Wednesday, November 04, 2009

क्या इन्हें पितृत्व या मातृत्व का अधिकार होना चाहिए?

कोई भी समाचारपत्र उठाओ तो बच्चों के साथ होते अत्याचार भी पढ़ने को मिल जाते हैं। क्या बच्चों के साथ अत्याचार संसार का सबसे जघन्य अपराध नहीं है? क्या ऐसा अत्याचारी संसार का सबसे निकृष्ट व्यक्ति नहीं है? क्या ऐसे अपराधियों को समाज में रहने का अधिकार होना चाहिए?

आज ही पढ़ा कि एक नौ साल की बच्ची ने अपने दादा दादी की सहायता से अपने पिता के विरुद्ध पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई है कि उसका पिता व उसके दो मित्र दो साल से उसका बलात्कार करते रहे हैं। यह बच्ची एक कम्बोदियाई माँ व भारतीय पिता की संतान है। पिता कम्बोदिया में काम करता था। वहीं उसने एक कम्बोदियाई स्त्री से विवाह किया और तीन साल बाद उन्हें छोड़ भारत आ गया। एक साल बाद बच्ची की माँ ने बच्ची को भारत भेज दिया। यहाँ पिता बच्ची से भीख मंगवाता था। सात साल की बच्ची का स्वयं भी बलात्कार करता था और दो मित्रों से भी धन के लालच में यही करवाता था।

पिता को चाहे जो सजा हो जाए, प्रश्न यह उठता है कि क्या ऐसे पुरुष को पिता बनने का भी अधिकार होना चाहिए? कभी न कभी वह जेल से छूटेगा, शायद दोबारा विवाह करे और फिर से किसी बच्चे का पिता बन जाए।
पिता तो मनुष्य के नाम पर कलंक है ही किन्तु उस माँ ने कैसे अपनी अबोध बच्ची को ऐसे व्यक्ति के पास भेज दिया जो उसे पहले ही छोड़ चुका था? माँ की कई मजबूरियाँ हो सकती हैं किन्तु क्या ऐसे में बच्ची को किसी को गोद दे देना बेहतर विकल्प नहीं सिद्ध होता? कम से कम तब यह आशा तो की जा सकती थी कि बच्ची को उचित देखभाल व प्यार मिलेगा। जो पिता उसे पहले ही छोड़ आया था उससे ऐसी आशा करना मूर्खता है।
माता पिता बनना जितना सहज है उतना ही कठिन है इस दायित्व को निभाना। किसी बच्चे को इस संसार में लाने से बड़ी उत्तरदायित्व की बात कोई हो ही नहीं सकती। काश कि लोग ऐसा करने से पहले लाख बार विचार करते कि वे इस दायित्व को निभाने के योग्य भी हैं या नहीं। काश कि केवल मानसिक व भावनात्मक रूप से योग्य लोग ही माता पिता बनने के अधिकारी होते।

कुछ ही दिन पहले बच्चों का यौन शोषण करने वाले ६० से भी अधिक उम्र के एक फ्रांसीसी अपराधी ने स्वयं कहा कि सर्जरी द्वारा उसे बंध्या बना दिया जाए।(टेस्टोस्टेरोन की मात्रा कम करने वाला इंजेक्शन देने की प्रथा भी वहाँ है।) वह स्वयं स्वीकारता है कि वह अपने पर नियंत्रण नहीं रख पाता। यह व्यक्ति पहले भी इस अपराध के लिए कई बार जेल जा चुका है। इस बार भी जेल से छूटने के कुछ दिन बाद ही उसने एक चार पाँच साल के बच्चे को बंदी बनाकर यह अपराध किया। फ्रांस में यह सुझाव रखा गया था कि ऐसे अपराधियों को उनकी सजा की अवधि खत्म होने पर भी तभी रिहा किया जाए जब मनोचिकित्सक यह कहें कि अब वे समाज के लिए खतरा नहीं हैं। किन्तु मानवाधिकारों की दुहाई देकर ऐसा हो नहीं सका।

मानवाधिकार बहुत महत्वपूर्ण हैं। यह भी सच है कि संसार की कोई भी अदालत यह नहीं कह सकती कि उसने कभी निरपराध को सजा नहीं दी है। किन्तु क्या बच्चों के अधिकारों से बड़ा भी कोई अधिकार हो सकता है? क्या ऐसे लोगों को बच्चों को यातना देने के लिए खुला छोड़ा जा सकता है?

