Wednesday, October 13, 2010

क्या आप चाहेंगी कि आप, आपकी महरी, महाराज, धोबी, सेवक, बॉस सब एक ही दुकान में टकराएँ?......... ...................घुघूती बासूती

नहीं? तो क्या यह चाहेंगी कि केवल आप ही बढ़िया, उत्कृष्ट ब्रान्डेड सामान खरीदें? क्या सच में किसी सामान का असली मूल्य इस बात पर निर्भर करता है कि वह सामान हमसे ऊँचे वर्ग के लोग उपयोग करते हैं या निचले वर्ग के ? या उसकी अनिवार्यता इस बात पर निर्भर करती है कि हमारे वर्ग के अधिकतर लोगों के पास वह वस्तु है?

क्या किसी रैस्टॉरेन्ट का खाना इस बात से कम या अधिक स्वादिष्ट हो जाता है कि वहाँ खाना कोई जानी मानी हस्ती खा रही है या कोई ऐरा गैरा? यदि आपके सामने वाले मेज पर कोई अभिनेता, क्रिकेटर या कोई जाने माने उद्योगपति बैठे हों तो क्या खाने का स्वाद बेहतर हो जाता है और यदि पड़ोस के होटल का कोई अदना कर्मचारी आकर बैठ जाए तो स्वाद कम हो जाता है?

उत्तर देना कठिन है। बुद्धि कुछ कहती है किन्तु हमारी व्यवहारिकता, जन्म से सीखे हुए संस्कार कुछ और कहते हैं। लोकतन्त्र की बातें नागरिक शास्त्र की पतली पुस्तक में ही दफ़न होकर रह गई है। जो हमारे साथ दशकों से परछाई की तरह चले आ रहे हैं वे हैं संस्कार! हाँ, वे ही संस्कार जिनकी दुहाई यहाँ वहाँ, जब तब दी जाती है। सच में क्या आप मेरी कुछ महीनों पहले तक की पड़ोसिन की तरह कुक के साथ सिनेमा देखने जा सकती हैं?

एक दिन कुक ने बताया कि कल वह और मेरी पड़ोसिन शाहरुख खान की कोई बहुचर्चित फिल्म देखने गई थीं। वे तो मुझे बुलाने को भी कह रही थीं किन्तु कुक ने उन्हें बताया कि मैं तबीयत खराब होने के कारण शायद नहीं ही जाऊँगी सो मुझे नहीं बुलाया। यदि वे मुझे बुलातीं तो क्या मैं जाती? क्या मैं आज तक कभी अपनी किसी महरी, कुक आदि के साथ रिक्शे पर बैठ कहीं गई हूँ? क्या वह और मैं एक सोफे पर बैठ साथ साथ टी वी देखेंगी? क्या मिलकर चाय आदि पिएँगी? नहीं ? तो फिर यह सब समानता के पाठ जो हमने पढ़े व पढ़ाए उनका क्या?

यदि मुम्बई में रहने से यह सब सम्भव है तो मुम्बई धन्य है। मुम्बई मेरा भी उद्धार करो।

बात जो शुरु की थी वह इसलिए कि बिटिया फोन पर बता रही थी कि उसकी महरी लक्ष्मी जो बहुत साफ सुथरा काम करती है, जिसके पास बिटिया के घर की चाभी रहती है, जिसकी पगार बढ़ाते बढ़ाते वह तीन हजार तक ले गई है, जिसके एक बच्चे के स्कूल की फीस वह देती है, जिसके पैरों पर मोटर सायकिल की टक्कर के बाद चोट लगने पर हमने कुर्सी पर बैठाकर स्वयं जमीन पर बैठ साफ सफाई व पट्टी की थी, फिर जवाँई जिसे अपनी कार में बैठाकर उसके घर छोड़ आया था, हाँ वही लक्ष्मी एक नया प्रैशर कुकर खरीदकर अपने घर में खाना पका रही थी और प्रैशर कुकर फट गया। भाग्य से कोई चोट आदि नहीं आई। बिटिया ने ब्रान्ड पूछी तो कोई अनसुनी सी ब्रान्ड थी। बिटिया के यह पूछने पर कि कोई जानी पहचानी ब्रान्ड का प्रैशर कुकर क्यों नहीं खरीदा था उसने कहा कि जिन दुकानों से हम सामान खरीदते हैं वे ऐसी ब्रान्ड नहीं रखते और जैसी दुकानों पर आप जाती हैं वैसी दुकानों में हम कभी गए नहीं ना ही जा सकते हैं।

