बेटियों के पास छुट्टियाँ बिताकर लगभग १७ दिन बाद घर लौटी। पहले पति की बदली के कारण, मकान की खोज, समान समेटना फिर नए घर में जमाना, बीमार पड़ना, बिटिया का मेरी सहायता के लिए यहाँ आना, नेट का न होना आदि कारणों से महीनों से न तो कुछ अधिक लिख पाई न ही ब्लॉग पढ़ पाई। आज पहले के भी कई ब्लॉग पढ़े। एक मजेदार किस्सा कई बार लिखने का सोच रही थी किन्तु आलस्य में टल जाता था। आज जब मनीषा पांडे का 'स्वेटर बुनने वाले प्रोफेसर' पढ़ा तो उस किस्से ने एक कैटेलिस्ट का सा काम किया। मन हुआ कि ट्रेन के उस किस्से को भी आज कह ही दिया जाए। पहले तो मैं मनीषा के ब्लॉग पर दी हुई अपनी टिप्पणी यहाँ दोहराती हूँ। बहुत से परम्परावादियों को न यह किस्सा पसन्द आएगा न ही मेरी टिप्पणी सो उनसे पहले ही क्षमा याचना करती हूँ।
मेरी टिप्पणीः
मनीषा, प्रोफ़ैसर साहब से मिलवाने के लिए आभार। शायद वे मनोविज्ञान को सही समझ गए। जो आंतरिक शांति हाथ का काम करने से मिलती है वह किसी अन्य काम से नहीं। गाँधी जी का चरखा चलाना हो, स्त्रियों द्वारा कढ़ाई, बुनाई, सिलाई, ये सब काम मन को बहुत शान्त कर देते हैं। शान्ति की आवश्यकता पुरुषों को स्त्रियों से कम नहीं है।
घुघूती बासूती
अब पढ़िए किस्सा
तब मेरी बिटिया काशी हिन्दु विश्वविद्यालय में पढ़ती थी। परीक्षा व पढ़ाई खत्म होने पर उसे सामान सहित वापिस आना था। उसे लेने व बनारस घूमने के 'एक पंथ दो काज' के उद्देश्य से मैं अहमदाबाद से बनारस जा रही थी। मेरी आदत थी (कुछ सीमा तक अब भी है) कि यात्रा हो या घर,खाली हाथ बैठना कठिन लगता है। या तो कोई पुस्तक या समाचार पत्र पढ़ती रहती हूँ या फिर कुछ सिलाई, कढ़ाई आदि हाथ में ले लेती हूँ। अब तो खैर,नेट पर चिपक जाती हूँ। मुझसे खाली हाथ तो टी वी भी नहीं देखा जाता। शायद ही कोई कार्यक्रम हो जो लगातार मेरा ध्यान खींच सकता है, फिर विज्ञापन तो कार्यक्रम से भी अधिक ही आते हैं।
सो पुस्तक व काढ़ने के लिए साड़ी से लैस मैं यात्रा कर रही थी। गाड़ी उत्तर प्रदेश पहुँच गई थी। एक पुलिसकर्मी मेरी सीट के सामने आकर बैठे। वे लगातार मेरी कढ़ाई वाली साड़ी को देख रहे थे। जब उनसे रहा नहीं गया तो वे बोल ही पड़े, "कितनी अच्छी बात है आप अपने समय का सदुपयोग कर रही हैं। देखिए आपने बैठे बैठे कितनी सारी कढ़ाई कर डाली।"
मैं मुस्करा दी व कहा "हाँ, काफी हो गई है।"
वे फिर बोले,"आजकल की लड़कियाँ तो ऐसे काम करती ही नहीं। खाली समय बर्बाद करती रहती हैं। उन्हें भी आपकी तरह समय का उपयोग करना चाहिए।"
बेचारे जानते नहीं थे कि किस मधुमक्खी के छत्ते को वे छेड़े जा रहे थे। वे तो सराहना कर रहे थे किन्तु मैं उनके खाली हाथों को ताक रही थी।
मैंने पूछा, "आप ड्यूटी पर हैं?"
वे बोले, "नहीं।"
मैंने पूछा, "आप समय का सदुपयोग क्यों नहीं करते?"
वे बोले, "मैं?"
मैंने कहा, "जी,आप!"
वे आश्चर्यचकित होकर बोले, "मैं कैसे कर सकता हूँ?"
मैंने कहा, "अपने हाथों से, हाथ का काम करके।"
वे परेशान हो गए, "मैं, मैं कैसे?"
