Thursday, September 09, 2010

प्रेम, मोह, लगाव, पसन्द क्या कन्डिशनल, परिस्थितिजन्य, सुविधानुसार, सशर्त, सापेक्ष है?

बहुत सुन्दर वर्षा हो रही है। खिड़की से बाहर देखती हूँ तो मन वैसे ही नाच उठता है जैसे पिछले वर्ष तक इस मौसम में मेरे घर के आसपास मोर! मन प्रसन्न है आह्लादित है। तभी एक विचार आता है कि यदि मैं खिड़की के उस पार होती तो? यदि मेरे सिर के ऊपर छत न होती, यदि मेरा सारा मकान वर्षा में भी सूखा न होता तो? याद करती हूँ कि जब कई दिन वर्षा होती रहे और कपड़े सूख न रहे हों तो यही बचपन से मेरी प्रिय वर्षा थोड़ी कम प्रिय हो जाती है। यदि छत टपक रही हो, कपड़ों, खाद्य सामग्री आदि में फफूँदी लग रही हो, तब? याद आती है गुजरात के भूकम्प के बाद की वह पहली वर्षा जब पता चला था कि मकान में कितनी जगह अदृष्य दरारें पड़ गईं थीं। जब ठीक गैस के चूल्हे के ऊपर पानी टपक रहा था। बच्चों के कमरे में छत बीचों बीच से मानो दो में विभाजित हो गई थी। कमरे में बाल्टियों पानी भर गया था। किन्तु बच्चे तो घर में थे ही नहीं सो केवल दोनों पलंग अलग कर बीच में टब, बाल्टियाँ आदि लगाकर काम चल गया था। फिर वह तो कम्पनी का मकान था सो जैसे ही कुछ दिन सूर्य चमका मरम्मत भी हो गई थी।

जिनके पास मकान ही नहीं हैं? झोंपड़ी वाले? उनका क्या? इस शहर में केवल दो बाँसों पर फटे पुराने कपड़ों, पॉलीथीन शीट्स आदि से तम्बू सा तान देने वाले? उनका तो फर्श ही नहीं होगा। नीचे कीचड़ और ऊपर से टपकता पानी! और वे जिन्हें यह भी नहीं मिलता?

सो एक ही वस्तु को हम इस पार या उस पार से अलग अलग दृष्टि से देखते हैं। सो कोई तथ्य देखने या अनुभव करने वाले की स्थिति बदलने पर अच्छे से बुरा,प्रिय से अप्रिय हो जाता है। तो क्या हमारा वस्तुओं, पदार्थों, ॠतुओं, मनुष्यों से मोह, प्रेम, लगाव क्या केवल परिस्थितिजन्य, सापेक्ष, शर्तबद्ध है? वही व्यक्ति जिसपर हम कभी जान छिड़कते थे, सम्बन्ध विच्छेद या विवाह विच्छेद के बाद इतना असह्य,अद्रष्टव्य,अश्राव्य क्यों हो जाता है? वस्तु,पदार्थ,ॠतु,अन्य व्यक्ति तो शायद जब वही रहे तब भी हमारा उससे प्रेम हमारी अपनी स्थिति-भौतिक,मानसिक या हम किस जगह खड़े हैं,पर निर्भर करता है?


एक छोटा सा किस्सा याद आया। एक नवविवाहिता गृहणी ने पति के लिए बीन्स(फलियों)की सब्जी बनाई। बीन्स पति की प्रिय सब्जी थी सो पति को बहुत अधिक पसन्द आई। उसने पत्नी का हाथ चूम लिया। अगले दिन जब वह फिर काम से लौटा तो पत्नी ने बीन्स बनाईं थीं। उसने खाईं और स्वाद को सराहा। तीसरे दिन भी बीन्स बनीं थीं। उसकी भवें टेढ़ीं हुईं किन्तु पत्नी तो नई नवेली थी सो उसने सब्जी चुपचाप खा ली। चौथे दिन भी बीन्स ही बनीं थीं। वह नाराज हुआ बोला कि यह रोज़ रोज़ बीन्स क्यों बनाती हो? पाचवें दिन भी जब बीन्स बनीं तो उसने सब्जी का बर्तन उठाकर पटक दिया। वह बड़बड़ाता हुआ घर से बाहर चले गया। पत्नी दर्पण के सामने आई और मुस्करा कर बोली, "आह बेबी, तुम कितनी चतुर हो! अब जीवन में फिर कभी तुम्हें उन गंधेली बेस्वाद बीन्स को ना देखना, ना खरीदना, ना बनाना, ना खाना पड़ेगा! अब वह भी बीन्स से वैसे ही चिढ़ेगा जैसे तुम! तुम सच में जीनियस हो!"


