अवैधानिक चेतावनी: ज्ञान पिपासु फिर कभी आएँ जब ज्ञान वार्ता हो रही हो। खेद है कि आज ज्ञान की दुकान बन्द है। आज अगम्भीर चिन्तन दिवस है।
प्लास्टर उतर गया, जमकर रगड़ा लग गया
और हम खड़े खड़े, हॉस्पिटल में पड़े पड़े
हाथ खूब मुड़वाते औ तुड़वाते रहे।
हाय रे मानव! तू सदा सोचता है कि आज ही कठिन है, कल बेहतर होगा। जबकि बाद में पता चलता है कि मुन्ना, कल जो खेल खेल रहे थे वह तो कुछ भी नहीं था, वहाँ तो आपके कच्चे चावल थे,दूध-भात थे, कच्ची धाईं थी (वह व्यवस्था जिसमें आपको कम से कम दो अवसर मिलते हों तब जाकर आप खेल से बाहर होते हैं। यह प्रबन्ध अनाड़ी या बच्चे या कच्चे खिलाड़ियों के लिए होता है या उसके लिए जिसका बल्ला और गेंद हो!)। और आज जो खेल हो रहा है वह तो विश्व विजेता से हो रहा है। प्रायः यह खेल मुक्केबाजी या मुक्त पद्धति की कुश्ती ही निकलता है। और तब आप वे कल के सरल सुगम दिन याद करते हैं और गाते हैं..
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन
ओह, ओह,देखिए मैं यह नहीं गा रही....
कोई लौटा दे मेरे प्लास्टर वाले दिन
प्लास्टर वाले दिन वो मेरे आलसी पलछिन।
ना, ना, बिल्कुल नहीं। वैसे भी वह प्लास्टर कटकर अब कहीं मुम्बई शहर का कूड़ा बढ़ा रहा होगा और वह था भी प्राकृतिक तरीके से असड़नशील। अब बहना,(भइया क्यों कहूँ?)जब ६ सप्ताह तक उसे बाँह पर चिपकाए रखना था तो सड़नशील तो पहन नहीं सकती थी।
खैर, बात हो रही थी यह कि कुछ मित्र मेरी बाँह का हालचाल पूछ रहे थे सो मैं उसका हाल बता रही थी। हाल यह है कि प्लास्टर उतर गया है। नीले रंग का सिन्थेटिक प्लास्टर था जो कि फाइबर ग्लास की तरह का था, या यह भी कह सकते हैं कि प्लास्टिक की निवाड़ सा था। उसे एक कटर से काटा गया। कटर बिल्कुल वैसा था जैसा मेरा बर्फी या कुकी कटर होता है। एक धार वाला पहिया जो जब बर्फी कटर होता है तो हाथ से चलाया जाता है और जब प्लास्टर कटर होता है तो बिजली से। जब इसका प्रयोग मेरी बाँह पर (लगे प्लास्टर पर)किया जा रहा था तो उसकी घर्षण से पैदा गर्मी से मेरी बाँह परेशान थी। डॉक्टर ने सोचा कि मैं बाँह न कट जाए सोचकर डर रही हूँ सो उसने अपनी हथेली पर चला कर दिखाया। खैर प्लास्टर और रूई के नीचे मेरी बाँह दो जगह थोड़ी सी कट गई।
उसके बाद जब मैं सोच रही थी कि अब मुक्त हो स्वतंत्रता दिवस मनाऊँगी तब मुझे फ़िज़ियोथेरेपिस्ट के पास भेज दिया गया। उनका कहना है कि बाँह ने बहुत आराम कर लिया और अब इसकी कीमत चुकानी होगी, जबर्दस्ती मरोड़ कर! तो यातना का दौर शनिवार से ही शुरू हो गया। जमे हुए जोड़ों व माँसपेशियों को खूब सजा दी जा रही है। दुख की बात यह है कि उन जमे हुए जोड़ों व माँसपेशियों से मैं भी जुड़ी हुई हूँ, सो सजा चाहे उन्हें दी जाए दर्द मुझे ही होता है। अब हर शाम को यातना पाने के लिए जाती हूँ। फ़िज़ियोथेरेपिस्ट का कहना है कि उसे मेरे दर्द से कुछ लेना देना नहीं है, केवल मेरी बाँह की हरकत या हिलने डुलने से उसे मतलब है। सोचती हूँ कि लोगों का कष्ट दूर करने वाले फ़िज़ियोथेरेपिस्ट को कैसा लगता होगा जब सामने वाला दर्द से कराह रहा हो और उसे बाँह मरोड़ते जानी पड़ती हो!मैं अगले जन्म में जो भी बनूँ फ़िज़ियोथेरेपिस्ट तो बिल्कुल नहीं बनूँगी। खैर, यदि मैं स्वपीड़न से आनन्दित होने वाली होती तो कहती कि मजे में हूँ और यदि स्वपीड़न से दुखी होने वाली हूँ तो बस बाँह के पूर्ववत होने की प्रतीक्षा में हूँ। मुझे पूर्ण विश्वास है कि सब पहले जैसा ही हो जाएगा।
