रश्मि रविजा का लेख ' कितने युग और लगेंगे इस मानसिकता को बदलने में??' पढ़ा। उन्होंने लेख में बेटी के विवाह के समय वर पक्ष द्वारा उसके माता पिता का घोर अनादर किए जाने की घटना बताई है। यह होता रहता है। समाज में ऐसे व्यवहार को बहुत सही न भी कहा जाए तो भी उसे सहा जाता है। वह व्यवहार वर पक्ष से कुछ कुछ अपेक्षित भी होता है। ठीक वैसे ही जैसे कुछ समय पहले तक पति द्वारा पत्नी को डाँटा जाना, पत्नी का पति से कुछ भी ( खाना खाने पकाने, कपड़े धोने, घर की सफाई आदि से कुछ बड़ा काम ) करने से पहले अनुमति लेना, पति का घर के काम में हाथ न बँटाना आदि सब अपेक्षित व्यवहार होते थे। यदि कोई इससे हटकर काम करता था तो उस सामान्य व्यवहार को महान की श्रेणी में डाल दिया जाता था। यदि कोई पति पत्नी को डाँटता नहीं था, उसे अपने मन का करने देता था,( तो विचित्र क्या हुआ? क्यों भाई, प्रकृति ने मन और दिया ही क्यों था उसे?) घर के काम कर देता था, बच्चे की नैपी बदल देता था, रोते बच्चे को चुप करा देता था तो स्त्री को ऐसा लगता था जैसे पिछले जन्म में उसने ना जाने क्या पु्ण्य किए थे कि उसे ऐसा पति मिला। वह यह नहीं सोचती थी कि ऐसा ही पति मिलना उसका अधिकार है। जिसका पति यह सब नहीं करता वह दुर्भाग्यवान है, उसे पति के व्यवहार में बदलाव की माँग व कोशिश करनी चाहिए।
हाँ, तो अब आते हैं रश्मि द्वारा बताई घटना पर। वे बता रही थीं को २५० की बजाए बरात में ५०० लोग आ गए थे सो खाना कम पड़ गया। अब एक दिन यदि ना खाएँ, कम खाएँ, देर से खा लें तो वर पक्ष की नाक न कट जाएगी? अब कुछ लोगों की नाक कटती भी क्या है, टपक पड़ती है। कटी तो पहले से होती है वह तो वे गोंद से चिपकाए घूम रहे होते हैं, सो कभी भी गिर सकती है। ऐसे ही पहले से कटी नाक वाले लोगों को अपनी नाक का अधिक ही ध्यान रहता है। अब आपके शरीर का जो अंग ठीक ठाक काम कर रहा होता है आपको उसके होने का अहसास ही कहाँ होता है? जो अंग दर्द कर रहा हो, बीमार हो उस ही का आभास हर पल रहता है। सो उनकी नाक की समस्या तो समझ आ सकती है।
२५० की जगह ५०० लोग इसलिए आए होंगे क्योंकि कन्या पक्ष वर पक्ष के शहर में आकर विवाह करने को मान गए होंगे। अब जब पैसा किसी और की जेब से जा रहा हो तो सगे सम्बन्धी ही क्या, दोस्त के दोस्त, दोस्त के दोस्त का चाचा, जीजा, भतीजा सबको सपरिवार खुला निमन्त्रण रहा होगा। शायद वर पक्ष के घर के माली, धोबी, महरी से लेकर उनका पान वाला ,रद्दी वाला सभी जीमने पहुँचे हों। अपनी दरियादिली और पौरुष भी दिखाने का ऐसा सुअवसर फिर कब आने वाला था? लड़की वालों को जो मजा उन्होंने छकाया उसके जितने अधिक दर्शक हों उतना ही बेहतर। यह क्या कि आप कुश्ती लड़ें और दूसरे को धूल भी चटवा दें और कोई ताली बजाने वाला भी न हो? यदि यही अपने पैसे से बारात लेकर दूसरे शहर जाना होता तो शायद एक बस भर लोग ही जाते। (हाँ जानती हूँ कि शायद बस का पैसा भी लड़की वालों को देना होता होगा! क्यों नहीं? लड़के के जन्म के समय के हस्पताल के बिल भी सुरक्षित रखने चाहिए तो वे भी लड़की वालों को पकड़ाए जा सकते हैं!) किन्तु फिर भी जाने में मेहनत लगती, एक छुट्टी तो लेनी ही पड़ती, अपना काम छोड़कर आना पड़ता तो मनुष्य जरा सोचकर ही आता।