तबसे वह सोच रही है और उसकी बात सुनने के बाद से मैं सोच रही हूँ कि क्या जिन मॉल्स, दुकानों में हम जाते हैं वहाँ महरी का स्वागत होगा? क्या हम भी यह पसन्द करेंगे कि वह और हम एक ही जगह खरीददारी करें? ऐसा नहीं है कि वह पैसा नहीं खर्च करती। हमसे एक दो सौ रुपए कम का ही जूता वह भी अपने बच्चे को दिलाती है और हमारा ब्रान्डेड सालों साल चलता है और उसके बच्चे का छह महीने भी नहीं। सो वास्तव में उसका जूता हमारे जूते से, उसका प्रैशर कुकर हमारे से अधिक मँहगा होता है। क्या ऐसे अधिक खर्च कर घटिया वस्तु खरीदकर वह समाज में अपने वर्ग का कर/ कर्ज चुका रही है?

मुझे मुम्बई में आजकल खबरों में चर्चित लेखक रोहिन्गटन मिस्त्री के उपन्यास 'सच ए फाइन बैलेन्स' की याद आती है। एक ऐसी पुस्तक जो पत्थर के हृदय को भी निचोड़ दे। जिसमें एक परिवार व विशेषकर एक चाचा भतीजे के सारे कष्टों का कारण उनका निकम्मापन नहीं था, न ही उनकी मन्द बुद्धि थी। उनकी समस्या का कारण उनकी उन्नति करने की चाहत थी। उन्नति की चाहत जो उन्हें चमड़े की साफ सफाई करने से कपड़े सिलने तक ले गई और उसके फल स्वरूप किसी शक्तिशाली वर्ग की नाराजगी से बर्बादी तक।

मैंने कहाँ शुरु किया था और कहाँ अन्त करूँ समझ नहीं पा रही। किन्तु जिस विषय पर मैं बात करना चाह रही हूँ उस विषय के अन्तर्गत आने वाली बातों, समस्याओं का भी तो न कोई प्रारम्भ है और न कोई अन्त। वे तो द्रोपदी की साड़ी की तरह अनन्त हैं। इनपर तो बातें होती रहेंगी। बार बार हमें साहस कर अपने अन्दर झाँकना होगा और सोचना होगा कि क्या कुछ जीवन मूल्य केवल नागरिक शास्त्र की पतली पुस्तक में ही पाए जाने के लिए होते हैं? क्या हम भला करना तो पसन्द करते हैं किन्तु केवल दान की तरह न कि अन्य के अधिकार की तरह! हम वह सब ही करना चाहते हैं जिससे हम अपनी ही दृष्टि में ऊपर उठ जाएँ, वह सब नहीं जो किसी अन्य वर्ग को हमसे ऐसे व्यवहार की अपेक्षा करना सिखाए। अभी तो मैं द्रोपदी की साड़ी के पहले कुछ अँगुल में प्रिन्ट में लिखे सन्देश को पढ़ने की चेष्टा कर रही हूँ। पूरी साड़ी पर लिखे सन्देश तो शायद हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भी नहीं पढ़ पाएँगी।

तब तक कोशिश करने के लिए ही तो कोई मुझे ब्राउनी पॉइन्ट दे!
(हा, क्या यह चिन्तन भी अपने स्वार्थ के लिए?)