घुघूती बासूती

26 comments:

  1. Anonymous5:10 pm

    प्रश्न यह उठता है कि क्या ऐसे पुरुष को पिता बनने का भी अधिकार होना चाहिए?

    पुरूष के अधिकारों की गिनती मे "बलात्कार " शामिल हैं फिर औरत बस औरत होती हैं एक शरीर जिसका एक ही उपयोग हैं और पुरूष कब चाहता हैं पिता बनना वो तो एक प्रकृतिक विपदा हैं जो औरत के साथ सम्भोग से उत्पन्न हो जाती हैं । बच्चो से यौन शोषण बहुत आम हैं और इसके लिये सरकार या कोई मानव अधिकार कुछ नहीं कर सकता । हम कर सकते हैं जैसे इस बच्ची के दादा जी ने किया या नहीं किया

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  2. दुनिया का निकृष्ठतम अपराध है यह और मानवता पर कलंक। वास्तव में पितृत्व एक प्रकृतिजन्य गुण नहीं अपितु आरोपित गुण है। प्रकृति ने बच्चों की परवरिश का जिम्मा इसी कारण माताओं को सोंपा है। लेकिन पुरुषों ने समाज में अपना वर्चस्व स्थापित कर नारियों से साधन छीन लिए हैं और उन्हें अपने अधीन कर रखा है। समाज में पुरुष प्रधानता की समाप्ति तक ऐसे अपराध होते रहेंगे, उनकी रोकथामं की तमाम कोशिशों के बावजूद।

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  3. जब तक समाज में पुरुषों के लिए पुन: संस्‍कारों की बात नहीं की जाएगी तब तक ऐसा ही होता रहेगा। आज तो स्थिति यह है कि हम महिला को भी भोगवादी बनाते जा रहे हैं। व्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता समाज से बडी नहीं हो सकती, लेकिन हम व्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के नाम पर उसे सारे ही सामाजिक बंधनों से मुक्‍त करते जा रहे हैं। पहले हमने परिवार संस्‍था पर चोट की फिर अब विवाह संस्‍था पर कर रहे हैं। और तो और अब तो समलैंगिकता को भी स्‍वीकार करने की जिद चल पड़ी है। अब देखना यह है कि कल तक हमारी बच्चियां असुरक्षित थी अब बच्‍चे भी असुरक्षित हो जाएंगे।

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  4. नराधम है वह ,मां बेचारी क्या करती ! किसी मजबूरीवश उसे उसके जैविक पिता के पास भेजा था तो निश्चिंत हो गयी होगी !

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  5. इससे अधिक क्या कहूं ... मानवता को शर्मशार करने वाली ....

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  6. jyada mein kuch nahi jaanta
    haan etna jarur mein keh sakta hun ki wo apradhi hai use dand mile aur mil bhi jayega ..magar maaf keren jara janke hamare gharon ki ore kya waha chori chipevasnayen nahi panpti??kya waha sab kuch thik hai ??jara socnche ..unhe kaun kaise thik keregaa???/....rakesh

