लोगबाग अपने शहर, अपने संसार के कायदे कानूनों से कुछ तंग से थे। उन्हें पसन्द था स्वतन्त्र रहना और उनकी धरती के वासी खापी थे यानि खापीकर खप करते थे या यह कहिए कि बताते थे कि कैसे जिएँ, कैसे उठें, बैठें, ब्रश करें कि दातुन और ऊपर से नीचे या नीचे से ऊपर या दाएँ से बाएँ आदि, किससे बोलें, किसके साथ हँसे, किससे प्रेम करें किससे विवाह करें आदि आदि। सो वे आभासी संसार की तरफ बढ़ चले। सुना था यहाँ सामान्य शिष्टता के अतिरिक्त कोई कानून नहीं हैं।
ऐसे भी लोग थे जो लिखते कोई छापता नहीं, वे बोलते कोई सुनता नहीं, वे गाते कोई वाह वाह न कहता या कहता तो उतना न कहता जितना वे चाहते। ऐसे भी लोग थे जो निज भाषा में बोलना चाहते तो कोई सुनने वाला न मिलता, निज भाषा सुनना चाहते तो कोई बोलने वाला न होता। वे हाथी पसन्द करते तो उनका सहकर्मी हाथी को बर्दाश्त ही नहीं कर पाता था और घर में कोई कुत्ता तो कोई बिल्ली पसन्द करता था। उन्हें यदि नीला रंग पसन्द था तो उनका शहर हरे का दीवाना था। उन्हें गिल्ली डंडा पसन्द था और शेष सबको क्रिकेट का बुखार सारे साल चढ़ा रहता था। वे मिमियाना चाहते थे और उनका शहर रेंकना पसन्द करता था। कुल मिलाकर वे मिसफिट हुए जा रहे थे। सो वे भी यहाँ आ गए।
और ऐसे भी लोग थे जो बेहद फिट बैठ रहे थे इतने फिट कि वे हर समय सीटी बजाते नए श्रोताओं, नए अनुगामियों की चाह में भटक रहे थे। सो वे भी नया संसार खोजते यहाँ आ गए।
सो अलग अलग कारणों से अलग अलग व्यक्तित्व, शौक और सनक या बिन शौक और बिन सनक या इस जगह के होने की बस लगते ही भनक, लोग यहाँ डेरा डालने लगे। होते होते कारवाँ बढ़ता गया। पहले दस फिर सौ फिर हजार फिर कुछ हजार लोग आकर यहाँ डेरा लगा लिए। कुछ तो लगता है कि बोरिया बिस्तर लेकर आए, कुछ बस यहाँ का चक्कर लगाकर चल देते हैं, कुछ ने मित्र बनाए और यहाँ की प्रायः आकर कुशल क्षेम पूछ लेते हैं। कुछ नए, कुछ पुराने, कुछ न नए न बहुत पुराने, सब रेल के डब्बे के यात्री। कोई अपने धर्म की ढोलक लगातार बार बार थापता जाता, कोई कानों में रूई डाल लेता तो कोई वाह वाह कह उठता, तो कोई हर थाप पर विपरीत थाप दे आता। कोई चुप्पा तो कोई बहुत बोलने वाला। कोई मृदु भाषी तो कोई कर्कशा, कोई सब चलता है वाला तो कोई अपनी खुन्दकों का टोकरा सिर से कभी न उतारने वाला, कोई नारीवादी तो कोई नरवादी तो कोई मानवतावादी तो कोई सीखदेनेहीआयावादी। कोई हर बात पर हाँ कहने वाला तो ना कहने वाला तो कोई मौज में कुछ भी कह आने वाला, कोई टिप्पणीवादी तो कोई चुन चुन टिपियाने वाला। कुल मिलाकर ऐसा लगता कि मानव का हर मॉडेल यहाँ पाया जाता है।
उन्हें देखकर लगता,
जाकी रही भावना जैसी
आभासी दुनिया
तिंह देखही तैसी।