अब आते हैं इस बात पर कि इतना अपमान सहकर भी कन्या पक्ष चुप क्यों रह जाता है। इसके कई कारण हैं। कुछ तो सामाजिक हैं।
शुरू से हमें यह सिखाया जाता है कि वर पक्ष महान है व कन्या पक्ष याचक जबकि कन्यादान भी वही लेते हैं। सो याचक कौन है यह समझना कोई कठिन नहीं है।
इसके अतिरिक्त यह भी कारण है कि बेटी को इसी विपक्ष के बीच जाकर रहना है वह भी बिना तलवार या ढाल! सो उनसे पंगा लेकर उन्हीं के घर असहाय बिटिया को कैसे भेजा जा सकता है? सो बेहतर है कि मक्खन लगाए जाओ और मनाए जाओ कि बिटिया सुरक्षित रहेगी।
तीसरा और महत्वपूर्ण कारण है इज्जत! यदि बारात लौट गई तो इज्जत भी चली जाएगी।
चौथा और बहुत ही बुनियादी कारण है इतने बड़े खर्चे की बरबादी। सालों से बचाया पैसा, कभी कभी उधार लिया पैसा, कभी भविष्य निधि से निकाला पैसा इस विवाह के यज्ञ में भेंट चढ़ा होता है। अब यह सब बरबाद कैसे होने दिया जाए? सो जैसे भी हो खुशामद कर बिटिया का विवाह सम्पन्न करा उसे विदा किया जाए। यह सोचे बिना कि जो लोग विवाह मंडप पर ऐसे नाटक कर रहे हैं वे लोग कैसा परिवार सिद्ध होंगे। क्योंकि इतना पैसा जुए में लग चुका होता है सो और भी फेंका जाता है। बाज़ार के इस मूलमंत्र को भूलकर कि कभी कभी हमें अपनी कम से कम हानि करवाकर जो हाथ में आए उसे लेकर बाज़ार से निकल लेना चाहिए। जब जब निवेशक पूरा पैसा वापिस पाने को छटपटाता है तो दलदल में और भी डूबता जाता है। अब जो विवाह हुआ ही पैसे के बल पर है उसमें कन्या पक्ष निवेशक समान तो हुआ ही!दुल्हे के लिए जो पैसा माँगा गया वह लागत तो हुई ही। यह भी एक वित्तीय व्यवहार है, जिसमें पैसे का आदान प्रदान हुआ।
ये ही वे कारण हैं जो ऐसे निर्लज्ज बारातियों को दो लात जमाने से कन्यापक्ष को रोकते हैं। यदि ये कारण दूर कर दिए जाएँ तो कन्या पक्ष भी मानव की तरह आत्मसम्मान वाला व्यवहार करेगा व उसकी अपेक्षा भी करेगा और ऐसा ही व्यवहार पाएगा भी।
विवाह यदि लड़की के ही शहर में हो, यदि वह कम खर्च में सादा हो, यदि पूरे मौहल्ले, कस्बे, शहर को ना बुलाया जाए तो यदि स्थिति बिगड़े, यदि वरपक्ष का व्यवहार बुरा हो जाए तो आराम से उनसे कहा जा सकता है कि नमस्ते आप चलिए। ना तो आपका बहुत बड़ा तमाशा बनेगा, न ही बहुत बड़ी आर्थिक हानि ही होगी।
मैंने भी ऐसे ही एक विवाह के बारे में सुन रखा है। प्रकृति ने एक बड़ा समुद्री तूफान लाकर मुझे उस विवाह को देखने व कन्या पक्ष की तरफ से वहाँ जाकर उस लड़की का,उसके माता पिता का, उनके सगे सम्बन्धियों का अनादर देखने से व अपना भी अनादर होने से बचा दिया। उस तूफान के कारण हम विवाह में नहीं जा पाए। जब उस विवाह के बारे में सोचती हूँ तो यही समझ पाती हूँ कि वे लोग असहाय केवल इसलिए हुए क्योंकि..