हेहेहे, पाँच दिन लगातार खाने, परसे जाने, देखने से ही पति का बीन्स प्रेम कपूर की तरह हवा में उड़ गया था। क्या यही है सापेक्ष, शर्तबद्ध, परिस्थितिजन्य प्रेम!सच तो यह है कि लगभग सभी प्रेम व मोह ऐसे ही होते हैं। अनुकूल हैं तो बल्ले बल्ले, प्रतिकूल हो गए तो छिः! वह तो कुछ विरले यह सोच कि आज न भी करती हूँ / करता हूँ तो कल तो मैं इस व्यक्ति, वस्तु, पदार्थ या ॠतु पर जान छिड़कती थी / छिड़कता था, तो आज कमसे कम उससे चिढ़ का ढिंढोरा तो न पीटूँ। उसको सम्मान न भी दूँ तो अपनी उस पूर्व मधुर भावना व उन स्मृतियों को तो सम्मान दूँ। क्योंकि आज वह मेरी / मेरा न भी हो तो वह पूर्व मधुर भावना व वे स्मृतियाँ तो मेरी बहुत अपनी हैं। है न विचित्र बात!

घुघूती बासूती

30 comments:

  1. बहुत सही एवं सटीक!

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  2. Bade achhe mood me likha hai!
    Waise ye sab baten sapaksh/hypothetical hoti hain!
    Mere blog,"Bikhare Sitare"ko aapka intezaar hai.

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  3. भले ही विचित्र हो लेकिन है तो ऐसा ही.

    बढ़िया आलेख...

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  4. सही कहा जी, समय बडा बलवान!

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  5. अकेले में इसी तरह के विचार मन में उठते हैं. आनंद आ गया. आभार.

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  6. आपकी बीन्स वाली कहानी हमारे घर में भी पढ़ ली गयी है। अब तो मेरी भी बीन बजने वाली है।

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  7. चतुर बीबी की कहानी में एक लोचा है :)

    उसके प्रकरण में ,मैं बीन्स और बीबी की पुनरावृत्ति में साम्य ढूंढ रहा हूं !

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  8. पसंद की पुनरावृति क्रोध में बदल जाती है किन्तु इतनी चतुराई क्या खुद पर भी लागूहोगी ?
    लगातार बारिश का होना मुझे भी खूब सुहाता है जैसे ही बाहर(आंगन में ) निकली पड़ोस की नमिता अपनी स्कूटी निकाल रही और कहे जा रही थी अब तो बारिश बंद हो तो चैन आये |मैंने कहा -
    बरसने दो न कितनी मुश्किल से तो आती है पहले तो लगातार ८ दिन की झड़ी लगती थी |आंटी !सडक के गड्ढो , ट्रेफिक के बीच १० किलोमीटर तक स्कूटी चलाकर जाना भीगते हुए ऑफिस जाना
    सारा आनन्द काफूर हो जाता है |मै सोचती रही झोपडी के गीलेपन के साथ एक यह भी एक पहलू है |
    अच्छा आलेख |

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  9. सब कुछ अब कंडीशन के साथ आता है.
    शादी के बाद पति-पत्नी को एक दूसरे से व्यवहार में भी कंडीशंस लगने लगी हैं. यदि तुम ऐसा करोगे तो मैं ऐसा करूंगी. क्या ज़रूरी हैं कि मैं ऐसा करूं तो तुम भी वैसा ही करो?
    दफ्तर में एक लड़के की शादी के चंद दिनों बाद उसने सबको मजे लेकर सुनाया. "उसे (पत्नी) को चाट अच्छी लगती है. मैं उसे लगातार दस दिनों तक चौक पर ले जाकर रोज़ चाट खिलाता रहा. एक दिन उसने खुद ही मना कर दिया. अब साली ज़िंदगी बार चाट खाने की बात नहीं करेगी".
    यह आदमी अपनी नई ब्याहता के बारे में ऐसी बातें कितनी बेतकल्लुफी से कर रहा था! यह देखकर मैं हैरान रह गया.
    आदमी बहुत बुद्धिमान हो गया है. अब यह ज़रूरी हो गया है कि हर बात में गुणा-भाग-जोड़-घटान करके देख लिया जाय कि इससे खुद को कोई परेशानी तो नहीं होगी.
    इससे भी आगे, लोग दूर का फायदा देखने के लिए हाल की मुश्किल झेलने को तैयार होने लगे हैं.
    क्या कहा जाय. इतना तो कह दिया.

