बाढ ने एक बार फिर हजारों लोगों को अपनी सम्पत्ति, कपड़ों, सामान, यहाँ तक कि भोजन तक से वंचित कर दिया है, अब हम उन्हें उनके आत्मसम्मान से भी वंचित कर रहे हैं। दान के नाम पर कहीं हम अपने घरों का कचरा तो इन पीड़ितों को नहीं पकड़ा रहे?
जब जब कोई प्राकृतिक या मानवी आपदा समाज के एक बड़े वर्ग को प्रभावित करती है तब तब अप्रभावित व्यक्ति को अपने मानवीय मूल्यों को निभाने का एक सुअवसर मिल जाता है। दान देना भी एक ऐश्वर्यपूर्ण काम है जिसकी सुविधा हमें तभी मिलती है जब इसे लेने के लिए कोई दुर्भाग्यवान पात्र उपलब्ध हो। आदर्श रूप से यह दान दानी व आदानी के बीच एक मानवीय संवेदना व स्नेह की डोर होनी चाहिए। एक ऐसी डोर जो दोनों को मनुष्य की सामाजिकता, संवेदनशीलता व मानवीय स्नेह के मधुर रस में गोता लगवा दे और दोनों को नितदिन के जीवन से थोड़ा ऊपर खींच ले। जिससे दोनों का मन अभिभूत हो जाए। हमारे दैनिक जीवन की पकड़ से जो मानवता छूटती जा रही है उसपर हमारी पकड़ फिर से थोड़ी मजबूत हो जाए।
हर आपदा के बाद फटे पुराने कपड़ों के अम्बार का समाचार पढकर मन द्रवित हो जाता है। हर आपदा के बाद लगता है कि मैं भी पीड़ित हो सकती थी। इन फटे कपड़ों को मेरे मुख पर भी मारा जा सकता था और मेरा ऐसा भी दुर्भाग्य हो सकता था कि मैं इनमें से अपने व अपने परिवार के योग्य कपड़े ढूँढ रही होती।
हाँ, दाता से आदाता बनने में कोई देर नहीं लगती। पिछले वर्ष जब घुघूत का औपरशन हुआ था तब बेटी की इन्स्टिट्यूट के पुराने सहपाठियों ने रक्तदान कर आजीवन हमें उनका ऋणी बना दिया। सो जीवन में दाता से आदाता और पुन: दाता बनना एक स्वाभविक प्रक्रिया है। बस आवश्यकता है तो इस यात्रा को कम से कम कष्टकर व लज्जारहित बनाने की।
मुझे याद है कि जब गुजरात में भूकँप आया था तो हम भी वहाँ थे। सौभाग्य से बिना अधिक हानि के हम बच गये। परन्तु बहुत से लोग रातों रात महलों, मकानों से सड़क पर आ गये। राजा से रंक बनने का ऐसा उदाहरण कम ही देखने को मिलता है। तब क्योंकि हम पास में थे तो पीड़ितों की आवश्यकता अनुसार हम सहायता भेजते रहे। एक बस व ट्रक राहत समग्री लेकर गया। साथ में रसोइए व सेवादार गये। वहाँ की स्थिति देख वे हमें क्या भेजना है बताते रहे।
ऐसे ही जब सुनामी आई तब भी हमारा महिला मंडल चंदा इकट्ठा कर व अपने पास से भी पैसे डाल कपड़े आदि जुटाने में लग गया। नये पेटीकोट, ब्लाउज, साड़ी, बनियान, लुँगी, तौलिये, साबुन, टूथपेस्ट, टूथ-ब्रश,रेजर, सेफ़्टी पिन, सूई धागा आदि खरीदे गये। सबसे अनुरोध किया गया कि वे अपने घर से दिये गये कपड़े धोकर व इस्तरी करके लायें। कुछ महिलाओं से सिलाई मशीन भी लाने का अनुरोध किया गया। फिर सबने मिलकर पुराने कपड़ों में टूटे बटन टाँके, उधड़े को सिला, पुराने इलास्टिक निकालकर नये डाले। अलग अलग उम्र के लिये पारदर्शी पैकेट बनाए व उनपर उम्र व समान के लेबेल लगाए। सबमें दैनिक आवश्यकता का समान भी रखा। पैकेट बनाते समय मैंने कहा था कि ऐसे पैक करो कि यदि हम लेने वाले होते तो हीन न महसूस करते।