मैंने कहा, "यही कुछ कढ़ाई बुनाई करके।"
वे भौंचक्के रह गए। उनका मुँह मैं, मैं कहते हुए खुला का खुला रह गया। उनके चेहरे पर जो भाव आए गए वे मैं कभी भूल नहीं सकती। चेहरा तो मैं देखते से ही अपनी आदत अनुसार भूल गई थी।
बहुत इच्छा हुई कि कहूँ, "औरों को तो अक्ल बताएँ, आप अंधेरे जाएँ !" किन्तु शायद जीवन में उन्हें ऐसी सलाह देने का दुस्साहस किसी ने नहीं किया था। वे स्तब्ध थे, शायद आहत भी थे, सो उन्हें और कुछ कहना शायद हिंसा की श्रेणी में गिना जाता।
कुछ समय बाद वे उठे और दो चार लोगों से किसी बात पर भिड़कर अपने समय का सदुपयोग करने लगे।
घुघूती बासूती
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सटीक जवाब मिला उन्हें.
ReplyDeleteसमय का सदुपयोग तो होना ही चाहिए। कुछ भी किया जा सकता है। कुछ भी न हो तो पुस्तकें तो होती हैं उन्हें तो पढ़ा जा सकता है।
ReplyDeleteयह बचपन से दी हुई कंडीशनिंग का परिणाम है ।
ReplyDeleteइसीलिये पुरुष, महिलाओं द्वारा किए जाने वाले घरेलू कामों में असहज महसूस करते हैं (इसमें हम भी शामिल हैं) । परिणामतः बडे होकर भले हम उस शिक्षा से बाहर आने की कोशिश करें पर सहजता से नहीं कर पाते ।
ये परिवार के द्वारा बिगाडे हुए बडे बच्चे हैं ।
वरना व्यावसायिक क्षेत्र में देखा जाय तो कढाई , कुकिंग इत्यादि में पुरुष खूब होशियार हैं । यह कुछ लोगों की इस सोच को गलत साबित करता है कि यह सब काम महिलाओं के लिए ही बने हैं ।
पुलिसकर्मी बुरे फ़ंसे । इस वाकये के बाद उन्होंने किसी महिला को उपदेश दिया नहीं होगा और दिया भी होगा तो दस बार सोचने के बाद ।
बढिया पोस्टें बुनी जा रही हैं । :)
ha ha ha
ReplyDeletemajedar.. :)
ReplyDeleteRegards,
Prashant
पुरुष मानसिकता बदलने में समय चाहिए, कुछ रहम किया करिए ....
ReplyDeleteएकदम मस्त अच्छा लगा:-)
ReplyDeleteपुरुष अभी तक केवल एक काम छोड़कर बाकी सारे काम ज्यादा उत्कृष्टता से कर सकता है और भविष्य में शायद वह भी क्षमता हासिल कर नारी को पूरी तरह विस्थापित ही न कर दे ! कभी इस दहशतनाक संभावना पर भी विचार किया है घुघूती जी आपने ? उस बिचारे पुलिस वाले को स्तम्भित करके आप के अहम् बड़ा बूस्ट अप मिला होगा तब ?
ReplyDeleteदुर्भाग्य से कुछ काम केवल औरतों को ही करना चाहिए ये धारणा तो लगभग हर किसी के दिमाग में कहीं न कहीं होती है. मेरे एक दोस्त ने कहा कि अपने खाना बनाने वाली फोटो अपनी बीवी को मत दिखाना ! ये इतनी आसानी से नहीं बदलने वाला.
ReplyDeleteशरीफ था बेचारा पुलिस वाला, उसे बोलना चाहिए था कि इस समय मैं ट्रेन में हूँ इसलिए कुछ नहीं कर पा रहा क्योंकि यह रेलवे पुलिस के अंडर में आता है , वरना मै तो अभी कोई ना कोई काम कर ही रहा होता और शाम तक सौ-पचास रूपये की ध्याडी बना डालता ! :)
ReplyDeleteसही जवाब दिया ...सच का सामना हो गया जी उनका तो ...दूसरो को उपदेश देना आज कल के समय का सबसे बढ़िया टाइम पास है :)
ReplyDeleteआपने तो उन्हें निरुत्तर ही कर दिया ...
ReplyDeleteपर उपदेश कुशल बहुतेरे... बहुत ही मस्त है..