सब कभी मजे में तो कभी थोड़े बिन मजे में चल रहा था। कुल मिलाकर स्वतन्त्र सा वातावरण था जिसमें जैसा कि ऐसे वातावरण में होता है बहस, मनमुटाव थोड़ा लड़ना, भिड़ना, लड़ियाना, प्यारे बेटे, प्यारे भैया, कुट्टी, बुक्की(कुट्टी का विलोम), टंकी पर चढ़ना, उतरना, चढ़ाना उतारना टाइप चलता रहता था। इतने में अचानक शोर हुआ खाप आई, खाप आई, निगरानी आई, निगरानी आई, शोर हुआ या निगरानी ने ही शोर किया, पता नहीं, जो भी हो रूई वाले कानों में भी यह आवाज पहुँच ही गई। पता नहीं यह 'भेड़िया आया' वाला शोर है या सच की निगरानी रानी चली आईं हैं हमारे आभासी संसार में। यदि आपको अपने ऊपर सी सी टी वी टाइप या खाप दृष्टि टाइप अनुभूति न हुई हो तो अब यह अनुभव करने को शायद मिले।
जो भी हो, अच्छे दिन लम्बे कहाँ चलते हैं ? वैसे भी खाप प्रदेश के लोग यहाँ भी बहुतायत में रहते हैं सो यह भी हो सकता है। खाप के कई भाई बहन हैं जो नियन्त्रण में ही विश्वास रखते हैं। संख्या सदा सही के साथ नहीं होती, होती तो हमारे देश को ऐसे नेता मिलते? खैर जो होगा सो देखा जाएगा। बहुत हुआ तो कुछ बोरिया बिस्तरा गोल करने को बाध्य हो जाएँगे, और भी अखापी दुनिया होंगी इस आभासी दुनिया से आगे।
वैसे चलते चलते ( यहाँ से नहीं जा रही, यह लेख खत्म करते करते)यह जानना चाहती हूँ कि ब्लॉग की क्या परिभाषा होगी खापी मानवों के मन में? या वे अब्लॉगवादी होते हैं? ब्लॉग व स्वतन्त्रता व निजत्व का जो नाता है वह खापियों को कैसे सह्य होगा?
घुघूती बासूती
Friday, June 18, 2010
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घुघूती बासूती खाप वालों को उम्मतें खाप वालों का प्रणाम,
ReplyDeleteबहुत हुआ इस बिल्ली और दो अदद चप्पलों का सांकेतिक चित्र जैसे कह रहा हो कि...( हर ब्लागर / पाठक अपनी मनमर्जी से इनके अर्थ निकाल सकता है पर ये तय है कि ज्यादातर अर्थ अनर्थकारी ही निकलेंगे :)
इसे तत्काल हटाया जाये !
आपने अच्छा किया जो खापों को याद किया ...ब्लागजगत की चरचराती (चर्चारती) हुई खटिया ब्रांड खापों की गिनती करना मुश्किल हो चला है इन दिनों :)
कितनी प्रतिभायें इन खाटों मेरा मतलब खापों की दम पर पुष्पित , पल्वित हो रही हैं ,परवान चढ़ रही हैं ! पर एक आप हैं कि इनका रत्ती भर भी जिक्र नहीं किया इस पोस्ट में :)
कृपया 'पल्वित' को 'पल्लवित' पढ़ें
ReplyDeleteaapne khaap sanskriti par bahuayami vyangya kas hai. ab dekhna hai yah sanskriti kahan tak aage jayegi? unki sanak bilkul utawali hai jise aapne sanyojit roop shabdon mein prastut kiya hai.
ReplyDeleteappke is lekh par sabse pahli tippani klarne ka mujh saubhgya mila, asha hai samalochna pasand ayegi.