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  10. विचित्र होते हुए भी सत्य को इंगित किया है ...सटीक अभिव्यक्ति

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  11. अरे वाह ...क्या नुस्खा दे दिया आपने तो ...हम भी आजमाएंगे :)

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  12. बहुत ही गहरी बात लिख दी है....एक सी चीज़ें ही दो लोगों के लिए अलग-अलग मायने रखती हैं....मैं भी जब कहती हूँ...मुझे बारिश बहुत पसंद है तो ऑफिस जाने वाले लोग कहते हैं..हमारा हाल पूछो...गीले कपड़ों में ए.सी. में बैठ कर क्या हालत होती है.
    सार्थक चिंतन.

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  13. "अति सर्वत्र वर्जते" मनुष्य प्राणी मात्र में सबसे संवेदन शील प्राणी है वह हमेश परिवर्तन चाहता है जब किस वस्तु की, या किसी भी क्रिया की प्रुन्रावृति होती है तो वह उससे उकता जाता है चाहे वह अति वर्षात हो , या नव विवाहिता की बनायीं हुई बीन्स की सब्जी हो आखिर उकता तो जायेंगे ही . क्योंकि मनुष्य परिवर्तन शील है. यही कारण है उसने वैज्ञानिक उन्नति भी की है इसलिए सभी कुछ प्राकृतिक रूप से घटित होता रहता है. विषय अच्छा है

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  14. विचित्र कहाँ ये तो सत्य है……………बस परिस्थितियाँ उसका रंग बदलती हैं मगर सच तो कभी नही बदलता।

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  15. रिमझिम बारिश की तरह भीग गया मन, आपकी शब्दवर्षा में।
    ………….
    गणेशोत्सव: क्या आप तैयार हैं?

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  16. बदलती हुई परिस्थितियां हमारे सोंच पर गहरा प्रभाव डालती हैं .. और ऐसा होना भी चाहिए !!

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  17. परिस्थितिजन्य प्रेम!सच तो यह है कि लगभग सभी प्रेम व मोह ऐसे ही होते हैं। अनुकूल हैं तो बल्ले बल्ले, प्रतिकूल हो गए तो छिः! .....
    उसको सम्मान न भी दूँ तो अपनी उस पूर्व मधुर भावना व उन स्मृतियों को तो सम्मान दूँ। क्योंकि आज वह मेरी / मेरा न भी हो तो वह पूर्व मधुर भावना व वे स्मृतियाँ तो मेरी बहुत अपनी हैं। है न विचित्र बात!
    ...bahut saarthak aalekh...

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  18. बहुत सार्थक आलेख...

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  19. अब यह पढ्कर पता चल गया आदत कैसे छुडायी जा साकती है

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  20. यह मनुष्य का स्वभाव है जब उसके अनुकूल बाते होती है तो उसे सब अच्छा लगता है पर प्रतिकूल बात होते ही वो भगवान में भी विश्वास छोड़ देता है | पर जो प्रेम परिस्थिति के कारण है असल में वो प्रेम है ही नहीं वो बस लगाव है जिसे प्रेम समझने की भूल हम कर बैठते है | सच्चा प्रेम कभी किसी चीज पर निर्भर नहीं होता है | आज तो पति पत्नी का रिश्ता बनता ही शर्तो पर है लड़की इतनी लम्बी गोरी खुबसुरत पढ़ी लिखी हुई तो ही शादी होगी और लड़का इतना कमाने वाला हेंडसम लम्बा हुआ तो ही शादी होगी | तो जब शादी ही शर्तो के अनुसार है तो रिश्ता भी हमेशा शर्तो के साथ ही जुड़ा रहेगा|

