इस लेख में बहुत कुछ जोड़ भी सकती हूँ किन्तु वह फिर कभी। यह बस यूँ ही नारी पर टिपियाते हुए (स्त्री के मन से अनायास निकला हुआ) कह दिया। जोड़ने को माँ के साथ हुए अनगिनित वाद विवाद व वार्ताएँ हैं, हजारों वे बातें हैं जो आज तक अनकही रह गईं। कहने पर उलाहने मिलने की संभावनाएँ ही अधिक रहती हैं। कभी स्त्री के हाजिर जवाब होने पर यह सुनने को मिलता है कि यूँ ही पटर पटर जवाब देती होगी इसीलिए........... कुछ भी जोड़ सकते हैं जैसे ससुराल वाले नाराज होते होंगे, पति नाराज होता होगा आदि आदि। यदि अभागिन हुई तो पिटाई होती होगी आदि। जो गुण पुरुष को नेता बनाते हैं वे ही स्त्री को दुष्टा, कलमुँही व न जाने क्या क्या बनवाते हैं। आप मन मस्तिष्क का उपयोग करना चाहती हैं किन्तु जिस पोस्ट के लिए आपने अर्जी दी थी वहाँ केवल समर्पण की आवश्यकता है। आप गलत समय पर गलत ग्रह में गलत जीन्स लेकर आ गई हैं। बचपन के सारे गुण अचानक अवगुण बन जाते हैं। बार बार सुनने को मिलता है कि तुम्हें तो वकील होना चाहिए था। जो यह भी सिद्ध करता है कि तर्क सही ही है किन्तु चुभता है। स्त्री होने की कीमत काफी अधिक चुकानी पड़ती है प्रायः.।
खैर, आप टिप्पणी पढ़िए........
रचना जी, विज्ञापनों का जो मुद्दा उठाया गया है वह अपनी जगह ठीक है। वहाँ विचित्र व आपत्तिजनक विज्ञापनों की बात हो रही थी।
समस्या रवैये या कहिए attitude की है। इसका कोई सरल उपाय नहीं है। यह रवैया ही टिप्पणियों में चाहे अनचाहे झलकने लगता है। यह सदियों के अनुकूलन/ conditioning का परिणाम है। स्त्रियों का यहाँ, वहाँ, हर ब्लॉग पर भ्रमण करना कुछ व्यक्तियों के अवचेतन मन पर वही प्रभाव छोड़ता है (प्रहार करता है ) जो एक दो पीढ़ी पहले स्त्रियों को अड़ोस पड़ोस में जाकर बैठने, बतियाने, या मेला देखने, घूमने जाने पर होता था। लगता था कि ये खाली (पंजाबी में वेल्ली जनानी ) औरत समय बरबाद कर रही है। यह फालतू, घटिया औरत है। स्त्री से हर समय स्वयं को काम में व्यस्त रखने की अपेक्षा की जाती थी। यदि सब काम खत्म हो जाएँ तो सिलाई, कढ़ाई, बुनाई तो कर ही सकती थी,(मैं भी करती रही हूँ।) किसी का सिर या पैर दबा सकती थी।
लोग कहना तो शायद सही ही चाहते हैं किन्तु आदत ही ऐसी पड़ गई है कि यदि स्त्री की बात करनी है तो कुछ छोटा दिखाने वाले ( derogatory) शब्द या भाषा, या फिर सीख देने वाली भाषा अनचाहे ही अपने आप कूदकर चली आती है। मायावती, सोनिया,ममता व अपने कार्यक्षेत्रों में जब अधिक से अधिक सामना स्त्री बॉसेज़ से होने लगेगा तो यह सब अपने आप ही छूटता जाएगा। यह कुछ कुछ वैसा ही है जैसे छोटे बच्चे से बात करते समय बहुत से लोग तुतलाने वाली भाषा की मोड में आ जाते हैं, बच्चे के गाल नोचने लगते हैं आदि। हम हर समय चैतन्य नहीं रहते हैं, प्रायः स्वचालित/ औटो पायलेट वाली मोड में जीते हैं और यह उनकी स्वाभाविक यन्त्रवत प्रतिक्रिया होती है।