समस्या तो यह हो गई है कि अब यातना की प्रयोगशाला घर में भी स्थापित हो गई है। पहले पहल जिस घुघूत से मेरा दर्द देखा नहीं जाता था और जो फ़िज़ियोथेरेपिस्ट से कहते थे कि मैं बाहर बैठता हूँ, मैं यह यातना नहीं देख सकता अब उस घुघूत को भी इस यातना कार्यक्रम का सक्रिय सदस्य बना लिया गया है। उन्हें भी पट्टी पढ़ाकर 'परमार्थ के लिए परपीड़न दल'(PPPD) में शामिल कर लिया गया है। अब वे भी बाँह मरोड़ना सीख गए हैं और अब मुझे बइयाँ ना 'मरोड़ो' बलमा (जानती हूँ मरोड़ो नहीं धरो है किन्तु उससे क्या होता है? मेरे कान में तो बइयाँ ना मरोड़ो बलमा ही सुनाई देता है!) गीत का संदर्भ व प्रसंग ठीक से समझ आ गया है और यदि कोई मुझे इसकी संदर्भ व प्रसंग सहित व्याख्या करने को कहेगा तो 'वेरी गुड' अवश्य मिल जाएगा। व्याख्या कुछ ऐसे होगी कि नायिका की बाँह टूट गई, प्लास्टर उतरने पर फ़िज़ियोथेरेपिस्ट नायक जब फ़िज़ियोथेरेपी करता है तो दर्द से कराहते हुए नायिका यह गीत गाती है। मुझे उसकी आवाज में दर्द साफ सुनाई देने लगा है। पता नहीं इतने सालों तक यह दर्द क्यों नहीं सुनाई दिया था!
आह, पता नहीं क्या लिखने के लिए आई थी और क्या लिख कर जा रही हूँ। अब मुझे इस पोस्ट को अगम्भीर का लेबल लगाना पड़ेगा। अन्यथा सखियाँ पूछेंगी कि क्या यह पोस्ट इतनी गंभीर व आवश्यक थी! और मैं लिखूँगी..
'बिल्कुल भी गंभीर और आवश्यक नहीं है। परन्तु मैंने कभी यह दावा भी नहीं किया कि गंभीर और आवश्यक विषय पर ही लिखूँगी। बहुत बार मनुष्य हल्का-फुल्का भी लिखता- पढ़ता है, वैसे ही जैसे सारा समय आप केवल विटामिन, प्रोटीन आदि का ध्यान रखकर ही नहीं खातीं, बहुत बार केवल खाने को खाती हैं। हममें से लगभग सबका इस संसार में होना भी जरा सा भी आवश्यक नहीं है, किन्तु फिर भी हम हैं।
वैसे एक काम किया जा सकता है लेबल में गंभीर या अगंभीर लिखा जा सकता है। ताकि आपका समय बर्बाद न हो।'
घुघूती बासूती
Friday, February 05, 2010
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हा हा हा यह लेबल वाला सुझाव बहुत ही अच्छा है...पर एक बात शायद गंभीर लेबल वालों को नहीं पता...कोई फटकेगा ही नहीं वहाँ...वो तो, लोग कहीं भी चले जाते हैं....और परोसा हुआ मन से या बेमन से उदरस्थ कर ही लेते हैं.
ReplyDeleteअच्छा लगा,जानकर कि आपकी प्लास्टर निकल गयी...और पूरी प्रक्रिया क़ी जानकारी भी मिल गयी...गाने का नया रूप और नया पिक्चाराईजेशन भी बहुत भाया
गंभीर न हुए भी गंभीर दुःख दर्द बाँट कर मुझे तो अपने गंभीर कर दिया -जल्दी से ठीक हो जाएँ नहीं तो होली में कहीं ज्यादा बांह मुडी तो मुसीबत हो जायेगी !
ReplyDeleteसो ,तेजी से होली के पहले ही ठीक हो लें !
