तो.. स्वाभाविक है अधिक चुस्त,सुन्दर व स्वस्थ दिखेंगे व महसूस करेंगे। और सबसे बड़ी बात स्त्रियों को भी अधिक भाएँगे। भाएँगे केवल उपर्युक्त कारणों से ही नहीं अपितु अपने अखड़ूस व्यवहार के कारण भी। पुरुषों का एक बड़ा प्रतिशत स्त्रियों की चिन्ता में दुबला(मोटा???) हुआ जा रहा है। और चिन्ताएँ भी कैसी? हमारे वस्त्रों की, हमारे आभूषणों की, हमारी चूड़ी, बिंदी और सिंदूर की! कभी उन्हें हमारे फैशन से कष्ट होता है तो कभी हमारे श्रृंगार न करने से!और अब तो स्त्री की श्रृंगार सामग्री बनाने, बेचने वालों की भी चिन्ता!
कल ही संवेदनाओं के पंख में एक लेख पढ़ा। जिसपर मैंने निम्नलिखित टिप्पणी की है...
'नव वर्ष की हार्दिक शुभ कामनाएँ।
बहुत रोचक बात कही है। संसार कभी भी किसी के लिए रुका नहीं रहता। वह बदलता रहता है, प्रगति करता रहता है। यदि चूड़ी, बिंदी और सिंदूर का उपयोग केवल इसलिए किया जाए कि इससे लोगों को रोजगार मिलता है तो शायद हमें वापिस लकड़ी के चूल्हे जलाने होंगे, उपले जलाने होंगे, पुरुषों को धोती, लंगोट,बंडी पहननी होगी, मोची गठित जूते पहनने होंगे, खड़ाऊँ पहनने होंगे,शनि देव को तेल दान करना होगा,बैलगाड़ी व घोड़ागाड़ी उपयोग करने होंगे,पीतल व मिट्टी के बर्तन उपयोग करने होंगे,आदि आदि..........
अन्यथा बहुत से लोगों का रोजगार चले जाएगा!
बात कुछ जमी नहीं! सीधे से कहिए कि स्त्रियों को चूड़ी, बिंदी और सिंदूर का उपयोग करना चाहिए क्योंकि उन्हें यह सब धारण करता देख आपके मन को सुकून मिलता है। क्यों व्यर्थ में इसे रोजगार से जोड़ रहे हैँ? वैसे तर्क के लिए आप कुलिओं का जिक्र भी कर रहे हैं। वैसे वह एक बाद में आया विचार सा ही है।
सिगरेट, बीड़ी पीना बंद करने की भी ऐसी ही हानियाँ होंगी। पटाखे बजाना छोड़ने की भी। सूची बहुत लम्बी है।
घुघूती बासूती'
माना स्त्रियों में करुणा कुछ अधिक ही होती है या ऐसा माना जाता है, किन्तु केवल किसी का रोजगार बचाने के लिए तो मैं सिन्दूर लगाने से रही।
स्त्रियों की इतनी ही चिन्ता है तो जरा अपने कानूनों में सुधार करो। कानून के रखवालों में सुधार करो। अपनी नजरों में सुधार करो। अपने स्वयं में व अपने पुत्रों, पिता व भाई, सहपाठियों, सहयोगियों में सुधार करो। अपने हाथों को अपने पास रखो। अपने शरीर व मन पर लगाम कसो। ताकि कोई रुचिका आत्महत्या को बाध्य न हो। कोई बड़ा पुलिस अफसर किसी स्त्री अफसर के पृष्ठ भाग को न थपथपाए। कोई अबोध बालिका किसी पुरुष की हवस का शिकार न बने। (कल या परसों ही मुम्बई में एक पाँच साल की बालिका अपने ही खून में लथपथ सिसकती हुई दो स्त्रियों को मिली। वह बलात्कार की शिकार बच्ची बोलने में अक्षम हो गई थी। अपना नाम भी नहीं बता पा रही थी। हाँ, उसकी भी गलती थी। उसने बुरका, साड़ी या सलवार कुर्ता नहीं पहना था। पाश्चात्य फ्रॉक,वह भी गुलाबी रंग का पहना हुआ था। परन्तु क्या इस दुस्साहस की सजा बलात्कार है मान्यवरो? )