१ वे अपने शहर में नहीं लड़के के शहर में थे।
२ उन्होंने इतने लोगों को बुला रखा था कि ऐसे में अपनी इज्जत बचाकर इतने बेशर्म परिवार में भी बेटी का विवाह कर दिया।
३ इतना जबर्दस्त प्रबन्ध किया था कि उसे बर्बाद होने से बचाना ही उचित समझा।
४ वरपक्ष की संख्या भी इतनी अधिक थी वही ५०० जैसी कि उस भीड़ में मनुष्य शायद उचित अनुचित के बारे में सोच भी नहीं सका।
५ जिस विवाह(wedding) की इतनी हाइप हुई हो उसे फ्लॉप शो कैसे होने दिया जाए। यह और बात है कि wedding सफल रही विवाह (marriage)नहीं।
यही यदि रेजिस्टर्ड विवाह हो रहा होता तो शायद कन्या पक्ष को बिल्कुल भी झुकना न पड़ता। संसार का नियम है जो झुके उसे झुकाओ। सो वह लड़की झुकती गई तब तक जब तक विवाह बन्धन का इलास्टिक खिंचते खिंचते टूट नहीं गया। अब न बन्धन है न झुकना केवल कड़वाहट बची है।
प्रायः हम यह सोचते हैं कि प्रेम विवाह व स्त्री का स्वावलम्बी होना हमें इस स्थिति से बचा सकते हैं। वे बचाते भी हैं परन्तु सदा नहीं। क्योंकि ७०० या ८०० की उस भीड़ में स्वावलम्बी स्त्री व उसका प्रेमी भी भीड़ का ही हिस्सा बन भीड़ सा सोचने लगते हैं। और फिर एक बुरी शुरुआत एक बुरे अन्त की ओर उन्हें बहाए ले जाती है। वर के माता पिता एक बार चखी जीत को बार बार आजमाते हैं चाहे ऐसा करने में उनके ही पुत्र का विवाह ही क्यों न टूट जाए। पुत्र ने भी देखा होता है कि जोर जबर्दस्ती के आगे पत्नी व उसका परिवार झुके थे सो उसे उस शक्ति में मजा आने लगा। विवाह के दिन की कड़ुवाहट तो थी ही फिर यह भी पता था कि उसके माता पिता गलत थे और उन्हें सही सिद्ध करने की जिद भी थी। सो अपने माता पिता की हर अनुचित माँग को मनवाना उसके जीवन का उद्देश्य बन गया। सो एक और विवाह टूट गया दिल जो टूटे वे तो टूटे ही।
सादे विवाह इस सबसे हमें बचा सकते हैं। यदि न भी बचाएँ तो कमसे कम नई शुरुआत करना सरल तो कर ही सकते हैं। यह नहीं कि एक विवाह ही परिवार को उजाड़ चुका हो।
घुघूती बासूती
Thursday, July 22, 2010
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सादे विवाह का हम पुर जोर समर्थन करते हैं.
ReplyDeleteआज शायद पहली बार आपके ब्लॉग पर आई हूँ ..इच्छा तो कई बार हुई पर कभी सही मौका ही नहीं लगा शायद .पर आज आकर निराशा नहीं हुई ..जबर्दस्त्त लिखा है आपने .एक एक पॉइंट सही निशाने पर .
ReplyDeleteवो क्या है न "जो झुकता है उसे झुकाओ " स्प्रिंग की तरह ..पर जब ये स्प्रिंग उछलेगा न तो सीधा मुंह पर लगेगा ..तब न नाक बचेगी न आँख ...बस इंतज़ार है तो उसके उछलने का ..दुआ है वो दिन जल्द ही आये.
विवाह के समय जुटी मार-तमाम भीड़ ही डराती है, कुछ हो जाने के डर से। सादा विवाह सर्वोत्तम विचार।
ReplyDeleteविवाह बिल्कुल सादे समारोह में हों, यही उचित है।
ReplyDeleteक्या इन लोगों ने अपनी लडकी की शादी नहीं करनी ??
ReplyDeleteदुहरा चरित्र, घटिया चरित्र का अच्छा उदाहरण ! शुभकामनायें !
घुघूती जी, मैं तो उस शादी में शामिल होकर भी इतना नहीं सोच पायी,जितना अच्छा विश्लेषण आपने किया है...एक एक बात सही लिखी है....बेटी को उनके बीच ही जाकर रहना है...और फिर इज्जत का ख्याल , वापस से एक और लड़के की खोज...और फिर दुबारा उतना दहेज़ इकट्ठा करना...यही सब रोक देते हैं, लड़की वालों के कदम.
