हाँ, मुझे भी क्रिकेट पसन्द था और काफी सीमा तक अभी भी है। मैंने भी आम भारतीय बच्चे की तरह खूब बल्ला घुमा रखा है और न जाने कितने घंटे, जो कुल मिलाकर शायद महीने नहीं तो कुछ सप्ताह तो अवश्य हो जाएँगे, टैनिस गेंद या क्रिकेट गेंद से कुछ कम सख्त कॉर्क की गेंद को चौक्के छक्के के बाद बाड़ में से ढूँढने में बिताए हैं।
बचपन व किशोरावस्था में खूब कमेन्ट्री सुनी है। स्कूल, कॉलेज में रिसेस व छुट्टी की प्रतीक्षा की है ताकि स्कोर जान सकें। पॉली उम्रीगर,रमाकान्त सरदेसाई, अजित वाडेकर व सोलकर को रेडिओ में कमेन्ट्री सुनकर ही बिन देखे खूब सराहा है। इन खिलाड़ियों को भारत के लिए खेलने के बदले में आदर, सम्मान व यश के अलावा शायद ही कुछ अधिक आर्थिक लाभ मिला हो। निजि संस्थाएँ इन्हें अपने दफ्तरों में नौकरी देकर स्वयं को धन्य समझती थीं।
तब के क्रिकेट व आज के क्रिकेट और तब के क्रिकेटर व आज के क्रिकेटर की स्थिति में बहुत अन्तर आ गया है। खिलाड़ी अच्छा खेल रहे हैं, उनमें आत्मविश्वास भी बहुत है और वे अच्छा कमा भी रहे हैं। भारत में यदि कोई क्षेत्र हैं जहाँ किसी प्रोत्साहन की आवश्यकता नहीं है तो वह क्रिकेट ही है। फिर भी लगता है कि देश में यदि किसी काम के लिए सरकार व समाज दिल खोलकर प्रोत्साहन दे रहा है तो वह क्रिकेट ही है।
लगभग दो सप्ताह पहले नवीं मुम्बई के डी वाइ पाटिल स्टेडियम में आइ पी एल का पहला मैच था। मैच के अतिरिक्त ओपनिंग समारोह भी था। जो कि हर हाल में मनोरंजन ही माना जा सकता था। संसार के जाने माने कलाकार व एक भारतीय अभिनेत्री व अन्य कलाकार मनोरंजन के लिए बुलाए गए थे। समारोह भव्य था। यह बात और है कि टी वी के दर्शकों को यह अनुमान नहीं होगा कि जो सफेद महीन कपड़े का तम्बू जैसा बीचों बीच ताना गया था वह वहाँ बैठकर देखने वाले बहुत से दर्शकों के मनोरंजन में सबसे बड़ी बाधा बन गया था। उसके कारण हम विशालकाय टी वी का परदा नहीं देख पा रहे थे। कार्यक्रम जितनी दूरी पर हो रहा था उतनी दूरी से बिना दूरबीन के चेहरे देखना कठिन ही था। देखने का सबसे अच्छा तरीका था कि नीचे होते कार्यक्रम पर एक नजर डालकर ऊपर परदे पर लोगों को पहचाना जाए और फिर वापिस नीचे देखा जाए।