खापी तो हर शहर हर गाँव में मौजूद हैं, ब्लाग में नहीं हों ऐसा कैसे हो सकता है।
ReplyDeleteअरे आप भी किस चक्कर में फंस गयीं. वैसे बहुत से लोग परेशान हैं की ब्लॉग जगत में भी वही सब हो रहा है जो की वास्तविक जगत में होता है. पर मैं सोचता हूँ की इसमें हैरान परेशान होने की क्या बात है. जब हम असलियत में यही सब झेल सकते हैं तो आभासी दुनिया में क्यों नहीं. आपने तो अपनी बात बड़े अच्छे ढंग से कही है पर कुछ लोग तो इस विषय पर बड़ी चिल्ला रोई मचा रहे हैं. मैं तो अपनी भाषा में यही कहूँगा " घुघूती तू बासने रए हाँ "
ReplyDeleteयह पोस्ट भी खापी लग रही है .. :)
ReplyDeleteहाहा, अरविन्द जी। देखिए अभी खाप शुरू भी नहीं हुई कि मुझपर प्रभाव भी पड़ गया और मेरी पोस्ट खापी होने लगी। है न भयभीत करने वाली बात!
ReplyDeleteघुघूती बासूती
Bada achha atmgunjan hai yah..sochti isme kaun kahan hai..mai swayam kahan hun..
ReplyDeleteदिवेदी जी सही कह रहे हैं खापी कहाँ नही। बस अभी चल रहे हैं फिर देखा जायेगा। कल के लिये आज क्यों गवायें। अच्छा कटा़ है। आभार
ReplyDeleteभयभीत करने वाली बात ही है... मैं डर भी गयी हूँ... बहुत स्वतंत्र प्रवृत्ति की हूँ न इसीलिये... थोड़ी-थोड़ी निराश भी हो गयी हूँ...
ReplyDelete.
ReplyDelete.
.
घुघुती बासुती जी,
काहे को चिंतित-भयभीत हैं आप और बाकी भी... यह वर्चुअल स्पेस है... जब असली दुनिया में खापें और उनकी निगरानी कमेटियाँ भागी-भागी फिरती हैं तो यहाँ उससे इतर क्या हश्र होगा खापों का...
वैसे भी कहा गया है कि 'लातों के भूत बातों से नहीं मानते'... जब भी अपनी औकात से बाहर जा कर अनावश्यक दखल दें इधर-उधर... टिप्पणी रूप में एक दो लात धर दीजिये पिछवाड़े पर खापियों के... या तो सुधर जायेंगे या भाग !
आभार!
...
????????????
ReplyDeleteMam tenshion lene ka nahi dene ka .......
ReplyDeleteMam tenshion lene ka nahi dene ka .......
ReplyDeleteखाप वगैरह ऐसे ही आती-जाती रहेंगी. जो महत्वपूर्ण है वह यह है कि खाप-वाप, पाप-झाप के बीच मानवता सर्वाइव करती रही है और करती रहेगी.
ReplyDeleteमिर्ज़ा ग़ालिब ने लिखा है;
देखा जो उनको तो मन में यही ख़याल आया,
बड़ी मुद्दत लगी बन्दर को बशर होने तक,
लड़ाकर उनको धर्म और गोत्र की खातिर,
'खाप' हो जायेंगे हम उनको खबर होने तक
स्माइली लगाना भूल गया. मुझे सीरियस भले ही न समझा जाय, मेरी अपील है कि मेरे कमेन्ट को सीरियस समझा जाय. और ऐसा केवल स्माइली लगाने से ही हो सकता है. इसलिए.....:-)
ReplyDeleteन जाने जेहन से खाप की छाप कब जायेगी..!
ReplyDeleteजाकी रही भावना जैसी
ReplyDeleteआभासी दुनिया
तिंह देखही तैसी।
खापियों की चिंता करना व्यर्थ है...
ReplyDeleteनीरज
आत्म चिंतन की आवश्यकता है.
ReplyDeleteनीरज जी ने सही कहा.. खापियों की चिंता करना बेकार है।
ReplyDeleteआपका ब्लॉग राष्ट्रीय सहारा Hindi News Paper के 30 जून के अंक के साथ आने वाले मैगजीन 'आधी दुनिया' में प्रकाशित हुआ है, बधाई स्वीकार करें. इसे यहाँ भी देख सकते हैं : http://rashtriyasahara.samaylive.com/epaperpdf//3062010//3062010-md-adu-1.pdf
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