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  21. अपने भारत कुमार जी पर फ़िल्माया गया गाना है न,
    "कोई शर्त होती नहीं प्यार में....’
    समय के साथ साथ प्यार के मायने भी बदल गये हैं। फ़िल्में अगर समाज का आईना हैं तो डर जैसी फ़िल्मों में प्यार का जो रूप दिखाया है, वह समाज की वैल्यूज़ का बदलता आईना है। कल तक जो स्वभाव की विशेषता होती थी वो आज कमियां हैं और जो कल तक कमियां थीं, वो आज खासियतें।
    यही सब देखकर जीना है जी।

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  22. आपकी पोस्ट और प्रवीण जी की टिप्पणी दोनो पढकर दिल बाग बाग हो गया.. अभी भी मुस्करा रहा हूँ :-)

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  23. प्रेम,मोह,लगाव,और भी बहुत.........सीखाती तो परिस्थितियाँ ही है.......वे जिन्हें मिट्टी में खेलेने नहीं मिलता...सौंधी खुशबू को महसूस नहीं कर पाते ........

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  24. घुघूती जे इस दुनिया मे सब कुछ क्षणिक है जो हम इस समय देख रहे हैं वो सच लगता है लेकिन ये सच उस समय का ही सच होता है। अगर हम हंस रहे हैं तो वो भी क्षणिक है दूसरे पल अगर रो रहे हैं तो भी क्षणिक है कुछ भी स्थिर नही तो मन भी स्थिर नही। इस लिये दुनियां का हर चीज क्षणिक है। जो अब अच्छा लगता है कल नही लगेगा क्यों कि वो क्षण वहीं समाप्त हो जाता है। बहुत विचारणीय पोस्ट है। धन्यवाद।

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  25. हाहा..बीन्स वाला किस्सा तो गज़ब का था!!

    और रही बात स्थिति को देखने की तो यह तो सच ही है कि जो हमारे लिए सही है, जिससे हम खुश हैं.. शायद वही चीज़ हमारे पडोसी को नागंवारा होगी..

    सबकी अपनी-अपनी सोच और अपनी-अपनी पसंद है!!

    किस-किसकी सोचेंगे? और किस-किसको खुश रखेंगे?

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  26. बहुत सुन्दर रचना ।

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  27. घुघुतीजी..नमस्कार...विचित्र किंतु सत्य... ऐसा ही होता है अक्सर...इसलिए रिश्तों को खासकर खुली हथेली में रखने मे विश्वास है..

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  28. Very accurate and you compiled well..

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  29. आपका लेख पढ़ा. आपने कुछ घालमेल सा कर दिया. परन्तु आपके ब्लॉग के साथ पाठकों के कमेण्ट्स भी घालमेल वाले ही लगे. जिनेटिक्स के सिद्धांतों के अनुसार पुरुष स्वभाव से ही स्वाद, संग व कार्यों में विविधता के प्रति रुझान रखते हैं जबकि स्त्रियों प्रायः सज्जा, सजावट व सौन्दर्य विन्यास के वैविध्य में. कारण स्पष्ट है. हमारे जीन हमें प्रेरित करते हैं कि हम इस मिश्रित लिंगी समाज में अधिक सफल हों व हमारे जीन अगली पीढ़ी में व उससे भी आगे सुगमता से यात्रा कर सकें. जीवों में जीन के अगली पीढ़ी में स्थापित होने के लिये आवश्यक है कि मैथुन के लिये स्त्री पुरुष को प्रेरित करने, मैथुन काल के कामोन्माद के बाद मैथुन की परिणति, सृजन, को स्त्री के शरीर में रखने व प्रसवोपरांत नवजात के स्वावलम्बन तक स्त्री पुरुष के मध्य एक दीर्घकालीन सम्बंध बने जो मात्र यौन क्रिया तक ही सीमित न हो.
    अतः जिसे हम प्रेम समझते हैं, वह प्रकृति प्रदत्त जीन सुरक्षा साधन है जो हमें विपरीत लिंग के प्रति आकर्षित करने के साथ साथ पारिवारिक बनाता है, जिसमें "अहम्" के बाद "आवाम्" व बाद में "वयम्" का सृजन होता है. पारिवारिक संबंधों, रिश्तेदारी, रक्त संबंध आदि सभी के मूल में हमारे जीन की अमरत्व की प्रबल आकांक्षा है. बस यही प्रेम है.

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