अपने परिवार में अपनी कम समझदार स्त्रियों को 'परिवार का मुखिया' होने के नाते केवल क्या पहनना है ही न सिखाओ, उन्हें परिवार की नई सदस्याओं का सम्मान करना, उससे दहेज न माँगना, उसे प्रताड़ित न करना, उसका रगड़ा न लगवाना भी सिखाओ। बताओ कि कॉलेज में भी रैगिंग पर पाबन्दी लग गई है सो 'मुझे प्रताड़ना मिली थी तो अब बहू को भी मैं प्रताड़ित करूँगी' वाली परम्परा बन्द करो।
हमारा परिधान च श्रृंगार ही मत देखो, हमारी आत्मा पर पड़े छाले भी देखो। हमारे शरीर व आत्मा पर सदियों से पहनी बेड़ियों के घाव भी देखो। हमारी भ्रूण हत्या देखो,पचासों लड़कियों में कोई न कोई दोष देख ठुकराने वाले वर लड़कियों की भावनाएँ भी समझें। उसके परिवार से दहेज व बारात की खातिरदारी की माँग बन्द करें। वर पक्ष होने के कारण अपने को देवलोक से आया हुआ मानना बन्द करें। जरा जीवित स्त्रियों के जलते हुए शरीर की कल्पना करो। अपनी सिगरेट को अपने शरीर पर छुआओ और फिर उस भीषण कष्ट की कल्पना करो जिसे हमारे देश की हजारों युवतियाँ अपने शोषण व अत्याचार से छोटा व क्षणिक कष्ट समझकर गले लगाती हैं। सोचो, सोचो।
हमें सदा नारीत्व की बात छोड़ गाँव की स्त्रियों व गरीब स्त्रियों का कल्याण करने में उर्जा लगाने को कहने वाले पुरुष कभी इन्हीं गाँव की स्त्रियों व गरीब स्त्रियों के पतियों को यह क्यों नहीं सिखाते कि बीड़ी फूँकने में व्यर्थ समय गंवाने की बजाए कभी कभार वे भी पानी भर लाएँ, लकड़ी चुन लाएँ, कम से कम उस दिन तो, जब उन्हें कोई काम न मिले। गरीब कामवाली(महरी) स्त्रियों के पतियों को क्यों नहीं कहते कि अपनी कमाई दारू में न उड़ाएँ, उड़ाएँ भी तो कमसे कम पत्नी की कमाई तो न उड़ाएँ, पत्नी की कमाई भी उड़ाएँ तो कमसे कम उस ही के पैसे से लाई दारू के नशे को हथियार बना उसकी ही धुनाई तो न करें।
यह भी और बहुत कुछ जब वे कर चुकें तो आएँ व हमें क्या पहनें, क्या न पहनें, क्या पढ़ें, क्या लिखें, कहाँ व कब जाएँ आदि सिखाने की सोचें।
एक बार फिर दोहराती हूँ कि स्त्री की लड़ाई पुरुष से नहीं, पितृसत्तात्मक समाज से व उस समाज द्वारा युगों से पहनाई बेड़ियों से है। हो सके तो इस स्थिति में सुधार करने में स्त्रियों की सहायता करें। लाभ पुरुषों सहित पूरे समाज का होगा।
नोट: मुझे किसी आभूषण, परिधान, प्रसाधन, श्रृंगार या किसी की मान्यता से कोई विरोध नहीं है। विरोध केवल किसी पर यह सब थोपे जाने से है।
घुघूती बासूती
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क्या कहूँ जी, मेरी पत्नि न सिन्दुर लगाती है, न चुड़ियाँ पहनती और न ही साड़ी उसका नियमीत पहनावा है. लगता है मैं एक बेचारा "पति" हूँ. :)
ReplyDeleteचाहे कोई कुछ भी कहे, साड़ी में महिला बहुत सुन्दर लगती है. बड़ा सालिन व सेक्सी पहनावा है. अतः क्षमा सहित साड़ी की अनुसंशा करता हूँ. मगर मेरी कोई सुनता ही नहीं :)
bahut sahi kaha hai .purush nari ke upyog me ane vali vastuo ki bahut chrcha aur chinta karte hai .kuch aise hi vicharo ki tippni narivadi kavita par ki hai neeche de rhi hoo .