घुघूती बासूती

नोटः
1. Brownie point= an imaginary mark given for an attempt to please.( to try to do the right thing?)
2.स्वास्थ्य की समस्या सुलझने तक कुछ पुराने चिन्तन/musings या ब्लाह ब्लाह पोस्ट करने की चेष्टा करूँगी। इतने लम्बे अवकाश से ब्लॉग जगत से नाम ही न काट दिया जाए!
घुघूती बासूती

36 comments:

  1. मेरा जबाब हे हां, ओर यह तो बहुत पहले हो चुका हुं, मेरे लिये सभी एक बराबर हे,इन के साथ बेठना, खाना खाना सब चलता हे,क्योकि इन के बिना हम अधुरे हे, इन की मेहनत से ही हमे सुख मिलता हे, फ़िर यह लोग भी हमारे जेसे ही हे, हां मे बचता हुं तो मक्कर, चालाक, धोखे वाज लोगो से जो मुझे बिलकुल अच्छे नही लगते, इन के संग बेठना तो दुर बात भी करना अच्छा नही लगता

    ReplyDelete
  2. घूघूती जी,

    पोस्ट बढ़िया लगी। मेरे सातवीं या आठवीं क्लास में हिंदी वाली किताब में एक पाठ था जिसमें कि लेखक बताता है कि कैसे एक राजा साहब बीमार पड़ गये, उनके घुटनों में इतना ज्यादा दर्द रहने लगा कि वह आसन से उठ तक नहीं पाते थे।

    उनके बीमारी का इलाज किसी के पास नहीं था। दूर दूर से वैद्य आदि बुलाए गए लेकिन सब निष्फल। राजा साहब खुश थे कि यह राज रोग है और बेहद अनोखे किस्म का रोग है जो किसी सामान्य इंसान को नहीं हो सकता। अपने रोग पर मन ही मन कुछ पुलकित भी थे।

    इधर राजा साहब की सभा में बहस चल रही थी कि तभी किसी ने कहा कि राजा साहब ठीक इसी तरह की बीमारी फलां चपरासी को भी हुई थी।

    बस, इतना सुनना था कि राजा साहब गुस्से में आसन से उठ खड़े हुए कि भला एक अदने से चपरासी को यह रोग कैसे हो सकता है ?

    गुस्सा करते हुए राजा साहब ने सभागार छोड़ दिया लेकिन लेखक खुश था कि चलो चपरासी की बदौलत ही सही, राजा साहब का इलाज तो हो गया, कहां तो राजा बिना सहारे उठ बैठ नहीं सकते थे और अब केवल चपरासी का नाम सुनते ही खुद आसन छोड़ कर खड़े हो गए :)

    इस कहानी में भी ठीक आप की ही तरह मुद्दा उठाया गया है कि हम केवल थोथे भ्रम में जीते हुए कितना कुछ तो चाहे अनचाहे एक किस्म के भंवर में खुद को लपेटे रहते हैं।

    ReplyDelete
  3. यही तो हमारे सच्चे साथी हैं फिर इनसे दूरी कैसी, अच्छी पोस्ट ...

    ReplyDelete
  4. हमेशा की तरह बेहतरीन और संवेदनशील पोस्ट। आपकी ऐसी पोस्टें पढ़कर लगता है कि शब्दों का सफ़र से इतर एक और ब्लॉग बनाना चाहिए ताकि दीगर विषयों पर अपने विचार रख सकूं। फिर लगता है कि फ़िलहाल जो मुहिम हाथ में ली है, वही चलती रहे। कई नावों की सवारी बिगड़ जाती है:)
    बहुत अच्छा लगा। वैसे भी आपका फ़ैन हूं:

    ReplyDelete
  5. आह...
    मर्सीडीज़ का ड्राइवर एंबेसडर कार के ड्राइवर से बड़ा होता है..

    ReplyDelete
  6. आपका ब्लॉग सार्थक ब्लॉगिंग का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। अच्छे लोगों के जीवन में बहुत से टर्निंग पोइंट्स आते हैं जब उनकी नज़र एक सामान्य दृश्य को बिल्कुल अलग से कोण से देखती है। आपकी यह पोस्ट बहुत सारे टर्निंग पोइंट्स प्रस्तुत कर सकती है। आपके बेटी-दामाद को साधुवाद!

    एक प्रश्न है, जहाँ तक मुझे याद है कि भारत में बिकने वाले सारे प्रेशर कुकर आइ एस आइ (या बी आइ एस?) प्रमाणित होने चाहिये थे। क्या अब ऐसा नियम नहीं रहा है या फिर गुणवत्ता के मानक कमज़ोर हुए हैं?