जहाँ तक 'स्त्रियाँ कहाँ हैं, क्यों नहीं बोल रहीं' का उत्तर है तो क्या कभी ऐसा हुआ है कि आप समाचारपत्र पूरा का पूरा बिना एक स्त्री के रूप में आहत हुए पढ़ लें? या फिर ढेर सारे ब्लॉग बिना आहत हुए पढ़ लें? हाँ, हमें आपत्ति करनी चाहिए किन्तु कब तक और किस किस की? हम करते हैं, परन्तु बीच बीच में चुप भी हो जाती हैं। कश्मीर में स्त्रियों की नागरिकता को लेकर, महाराष्ट्र में बच्चों के अधिवास को लेकर जहाँ डोमिसाइल उस ही को मिलेगा जिसका पिता महाराष्ट्र में पैदा हुआ हो,या न्यायाधीष जब कहें कि पीड़िता को अपने बलात्कारी से विवाह करने का अधिकार होना चाहिए? हाँ, अवश्य होना चाहिए। किन्तु तब जब वह अपनी सजा भी पूरी कर ले। घर, बाहर, सड़क, दफ्तर, कॉलेज कौन सा स्थान ऐसा है जहाँ हमें इस रवैये का सामना नहीं करना पड़ता? यदि सड़क पर पुरुष सीटी बजाता है,बुरा व्यवहार करता है तो हमें कपड़ों पर उपदेश मिल जाते हैं। यदि स्त्री का बलात्कार होता है तब भी। यदि घर पर स्त्री का उत्पीड़न होता है तो या तो यह कहा जाता है कि तुमने ही पति को मारने को उकसाया होगा या यदि सास द्वारा उत्पीड़न हो तो यह सुनने को मिलता है कि 'स्त्री ही स्त्री की शत्रु है।'
तो जब आप रैगिंग का विरोध करते हैं तो क्या हम च च च कहने की बजाए यह कहती हैं कि 'पुरुष ही पुरुष का शत्रु है?' या फिर जब आप कहते हैं कि नगर में अपराध बढ़ गया है, हत्याएँ हो रही हैं, खुले आम घूस माँगी जा रही है या फिर जब कहीं पुरुषों पर लाठी चार्ज होता है तो क्या वही ब्रह्म वाक्य 'पुरुष ही पुरुष का शत्रु है' कह देते हैं? या फिर यदि पति दफ्तर से परेशान सताया हुआ,पुरुष बॉस की झाड़ खाकर आता है तो गरम चाय देने या उसके घावों पर मरहम लगाने की बजाए यह कह देती हैं कि 'पुरुष ही पुरुष का शत्रु है।'
स्त्री दफ्तर से आती है तो आते से ही उसे रसोई में घुसना चाहिए, पति, ससुर सास को चाय देकर भोजन बनाना चाहिए। क्योंकि वह नौकरी करके किसी पर उपकार नहीं कर रही। बड़ी अफसर होगी तो दफ्तर में। किन्तु जब पति उस ही दफ्तर से उस ही पद से काम करके आता है तो वह थका होता है, उससे उलझना नहीं चाहिए, उसे एक मुस्कान के साथ चाय देनी चाहिए। फिर निर्बाध टी वी देखने देना चाहिए।
समाज को बदलने में समय लगेगा। यदि बदलाव में उन्हें अपना लाभ दिखेगा तो जल्दी बदलेंगे यदि हानि तो देर लगाएँगे। खैर बदलना तो पड़ेगा ही। हमें क्रोध आना स्वाभाविक है किन्तु साथ साथ इस समाज की मानसिकता को भी समझना ही होगा। यह समझना होगा कि वे हम पर आक्रमण नहीं कर रहे,हमारे प्रति उनकी भाषा ही ऐसी है,लहजा ही ऐसा है। यदि स्त्री शक्तिशाली बनें,ऊँचे पदों पर बैठें तो देखिए लहजा, भाषा सब बदल जाएँगे, कम से कम स्त्री के सामने तो।
घुघूती बासूती
Saturday, March 20, 2010
एक टिप्पणी, एक लेख .....................घुघूती बासूती
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
अजी स्त्री के सामने चलती किसकी है?