मैच भी बढ़िया रहा। जीवन में पहली बार स्टेडियम में मैच देख रही थी, बल्कि इतनी बड़ी भीड़ का हिस्सा भी लगभग पहली बार ही थी। वहाँ मैच देखने का अनुभव घर बैठकर देखने से बहुत अलग था। जो वातावरण वहाँ बनता है वह घर में संभव ही नहीं है। शायद जब कुछ मित्र लोग मिलकर किसी बड़े टी वी/परदे पर देखें तो थोड़ा बहुत वैसा वातावरण बन सकता है। आजकल साथ में तो पानी या दूरबीन भी नहीं ले जाई का सकती तो शोर मचाने, पटाखे फोड़ने व आतिशबाजी का प्रबन्ध भी आयोजकों व विज्ञापन देने वाले कर देते हैं। ऐसा उत्सव का वातावरण बनता है कि व्यक्ति सबकुछ भूलकर इस उत्सव का एक उत्साही भाग भर बन जाता है। यदि उत्साह में कुछ कमी आए तो आइ पी एल की विशेष धुन बजने लगती है और लोगों में जोश आ जाता है। मैक्सिकन लहर भी अपने आप न उठकर आयोजकों द्वारा ही उठवाई जाती है। खिलाड़ियों के कौशल के अतिरिक्त आइ पी एल में जो भी था वह एक तमाशा अवश्य था। एक बढ़िया सुरुचिपूर्ण तमाशा जिसे बार बार देखें तो यह व्यसन की श्रेणी में आ जाएगा।
मुझे मैच देखकर बहुत आनन्द आया,जीवन में एक नया अनुभव हुआ। किन्तु बस एक ही बात समझ नहीं आती कि आइ पी एल पर टैक्स क्यों नहीं लगता। यदि सरकार को पैसे की आवश्यकता नहीं है तो टैक्स से जुटाई राशि भारत के अन्य गरीब खेलों व खिलाड़ियों व उनकी सुविधाओं पर खर्च करी जा सकती है। वैसे भी क्रिकेट व क्रिकेटर भारत के सबसे अमीर लोगों द्वारा खरीद लिए गए हैं। अब वे पैसा बनाने का एक साधन हैं। तो क्यों न जैसे पैसा कमाने के अन्य साधनों व अन्य धंधों में टैक्स लगता है वैसे ही यहाँ भी लगे। हमारे भारतीयों व उनके जीवन स्तर को देखकर लगता है कि देश यदि अधिक नहीं तो कम से कम दो शताब्दियों में जी रहा है,अधिक नहीं तो दो भारत तो अवश्य ही हैं, एक क्रिकेट या कहिए आइ पी एल का भारत तो दूसरा गुल्ली डंडे, कंचों, खो और कबड्डी वाला भारत। गली, व सड़क पर खेला जाने वाला क्रिकेट भी इस दूसरी श्रेणी में ही आता है बस अन्तर इतना है कि यहाँ खिलाड़ी सचिन बनने का सपना भी संजोए रहते हैं जबकि गुल्ली डंडे, कंचों, खो और कबड्डी वाले शायद सपने भी नहीं देखते।
यदि दूसरे खेलों को बढ़ावा देना हमारी नीति के विरुद्ध है तो फिर जिस भी शहर में यह मैच हो रहा हो उसी शहर के हस्पताल में किसी बेबस मरीज को इलाज/ औपरेशन के लिए पैसा दे दिया जाए। यह कल्याण कार्य भी आइ पी एल के विज्ञापनों में दिखाया जाए। या फिर यह पैसा किसी नामी खिलाड़ी द्वारा ही मरीजों को दिला दिया जाए। शायद कुछ और लोग भी सहायता करने को उत्साहित हो जाएँ। आइ पी एल क्रिकेट के अलावा केवल नाच, गाने, मस्ती, और देश के सुन्दर लोगों के जमघट का ही नाम न होकर अपने हिस्से का टैक्स भी देश के हित में दे रहा है यह संदेश सबको मिलना चाहिए। हो सके तो टैक्स से भी अधिक सहायता समाज की कर रहा है दिखे तो क्या बात!
