Tuesday, June 15, 2010

बन्दिनी वर्षा, बन्दिनी मैं................... घुघूती बासूती

वर्षा तू भी तो मजबूर है
इस शहर में,
मुझ सी
तू भी कैदी है!
जैसे मैं इतनी खिड़कियों
बाल्कनियों के होने पर भी,
हूँ सलाखों के पीछे
तू भी तो
चाहे बरसती है अपने मन से
फिर भी गति न है तेरी तेरे मन की।
प्रकृति में क्या है उद्देश्य वर्षा का?
बादलों से तकना
प्यासी धरती को
सूखे मुरझाए वृक्षों को
भूरी जली हुई घास को
सूखी झीलों, तालाबों और कुँओं की प्यास को
नीचे और भी नीचे जाते पानी के स्तर को
और फिर भीग जाना सुन धरती की पुकार को
सुन प्यासी प्रकृति की मनुहार को
फिर जाना नीचे ही नीचे
धोते हुए सारे आसमान को
पेड़ों, घरों, पौधों, व घास को
जाना नीचे ही नीचे
वापिस धरती के गर्भ में,
सागर की गोद में,
नदियों के आलिंगन में।
वर्षा कब तूने चाहा फँस जाना
सड़कों पर, आँगनों, पुलियों और गड्ढों में?
किन्तु क्या तू समा सकती है
धरती के गर्भ में?
ये कंक्रीट के जंगल
ये टाइल्स से पटे आँगन
ये न जाने देंगे तुझे तेरे गंतव्य तक।
वर्षा कब मैंने चाहा फँस जाना
सलाखों के पीछे?
देखना बरसती वर्षा को
किन्तु न भीगना उसके जल में
न थिरकना उसके मधुर संगीत पर
कहाँ गए वे वर्षा नृत्य के दिन
कहाँ गए वे माँ बेटियों के मिल नाचने के दिन?
वर्षा सुन रही हो तुम?
बन्दिनी हो तुम
बन्दिनी हूँ मैं
देख सकती हूँ मैं
सुन्दर बरसती बौछार को
देख सकती हो तुम
गिरते भूगर्भ के जल स्तर को
किन्तु न मैं भीग सकती
न तुम भिगो सकती धरती के गर्भ को।
वर्षा आओ मिल तुम और मैं
आँसू बहाएँ बीते दिनों की याद में,
वर्षा आओ
तुम और मैं फिर भिगाएँ
मन, हिय और आँख को।
घुघूती बासूती

32 comments:

  1. देखिये यहां उसके और हमारे बीच में कोई भी नहीं है , सारी सलाखें व्यर्थ हो गयी हैं अब बस वो है और हम है :)

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  2. अच्छी कविता, बस अब अच्छी वर्षा का इन्तजार है..

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  3. लेकिन वर्षा ने तब भी मन को पूरा भिगो दिया ..

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  4. बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति...वर्षा को बिलकुल नए नज़र से देखने और उसके मन की व्यथा टटोलने की की कोशिश की है इन पंक्तियों में ..सच वर्षा का भी अपने ऊपर कहाँ वश है...उसका गंतव्य कहाँ है,उसे कहाँ पता??...बेहद संवेदनशील रचना

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  5. अद्भुत रचना...बहुत सुन्दर और सार्थक...वाह...
    नीरज

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  6. खोल पट सारे यहाँ
    हम उस के इंतजार में आसमान पर निगाहें टिकाए बैठे हैं।

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  7. यह कविता सिर्फ सरोवर-नदी-सागर, फूल-पत्ते-वृक्ष आसमान की चादर पर टंके चांद-सूरज-तारे का लुभावन संसार ही नहीं, वरन जीवन की हमारी बहुत सी जानी पहचानी, अति साधारण चीजों का संसार भी है। यह कविता उदात्ता को ही नहीं साधारण को भी ग्रहण करती दिखती है।

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  8. वर्षा आओ मिल तुम और मैं
    आँसू बहाएँ बीते दिनों की याद में,
    वर्षा आओ
    तुम और मैं फिर भिगाएँ
    मन, हिय और आँख को।
    वाह !!

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  9. nai soch se bhari...

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  10. वर्षा आओ
    तुम और मैं फिर भिगाएँ
    मन, हिय और आँख को।

    वर्षा को नारी मन से जोड़ना एक अद्भुत प्रयोग...बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..

