अभी अभी 'अनवरत' पर दिनेशराय द्विवेदी जी का राजकीय शोक पर लिखा लेख पढ़कर आ रही हूँ। इससे पहले 'मुसाफिर हूँ यारों' में नीरज जाट के चन्डीगढ़ पर तीन लेख पढ़े थे। मन यूँ ही चन्डीगढ़मय हो रहा था। सो मुझे अपने स्कूली दिनों के एक उस दिन की याद आ गई जब शोक मनाने के लिए स्कूल में छुट्टी हो गई थी।
मैं स्कूल में नई नई गई थी। इससे पहले बस्ती के स्कूलों में ही पढ़ी थी। ये स्कूल आठवीं तक ही होते थे और उसके बाद निकट के शहर में जाकर पढ़ना होता था। अंग्रेजी स्कूल में भी पढ़ना था और मिशनरी में भी नहीं पढ़ना था। बस्ती के शेष सारे बच्चे या तो हिन्दी स्कूल में पढ़ने जाते थे या फिर कॉन्वेन्ट में। मुझमें तब भी यह स्वतन्त्र रहने का रोग था बल्कि अब से और भी अधिक था। किसी भी धर्म, विशेषकर अन्य के धर्म के गीत गाना व कॉन्वेन्ट स्कूल का लगभग तानाशाही शासन मुझे रास नहीं आने वाला था, यह जानती थी। सो एक ऐसे स्कूल में गई जो बहुत अधिक लोकतान्त्रिक था, अधार्मिक था या कहिए जहाँ धर्म नहीं था। किन्तु यहाँ केवल दो समस्या थीं, एक तो यह कि अपनी बस में आने वाली मैं इकलौती छात्रा थी, दूसरी यह कि मुझे सुबह सुबह सवा या डेढ़ घंटे पहले स्कूल पहुँचना पड़ता था।
स्कूल गर्मियों में सुबह साढ़े सात बजे लगता था। हमारी बस के दो चक्कर लगते थे पहला सुबह साढ़े पाँच बजे जाता था और सवा छह बजे तक स्कूल पहुँचा देता था। दूसरा पौने सात बजे का होता और स्कूल साढ़े सात या सात पैंतीस पर पहुँचा देता था। ठीक साढ़े सात पर स्कूल का गेट बन्द हो जाता था। उसके बाद आने वाले पूरी असेम्बली भर सजा पाते और उनका नाम लेट लतीफों के रजिस्टर में चढ़ जाता, हर लेट आने वाले बच्चे के कारण उसके हाउस के अंक कम हो जाते आदि आदि। प्रिन्सिपल से अपनी समस्या बताने पर उन्होंने कहा कि देर से आने की वे अनुमति नहीं देंगी। कॉन्वेन्ट में पढ़ने की अनुमति मेरा मन नहीं देता था सो मैंने साढ़े पाँच की बस से जाना ही स्वीकार कर लिया।
वीरान स्कूल में इतनी सुबह जाकर अपनी कक्षा में बैठ जाना, कुछ पढ़ते रहना या बस यूँ ही स्कूल के विशाल मैदानों के चक्कर लगाना मेरे दिन का आरम्भ होता था। भय की बात कभी मन में नहीं आई। भय होता भी तो मनुष्य नाम के प्राणी से ही होता। खैर, कुछ ही दिनों में गर्मियों की छुट्टियाँ हो गईं।
गर्मियों के अवकाश के बाद का पहला दिन था। डेढ़ घंटे की प्रतीक्षा के बाद स्कूल शुरू हुआ। सभी बच्चों में इस दिन बहुत उत्साह रहता है। मैं तो अभी भी काफी नई थी सो मित्र भी नहीं ही थे। असेम्बली में केवल राष्ट्रीय भावना वाले गीत ही होते थे। प्रार्थना थी....