लेख में शुरु से अंत तक दिलचस्पी बनी रही घुघूती-बासूती जी ! दुर्घटना भले ही दुखद वाकया हो किन्तु इंसान उसमे भी दिलचस्पी ला खडा कर देता है ! ऐसा ही एक वाकया काफी साल पहले का आपको सुनाना चाहूंगा ! उपरी माले से नीचे गिर पडा था, भारी-भरकम शरीर की वजह से सिर पर १६-१७ टाँके आये थे ! एक सहकर्मी मित्र ने कुछ दिन बाद अहमदाबाद से फोन कर हाल पूछना शुरु किया ! गोदियाल साहब, ये कैसे-कैसे हुआ ? मैं ठहरा सीधा-साधा पहाडी, अब जब कोई पूछ रहा है तो मैंने भी पूरी घटना का सिलसिलेवार व्योरा देना शुरु किया! वह मुझे बीच में टोककर पूछता है, यार , वो तो सब ठीक है पर मैं तो यह पूछ रहा था कि सामान क्या- क्या टूटा ? यह सुन मैं अपने उस शुभचिंतक की मसखरी पर मुस्कराभर दिया !
ReplyDeleteअवैधानिक चेतावनी: यह एक अ-गंभीर टिप्पणी है.
ReplyDeleteबहुत मज़ेदार पोस्ट है. दर्द के बारे में मजेदार पोस्ट हर कोई नहीं लिख सकता न. लेबल वाला आईडिया भी बहुत मजेदार और 'अ-गंभीर' लगा. आप कभी-कभी अ-गंभीरता के सहारे गंभीर बातें कह जाती हैं. यह अ-गंभीरता बनी रहे, यही कामना है. बांह वगैरह मोड़ते समय गंभीर होना ज़रूरी है नहीं तो लोग समझेंगे कि अ-गंभीर दर्द हो रहा है.....:-)
फिजियोथेरिपिस्ट अधिक गम्भीर है या आपके घूघूत? आपकी वेदना अधिक गम्भीर थी या प्लास्टर का बोझ? प्लास्टर को फेंकना गम्भीर विषय था या हाथ की स्वतंत्रता? अरे आपने तो काफी गम्भीर विषय बना दिया। लगता है आपका बायां हाथ जख्मी हुआ था तभी तो दाए से इतनी अगम्भीर पोस्ट लिख दी। बड़ा ही दिलचस्प वर्णन था।
ReplyDeleteफिजियोथेरपिस्ट बनना चाहूंगा, अगर मन चाहा काम कर पाने की स्वतन्त्रता हो!
ReplyDeleteजाने किस को मरोड सकते हैं तब! :-)
thik hai.nice
ReplyDeleteप्लास्टर उतरने की बधाई!
ReplyDeleteअब बाँह ठीक ठाक कर सके इसके लिये तो थोड़ा दर्द सहना ही होगा, यह दर्द भी आप ही की भलाई के लिये दिया जा रहा है।
nice :)
ReplyDeleteचलिए इस बहाने ही सही घुघूत जी आपकी बांह मरोड़ने लगे ! वर्ना हम तो गंभीरता गंभीरता में कुछ और ही सोच के बैठे थे :)
ReplyDeleteटूट कर जुड़ चुके हाथ से कटकर गिरे प्लास्टर का दर्द आपसे बेहतर कौन जान सकता है ! इतना तो समझना ही होगा की हाथ का दर्द प्लास्टर से विरह का दर्द भी हो सकता है :)
अभी तो दर्द सह लिजिये, मोडने दिजीये घुघूत जी को बांह
ReplyDeleteवो तो चाहते ही है, कब से आपके हाथ की बरफ़ी खाने को तड़प रहे होगें
एक हमारी तरफ़ से भी
ReplyDeletenice
दुख की बात यह है कि उन जमे हुए जोड़ों व माँसपेशियों से मैं भी जुड़ी हुई हूँ, सो सजा चाहे उन्हें दी जाए दर्द मुझे ही होता है।
ReplyDelete-इतना बड़ा दर्शन छिपा है इस एक वाक्य में..हर माँ का मन उकेर कर रख दिया और आप इसे अगम्भीर का लेबल लगा गईं. जरा गंभीरता से सोचना था लेबल लगाने के पहले..आप भी न!! :)
बेहतरीन रहा..वैसे जल्द पूर्ण दुरुस्ती हो तब फाईनल डॆन्टिंग पैन्टिंग फिर होली. हा हा!
Good :-))
ReplyDeleteजे .....हम आप का दर्द समझ सकते है पर एक बात है प्लास्टर आपने बड़ा स्टालिश लगवाया था
ReplyDeleteहा हा हा वेरी गूड अरे ये देर्द के लिये नही पलस्तर उतरने के लिये है। जल्दी से ठीक होईये शुभकामनायें
ReplyDeleteयह अंदाज अच्छा लगा,शुभकामना पूर्ण स्वस्थ होने की.
ReplyDeleteWah ji,
ReplyDeletetaklif me bhi zindadili se rahane ka aapka yah andaaz bahut lubhavana hai bahut rochak post hai.