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  11. varsha ko ek naya roop pradan kiya aapne...bahut khoob...

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  12. Aah..! Yah yugon kee trasadee hai..sadiyon kee bandini..! Aisi anoothi tulna kabhi na aayi thee man me!

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  13. शानदार रचना...आनन्द आ गया..



    वर्षा आओ
    तुम और मैं फिर भिगाएँ
    मन, हिय और आँख को।

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  14. भावपूर्ण अभिव्यक्ति।

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  15. बिल्‍कुल नई दृष्टि
    यूनीक नजरिया
    सभी कैद हैं
    नहीं स्‍वतंत्र कोई।

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  16. सुन्दर रचना
    आनंद आया पढ़कर

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  17. मानसून का आभास ।
    उत्कृष्ट रचना ।

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  18. सही लिखा..अब वर्षा का मिलन धरती के साथ नही होता। प्रकृति के बीच पैदा किए हुए कंकरीट के व्यवधान धरती और वर्षा का मिलन नही होने देते...बरसात को लेकर एकदम नयी सोच के लिए बहुत बहुत बधाई।

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  19. भावुक कवि मन कहाँ नहीं भटकता ? जो मैं कहना चाहता हूँ वह संगीता स्वरुप जी ने कह दिया !

    लगता है जीवों से आपको भी बहुत प्यार है , जब हम नितांत महसूस करते हैं उस समय ये ही हमारा मन सबसे अधिक पहचानते हैं और दुलारते हैं !

    परमेश्वर ने शायद इसी लिए मानव को इनसे मित्रता की समझ दी है !
    सादर

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  20. चाहे बरसती है अपने मन से
    फिर भी गति न है तेरी तेरे मन की...
    कब तूने चाहा फँस जाना
    सड़कों पर, आँगनों, पुलियों और गड्ढों में?

    वर्षा और नारी मन को एक कर देखना , अनुभव करना और लिखना
    वाह ...
    मगर रुकते रुकते भी जम कर बरस जाती है वर्षा ....
    और भिगो जाती है मन , हिय और आँख ..
    जम कर कब बरसेगी वर्षा ...अभी तो आपकी कविता ने ही भिगो दिया है मन का पोर पोर

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  21. मुझे भी ठीक-ठाक बारिश का ही इन्तजार है। मोटर साइकिल पर घूमने के लिए निकलना है। आपकी रचना अच्छी है।

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  22. बन्दिनी हो तुम
    बन्दिनी हूँ मैं

    सच में, सुन्दर कविता ।

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  23. यह एक नई दृष्टि है शहर की बारिश को देखने की ।

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  24. Bhaw purn, arth purn rachna.
    ye sach hai ki prakriti ka rasta roke huye hain ham. varsha kaise dharti ko bhigoyegi en tiles, aur kankreet mein.

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  25. वर्षा और नारी दोनों ही बंदिनी हैं, इस सभ्यता की...जिसे पुरुषों ने बनाया. जिस तरह नारी का शोषण किया, उसी तरह प्रकृति का भी दोहन किया... कितनी खूबसूरती से आपने दोनों के दर्द को उभारा है...कितनी संवेदना के साथ खुद से प्रकृति को आत्मसात करते हुए... अद्भुत रचना !

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  26. वर्षा का इंतजार तो सभी कर रहे हैं, बस फर्क इतना हैकि आपने उसे खूबसूरत सा रूप दे दिया है। बधाई।
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    भविष्य बताने वाली घोड़ी।
    खेतों में लहराएँगी ब्लॉग की फसलें।

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  27. ये टाइल्स से पटे आँगन
    ये न जाने देंगे तुझे तेरे गंतव्य तक।
    वर्षा कब मैंने चाहा फँस जाना
    सलाखों के पीछे? ---- महानगर में रहते हुए ऐसी सोच स्वाभाविक है... वैसे पूरी कविता चमत्कृत करती है.

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  28. मंगलवार 22- 06- 2010 को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है


    http://charchamanch.blogspot.com/

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  29. प्रकति के साथ खिलवाड़ का परिणाम ही है कि वर्षा बन्दिनी है. बन्दिनी वर्षा के साथ स्वयं की तुलना ने इस कविता को कई अर्थों में व्यापक और सार्थक बना दिया है.

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