हम नौजवान देश के बढ़ते ही जाएँगे
हम हर कदम पर शान्ति का घर बसाएँगे।
उस दिन असेम्बली में घोषणा की गई कि एक अध्यापिका का निधन हो गया है सो मौन रखा जाएगा और उसके बाद स्कूल की छुट्टी हो जाएगी। अध्यापिका का नाम तो याद नहीं परन्तु जो नाम मेरे सहपाठियों ने उन्हें दिया था और जिसका उपयोग कर उन्होंने मुझे उनकी बातें बताईं थीं वह याद है। सब उन्हें टिम टिम तारा कहते थे। अभी छुट्टियों से कुछ दिन पहले ही उनका विवाह हुआ था। वे पिछली कक्षा में हिन्दी पढ़ाती थीं। एक कविता थी टिम टिम तारा वाली बस उसको पढ़ते समय ही बच्चों ने उनका नामकरण कर दिया था। सब बच्चे उदास थे। टन्नी तो बहुत ही अधिक उदास था। टन्नी का नामकरण टिम टिम तारा ने किया था। टन्नी नामक एक कठपुतली की कहानी पाठ्यपुस्तक में थी। हमारा टन्नी भी बहुत शैतान व अशान्त था। एक पल भी टिक कर नहीं बैठता था। सो टिम टिम तारा ने उसे कहा कि वह भी टन्नी ही है। उस दिन सब दुखी साथियों से मैंने टिम टिम तारा के बारे में विस्तार से जाना और इस बातचीत के द्वारा बहुत से छात्रों को भी जाना।
टिम टिम तारा का विवाह छुट्टियों से कुछ दिन पहले ही हुआ था। बच्चों ने 'मिस' को उपहार भी दिया था। और वे आशा कर रहे थे कि छुट्टियों के बाद देखेंगे कि मिस विवाह के बाद कैसी दिखती हैं। किन्तु छुट्टियों में ही मिस रसोई में जल गईं और मर गईं। कई जोड़ी आँखों में नमी थी। एक दो स्पष्ट रो रहे थे। यह शोक मनाने को मिली एक ऐसी छुट्टी थी जब कम ही विद्यार्थी सिनेमा का कार्यक्रम बनाते। शायद किसी ने भी नहीं बनाया। जब भी कभी शोक के लिए छुट्टी मिलती है तो मुझे वह अपनी अनदेखी मिस टिम टिम तारा याद आ जाती हैं। उस दिन दोपहर को डेढ़ बजे तक मुझे बैठकर स्कूल बस की प्रतीक्षा करनी थी। टिम टिम तारा बहुत देर तक मेरे साथ रहीं थीं।
घुघूती बासूती
Tuesday, April 27, 2010
टिमटिम तारा का जाना, अवकाश, शोक और बच्चों को लगा शौक
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ऐसी घटनायें कम ही होती हैं, दुखद...
ReplyDeleteदुखद संस्मरण...प्रभावशाली लेखन..
ReplyDeleteदुखद स्मरण.....जीवन में कभी ऐसा भी घटता है।
ReplyDeleteकुछ अपनी यादें भी ताज़ा हो गयीं...दुःखद यादें...कभी-कभी किसी से न मिलकर भी उसके अस्तित्व का एहसास हो जाता है...अजीब होता है ये मन.
ReplyDeleteदुखद संस्मरण..
ReplyDeleteAisa laga,mano aap saamne baithke qissa suna rahi hon..man ateet me kho gaya..
ReplyDeleteअपने प्रिय का बिछोह ...समझ सकता हूँ !
ReplyDeleteदुखद संस्मरण।
ReplyDeleteदुखद यादें
ReplyDeleteलेकिन हो सकता है उस समय यह सब सुखद लगा हो, क्योंकि स्कूल की छुट्टी जो हो गई थी।
क्या सचमुच टिम टिम तारा के साथ दुर्घटना हुई होगी या???
प्रणाम
ak aur maout jalne se ,man dukhi ho gya .ham to sirf netao ki ?chuutti mnane me khush hote the kintu ab to bachho ko vo saoubhagy kahan ?
ReplyDeleteबहुत दुखद यादे बताई आप ने, हमे उस समय तो इतना नही पता था, लेकिन हम हमेशा जिस टीचर का होम वर्क कर के नही ले जाते, उस के बारे हमॆशा भगवान से प्राथना करते कि आज वो मर जाये नोर हम पीटाई से बच जाये, या स्कुल की छुट्टी करवाने के लिये किसी भी टीचर के लिये प्राथना करते, ओर आज सोच कर अपनी इन वेबकुफ़ियो पर हंसी आती है
ReplyDeleteये सब दुखद घटनाएँ, जीवन का हिस्सा हैं। ये सब स्मृति में रह जाती हैं और जब तब याद आती रहती हैं। प्रिय के जाने से जो शोक होता है उस का निदान भी यही है कि खुद को काम में रमाया जाए। जनतंत्र में मिथ्या शान के लिए शोक मनाने हेतु छुट्टियाँ करना एक कलंक के सिवा कुछ नहीं।
ReplyDeleteआज के समय में ऐसी छुट्टी का मतलब सिर्फ़ कहीं आऊटिंग या मूवी है बस। इतनी ही संवेदनशीलता है हममें।
ReplyDelete@ भय होता भी तो मनुष्य नाम के प्राणी से ही होता।
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एक बार हम दो परिवार पचमढ़ी भ्रमण पर गये थे। ऑफ़सीज़न के कारण पर्यटक काफ़ी कम थे। चौड़ागढ़ नामक शिखर पर चढ़ते समय वीराने में अकेली भील कन्यायें नींबू पानी बेचती दिखी। हमारे साथ की महिला साथी ने उससे पूछा कि अकेले में उसे डर नहीं लगता? उसका जवाब भी ऐसा ही था कि जानवर तो हमारे परिवार हैं, और आजकल बाहर के लोग हैं नहीं तो डर कैसा?