ReplyDeleteआपसे पूर्णत सहमत हूँ इस परिप्रेक्ष्य में गाँव कि स्त्री अतिशय नारीवादी है |वो सुबह पांच बजे से उठकर आठ बजे तक घर के कामो से निबटकर अपना और पति का खानासाथ लेकर खेत में जाती है मजदूरी करने |खाने कि छुट्टी में वो ही खाना निकलकर परोसती है अपने पति को |वो शान से खाकर उसी थाली में हाथ धोकर फिर पेड़ कि छांव में पड़ जाता है ,स्त्री साँझ को घर आकर फिर से पूरे परिवार का खाना बनाना कुए से पानी लाना इत्यादि काम करना करती है और उसका पति शाम से ही बीडी पीकर मंडली में बैठता है रात को दारू पीता है है और अपनी बीबी कि मजदूरी (जो उससे कम है क्योकि वह स्त्री है )उससे झपट लेता है |
ज्यादा दिन अब जेंडर बायस नहीं चलेगा आज के अखबार मे जेंडर न्यूट्रल कानून बनाने कि बात कही गयी हैं । लोग कहते हैं कि रोल डिफाइन किये जा चुके हैं अब बदलाव का अर्थ हैं रोल रिवेर्सल और ऐसा केवल पुरुष ही नहीं कहते स्त्रियाँ भी कहती हैं । प्रश्न सीधा हैं कि अगर रोल गलत डिफाइन कर दिये गए थे तो कब तक उस गलती को दोहराते रहेगे । आज के पी अस गिल टी वी पर फरमा रहे थे उन्होने कोई मेडल नहीं माँगा था ले लो बेकार पडे हैं । वही गिल जिनके हाथ रूपं दयोल बजाज के ऊपर घुमे थे । एक ब्लॉग पर कमेन्ट मे पढ़ा "ये जेंडर ब्यास " क्या होता हैं अब आप इन सब का क्या करेगी ?? चावल से कंकड़ बीना जा सकता हैं पर कंकड़ से चावल बीन कर क्या होगा ? संवेदना के पंख ब्लॉग पर शुरू से ऐसे ही आलेख आते हैं जहां सारी गलती नारी कि हैं । काफी विरोध दर्ज किया था एक साल पहले पर वो कहते हैं ना टेढ़ी सो टेढ़ी
ReplyDeleteआपने एकद्ूम सटीक बातें कहीं.
ReplyDeleteजब में साथ के लड़कों से दहेज न लेने के लिए कहता हूँ तो वे मुझे दहेज लेने के तमाम बहाने और कारण गिनाने लगते हैं.सुनकर बहुत बुरा लगता है
...और वही लड़के आगे तमाम अच्छेपन की सामाजिक बातें करते हैं बातें करते हैं.
आप कि अधिकाँश धारणाये दुरुस्त हैं पर एक पहलू दूसरा भी है .महिलाओं के संरंक्षण हेतु कार्यस्थलों पर सेक्सुअल
ReplyDeleteएसाल्ट एक्ट लागू है .अब बहुत सी' परम- आदरणीय 'देविया' ऐसी भी हैं जो ना तो अपना काम करती हैं और ना ही कोई काम आता है, यदि बेचारा अधिकारी टोकता है तो 'उक्त एक्ट का रौब दिखा कर डरातीं हैं ...... ऐसे में आदमी करे तो क्या करे.......बराबरी कि मांग है तो काम भी तो बराबर करना चाहिए?