    ReplyDelete
  7. नैतिक शिक्षा देना और उसका पालन करना दोनों अलग बात है ...कम से कम हम सब ऐसा ही करते हैं ...खूब आईना दिखा दिया आपने ..
    बेटी छोटी थी तो मैंने उसे अपने से बड़े सभी बच्चों को भैया और दीदी कहना सिखाया ...एक दिन बड़े प्यार से बोली कि मम्मी. वो भैया और दीदी गेट के बाहर थैला लेकर घूम रहे हैं , वो लोंग स्कूल नहीं जाते ...बाहर देखा तो कचरा बीनने वाले बच्चे थे ...बेटी को उन्हें दीदी और भैया बोलते हुए देख उसे रोकना चाहा तो मन के आईने पर अपनी खुद की नजर पड़ गयी ...
    एक सार्थक पोस्ट के लिए बहुत आभार ...!

    ReplyDelete
  8. हालाँकि आपकी पोस्ट पढ़ी लिखी कुशल महरी से सम्बंधित है , पर इसे पढ़ते हुए मुझे यह वाकया याद आ गया ...

    ReplyDelete
  9. प्रजातंत्र है ,ऐसा होना ठीक बात है

    ReplyDelete
  10. दूरियाँ मन में हैं, किसी को लघुतर क्यों माना जाये?

    ReplyDelete
  11. कहना सरल..करना कठिन...मैं तो राजनिति में था...तो शायद दिखावेवश भी..आदत हो ली थी ऐसी..

    बहुत सार्थक विषय लिया...मगर मुझे शायद आपत्ति न हो मगर अपने ही परिवार की गारंटी लेने में असमर्थ हूँ...सच कहना नहीं चाहता था पर विषय की गंभीरता को नमन करते कह ही दिया.

    ReplyDelete
  12. कहना सरल..करना कठिन...मैं तो राजनिति में था...तो शायद दिखावेवश भी..आदत हो ली थी ऐसी..

    बहुत सार्थक विषय लिया...मगर मुझे शायद आपत्ति न हो मगर अपने ही परिवार की गारंटी लेने में असमर्थ हूँ...सच कहना नहीं चाहता था पर विषय की गंभीरता को नमन करते कह ही दिया.

    ReplyDelete
  13. क्या जिन मॉल्स, दुकानों में हम जाते हैं वहाँ महरी का स्वागत होगा?
    क्या मैं आज तक कभी अपनी किसी महरी, कुक आदि के साथ रिक्शे पर बैठ कहीं गई हूँ? क्या वह और मैं एक सोफे पर बैठ साथ साथ टी वी देखेंगी?
    ..सार्थक विमर्श।
    ..हमारा अहम इसकी इजाजत नहीं देता मगर आदमी कैसा है इसकी पहचान करनी हो तो सबसे सरल तरीका यही है कि यह देखें कि वह अपने से छोटे स्तर के व्यक्ति से किस तरह पेश आता है न कि यह कि वह हमारे साथ कैसा व्यवहार करता है।
    ..प्रशासनिक मजबूरियों छोटे कर्मचारी से दूरी बनाए रखने के लिए बाध्य करती हैं। छोटे कर्मचारियों से अधिक हिलमिल जाने से उनके अनुशासनहीन हो जाने का खतरा भी बना रहता है। लेकिन मानवता का तकाजा तो यही है कि हम सभी के साथ मानवीय व्यवहार करें।

    ReplyDelete
  14. भगवान की नजर मे हम सब बराबर हैं । फिर छोटा क्या और बडा क्या? ये सब तो अमीरों के बनाये चोंचले हैं। अब देखिये मेरी बीमारी अपोलो त्रक मे सम्भव नही हुयी लेकिन घर के एक छोटे से नुस्खे ने ठीक कर दी। आज कल बस नाम बिकते हैं और लोग भेड चाल की तरह भागे रहते हैं। सार्थक चिन्तन। बधाई। बहुत दिन बाद आने के लिये क्षमा चाहती हूँ।।

    ReplyDelete
  15. इंतज़ार खत्म हुआ और एक सार्थक पोस्ट के साथ पूरे तीन-चार हफ़्तों बाद ब्लॉग जगत में आपका पुन:आगमन हुआ,स्वागत है,
    आप चाहते हैं की बाघ और बकरी एक ही तालाब में एक ही समय में पानी पियें ,
    आमीन .......................