सच में, मनुष्य ही भयभीत करने लायक है।
आपका बहुत बहुत आभार।
भावुक करता लेखन...कई दुख जीवन के ऐसे ही छाप छोड़ जाते हैं.
ReplyDeleteमैं तो जी भाटिया जी से सहमत हूं।
ReplyDeleteलेकिन उन दिनों जिन मास्टर जी को हम ‘मृत्युदण्ड’ देते थे, वे अब याद आते हैं। वे पीटते चाहे कितना हो, लेकिन उनमें कुछ प्यार भी तो था। अगर किसी को बाजार में मिल गये तो अगले दिन क्लास में कहते थे कि अरे फलाने (छात्र का नाम लेते थे) तू कल उस समय बाजार में घूम रहा था। सच्ची में बडी खुशी मिलती थी जब वे हमारा नाम लेते थे। नहीं तो सत्तर अस्सी बच्चों की क्लास में किस टीचर को हरेक छात्र का नाम याद रहता है।
मार्मिक संस्मरण।
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक संस्मरण...उन टीचर से आप मिली नहीं थीं,पर उनके जाने का दर्द अपने दोस्तों की आँखों में पढ़ उनके दुख को इतनी गहराई से महसूस किया कि अब तक वह आपकी स्मृति में है...
ReplyDeleteअब एक व्यावहारिक बात.स्कूल में आज भी शोक प्रदर्शन हेतु छुट्टियां दे देते हैं....पर यह कहाँ तक उचित है?...उस दिन आपको भी इतनी देर तक स्कूल में अकेले रुकना पड़ा. आज भी बच्चे वापस आ जाते हैं. माता-पिता ऑफिस गए होते हैं. क्रेश के संचालक एक नियत समय पर ही बच्चों को स्कूल बस से लेने आते हैं.कितनी बार बच्चों को यूँ ही सड़क के किनारे किसी रेलिंग पर बैठे इंतज़ार करते देखा है...यह प्रथा सही नहीं लगती खासकर छोटे बच्चों के स्कूलों में.
शायद एक तारा आज कहीं मुस्कराया हो, यह संस्मरण पढ़कर.
ReplyDeleteघुघुती जी, स्कूल चयन की जिद अपनी सी लगी। विवाह के बाद एक शिक्षिका का जलकर मरना भी समाज का दूसरा पहलू बता गया। शोक दिवस पर छुट्टी होना या नहीं यह भी एक बहस का मुद्दा हो सकता है।
ReplyDeleteसंवेदना व्यक्त करने के और भी तरीके हैं छुट्टी के अतिरिक्त । छुट्टी देकर तो आप प्रसन्नता फैला रहे हैं । अब कोई कितना अपने मन के भाव छिपाये ।
ReplyDeleteएक मार्मिक संस्मरण। दिल को छू गया।
ReplyDeletetouchy.
ReplyDeleteyadein hi to hain jo hamesha sath rahti hai, gahe-bagaahe man ke darwaje khol bahar chali aati hain....
कभी कभी कुछ पुरानी यादें हमेशा झाझ्कोड़ जाती हैं ।
ReplyDeleteदुखद प्रसंग, दिल को उदास कर जाती हैं ऐसी यादें।
ReplyDeletemay the departed soul rest in peace.
ReplyDeleteगनीमत है कि शिक्षाविभाग में इतने संवेदनशील लोग हैं । मैं बैंक मे काम करता था और जब भी मित्रों से पूछता था कि मान लो मैं नौकरी पर आते हुए मर जाऊँ तो उस दिन बैंक बन्द होगा क्या ? उत्तर मिलता था हर्गिज़ नहीं ।
ReplyDeleteसो यही है ज़िन्दगी ।
:( काश यादे रेत होती,
ReplyDeleteमुट्ठी से निकल जाती, मै पैरो से उडा देता..
...
ReplyDeleteKisi apne-paraye ke chale jaane ke baad uski yaad kintna vyathit kar jaati hai iska maarmik chitran padhkar man gahri samvedana se bhar utha....
sach much dil ko chhoo lene wala
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