सबसे अच्छा लगा - आपका नोट!
ReplyDeleteओंठों पर मधु-मुस्कान खिलाती शुभकामनाएँ!
नए वर्ष की नई सुबह में, महके हृदय तुम्हारा!
संयुक्ताक्षर "श्रृ" सही है या "शृ", FONT लिखने के 24 ढंग!
संपादक : "सरस पायस"
उस आलेख को मैंने पढ़ा और शर्मसार हुआ ! लेखक की स्त्रियों के दासत्व के प्रतीकों को जीवंत बनाये रखने की अभिलाषा छुपाये नहीं छुपती ! यहां समय करवट बदल चुका रोजगारों नें भी अपने चेहरे बदल लिए हैं , पर पुरुषों का अहम् चूड़ियों और बिदियों पर टिका हुआ है ! सीधे सीधे कहेंगे तो गंवार कहे जायेंगे लिहाज़ा चूडियाँ बनाने वालों के पेट की ढाल बना ली ! अब जनता क्या इतनी मूर्ख है जो मान लेगी की कांच से चूड़ियों के अलावा दूसरा कोई सामान बनेगा ही नहीं और लोगों को रोजी रोटी का संकट आ जायेगा !
ReplyDeleteसाफ साफ क्यों नहीं कहते की आप स्त्रियों के जिस्म पर गुलामी का साइन बोर्ड देखना चाहते हैं तब आप कम से कम स्पष्टवादी तो कहे जायेंगे ! भला ये भी क्या बात हुई की भूख और पेट के रास्ते स्त्रियों को पराधीनता का पाठ पढ़ा रहे हैं ! ... मित्र अब जरा ये भी समझ लो की जिस्मों और प्रतीकों से गुलामी तय करने का वक्त गुजर चुका है ! हो सके तो पुरुषों के लिए "बौद्धिक साम्राज्य" स्थापित करने की चेष्टा करो वर्ना उलटे बॉस बरेली के... दिन आने वाले हैं !
जीबी मुझे आपका रिएक्शन और आलेख दोनों ही ठीक लगे ! आपका आभार !
आप की बात को दोहरा रहा हूँ।
ReplyDeleteस्त्री की लड़ाई पुरुष से नहीं, पितृसत्तात्मक समाज से व उस समाज द्वारा युगों से पहनाई बेड़ियों से है। हो सके तो इस स्थिति में सुधार करने में स्त्रियों की सहायता करें। लाभ पुरुषों सहित पूरे समाज का होगा।
सारतत्व:
ReplyDeleteहो सके तो इस स्थिति में सुधार करने में स्त्रियों की सहायता करें। लाभ पुरुषों सहित पूरे समाज का होगा।
-पूर्णतः सहमत!!
---
’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’
-त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.
नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'
कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.
-सादर,
समीर लाल ’समीर’
अच्छी चर्चा, अभिनंदन।
ReplyDeleteजो भी हो साड़ी न छीनी जाय उनसे ..शेष कोई भी आपत्ति नहीं है !
ReplyDeleteक्यों ? क्यों चिन्ता ना की जाये , आखीर महिलाएं ही हमारी माँ , बहन , बीबी और बहुत कुछ बन कर हमारी जिन्दंगी को सवारती हैं । महिलाए ही हमारे संस्कृति की पहचान है । जिनसे हमारी पहचान है अगर उनका पतन होगा तो कौन चिन्तीत ना होगा , कौन दुबला मोटा नहीं होगा । चलिए मै कहता हूँ कि व्यापार के लिए नहीं बल्कि हमारे संस्कृति के लिए सिदुँर लगाना चाहिए । नजरों को सुधारें , पर क्या मै आपकी बात समझ नहीं पाया , कृपया इसे स्पष्ट करें ?
