तक आत्मा सम्मान का प्रश्न हो पर जब बात पैसे पर आती हैं तो जिसकी जितनी कमाई हो उसको उतना ही पैर पसारना चाहिये । अगर कोई अपना सामान किसी को नहीं बेचना चाहता तो क्या जरुरी हैं उसका सामान खरीदना ? अब मोबाइल लीजिये सब कंपनी हिंदी मै भी उपलब्ध कराती हैं क्युकी उनको अपना सामान हर तबके को बेचना हैं । एक ३००० पाने वाला १५०००० का फ़ोन तो श्याद ही खरीदे सो जो उनका खरीदार ही नहीं हैं उसके लिये वो क्यूँ परेशान हो । आप ने देखा हैं १.५ लाख फ़ोन ???? सच बताईयेगा अगर मिले तो खरीदेगी क्या , मेरी तो हसियत ही नहीं हैं सो उस शो रूम मै नहीं गयी , इग्लिश आने के बावजूद
सादर
रचना
विमर्श का विषय...
ReplyDeleteमै तो पैसा बहुत मेहनत से कमाता हुं, इस लिये अग्रेजी नाम देख कर या बडी दुकान देख कर अपनी मेहनत का पेसा नही लुटाता, ओर समान वही से लेता हुं जहां सस्ता ओर विशवास्निया हो, अपने पक्के दुकान दार से, हमारे दुकान दार ने अपना परिवार भी पालना हे,ऊंची दुकान फ़ीका पकवान यह बुजुर्गो की कहावत पल्ले बांध रखी हे,
ReplyDeleteमुझे लगता है ....इस अपसंस्कृति के पीछे अपना अपना टारगेटेड खरीददार वर्ग है |
ReplyDeleteमै जहाँ रहता हूँ वहां तो कोई माल ही नहीं है ...सो क्या कहना ?
कानपुर , इलाहबाद में तो गया भी तो अधिकांशतः घूमने फिरने या ठंडी हवा खाने !
देखिये ना !...कितने लोग हमको सलाह दे चुके हैं ...कि अपने ब्लॉग का क्या नाम रखा है "प्राइमरी का मास्टर" ...इससे बढ़िया तो आप "प्राथमिक शिक्षक " या "A Priamry Teacher " रखते !
थोड़ा अलग हटकर - एक अधिकारी हैं, बड़े पद पर. हमारे दलित भाई ही हैं, आम सभाओं में खूब अच्छा बोलते हैं. लेकिन अनजान लोगों को भ्रमित करते हैं.. कारण यही है कि हमारे ऐसे लोग दलितों में एक नया सवर्ण वर्ग पैदा कर रहे हैं... जो समाज से अपनी आइडेंटिटी छुपाना चाहता है.. पता नहीं क्यों... लगभग कुछ ऐसा ही है...
ReplyDeleteकुछ बातों से आपसे सहमत हूँ मगर गिरधारी संकरियाल जी की बात से भी सहमत हूँ। शुभकामनायें।
ReplyDeleteसुन्दर आलेख. हम भी माल गए और जीरे के बदले सौंप उठा लाये.
ReplyDeleteपहले तो सॉरी बोलूं....पता नहीं ये पोस्ट कैसे छूट गयी...पर देर से आने का फायदा ये हुआ कि पोस्ट के साथ उसका विवेचन करती टिप्पणियाँ भी पढने को मिल गएँ और आपके जबाब भी.
ReplyDeleteहमेशा की तरह बहुत ही बढ़िया आलेख .
सबसे पहले आप लोग को मारे तरफ से स्प्रम नमस्कार, आप का ब्लॉग देखा बहुत अछा लगा आप लोग को भी हमारे तरफ से बहुत बहुत ध्यंयबाद .मे आशा करता हू की आप लोग एसी तहर मेरा साथ दे क्यू के मे इस ब्लॉग जगत मे अभी एक डम अकेले हू ओर आप लोग का साथ लेना चाहता हू
ReplyDeleteसबसे पहले आप लोग को मारे तरफ से स्प्रम नमस्कार, आप का ब्लॉग देखा बहुत अछा लगा आप लोग को भी हमारे तरफ से बहुत बहुत ध्यंयबाद .मे आशा करता हू की आप लोग एसी तहर मेरा साथ दे क्यू के मे इस ब्लॉग जगत मे अभी एक डम अकेले हू ओर आप लोग का साथ लेना चाहता हू
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