    ReplyDelete
  16. फुर्सत से चाय पीना हो या फिर फिल्‍म देखना, यह सारे ही मन को सकून देने वाले कार्य हैं और इसमें आवश्‍यकता होती है अपने एक ऐसे साथी की जिसका मानसिक स्‍तर आप जैसा हो। इसलिए इन क्षणों में तो मैं उन्‍हें ही खोजू्गी। लेकिन यह सच है कि हमारी केयर टेकर ( जी हाँ मैं उसे केयर टेकर ही कहती हूँ) का ख्‍याल रखना हमारा ही कर्तव्‍य ह‍ै। जब वह हमारी सारी ही बातों का इतनी अच्‍छी तरह से ख्‍याल रखती है तो हमें भी बराबरी के लेवल पर उसका ध्‍यान रखना ही चाहिए।

    ReplyDelete
  17. आपने बेहद सार्थक विषय उठाया है और उससे हम सभी कहीं ना कहीं जुडे रहते हैं……………संस्कार भी हावी होते हैं कही तो कही इंसान को जब जरूरत होती है तो संस्कारों को गठरी मे बाँध कर रख देता है …………………आजकल यही हो रहा है……………वैसे हर इंसान को ये हक तो मिलना ही चाहिये मगर सच यही है कि सब ये पूरी सच्चाई से कर नही पाते सिर्फ़ कुछ हद तक ही निभा पाते हैं।

    ReplyDelete
  18. अपने आप को डिक्लास करना बहुत कठिन काम है और अब प्रशासनिक अधिकरियॉ को इस का प्रशिक्षण भी दिया जाता है कि जनता के कितना निकट जायें और कितनी दूरी बनाकर रखें ।
    आम मध्यवर्गीय तो संवेदन शील होता है ।

    ReplyDelete
  19. आपकी पोस्ट पढ़ कर बहुत कुछ मन में विचार उठते हैं ...मुझे लगता है कि आज कल लोंग छोटे बड़े ( आर्थिक रूप से ) में ज्यादा भेद नहीं करते ..घर में काम करने वालों का ज्यादा ख़याल करते हैं ..और इतनी दूरी भी बना कर नहीं रखते जैसा कि पहले ज़माने में था ..
    कुक के साथ यदि पिक्चर देखने गयी हैं आपकी पड़ोसन तो यह उनकी भी ज़रूरत है ..क्यों कि आज कि व्यस्त ज़िंदगी में शायद कोई और नहीं रहा होगा उनका साथ देने को ..परिवर्तन आते हैं समय के साथ और परिस्थिति अनुसार ..
    सच तो यह है कि हमारी मानसिकता का विकास इसी तरह हुआ है ..मॉल में जाना या रेस्टोरेंट में खाना तो एक साथ संभव है ...( जब कभी खरीदारी करते हुए अपने साथ कामवाली को लेकर गए और बाहर ही भोजन करना हुआ तो साथ ही खिलाया ) लेकिन घर पर एक ही टेबल पर बैठ कर खाना या एक ही सोफे पर साथ साथ बैठ कर टी वी देखना ..कुछ अजीब सी ही स्थिति लगती है ...अब भले ही लोंग महान बनाने के लिए यहाँ कुछ भी कहें ...
    लेकिन बाज़ार में ऐसा कोई भेद भाव नहीं होना चाहिए ..घर में भी हर परेशानी में उसकी मदद करना हमारा फर्ज़ है ..बीमारी में अस्पताल में ले जाकर दिखाना ...आराम देना ...समय से दवा के लिए पूछना यह सब तो करना ही चाहिए ...ऐसा मैं करती रही हूँ ..लेकिन घर में साथ बैठ कर खाना ( एक ही टेबल पर ) मेरी मानसिकता ऐसी बन चुकी है कि संभव नहीं है ...
    पर बाहर जाते हुए कार में एक साथ ही गयी भी हूँ और बाहर एक ही टेबल पर खाया भी है ...