ReplyDeleteआप ने जिस बलात्कार घटना का उल्लेख किया है वह शर्मशार करने वाली घटना है , उसका बलात्कार मुझे नहीं लगता कि पाश्चात कपडे पहनने से हुआ होगा , ऐसी घटना करने वाले लोग मानसीक रुप से विक्षीप्त होते हैं ।
"अपने परिवार में अपनी कम समझदार स्त्रियों को 'परिवार का मुखिया' होने के नाते केवल क्या पहनना है ही न सिखाओ, उन्हें परिवार की नई सदस्याओं का सम्मान करना, उससे दहेज न माँगना, उसे प्रताड़ित न करना, उसका रगड़ा न लगवाना भी सिखाओ। बताओ कि कॉलेज में भी रैगिंग पर पाबन्दी लग गई है सो 'मुझे प्रताड़ना मिली थी तो अब बहू को भी मैं प्रताड़ित करूँगी' वाली परम्परा बन्द करो।"
यहाँ कौन जिम्मेदार होता है ? यह आप ही बतायें ?
"एक बार फिर दोहराती हूँ कि स्त्री की लड़ाई पुरुष से नहीं, पितृसत्तात्मक समाज से व उस समाज द्वारा युगों से पहनाई बेड़ियों से है। हो सके तो इस स्थिति में सुधार करने में स्त्रियों की सहायता करें। लाभ पुरुषों सहित पूरे समाज का होगा।"
सरासर गलत है , वे बेडीया न थी और न हैं, वे हमारी संस्कृति थी और है , और रहेगी । मैं ये नहीं कहता कि गलत नहीं होता महिलाओं के साथ , लेकिन ये कहना कि ये अत्याचार है गलत होगा ,। जहाँ भी ऐसा कुछ हो रहा है वह अशिक्षा मात्र है। अरविन्द जी की बातो पर ध्यान दिया जाये ।
अच्छी पोस्ट .
ReplyDeleteआदरणीय ब्लॉगरदिनेश राय द्विवेदी जी और आदरणीय समीर लाल ’समीर’ जी के विचारों से भी पूर्णतया सहमत.
..स्त्री की लड़ाई पुरुष से नहीं, पितृसत्तात्मक समाज से व उस समाज द्वारा युगों से पहनाई बेड़ियों से है। हो सके तो इस स्थिति में सुधार करने में स्त्रियों की सहायता करें। लाभ पुरुषों सहित पूरे समाज का होगा।
ReplyDelete---पूरा लेख बहुत बढ़िया है। हम आपके विचारों से सहमत हैं...और इस अपील से भी।
बढ़िया आलेख!
ReplyDeleteउत्कर्षों के उच्च शिखर पर चढ़ते जाओ।
पथ आलोकित है, आगे को बढ़ते जाओ।।
काश कि महिलाएं भी उतना सोंचे पुरुषों के बारे में जितना वे महिलाओं के बारे में सोच रहे हैं :)
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा है कि थोपा न जाये, कम से कम रुढ़िवादी चीजों को तो बिल्कुल भी नहीं, आपकी एक एक बात से सहमत .
ReplyDeleteपुरुषों में टेस्टस्टोरोन ज्यादा होता है इसीलिए वे महिलाओं के बारे में ज्यादा सोचते हैं, महिलाओं में जितना भी थोडा मोड़ा टेस्टस्टोरोन होता भी है वह बच्चे होते ही और कम हो जाता है, बचता है बहुत सा ओक्सितोसिन और इस्ट्रोजन जो मातृत्व, देखभाल, सरोकार, भावनाओं, कलात्मकता के लिए ज़िम्मेदार है. डाईबीटीज से पीड़ित पुरुष ज़्यादातर हारमोन खो देते हैं तो वे इन सब बातों की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं देते और शांत भी हो जाते हैं. तो आपकी सलाह से कोई फायदा नहीं होने वाला, जब तक यह मुआ टेस्टस्टोरोन है.