ReplyDeleteवो तो अहसान है स्त्री का जो कुछ कहती नहीं है पुरूषों को!
हमने तो ऐसी महिलायें भी देखी हैं जो घर में भले ही पति के पांव दबाती रहे,बाहर निकल कर बतायेगी कि पुरूष मेरी जूती के बराबर भी नहीं
बातें हैं बातों का क्या :-)
लिंक खुला नहीं भला क्या टिप्पणी करूं ?
ReplyDeleteयदि स्त्री शक्तिशाली बनें,ऊँचे पदों पर बैठें तो देखिए लहजा, भाषा सब बदल जाएँगे, कम से कम स्त्री के सामने तो।
ReplyDelete---------
अपने बचपन से सुन रहा हूं। चौव्वन साल का हो गया। बदलाव है, पर उतना नहीं। :(
आपसे सहमत।
ReplyDeleteकुछ लोगों के दिमाग़ में यह अच्छे से बैठ गया है कि पुरूष केवल स्त्री का शोषक व केवल शोषक ही हो सकता है (कारण :- हो सकता है उनके घरों में या उनके आस पास ऐसा होता आया हो). ऐसे में उनकी आंखों पर एक ही मायेपिक चश्मा रह जाता है जिससे उन्हें यह बिल्कुल नहीं दिखता कि स्त्री व पुरूष एक दूसरे के पूरक भी हो सकते है (क्या है मन:स्थिति रूग्णता नहीं है?).
ReplyDeleteइस चश्में को उतार फेंक यह देखने की ज़रूरत है कि सिक्के के कई पहलू और भी हैं...क्या कभी यह जानने की कोशिश की है इन्होंने कि पश्चिमी-समाज में स्त्री की भारत सरीखी तथाकथित दोयम स्थिति न होने के बावजूद वहां भी स्त्रियां वे काम करती हैं जिन्हें यहां महिलाओं की तथाकथित आज़ादी पर हमला माना जाता है. ठीक उसी तरह के काम वहां के पुरूष भी करते हैं जिन्हें यहां स्त्रिवादी जीव सामाजिक विकृति माने बैठे हैं.
नवजात को स्तनपान कराना यदि स्त्री ममत्व भी परिलक्षित करता हो तो यह क्रिया पुरूष की गुलामी की द्योतक है क्या ! वहीं, सड़क पर सीटी बजाना या हाथ उठाने की हिमाकत को औचित्यपूर्ण विकृत मस्तिष्क ही ठहरा सकता है...
... one up man-ship के बजाय ज़रूरी है कि समाज के दोनों अंग ठंडे दिमाग़ से काम लें और posturing बंद करें.
कुमाउनी संस्कृति के विषय में लिखे आपके लेखो को पढ़कर ही मैंने आपके ब्लॉग का अनुसरण करना प्रारंभ किया था । वो मेरी अपनी कुमाउनी संस्कृति के प्रति कमजोरी वाली भावना थी। पर आपकी यह टिपण्णी पढ़कर तो मैं आश्वस्त हूँ की मैं सही व्यक्ति का अनुसरण कर रहा हूँ।
ReplyDeleteआपकी टिपण्णी हर हाल में सही है...
ReplyDeleteसमाज को बदलने में समय लगेगा। यदि बदलाव में उन्हें अपना लाभ दिखेगा तो जल्दी बदलेंगे यदि हानि तो देर लगाएँगे। खैर बदलना तो पड़ेगा ही। हमें क्रोध आना स्वाभाविक है किन्तु साथ साथ इस समाज की मानसिकता को भी समझना ही होगा। यह समझना होगा कि वे हम पर आक्रमण नहीं कर रहे,हमारे प्रति उनकी भाषा ही ऐसी है,लहजा ही ऐसा है। यदि स्त्री शक्तिशाली बनें,ऊँचे पदों पर बैठें तो देखिए लहजा, भाषा सब बदल जाएँगे, कम से कम स्त्री के सामने तो।
ReplyDeleteआपसे पूर्णतया सहमत लेकिन बदलाव के बयार में अभी काफी समय लगना है ,अच्छी पोस्ट लगी,धन्यवाद.