    ReplyDelete
  20. Bahut dinon baad aapne likha hai!
    Nahi,mujhe to koyi farq nahi padega gar mai aur meri kaamwali bai ekhi jagah se samaan khareeden yaa ekhee brand ka samaan istemaal karen! Mai aur meri bahan uskee bai ke saath film bhi dekhane jate hain,aur ekhee hotel me khana bhi khate hain.Ham donon ko dekh usne bhee bunkaron se sadiyan lena sguru kar diya hai aur synthetic kapda bilkul nahi pahanti!Train gaadi,bason me ham sab saath baithte hain...jab kabhi plane se jane kee zaroorat hui,use apne saath le gaye hain.

    ReplyDelete
  21. कहते हैं समय सबसे बलवान होता है, वही सामाजिक विभेद को मिटाने में बहुत बडी भूमिका निभा रहा है।
    ................
    वर्धा सम्मेलन: कुछ खट्टा, कुछ मीठा।
    ….अब आप अल्पना जी से विज्ञान समाचार सुनिए।

    ReplyDelete
  22. .बहुत कुछ सोचने -समझने को विवश करता आलेख...वैसे आजकल लोगों की सोच में परिवर्तन आ रहा है...अब कामवाली के साथ व्यवहार में बहुत अंतर आया है...साथ सोफे पर बैठने या साथ टेबल पर खाना खाने के अलावा और कोई भेदभाव नहीं किए जाते. क्यूंकि खासकर महानगरों में वे ही एक अच्छे साथी के रूप में नज़र आती हैं.
    एक कपल ने शाम को अपनी माँ को पार्क में ले जाने की जिम्मेवारी एक कामवाली पर सौंप रखी है. जबकि उनकी माँ ज्यादा वृद्ध नहीं हैं...पर मुंबई में नई हैं. कामवाली उनके साथ पार्क में बेंच पर साथ ही बैठती है.
    बाज़ार का तो क्या कहा जाए, कामवालियों को कोई मना तो नहीं कर सकता...मैने एक मॉल में लाइफ्स्तायील में खुद अपनी आँखों से एक परिवार को देखा है...जहाँ उनकी बेटी ३००० की चप्पल अपनी माँ को दिखा रही थी. पर हाँ सेल्समैन,उनका स्वागत नहीं करते...ये तो सच है...धीरे धीरे ही बदलेगी मानसिकता....पर बदलेगी जरूर

    ReplyDelete
  23. बहुत दिनों बाद आपकी पोस्ट आई |इंतजार का फल मीठा होता है |
    मेरा बेटा एक अंग्रेजी सिनेमा की कहानी बता रहा था नतो मुझे उसका नाम मालूम है पर उसकी बात मेरे मन में बैठ गई |मुझे तो गहने का कभी कोई शौक नहीं रहा ?कितु मेरी बहू को हीरा पहनने का शौक है कितु वह सिनेमा देखकर उसने भी हीरा पहनना छोड़ दिया उस कहानी में हीरो की खदानों में काम करने वालो मजदूरों को काम के बाद अफीम या किसी नशीले पदार्थ की आदत डाल दी जाती है जिससे वह बहर ही न जा सके और खुद न हीरे के व्यापारी बन जाय|सदियों से शोषण होता जा रहा है आदमी अपने से आगे किसी को नहीं देखना चाहता हमेशा पीछे ही देखना चाहता है |क्या हम महरी को हाकिंस का कुकर गिफ्ट में देंगे ?हमरे इंदौर में तो बाजार में दुकानों पर बाकायदा लिखा मिलेगा लेने देने की sadiya |मॉल में जब कोई महरी या धोबी जाते है तो दुकानदार तो उतना ही स्वगत करते है कितु हमारे मन में जरुर यह भाव आ जाते है अब ये भी यहाँ से सामान खरीदेंगे ?
    तो हाथी के दन्त दिखाने के और होते है और खाने के और होते है |
    बहुत ही विचारणीय पोस्ट |हम उनकी मदद भी इसलिए करते है की हमे उनसे काम करवाना होता है |