ReplyDeleteहाँ वर्तमान महिलाओं में दादी नानी परनानी की अपेक्षा कुछ अधिक टेस्टस्टोरोन (आक्रामकता और सेक्सुअलिटी के लिए ज़िम्मेदार पुरुष हार्मोन) पाया जाने लगा है, जिसके साइड इफेक्ट के रूप में हम महिलाओं में भी रक्तचाप, ह्रदयरोग, पोलिसिस्तिक ओवरी जैसे रोग ज्यादा देखने मिल रहे हैं. यह टेस्टस्टोरोन भी न...... जीने नहीं देता.
लिखती तो आप जबरदस्त हैं ही. आप की बात से सहमत हुए बिना नहीं रहा जा सकता है.
ReplyDeleteकभी कभी लगता है की आप किस मिटटी की बनी हुई हैं, और आप जैसी महिलाएं भारत में इतनी कम क्यूँ हैं? वैसे जहाँ तक मेरा अनुभव है, घर की महिलाएं (सास) भी सिन्दूर, बिंदी पर ज्यादा जोर डालती हैं (बहुओं पर), घर के मर्दों (पति, ससुर, और देवर) के बजाय.
.
ReplyDelete.
.
एकदम सटीक,
पूरी तरह से सहमत आपकी भावना व आलेख से।
प्रवीण जी एक बार और .....
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा लिखा है आपने. जाने कब तक ये लोग ऐसी व्यर्थ की बातों में अपना सिर खपाते रहेंगे. कहीं और दिमाग लगाते तो पूरे देश का ही भला हो जाता.
ReplyDeleteमै तो अपनी पत्नी से कहता हूं सिन्दुर की क्या जरुरत अभी मै हूं तो . लेकिन वह मानती ही नही . हां जब उसके हाथ की चूडी कभी मोल जाती है तो मुझे लगता है कि मै तो गया
ReplyDeleteबिंदिया, चूड़ी , पायल आदि से अपने को सजाना किस महिला को अच्छा नहीं लगता होगा ...मगर उसे इसके लिए बाध्य किया जाना अनुचित है ...
ReplyDeleteआज जब महिलाएं घर से बाहर काम करने लगी हैं ....तो इस तरह की बहस बहुत गैर वाजिब सी है ...
कल्पना करे की कोई अन्तरिक्ष यात्री , पुलिस कर्मी , डॉक्टर , नर्स (इन सबके आगे महिला जोड़ ले )आदि अपने कार्यस्थल से अचानक बुलावा आने पर क्या पहले वे अपने साज श्रृंगार पर नजर डालेंगी ....?
उन्हें किस तरह सजना संवरना है ...इसका फैसला उन्हें ही तय करने दे तो क्या अच्छा नहीं होगा ...लेकिन मैं ये जरूर कहूँगी कि महिला व पुरुष दोनों को ही वस्त्रों का प्रयोग अंगप्रदर्शन के लिए नहीं किया जाना चाहिए ...!!
स्त्री की लड़ाई पुरुष से नहीं, पितृसत्तात्मक समाज से व उस समाज द्वारा युगों से पहनाई बेड़ियों से है....इन पंक्तियों से पूरी तरह सहमत हूँ ....
@मिथिलेश दुबे ,सबसे पहले तो आपकी टिप्पणी में माँ, बहिन, बीबी की जगह बाप ,भाई, पति लिखकर अपनी टिप्पणी के बारे में स्त्रियों के दृष्टिकोण से सोच कर देखें !
ReplyDeleteऔर ये क्या आपने संस्कृति संस्कृति का राग अलापा हुआ है मुझे नहीं लगता की आप दातौन करते होंगे या फिर धोती कुरता पहनते होंगे या गुरुकुल में भर्ती होकर भिक्षा मांगने निकलते होंगे ? और विश्वास कीजिये आपके ऐसा नहीं करने के बाद भी संस्कृति का कुछ नहीं बिगड़ने वाला ! आप पैंटशर्ट पहने ,शिखा ना रखें इसकी शिक्षा आपको कौन देता है ? फिर आप स्त्रियों को क्या करना क्या नहीं करना के दिशा निर्देश देने वाले कौन होते हैं ?