समझ नहीं आ रहा है कि समाजवाद की पक्षधर न होने पर भी आइ पी एल मुझे क्यों परेशान कर रहा है। क्यों मेरा मन मैच देखने का नहीं हो रहा? क्यों मुझे लग रहा है कि टिकट के २५०० रुपए में से कम से कम ५०० रुपए तो मनोरंजन कर में जाने ही चाहिए थे? क्यों मैं घुघूत के यह पूछने पर कि फाइनल मैच देखने भी चलना है कोई उत्तर नहीं दे पा रही? मैं जानती हूँ कि सारे जीवन २० या ३० बार से अधिक सिनेमा हॉल (अब तो सिनेमा हॉल भी शायद नहीं बचे)में फिल्म तक न देख सकने वाली मैं, जीवन की संध्या में शहर में रह रही हूँ तो बिना किसी ग्लानि के मैच देखने जा सकती हूँ। मुझे स्टेडियम का वातावरण रास भी आया था। अपने अन्दर छिपी पुराने जमाने की खिलाड़ी की स्पर्धा वाली भावना भी वापिस बाहर आई थी। फिर भी मैं मैच देखते समय असहज सी हो रही हूँ। क्या बिना कर चुकाए ऐश्वर्य गले में हड्डी की तरह फँसता है? क्या हेराफेरी कर धन कमाने वाले का भगवान को चढ़ावा और हमारा कर समतुल्य व पाप नाशक व धोवक हैं? क्या कर देने के बाद हम भूखे नंगे लोगों की तरफ से आँखें मूँद बिन ग्लानि के मॉल विचरण कर सकते हैं? शायद हाँ।
खैर कोई बात नहीं, कुछ दिनों में यह भी सामान्य लगने लगेगा। देर सबेर हर गलत बात के हम आदी हो जाते हैं। जय आइ पी एल की, जय पैसे की! कोई बोली लगाए तो शायद हम अपने लेख, कविताएँ, ब्लॉग और यदि सही मूल्य मिले तो अपना यह छद्म नाम भी बेच देंगे।
प्रश्नः क्या यह सफल लोगों से ईर्ष्या का मामला है? या बाज़ारीकरण से पहले वाले दिनों की बच्ची, किशोरी, युवती अभी भी कहीं मेरे भीतर छिपी बैठी है और मुझे पता ही नहीं लगा? क्या अभी भी बचपन में पढ़ा नेहरू का समाजवाद वाला पाठ उसके सुप्त मस्तिष्क में छिपा तो नहीं बैठा? और यह उसी की आत्मा की अपराध भावना है? या फिर कानू सान्याल वाले जीन्स सबमें होते हैं? पता नहीं।
घुघूती बासूती
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हमें आईपीएल से लेना देना नहीं। पर एक बढ़िया दूरबीन कितने में आती है? जिससे वीनस और मंगल ग्रह बढ़िया से दिखें!
ReplyDeleteआइपीएल से अरबों रूपैयों का बारा न्यारा होता है. कई नेताओं की हिस्सेदारी है. यह घोड़ों की रेश से अधिक कुछ नहीं. रही बात टेक्स की तो वह धार्मिक यात्राओं पर लगता है. अरबों की कमाई वाले तमाशों पर नहीं.
ReplyDelete"मूल्य मिले तो अपना यह छद्म नाम भी बेच देंगे" क्या बात कह दी आपने. बहुत अच्छा लगा.
ReplyDeleteबाज़ारीकरण से पहले वाले दिनों की बच्ची, किशोरी, युवती अभी भी कहीं भीतर छिपी बैठी है
ReplyDeleteकहीं पढ़ा था " आराम बड़ी चीज है, मुह ढक के सोईये । मैं कुछ मसलों पर यही रवैया अपनाता हूँ। लोग देश लुट कर खा रहे है। यह भी उसी किताब का एक और अध्याय हो सकता है। बहरहाल मुझे तो कई बार क्रिकेट देखने की बजह से अपने घर में खाना नहीं मिला है। इसलिए मुझे घुघूत की किस्मत से इर्ष्या है ।
ReplyDeleteआईपीएल अब खेल नहीं रहा है। मनोरंजन उद्योग हो गया है। जनता का ध्यान उन की समस्याओं से इतर बांटने का अच्छा तरीका भी है। आखिर मौजूदा सत्ताधारी वर्गों का इस से बड़ा सहायक और कौन हो सकता है? इस पर क्यों टैक्स लगाया जाएगा।
ReplyDeleteनैराश्यपूर्ण परिदृश्य. जिस देश के लोगों को भरपेट रोटी नसीब न होती हो, उस देश में पैसे का इतना आपराधिक प्रदर्शन और लुटान.
ReplyDeleteटैक्स तो लगा होगा जी। आखिर इस तमाशे से सभी को तो फायदा हो रहा है । जनता को भी , जो ३००० देने को तैयार रहती है एक टिकेट के लिए । हमें तो अब तक एक भी टिकेट नहीं मिल पाई। लोगों के पास बहुत पैसा है।
ReplyDeleteनहीं दराल जी, महाराष्ट्र में टैक्स नहीं लगाया गया है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
घुघूती बासूती जी, सच कहूँ तो मुझे तो कभी कभी लगता है कि सचिन रात को सोते वक्त सोचता होगा कि यह देश कितने बड़े ज्ञानियों ( अंग्रेजी में इसका विलोम भी देखे ) का है ! और साथ ही भगवान् से यह भी प्रार्थना करता होगा कि हे भगवान् ! मुझे बार-बार इन्ही मूर्खो के बीच पैदा करना !