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  7. एक बेहद संवेदनशील विषय है ये !
    प्रकृति नें स्त्री पुरुष की देह रचनाओं को सहज संसर्ग और प्रजनन के लिए अनुकूल तैयार किया है अतः संसर्ग और प्रजनन का निषेध तो असंभव ही मानिये हालाँकि इसका नियमन और नियोजन संभव है !
    इस संसार में कितने माता पिता(वैध/अवैध दोनों ही) अपनी संतति ,नियोजित ढंग से पैदा करते हैं ?
    शायद हर कोई एक ही जबाब देगा , बहुत ही कम !
    मतलब साफ है प्रकृति ने दिया तो मनमाना उपभोग करो / अनियंत्रित ढंग से दोहन कर लो ,का भाव इसी अज्ञानता /अल्पज्ञता का परिणाम है ! "यहाँ यौन सुख स्त्री पुरुष का और बच्चे ईश्वर के हुआ करते हैं" !
    सारे बच्चे ,ढेर सारे बच्चे ,सबके सब ईश्वर के ! सुख प्रकृति की निशुल्क/शर्तहीन भेंट है ,लूट लो , अपनी "जिम्मेदारी" कुछ भी नहीं !

    अनगिनत बच्चे,अनियंत्रित प्रजनन,वो नहीं करते जो 'इंसान' हैं जो 'जागरूक' हैं, उन्हें तो अपनी जिम्मेदारी अपनी औकात /अपनी क्षमता का भरपूर ज्ञान होता ! ऐसे लोगों के बच्चे "प्रकृति के उपहार" की लूट का शिकार नहीं होते अतः यौन दुर्व्यवहार /शोषण की शिकायत अगर किसी से हो तो , वह बंदा चाहे स्त्री हो या पुरुष,अगर होगा तो समाज के बहुसंख्यक पशुओं में से एक !
    हाँ उन्हें पशु ही कहा जा सकता है जो यौन जीवन में नैतिकता और सामाजिक मूल्यों की परवाह नहीं करते !
    पशुवत यौन जीवन ,पशुवत प्रजनन आप कहती हैं,उन्हें पितृत्व का अधिकार ना हो मैं कहता हूँ नहीं,उन्हें ये अधिकार प्रकृति नें दिया है ! उनके पास रहने दो ! ठीक वैसे ही जैसे पशु जंगल में रहते हो ! बस उनसे समाज में रहने का अधिकार छीन लिया जाये ! क्योंकि वे समाज के मूल्यों को नहीं मानते अतः उनके स्वछन्द यौन जीवन का उनका अधिकार ,समाज में नहीं जंगल में ही बनता है !
    मैं लिखना तो बहुत चाह रहा हूँ पर टिप्पणी पोस्ट बन जाये ये भी ठीक नहीं होगा ! केवल इतना ही कहूँगा की~ "पशु" वन में और "इन्सान" समाज में रहने के अधिकारी हैं ? हों ?
    होना भी चाहिए !

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  8. क्या कहा जाये...पिशाचिक कृत्य!!

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  9. हर रोज़ अख़बार में और टी वी में भी यही समाचार होता है शायद यही इस प्रकार के लोगों को प्रेरणा देते हैं बहुत ही संवेदनशील विषय है
    अच्छी प्रस्तुति
    rachana dixit

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  10. न्याय और दण्ड के विधान के पीछे कोई निश्चित सोच नहीं है.. आर्थिक अपराधी की सम्पत्ति ज़ब्त करने के बजाय उसे कारावास, बच्चों का यौन शोषण करने वाले को भी कारावास, दंगा लरने वाले को भी कारावास..?
    ..बलात्कारी के यौन बल को कुंद करना अधिक उपयुक्त दण्ड लगता है!

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  11. यह एक जघन्य अपराध है ....
    इसके लिए कोई भी सजा कम होगी।

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  12. हम सब कानूनों को सख्त बनाने के लिए जनांदोलन छेड़ने की चर्चा क्यों नहीं करते हैं ?
    मखौल हैं हमारे कानून...