@ अरविन्द मिश्र यानि आपत्ति बनी रहेगी ! क्या आप स्वयं ब्रम्ह कुमारों के लिए निर्धारित वेशभूषा के लिए भी इतने ही समर्पित हैं ?
तात्पर्य मात्र इतना है की जिस प्रकार से आप अपने लिए निज इच्छा और व्यक्तिगत रूचि को सर्वोपरि रखते हैं उसी प्रकार स्त्रियों के बारे में क्यों नहीं सोच सकते ? यदि स्त्रियाँ स्वयं अपनी भूमिका निर्धारित करें अपनी इच्छाओं और रुचियों का सम्मान करें तो इसमें भी आपको आपत्ति है ?
आपके विचारों से सहमत हूँ; आपकी अभिव्यक्ति भी सशक्त है . आपकी पोस्ट्स उन्हें भी अपनी मान्यताओं पर पुनर्विचार के लिए बाध्य करती हैं, जो आपके विचारों से सहमत नहीं .
ReplyDeleteआपका लिखा हमेशा पसंद आता है, कई बार जब आप जैसे लोग भी एक तरफ़ा लिखते दिखाई देते हैं तो थोडा दुःख होता है.
ReplyDeleteआज के इस समय में कितने पुरुष हैं जो औरतों को इन सबके लिए बाध्य करते हैं, ये तो आंकड़ेगत स्थिति हो जायेगी हाँ हमने बहुत से घरों में देखा है कि एक महिला ही दूसरी महिला के पहनावे को लेकर तर्क-वितर्क करती है.
चलिए एक और बात कि यदि एक पति अपनी पत्नी के और एक पत्नी अपने पति के पहनावे को लेकर सजग हैं तो आपत्ति क्यों और किसे? हमने तो किसी बहार के आदमी और औरत के पहनावे पर किसी तरह का विमर्श होते नहीं देखा है.
रही बात सिन्दूर, बिछिया, चूड़ी, पायल आदि के पहनने की तो आप खुद देखिये सिन्दूर पूरे सर से अब बस मांग के कोने तक में सिमट गया है. चूड़ियों की खन-खन अब एक दो कड़ों में सिमट गई है. पायल के पहनने में फैशन ये है कि वो एक ही पैर में दिख रही है. इसके उलट ऎसी भी महिलायें हैं जो इन सबको जीभर कर पहन रहीं हैं पर बिना किसी दवाब के.
कोई क्या पहने क्या नहीं ये उसी की मर्जी पर हो पर इतना जरूर हो कि मर्यादा न भंग हो, वो चाहे पुरुष हो या स्त्री. हाँ दवाब किसी पर भी किसी का उचित नहीं.
गरीबमार हमेशा होती है. कानून व्यवस्था ठेके पर दे दी जाये तभी कुछ हो सकता है. दूसरी बात हम लोगों के अन्दर यदि एम्पैथी आ जाये तो पूरा परिदृश्य ही बदल जाये. लोग सिम्पैथी तो दिखाते हैं लेकिन एम्पैथेटिक नहीं बनना चाहते.
ReplyDeleteहम्म्म् सच कहा दिनेश जी ने आप उनको भी सोचने पर विवश करती हैं जो आपके विचारों से सहमत नही।
ReplyDeleteडॉ० कुमारेंद्र शायद उस लिंक पर नही गये जिसका ज़िक्र किया गया है। जो पुरुष औरतों को बाध्य नही करते उनका तो ज़िक्र ही नही है शायद यहाँ...!
खैर हम तो सबसे पहले उधर गये जहाँ का लिंक था और एकदम से टेंशन में आ गये ये पढ़ कर कि
इसे और विस्तार से देखना होगा कि किस तरह हमारी भारतीय अर्थव्यवस्था को चौपट करने के लिये खेल खेला जा रहा है।
हमें याद आ गया अपना बचपन जब हमारे घर में अँगीठी पर खाना बनता था और बोरे में भर कर लकड़ी का बुरादा रखा जाता था। ठेले पर आवाज़ लगाते हुए वो बुरादे वाला निकलता था। अब तो गैस पर खाना बनता है, पता नही उस बुरादे वाले का क्या हुआ होगा ??