ReplyDeleteअगर सादगी से विवाह किया जाए,तो इस तरह की परेशानियां सर ही ना उठायें.
यह आकलन भी बिलकुल सही है...कि अगर पुरुष घर के कामों में हाथ बटाए तो स्त्रियाँ इसे अपना सौभाग्य समझती हैं, अधिकार नहीं. महानगरों में तो बहुत कुछ बदल रहा है पर जबतक सुदूर गाँव-कस्बों में यह मानसिकता नहीं बदलेगी...हम कैसे कह दें कि बदलाव आ गया है?
कटी नाक वालों की बात तो क्या खूब लिखी है, सचमुच वे गोंद से चिपकाए घूमते हैं तभी कटने की इतनी चिंता रहती है..:)
कितने युग लगेंगे इस मानसिकता को बदलने में..
ReplyDeleteअधिक नहीं, बस एक पीढ़ी को अपने अहम की कुरबानी देनी होगी.
अगर सादगी से विवाह किया जाए,तो इस तरह की परेशानियां सर ही ना उठायें.
ReplyDeleteऐसी ही एक शादी में हम लड़की वालों की तरफ से शामिल थे ..वर पक्ष ने गणमान्य मंत्री जी ,विधायक जी को भी आमंत्रित कर लिया ..वो तो जूस पी कर निकल लिए पर उनके साथ आये काफिले ने ऐसी भोजन की हालत की कि समूचा कन्यापक्ष भूखा रहा .. ..वो भी wedding सफल रही थी पर शादी अभी शक के घेरे में है ...
ReplyDeleteKayi saari vidambanayen aur visangtiyan hain hamare samaj me,jo vishisht manasikta ko nirdharit kar deti hain.
ReplyDeleteऐसे जाने कितने ही उदाहरण देख चुका हूँ अपने गाँव में और खुद अपनी दीदी की शादी में। सोचता हूँ आपके द्वारा उठये गये प्र्श्नों को वाकई में आजमाने का कितने लोग हौसला जुटा पायेंगे। अभी भी याद है दसवीं कक्षा में था जब दीदी की शादी में अपने उफ़नते खून का कुछ नहीं कर पाया कि बात समाज-परिवेश और परिवार के इज्जत की दम्यान आ रही थी...
ReplyDeleteविचारणीय मुद्दा उठाया आपने...
ReplyDeleteचिंता ना कीजिये इसी युग में सब बदल जाएगा !
ReplyDeleteपोस्ट पढ़कर अच्छा लगा
ReplyDeletepost padhkar bahut achchha laga lekin soch kisaki badalegi. ham hi samaj hain - beti ke liye dayneey hote hai aur bete ke liye naak vale.
ReplyDeletepichhale dinon meri eka door ki rishtedar beti ka vivah kayasth sabha dvara karaye gaaye samaroh men jakar kiya. sara intjaam sanstha ka hota hain . beti ke saman aur upahar ke vastuyen tak. usake theek eka hapthe baad bete ki shadi ladaki valon ko apane shahar men bula kar kee.
kya kahenge ham?
only woman can change this attitude
ReplyDeletethey should put their foot down and refuse to spend any penny on any thing from their parents money
parents money should not be treated as your own money as long as that prevails no change can come
start earning your own money and then spend on your wedding as you want as lavish as you want or as simple as you want
girls themselfs want dowry they feel its their birth right i know of woman who dictate to their parents what they need in wedding
sometimes blaming the system serves no purpose
MONEY THAT YOU EARN IS YOURS REST IS PARENTS AND ACCEPT IT AS YOURS ONLY WHEN PARENTS LEAVE THIS WORLD
LEARN TO SAY NO
एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं |
ReplyDeleteएक महत्वपूर्ण सामाजिक बिंदु है यह भी, पर हर कोई इससे बचकर निकल जाना चाहता है, आपका विश्लेषण जबरदस्त है।
ReplyDeleteसादी शादी की बात का मैं पुरजोर समर्थन करता हूँ, मैं अपनी बात बताता हूँ, मेरी शादी के लिये मैंने सादी शादी करने के लिये बोला था, परंतु हमारे कुछ निकट भाईबंधों ने बोला कि हम तो आयेंगे ही नहीं, और वो भी बिल्कुल सगे, बोले कि पहली शादी है खानदान में २५ साल बाद इसलिये धूमधाम से होनी चाहिये, और केवल जिद में लाखों रुपयों को स्वाहा होते हुए देखते रहे।
पर केवल समाज में अपनी झूठी शान के कसीदे पढ़ने वालों का क्या किया जाये ? ये भी यक्ष प्रश्न है ।
हिन्दू अपनी शादियों में खामखाह पैसे की बर्बादी करते हैं जिसे रोका जा सकता है. झूठी शानो-शौकत, दिखावा इस सबके चलते ही हिन्दू समाज की मर्यादा गिरी है...