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  13. सबसे बड़ी समस्या यह है कि ऐसे मानसिक विक्षिप्त आसानी से पहचाने नहीं जा सकते हैं, नहीं तो इस तरह की शैतानी हरकतों को रोका जा सकता है।

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  14. इन नरपिशाचों को देखकर जनसमूह के सामने दी जाने वाली सजाओं का औचत्य बुरा नहीं लगता !

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  15. बहुत ही संवेदनशील पोस्ट। ऐसे अपराधी समाज में खुलेआम घूम रहे हैं जिसे पहचानना बहुत ही मुश्किल है। यहां तो रक्षक ही भक्षक बन बैठा है। मेरा मानना है कि बेटियों के मामले में किसी पर विश्वास करना ठीक नही है चाहे उसका पिता ही क्यों न हो और ऐसे अपराधी का तो अंग भंग करा देना चाहिए।

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  16. ऐसे अपराधियों को जेल में ही इंजेक्शन लगा कर उनकी ये पैशाचिक पिपासा खत्म कर देनी चाहिये ।

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  17. यदि आपको याद हो तो करीब 10-12 वर्ष पहले दिल्ली में एक आई इ एस महोदय अपनी बच्ची के साथ कई वर्षों से शारीरिक सम्बन्ध बनाने के आरोप में पकडे गए थे. उस समय समाज में हलचल सी हुई और शांत हो गई. उन महोदय ने तर्क दिया कि जैसे एक घोड़ा अथवा कुत्ता अपने संबंधों से उत्पन्न संतान के साथ भी सम्बन्ध बना लेता है, उसी तरह मनुष्य भी कर सकता है.
    आज ऐसी घटनाओं से समाज अटा हुआ है. घर में ही रिश्तों की पावनता के बीच शारीरिक सम्बन्ध बन रहे हैं, इसके पीछे के मनोविज्ञान को समझने के लिए शोध की जरूरत है.
    सर्जरी करके बंध्या बना देने से सम्भोग नहीं रुकेगा, उस अंग को ही समाप्त कर दिया जाए जो इसके लिए जिम्मेवार है.
    (पर मानवाधिकार, संस्कार, अहिंसा, भाईचारा आदि का राग सुनाया जाने लगता है)

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  18. जब जि‍स्‍म का कोई अंग सड़ने लगे तो दूसरे अंगों से ज्‍यादा तरजीह देते हुए उसका इलाज करते हैं।

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  19. काश कि केवल मानसिक व भावनात्मक रूप से योग्य लोग ही माता पिता बनने के अधिकारी होते।

    मासूम बच्चे और समाज का दर्द उजागर होता है.

    मैं इतना ही कह सकता हूँ - काश पाशविक कृत्य से पहले लक्षण पता चल जाये.

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  20. यह एक बहुत ही गम्भीर मसला है। दूर से देखने पर हमें लगता है कि माँ बाप इसके लिए दोषी है। लेकिन जब आप गहराई में जाएंगे तो आपका पता लगेगा कि हमारी सामाजिक संरचाना इतनी विकृत है कि इसे सुधारना बहुत दुष्कर है। इस सम्बंध में ए0एस0 नील की पुस्तक "समय हिल" में उन्होंने इस विषय पर विस्तार से चर्चा की है।
    आपने इस इस महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा की, यह देखकर अच्छा लगा।
    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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  21. बस उपस्थिति दर्ज करा रहा हूं...कि आया था, पढ़ा, कुछ कहने की हिम्मत नहीं इस विषय पर!

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  22. अगर ऐसे पिता और ऐसे पुरुषों के लिये सम्वेदनशील और जागरुक लोग अपने हाथ मे कानून ले ले तो इसमे आश्चर्य की कोई बात नही होनी चाहिये ।

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  23. एक बहुत ही संवेदनशील विषय है. ऐसे जघन्य अपराध के लिए हर सजा कम है.
    महावीर शर्मा

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  24. Aisi anekon ghatnayen bahut nikat se dekhi hain....ispar kuchh kahne ko shabd khoj pana asambhav ho jata hai.....kya kahun ????

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