सच में भारतीय अर्थव्यवस्था पर चोट है ये।
अम्मा गाँव जाती थीं तो कैसे बैलगाड़ी लिये खड़े रहते थे इक्कावान...! अब उनके रोजगार का क्या हुआ होगा ?
वो कँहार जिसे एक आवाज़ दो और १० बालटी भर कर रख देता था घर में, उसका क्या हुआ होगा ? अब तो गाँव में भी समर्सिवल पंप लग गया मोटर चलाओ टंकी भर गई और नल में झमाझम पानी।
वाक़ई मैं तो चूड़ी वाली बात भूल ही गई अभी हालिया हुई शादी में हजारों की तो चूड़ियाँ खरीद ली गई।
वो तो तब भी भारतीय अर्थव्यस्था में कुछ योगदान कर ले रही है।
मैं तो कहती हूँ कि हम सबको अपनी अर्थव्यवस्था मजबूत करने के लिये इन चीजों का प्रयोग फिर शुरु करना होगा। घर में अँगीठी फिर से जलानी होगी, आफिस जाने के लिये स्कूटर छोड़ फिर से पीनस, डोली, इक्का रखना होगा। फ्रिज को हटा कर घड़े रखने होंगे। उन बेचारे कुम्हारों की सोचो। फोन कनेक्शन कटवा कर फिर से पत्र व्यवस्था पर आना होगा...
अभी जाती हूँ, अभी सोचना है कि क्या क्या योगदान किया जा सकता है।
वैसे चूड़ी और बिंदी दोनो का हमें बहुत शौक है। मगर वो चूड़ी कंप्यूटर टाइपिंग में खनखनाती बहुत है तो हमारे बॉस से लेकर चपरासी तक डिस्टर्ब होते हैं....
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबहुत कुछ सब ने कह दिया है आपसे सहम्त हूँ इस बात पर
ReplyDeleteस्त्री की लड़ाई पुरुष से नहीं, पितृसत्तात्मक समाज से व उस समाज द्वारा युगों से पहनाई बेड़ियों से है। हो सके तो इस स्थिति में सुधार करने में स्त्रियों की सहायता करें। लाभ पुरुषों सहित पूरे समाज का होगा।
बिलकुल सही कहा है। पहनावे पर कोई जोर जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिये।या थोपा नहीं जाना चाहिये इस आलेख के लिये धन्यवाद । वैसे आज कल बहुत कुछ बदल गया है । आशा है और सुधार होगा। वैसे औरत भी औरत की दोशी है सास बहु की लडाई अधिकतर लेन देन और पहरावे आदि पर ही होती है पहले औरत औरत का सम्मान करना सीखेगी तभी पुरुश भी बदलेंगे। धन्यवाद्
दिल की गहराइयों से व्यक्त की है..आपने स्त्रियों की दशा और पुरुषों की सोच को...अगर पुरुष अपने कर्त्तव्य समझ लेँ...और स्त्रियों को मात्र एक कठपुतली ना समझें , जो उनके इशारों पर चलती रहें...एक स्वस्थ मस्तिष्क की मालकिन समझ लेँ..जिसे भी अच्छे बुरे की समझ है...अपने निर्णय वाह खुद लेने में समर्थ है....पर इतना समझना भी उनके वश की बात नहीं..फिर वे अपनी कुंठाएं कहाँ निकालेंगे?
ReplyDeleteये घुघूती बासूती क्या होता है ?
ReplyDeleteये घुघूती बासूती क्या होता है ? आप बताये को कृपा होगी
ReplyDeleteमाधव जी, घुघुति की कहानी मैंने भी अपने ब्लॉग पर
ReplyDelete>यहाँ दी है। समय मिले तो पढ़ियेगा।
घुघूती बासूती
Bilkul sahi kaha aapne...
ReplyDelete