Get well soon...Aabhar!!
http://kavyamanjusha.blogspot.com/
ऊपर की टिप्पणियों में उनका नाम न होने से उम्मीद है कि अभी तक पोस्ट को पत्नी ने नहीं पढ़ा है वरना कहती कि देखो लोग कष्ट और दिक्कतों को इतना रंगीन बनाकर भुगतते हैं और हम हैं कि सीधी सादी चलती जिंदगी में भी तनाव का संधान कर लेते हैं।
ReplyDeleteशीघ्र स्वास्थय लाभ की कामनाएं
अपने दर्द को ऐसे हास्य-व्यंग्य के अन्दाज़ में प्रस्तुत करना कम गम्भीर बात नहीं है. मज़ा आ गया ये पोस्ट पढ़कर. और हाँ ज्ञानवृद्धि भी हुयी, नये ढँग के प्लास्टर के बारे में.
ReplyDeleteहमेशा बिना घी की लूखी रोटी खाने वाले मैं ने भी आज एक शादी की पार्टी में तंदूर पर पराठा बनवा कर खाया पार्टी के ढाई हजार अतिथियों में उस स्वाद को चखने वाला शायद मैं अकेला था।
ReplyDeleteसही कहा आपने अगम्भीरता किसी की ठेकेदारी नहीं .....हँसते हँसते दर्द का बयान करना ...और मरोड़ने को बांह आगे करना.... फागुनी हवाओं का असर आपके ब्लॉग पर भी ....:):)
ReplyDeleteहमें तो अपने ब्लॉग पर ही अगंभीर का लेबल लगा देना चाहिये। पढ़कर मजा आया और जल्द दुरुस्तगी की शुभकामनाएं।
ReplyDeleteआपका प्लास्टर उतर गया, ये जानकर अच्छा लगा। एक काम की बात बताउं, जितना ज्याद आप गर्म पानी से सेंक लाएंगी, उतनी जल्दी हाथ नार्मल होगा।
ReplyDeleteवैसे अगम्भीर चिंतन भी प्रभाव है।
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ये इन्द्रधनुष होगा नाम तुम्हारे...
धरती पर ऐलियन का आक्रमण हो गया है।
बधाई हो पलस्तर उतरने की...
ReplyDeleteलेकिन शिकायत यह है कि दर्द, जीवन, पीड़ासुख जैसे पहलुओं को छूने वाली पोस्ट को अगम्भीर श्रेणी में डाल दिया आपने..
is haasya fuhaar ke saath ....plaastar utarne kee badhaai...
ReplyDeleteअवैधानिक चेतावनी: यह एक अ-गंभीर टिप्पणी है
ReplyDeleteshuru se lekar aakheer tak bahut hi rochak laga sab kuch ..
aapki lekhnee bahut sashakt hai..
naman..
waah....waah....waah.....balle...balle....balle.....toote hue haath kee aisi kee taisi....hamne shabdon se nibhaayi dosti aisi.....!!
ReplyDeleteआप गाते-चिल्लाते रहो-बइयां ना मरोड़ो, सुनने वाला कौन है? जैसे देश को समृद्ध बनाने और बताने की दिशा में गरीबों को १०० रूपये किले दाल और ५० रूपये चीनी खरीदने की कवायद कराई जा रही है. आपकी मांसपेशियों का मामला भी वैसा ही है. उसे अपना बनाए रखना है तो दर्द सहो. देश की तरक्की से रिश्ता रखना है तो चीखो चिल्लाओ मत, मंहगा खरीदो, खाओ, खुद को विकसित देश के नागरिकों में गिने जाने का सुख महसूस करो.
ReplyDeleteis haasya fuhaar ke saath ....plaastar utarne kee badhaai.
ReplyDeleteनीले रंग का प्लास्टर पहली बार सुना है. क्या डॉक्टर आजकल रंगों का ओप्शन भी देने लगे हैं प्लास्टर लगाने में? इतने दिन टांग के रखना है कमसे कम रंग तो अपनी पसंद का हो. तो रंग का चुनाव कैसे किया आपने, कपड़ों के बारे में सोच कर कि किस्से मैच करेंगे या यूँ ही नीला आपका पसंदीदा रंग है?
ReplyDeleteइस प्लास्टर पर गेट वेल सून लिखने में लोगों को दिक्कत भी हुयी क्या? इसपर लिखने के लिए स्पेशल पेन आता है, नहीं आता तो कुछ बनाने के लिए सोच सकते हैं.
पोस्ट पढ़ कर कल्पना यहाँ वहाँ दौड़ने लगी :) आखिरी पैराग्राफ बहुत अच्छा लगा.
इस अवैधानिक चेतावनी के बाद सोचना पड़ गया ..आखिर हम क्या हैं ?
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