हमारे महिला मंडल में एक और परंपरा भी शुरू की गयी थी कि हर बार जब हम हाउजी, तम्बोला खेलते तो इकट्ठी की राशि का दस प्रतिशत हम भविष्य में ऐसे राहत कामों के लिये रख लेते। आज मैं वहाँ से निकल चुकी हूँ परन्तु मुझे विश्वास है कि वहाँ की महिलाएँ पिछली बार की तरह ही इस बार भी सुन्दर पैकेट ससम्मान बना रही होंगी।
दानी में इतनी शिष्टता तो होनी ही चाहिए कि ग्रहीता का सम्मान भी बना रहे। और जब भी मुझे ग्रहीता बनना पड़े तो दानी मुझसे मेरा आत्मसम्मान न छीने अपितु मुझे व स्वयं को दोनों को सम्मानित व अनुग्रहित करे।
घुघूती बासूती
Thursday, October 08, 2009
दान दो किन्तु ग्रहीता को साथ में सम्मान भी दो!
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अच्छा लगा,दान सम्मान देने के साथ ही,अच्छा लगता है ।
ReplyDeleteकई बरस पहले का एक प्रसंग याद आ गया । मैं बनारस से कोलकाता जा रहा था । हावड़ा स्टेशन आने के पहले एक युवक अधेड़ व्यक्ति डिब्बे में भीख मांग रहा था । एक सज्जन ने उसे तीन चीनिया (नन्ही किस्म)केले दिए ।उसने उन केलों को डिब्बे भर को दिखाया,हँसा और लौटा दिया - बिना कुछ बोले । दाता काफ़ी शर्मिन्दा हुआ और उसने फिर करीब आधा पैकेट बिस्कुट भी दिया ।
ReplyDelete’युवक अधे्ड़ ’ नहीं अधेड़ । खुद की उमर का तकाज़ा है,यह गलती।
ReplyDeleteसही कहा आपने हर देने वाला व्यक्ति यह सोच ले तो फिर फटे पुराने कपडे न दे पायेगा
ReplyDeleteआप से सहमत।
ReplyDelete"दानी में इतनी शिष्टता तो होनी ही चाहिए कि ग्रहीता का सम्मान भी बना रहे"
ReplyDeleteएकदम सही और सीखने लायक बात कही है जी आपने
प्रणाम
आपकी इस भावना ने मुझे अभिभूत कर दिया...बहुत ही सही और सार्थक कहा आपने...
ReplyDeleteहमारे धर्म में ही इसकी व्यवस्था यह कह कर कर दी गयी है कि अपने इस्तेमाल किये हुए कपडे यदि बिना धुलाये इस्त्री कराये दान किया जाता है तो इसे अपना पुन्यांश (लक्ष्मी रूप में) चला जाता है.
अपनी उपयोग की कोई भी वास्तु यदि दान स्वरुप किसी को देनी हो तो उसे साफ़ सुथरा कर उपयोग में आने योग्य बनाकर ही देनी चाहिए...
"दान देने की सुविधा हमें तभी मिलती है जब इसे लेने के लिए कोई दुर्भाग्यवान पात्र उपलब्ध हो।"
ReplyDeleteबिल्कुल सही। कोई भी स्वाभिमानी व्यक्ति याचक बनना पसंद नहीं करता क्योंकि
आब गई आदर गया नैनन गया सनेह।
ये तीनों तबही गए जबहि कहा कछु देय॥
सिर्फ दुर्भाग्य ही किसी को याचक बनाता है। सम्मान के साथ ही दान देना सही दान है।
पीडितो की तन मन धन से मानवीयता के नाते सहायता करना चाहिए .आभार
ReplyDeleteApki samvedna ko Salam. Apne behed samvedit tarike se likha hai. Ap jaise logon ki samaj me jarurat hai.