ReplyDeleteएक सशक्त आलेख
ReplyDeleteयह समस्या व्यापक स्तर पर है । सामाजिक संरचना का यह निहित दोष है । हम सब मिलकर ही इसे समाप्त करेंगे ।
ReplyDeleteshaadiyon mein vaishwikta atyadhik aa gayi hai. dhanadya pariwaaron ki chapet mein garib adhik aa jate hain.
ReplyDeletepaise ki shaan shaukat ne sab chaupat kar diya hai.
अच्छा आलेख है। भीड से हट्कर, अपने विचार पर डटकर काम करने वाले भी हैं। दोनों तरह की शादियाँ होती रही हैं और शायद आगे भी होती रहेंगी।
ReplyDeleteघुघूती बासूती जी,
ReplyDeleteमुझे भी यही लगता है कि संस्कृति के ठेकेदारों द्वारा इतना हाय-तौबा करने के बाद भी आज भी ज्यादातर विवाह अरेंज्ड या लव-कम-अरेंज्ड होते हैं, जिनमे वेडिंग के समय ही कडुवाहट आ जाती है. यही कारण है कि आजकल जब लडकियां औरतें थोड़ी जागरूक हो रही हैं, तो अपना और अपने घरवालों का अपमान भूल नहीं पातीं और वैवाहिक जीवन दुखद हो जाता है. आपकी बात सही है कि सादगी से होने वाले विवाह ही एकमात्र उपाय हैं... दहेज और लड़कीवालों के अपमान को रोकने के.
घटनाएं तो उलटे किस्म की भी सुनने में आती हैं । कन्यापक्ष द्वारा पूरी बेइज्जती के साथ बारात को लौटा देने की बातें भी घटती हैं । किसकी बेइज्जती कब हो, या हो ही न, यह कह पाना मुश्किल है । - योगेन्द्र जोशी
ReplyDeleteजन्म दिन की हार्दिक शुभकामनाएँ !!!
ReplyDeleteएक सशक्त आलेख
ReplyDeleteजन्मदिन की बहुत शुभकामनाये ...!
घुघुती जी,
ReplyDeleteआरजू चाँद सी निखर जाए।
जिंदगी रौशनी से भर जाए।
बारिशें हों वहाँ पे खुशियों की,
जिस तरफ आपकी नज़र जाए।
जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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क्या स्वीट थर्टीवन का महत्व आप जानते हैं?
बेहद आसान है इस बार की पहेली।
aapki baat mein dam hai par samaj isi dikhawe ko apni shaan samjhta hai sir ..
ReplyDeleteबहुत मुश्किल है इतनी जल्दी सब कुछ बदलना
ReplyDeleteलेख बहुत अच्छा है परन्तु बिना समाज के सहयोग के इस स्थिति को बदलना मुश्किल है
ReplyDeleteकितने पाठक जो सादे विवाह के समर्थक हैं, अपने आप को दिखावे वाले विवाह में जाने से रोकते हैं?
अगर महंगे विवाह भ्रूण हत्या का कार्रण हैं तौ ऐसे विवाह में वधु के पिता द्वारा दी जाने वाली दावत श्राद्ध के भोज के सामान है
बराक ओबामा ने कुछ दिन पहले चेलेसा क्लिंटन के विवाह का न्योता ठुकरा दिया क्यूंकि वह वधु को निजी तौर पर नहीं जानते हैं
क्या ही अच्छा हो यदि समाज के जाने माने लोग इस उदाहरण को अपनाएं