ReplyDeleteइस मामले में इस भूत का सोचना थोडा अलग है.....वो ऐसा है कि क्रिकेट मेरा बचपन का शौक है....और किसी समय में लेग स्पिनर हुआ करता था.. मगर अब ऐसा है कि कैसा भी शौक हो आपका मगर अगर उससे समय जाया होने के सिवा कुछ ना होता हो तो.....वो बेकार है.....क्रिकेट नाम की चीज़ ने भारत के लोगों एक हद तक काहिल बनाया हुआ है.....जब भी शुरू होता है तो जगह जगह बाज़ार के बाज़ार वीरान हो जाया करते हैं....लाखों-लाख लोगों का बहुत सारा उपयोगी समय यानी घंटों के घंटे वृथा नष्ट हो जाते हैं....इसे देखते वक्त लोगों को ना खाने की सुध होती है.....ना पीने की यहाँ तक कि बहुत सारे काम भी बाद के लिए टाल तक दिए जाते हैं.....इस तरह लाखों लोगों के करोड़ों घंटे यूँ बर्बाद हो जाते हैं और लोगों को कुछ महसूस तक नहीं होता.....किसी भी चीज़ का शौक होना एक अलग बात है....मगर उस शौक से होने वाले नुकसान को भी नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता.....नहीं किया जा सकता ना.......!
ReplyDeleteare baap re ye billi hi ghuguti ji hain.....baap re baap ....ab tak to main sochta tha ki......khair apnaa kyaa hai.....apan to billiyon se bhi yun gapiya lete hain.....me aaun....me aaun.....yani main aaun..??
ReplyDeleteहाहाहा, भूतनाथ जी! घुघुति एक पहाड़ी चिड़िया होती है, फ़ाख़्ता सी। और उसे बिल्ली से डरना चाहिए। परन्तु यह बिल्ला घुघूती का लाड़ला है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
कमाल है!!! क्या आइ.पी.एल. के इतने मँहगे टिकटों में मनोरन्जन कर नहीं जुड़ा होता? ये तो सच में सोचने वाली बात है. ख़ैर, आपको जो ये आत्मग्लानि सी हो रही है, वो मेरे ख्याल से हर संवेदनशील मन को होती है.
ReplyDeleteबात पते की।
ReplyDeleteमेरा तो इन सबसे कोई मतलब ही नहीं है.
ReplyDeletebaat pate kii hai. I.P.L. par tax kyon nahin lagta..!
ReplyDeleteविचार बिल्कुल ठीक है सुना है कि शिव सेना वाले भी इस मसले को उठा रहे हैं मगर वे तो शायद इसलिए कह रहे होंगे कि मराठी में ही बौलिंग बैटिंग , फ़ील्डिंग, कमेंट्री, और चीयर गर्ल्स का डांस भी हो ..मगर हर लिहाज़ से टैक्स तो लगना ही चाहिए ..फ़िर चाहे उस पैसे से हाकी को ही फ़िर से दिल क्यों न दे दिया जाए .....किसी का तो भला हो ..
ReplyDeleteअजय कुमार झा
क्या अभी भी बचपन में पढ़ा नेहरू का समाजवाद वाला पाठ उसके सुप्त मस्तिष्क में छिपा तो नहीं बैठा? और यह उसी की आत्मा की अपराध भावना है? या फिर कानू सान्याल वाले जीन्स सबमें होते हैं? पता नहीं।
ReplyDeletebilkul sahi hai ham sab yahi sochte hai vykt hi nahi kar pate aur vykt kre bhi to nakkarkhane me tuti jaise hal .
हमे कुछ नही पता जी
ReplyDeleteआई पी एल खेल नहीं धनाढ्यों का तमाशा ही है ...जिसे बिके हुए खिलाडियों द्वारा खरीदारों के मनोरंजन के लिए खेला जाता है इसलिए इस पर मनोरंजन कर तो जरुर लगना चाहिए ...!!