    ReplyDelete
  24. निज स्वार्थ पूर्ती के लिए दूसरों के लिए भी कुछ करने के लिए तत्पर रहना पड़ता है . . विचारणीय पोस्ट .. आभार

    ReplyDelete
  25. काफी सोचने पर मजबूर करती है आपकी पोस्ट. परन्तु आजकल बहुत परिवर्तन है माहोल में घर में मदद करने वालों के साथ ऐसा भेदभाव नहीं किया जाता जैसा पहले किया जाता था. वे घर के सदस्य बेशक न हों पर घर जैसे ही तो होते ही हैं.मेरे पास इंडिया में एक लड़की काम करती थी जो अपना काम निबटा कर मेरे पास बैठकर चाय पीती थी और टीवी देखती थी ,जिसे हम अपने साथ मैकडॉनाल्स ले जाते थे और वह साथ बैठकर ही बर्गर खाती थी.वो हमारी जरुरत होते हैं और उनका ख्याल हमें रखना चाहिए.

    ReplyDelete
  26. मानवता का तकाजा तो यही है कि हम सभी के साथ मानवीय व्यवहार करें।

    ReplyDelete
  27. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  28. निश्चय ही आपकी सोच को उम्दा कहा जा सकता है जिसकी वजह से आप ऐसे मुद्दों पर सार्थक लिख रहीं हैं ..लेकिन समस्या तब आती है जब आप कुछ बहुत ही अच्छा करना चाहें तब चारो तरफ से आपका विरोध होने लगे ...ऐसे में किसी भी व्यक्ति को व्यवहारिक स्तर पर अपने उम्दा विचारों को लागू करने में कठिनाइयों का सामना करना परता है ..इन सबके बाबजूद आज भी ऐसे लोग हैं जो आर्थिक सम्पन्नता या विपन्नता के भेद भाव के बिना हर इंसान से आदर से मिलना और उसकी सुनना तथा उससे कुछ कहने का निरंतर प्रयास करतें हैं ...लेकिन इस संवेदना विहीन होती संसार में ऐसे लोगों की संख्या लगातार घटकर ख़त्म होने के कगार पर पहुँचने वाली है और सबसे दुर्भाग्यजनक और चिंता की बात यही है ....एक बात और कहना चाहूँगा की सामाजिक असंतुलन सरकार द्वारा प्रायोजित हो रहा है यह सबसे खतरनाक बात है इंसानियत के लिए ...

    ReplyDelete
  29. आपकी पोस्ट पढ़ा कर दो पुराने किस्से याद आ गये बचपन में हमारे घर में रोज टॉयलेट धोने और कूड़ा उठाने के लिए एक बूढी महिला आती थी एक दिन जैसे ही वो घर से बाहर निकली उनको कुत्ते ने काट लिया हम सभी ने देख मेरी दादी ने तुरंत पापा को उन्हें अस्पताल ले जाने को कहा उनका हा पापा जब घर आये तो दादी ने उनके कपडे धुलने के लिए डाल दिया और उन्हें नहाने के लिए कहा ये बस सफाई के नजरिये से था क्योकि वो उस समय टायलेट धो कर गई थी और उसके बाद वो खुद उनको अस्पताल ले जा कर १४ टिके लगवाए जो की वो चाहती तो बाद में उसकी जिमेदारी नहीं ले सकती थी | दूसरी बात मेरी सगाई की है सगाई के बाद सभी के पैर छूने की रस्म हुई तो मैंने सबके साथ अपने घर काम करने वाली मेहरी के भी पैर छुए वो हमारे घर १५ सालो से काम कर रही थी और उनकी बेटी मेरे बराबर ही थी जबकि हम अक्सर उनको देर से आने पर या ज्यादा छुट्टिया लेने पर चिल्लाने लगते थे वो चुचाप सुन लेती थी फिर भी वो हमरे लिए घर के सदस्य की तरह थी और उनको हम दूसरे तरह का सम्मान देते थे घर के कई उत्सवों में वो हमारे साथ ही बैठ कर खाती थी उस दिन वो पूरे समय हमारे साथ रहती थी | पर ये सब आज और मुंबई में संभव नहीं है हम अपने घर में काम करने वाली से ऊँची आवाज में बात नहीं कर सकते है उस पर चिल्ला नहीं सकते है क्योकि उसका भी एक इज्जत है पर हा शायद अब मेरी बेटी उनके पैर ना छुए और उन्हें वो सम्मान ना दे | सम्मान तो हम यहाँ भी दे रहे है पर अब वो परिवार के सदस्य वाली बात नहीं रह जाती है | रही बात दुकान में समान लेने की तो जी ये तो यहाँ बड़े आराम से हो रहा है सबसे सस्ता और सबसे सस्ता का प्रचार करने वाले के माल में तो मै हर तबके के लोगों को देखती हु |