अपनी दादी के साथ हुए अनगिनत वाद विवाद याद आ गए, वो धैर्य की घुट्टी पिलाती और हम चंचल नदी की तरह बाँध तोड़ बह निकलते
ReplyDeleteआपसे पूर्णतया सहमत
कई बार कोई टिप्पणी पोस्ट को सार्थक बना देती है और आपकी इस टिप्पणी ने यही किया है. यही टिप्पणी मैंने उस लेख पर भी दी थी..
ReplyDeleteटिप्पणियों के कारण अपनी बात कहना न छोड़ें....बहुत जौहरी हैं मैदान में.....
ReplyDeleteदेखिए ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती, ज़िंदगी की गाड़ी समझदारी के दो पहियों पर ही टिकी होती है.. गाड़ी पटरी से उतर न जाए, इसके लिए दोनों सवारों को दोनों ही तरफ़ बराबर का बैलेंस बनाकर रखना होगा... बाकी तो ज़माना है.. जितने मुंह उतनी बातें.. हां एक बात और.. टिपियाने शब्द बहुत अच्छा लगा...
ReplyDeleteआपकी टिप्पणी मैंने पढ़ी थी और तब लगा था कि इसे तो एक पोस्ट के रूप में ही होना चाहिये था. कभी-कभी टिप्पणियाँ पोस्ट से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं. मैं आपकी बात से शत-प्रतिशत सहमत हूँ. इस बात की दुहाई देने वालों को कि "स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं" कौन समझाये कि स्त्री को दोयम दर्ज़े पर समाज ने ही तो रखा है, स्त्री कब मना करती है पूरक होने से.
ReplyDeleteमैं ज्ञानदत्त पाण्डेय जी की बात से सहमत हूँ कि बहुत दिनों से सुनते आ रहे हैं कि स्त्री जब अपने पैरों पर खड़ी हो जायेगी तो स्थिति सुधर जायेगी, पर ऐसा हुआ कहाँ है ? स्त्रियों पर तो अत्याचार बढ़ता जा रहा है. इसीलिये विमर्श की ज़रूरत बनती है.
पूरक होने के लिए चलिये हमी प्रयास कर लें .
ReplyDeletebadlaav aataa nahin haen layaa jaataa haen aur uskae liyae shakti kaa hona aavshyaka haen jo shaktishali hoga jeetaegaa aur jeetna jaruri haen
ReplyDeleteक्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल,
सबका लिया सहारा;
पर नर-व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ कब हारा?
क्षमा शोभती उस भुजंग को,
जिसके पास गरल हो।
उसको क्या, जो दन्तहीन,
विषरहित, विनीत, सरल हो ?
तीन दिवस तक पन्थ माँगते
रघुपति सिन्धु-किनारे,
बैठे पढते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे।
उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से,
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से।
सिन्धु देह धर 'त्राहि-त्राहि'
करता आ गिरा शरण में,
चरण पूज, दासता ग्रहण की,
बँधा मूढ बन्धन में।
सच पूछो, तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की,
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।
सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है,
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।
विचारणीय पोस्ट....
ReplyDeletekuchh kahanaa chaahataa tha nain....magar kyaa kahun....sab kuchh to aapne hi kah diyaa.....ab main aapse purnrupen sahmat ho kar jaa jaa rahaa hun.....sanjidgi se....!!
ReplyDeleteविचारोत्तेजक पोस्ट है और हम सब के लिए आत्मालोचन की ज़रूरत को रेखांकित करती है.
ReplyDeletewelcome to ghhote .... basutee....
ReplyDeleteIam hailing from kumaoni cultere and my birthplave is mumbai.. i visited almost all parts of india, in hill region of kumao , it is only place in world where the womens are hard working from the day of wake to day of sllep and mens are roaming and used to take beedi. hukka and liquore drinks they hardly accompamy womwnr in theirs works