ReplyDeleteवैसे तो आई पी एल से साबका नहीं लेकिन है लम्बा खेल तो उपर तक मिली भगत के बिना कहाँ संभव है..फिर ऐसे में कैसे टैक्स.
ReplyDeleteवैसे वो चीयर लीडरानी वाला नाच शायद ज्ञानवर्धन की श्रेणी में डाल कर टैक्स फ्री मूवी टाईप एडस्टमेन्ट तो नहीं मान लिया गया है इसे?? बच्चों को चार और छः का पहाड़ा भी सीखने मिल जाता है.
सर्वप्रथम तो आपको इतने सटीक लेख के लिए बधाई। टेक्स नहीं है यह जानकर हैरानी हुई। व्यक्ति के जीवन में मनोरंजन का बहुत महत्व है, उसे हर विपरीत परिस्थिति में भी मनोरंजन तो चाहिए ही। वह कहीं भी हंसने का मार्ग तलाश लेता है। इसलिए यदि क्रिकेट के माध्यम से मनोरंजन मिलता है तो मुझे कोई बुराई नहीं दिखायी देती। कम से कम आज जो चेनलों पर समाचार दिखाये जा रहे हैं उनसे जो मन प्रदुषित होता है उससे तो अच्छा ही है। यह शुद्ध मनोरंजन है,इस पर टेक्स अवश्य लगना ही चाहिए। और जिस तरह से सचिन को भारत रत्न देने की मांग की जाती है उसका भी विरोध होना चाहिए। बिके हुए खिलाडी, शुद्ध मनोरंजन के लिए खेल रहे खिलाड़ी को कैसे भारत रत्न?
ReplyDeletesamrath ko nahi dosh nahi
ReplyDeleteआपने बहुत सही मुद्दा उठाया है...आई.पी.एल. एक तमाशा तो है ही...पर मनोरंजन के भूखे हमारे देशवासी भी क्या करें...क्रिकेट सीज़न शुरू हो जाता है तो जैसे उन्हें बात करने का,खुश होने का,टी.वी. देखने का, पेपर पढने का...मैच के टाइम से सोने और जागने का एक बहाना मिल जाता है. और इसका फायदा आयोजक उठाते हैं.जितना वे दर्शकों को नए नए तरीके से आकर्षित कर सकें..पूरी कोशिश करते हैं...
ReplyDeleteहाँ वो आपकी सोच जायज है...कि कुछ अंश तो जरूरतमंदों पर खर्च करें. खिलाड़ी शायद थोड़ा करते भी हैं...सब किसी ना किसी संस्था से जुड़े हैं और अच्छी रकम चैरिटी में देते हैं
जिस देश में हत्या, बलात्कार, नरसंहार, देश की इज्ज़त और भ्रष्टाचार तक को तमाशा बना दिया जाता हो. जहाँ सौ से ज्यादा टीवी चैनल, रेडियो चैनल चौबीसों घंटे अपनी सेवाएं दे रहे हों, जहाँ लोग काम कम करते हैं और फिल्मे ज्यादा देखते हैं..... उस देश के लोग फिर भी मनोरंजन के भूखे?!
ReplyDeleteहमारे देश के पेट में टेपस्नेक या टेपअजगर तो नहीं बैठा? कैसे शांत हो यह भूख? वैसे इतनी बोरियत पैदा कैसे हो जाती है? हमें तो जब भी खाली समय मिलता है उसमे ब्लॉग पढ़ते हैं, गणित के सवाल हल करते हैं, प्रोग्रामिंग करते हैं या अर्थशास्त्र बांचते है... और बोरियत से बचते हैं.
Aapse sahmat hun,aur nishabd bhi...hamare deshme ek khaas vayogat ko maddenazar rakhte hue harek upbhogy cheez banti hai..aur us vayogat me kewal yuva warg shamil hai...chahe wastr hon ya hotels..
ReplyDeleteरमाकांत देसाई और दिलीप सरदेसाई
ReplyDeleteआईपीएल व्यवसायिक गतिविधि है। मनोरंजन है। इस पर मनोरंजन कर तो सबसे पहले लगना चाहिए। आपका लेख स्वागतयोग्य है।
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