    ReplyDelete
  30. हमेशा की तरह सुचिंतित पोस्ट ! इस मुद्दे पर फिर कभी चर्चा करेंगे !

    ReplyDelete
  31. नेट पर बैठते ही आपका ब्लॉग अवश्य खंगालता हूँ. और अबकी बार भी आपका लेख सार्थक लगा, हमेशा की तरह. सुन्दर.

    ReplyDelete
  32. इतने दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आ पायी. हाँ, मैं भी आपके जैसा सोचती हूँ. हमेशा आपके विचार मुझे मेरे विचारों जैसे ही लगते हैं. मैं अपने घर काम करने वाली भाभी जी को कभी छोटा नहीं समझती थी, अब तो खैर मैं अपना काम खुद ही करती हूँ. मैं जब भी इन लोगों को इस तरह सस्ता सामान खरीदते देखती, तो कुछ पैसे देकर अच्छा सामान लेने को कहती थी या अपना ही सामान दे देती थी. पर मेरे ऐसे व्यवहार के कारण मेरे दोस्त मुझे अव्यावहारिक समझते हैं. उन्हें लगता है कि कोई ऐसे ही बेवकूफ बनाकर मेरा सारा सामान लूट ले जाएगा. जैसे सभी गरीब चोर होते हों. कभी -कभी लगता है कि ऐसे दोस्तों से सम्बन्ध खत्म कर लूँ, पर वो भी मुमकिन नहीं.
    तो मैं जैसी हूँ वैसी ही अच्छी. अच्छा लगता है जब आप और आप जैसे और लोगों को पढ़ती हूँ कि मेरे जैसे सोचने वाले और लोग भी हैं.
    लेकिन मॉल कल्चर से तो मैं भी डरती हूँ. ये गरीब लोग बड़े स्टोरों और मॉल में जाने का साहस कैसे कर सकते हैं?

    ReplyDelete
  33. बहुत ही गंभीर विषय पर सार्थक लेखन. यह दूरियां अब कम होती जा रही हैं.

    ReplyDelete
  34. mukesh menaria udaipur2:33 pm

    kahani bahut hi achi he or me to yeh sochta hu ki aaj jo hum jis sabhyata me rah rahe he wo sab isi varg ki den he or inke bina jiwan ki kalpana nahi ki ja sakti.jab hum ghar me to inke hath ka bana khana khate he or ghar ke bahar hi inse itni duri kyu rakhte he.

    ReplyDelete
  35. Dear ghughuti
    nice blog.Par ghughuti ji barso se ye bhedbhav hamari rago me bas gaya he. Me apni servent ka bohot khayal rakhti hu,in terms i respect her but i wont allow her to sit beside me.Ek rajasthani thakur ghar me meri shaadi hui he.servent word is a puzzle ,even i am a servant to government i get payed by government and my servant get paid by me,there is no difference when it comes to logic but sadiyo ki pratha ka kya. jo tumhare yaha nauker he wo tumhare equal nahi he ,ye hi soch he jo aapke vichar k peeche shayad kaam karti he.anyways i hope i will come over of this supriority complex soon.
    regards
    udaan

    ReplyDelete