ReplyDeleteयह आपने सही राह दिखाई है । वस्त्र सामान हम उसी तरह दे जिस तरह हम ले सकें सम्मान के साथ । आपदा कभी भी किसी पर भी आ सकती है ।
ReplyDeleteसहमत हूं आपसे।
ReplyDelete"दान दो किन्तु ग्रहीता को साथ में सम्मान भी दो ।"
ReplyDeleteहर दान देने वाले को इसका ध्यान रखना ही चाहिए ।
दानी में इतनी शिष्टता तो होनी ही चाहिए कि ग्रहीता का सम्मान भी बना रहे।
ReplyDeleteसुन्दर विचार.
सच्चा दानी वही है जो लेने वाले के आत्मसम्मान को बनाये रखत है । दाता खुद ऐसा प्रदर्शित करता है की वह देकर खुद अनुग्रहीत हो रहा है ।
ReplyDeleteरहीम दास की देते समय आंखें नीची हो जाती थी । इस समंबन्ध में दो दोहे हैं ।
दान के बारे में कहा गया है कि दायां हाथ दे तो बांयें को पता नहीं चलना चाहिये ।
आपने बहुत सही कहा है हर कोई कभी भी दानी अदानी बन सकता है |मैंने भी महिला मंडल के माध्यम से ऐसे बहुत सारे कपडे इकठे कर के उनको रिपेयर कर कई अनुपयोगी कपडो को धोकर उनकी गोदडीयां बनवाकर रख लेते थे और जब भी कही देना होता था व्यवस्थित तरीके से दे देते थे |इससे कई गाव कि महिलाओ को आर्थिक सहयता भी मिल जाती थी साथ साथ उनका सिलाई प्रशिक्ष्ण भी हो जाता था|अगर बहुत कपडे इकठा हो जाते और रखने कि व्यवस्था न हो तो उन कपडो के बदले बर्तन (थाली गिलास कटोरी )लेकर दे दिए जाते थे |
ReplyDeleteघुघूती बासूती जी
ReplyDeleteआपने अपने ब्लॉग पर मेरी पोस्ट को प्रदर्शित करके अपने पाठक वर्ग तक पहुँचाया और बड़ी संख्या में प्राप्त टिप्पणियों का जब मेनें सामूहिक उत्तर अपने ब्लॉग के माध्यम से दिया तो ऐसा लगता है की सारे लोगों की सहमति हो गयी या उन तक पहुंचा नहीं . जब आपने एक बार बात छेड़ ही दी है तो उसे दूर तक जाने दीजिये . मेरे पास प्रत्येक व्यक्ति की बात का उत्तर देने के लिए भी एक पोस्ट तैयार है . में चाहता हूँ की आप मेरी दूसरी पोस्ट भी अपने ब्लॉग में जाने दीजिये फिर उसके बाद शेष बच रही आपत्तियों पर मेरी तीसरी पोस्ट प्रकाशित कीजिये . आपको टिपण्णी के माध्यम से इसलिए लिखना पड़ा क्योंकि आपने भी अपना इ-मेल पता सार्वजनिक नहीं किया हुआ है
सचमुच इस तरह तो कभी सोचा ही नहीं था...अभी पिछली बार ही तो बाढ़ की विभिषिका देख चुका अपने गाँव बिहार में और उसके बाद का दृश्य, हर जगह फैले उन दान दिये गये कपड़ों का अंबार...
ReplyDeleteएकदम अछूता विषय उठाया है आपने मैम...
बिलकुल सही कहा ---------
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