ReplyDeleteबेचारा पुलिस वाला ....सच ही मधुमख्ही के छत्ते में हाथ डाल दिया ...
ReplyDeleteसटीक तीर जा बैठा आपका भी ..
आदमी सिर्फ पड़े-पड़े खाने के लिए होता है, दुर्भाग्य से यह मानसिकता बहुत प्रचलित है. कंडीशनिंग भी कर दिया जाता है, जैसे, मेरे ससुराल में कोई भी पुरुष (चाहे वह तीन साल का बच्चा ही क्यों न हो) पीने के लिए स्वयं उठकर पानी नहीं लता, वह केवल किसी महिला को कह देता है और पानी हाज़िर. जूठी थाली भी रखने नहीं जाता. मैंने पहले यह देखा तो मुझे बड़ा अटपटा लगा. मैंने अपनी पत्नी से इसपर ऐतराज़ किया तो यह जवाब मिला कि वहां (मेरे ससुराल में) सब एक दुसरे की फ़िक्र करते है.
ReplyDeleteदिल्ली साइड भी ऐसा ही हाल है. मेरे बहुत से हरियाणवी सहकर्मी यह कहते हैं कि "खुद कपड़े धोने होते तो शादी ही क्यों करते". यहाँ शादी करने का मकसद सिर्फ बच्चे पैदा करना, खुद खाना नहीं बनाना, और खुद कपड़े नहीं धोना है.
दफ्तर में एक-दो बार ये ज़िक्र कर बैठा कि पत्नी को कभी तबियत ख़राब होने पर मैंने कपड़े धो दिए और बर्तन माँज दिए तो सब चकित.
अफसोस होता है मुझे कि मैं सिर्फ खाना ही नहीं बना पाता. इसके इतर कपड़ों में छोटा-मोटा कोई काम हो या बच्चे को साफ़ करना, ये काम करने पर ख़ुशी मिलती है.
यह आपकी पोस्ट ट्रोल है. और आप भी ट्रोल ही हैं.
ReplyDeleteदुनिया के सबसे अच्छे हस्तकला कारीगर, शेफ, डेकोरेटर, संगीतविद, बुनकर, डिजाइनर, कलाविद, चित्रकार पुरुष हैं. जबकि यह सब परंपरागत रूप से 'महिलाओं के विषय' माने जाते रहे हैं. जैसे कई महिलाऐं खाली समय में निंदा रस का आनंद लेती हैं वैसे ही कई पुरुष खाली समय में बातचीत करते हैं या यूँ ही चुपचाप बैठे सोचते रहते हैं.
महिलाओं को सिलाई बु़नाई में जैसा आनंद मिलता है पुरुषों को राजनैतिक विश्लेषण करने, जुगाड़ सोचने, पुस्तकें पढने, स्पोर्ट्स-खेल-बिजनस की बातें करने जैसी चीजों में वैसा ही आनंद आता है.
सिर्फ सिलाई बुनाई ही खाली समय का सदुपयोग नहीं है, ग़लतफ़हमी मन से निकाल दें. एक लेखक या कवि साल में केवल एक पुस्तक ही देता है, जिसे लिखने में उसे महीने भर से अधिक नहीं लगते होंगे. बाकी ग्यारह महीने वह निरुद्देश्य भटकता या टाइमपास करता नज़र आता है. तो क्या वह इन ग्यारह महीने 'समय गंवा' रहा है? उसने हर महीने अगर एक किताब लिखी होती तो क्या उसके खाते में ग्यारह गुनी अधिक महान कृतियाँ होती?
वैसे न्यूटन भी तब पेड़ के नीचे बैठा समय ही 'बर्बाद' कर रहा था, जब उसने सेब के गिरने पर ध्यान दिया! आइन्स्टीन के बारे में मशहूर है की वह अध्यापन के बाद बचे समय में कुछ पढने-लिखने की बजाय झील के किनारे घंटों यूँ ही बैठे रहते थे... शायद सिलाई-बुनाई न कर टाइम बर्बाद करते थे..... अगर समय बर्बाद करने के बनिस्बत फ्री टाइम में सिलाई बुनाई कर लेते तो शयद ज्यादा सफल होते.... है न!
आप शीर्ष के अमूर्त-गणितज्ञों को यह सब क्यों नहीं समझतीं? वे तो ऐसे टाइम बर्बाद करने में उस्ताद होते हैं? उन्हें आपसे सिलाई बुनाई कढाई की क्लासेस लेनी चाहिए.
badhiya javab diya
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