विवाह के दस दिन बाद पति के साथ मैं बिहार(आज का झारखंड)रहने गई। धनबाद स्टेशन पर उतरी तो लगा जैसे किसी नए संसार में आ गई हूँ। बसों में लोग न केवल अंदर बैठे हुए थे किन्तु बस की छत पर भी! टैक्सी करके घर जो लगभग ३० कि मी दूर था, जाना था। टैक्सी चालक को केवल दो सवारी लेकर जाना शायद टैक्सी का अपमान लग रहा था। किसी भी कीमत पर वह केवल हम दो को लेकर चलने को तैयार नहीं था। अन्त में आगे केवल 'हम दो' को बैठाने को तैयार हुआ। फिर भी रास्ते भर चाहता रहा कि कम से कम एक और को तो हमारे साथ बैठा ही दे। रास्ते भर मैं एक टैक्सी, कार, बस आदि में कितने लोग बैठ सकते हैं यह जादुई सा खेल देखती रही।
जब घर आया और हम उतरे तो हमारे स्वागत को ना जाने कितने बच्चे भागते हुए आ गए। दरवाजा खोला तो हमसे पहले बीसियों बच्चे अंदर पहुँच गए थे। बस उस दिन मैं कॉलोनी के अनंत बच्चों, किशोर, किशोरियों व युवक युवतियों की भाभी बन गई। भाभी शब्द का यह मिठास मैं तीन साल तक अपने कानों में घुलता महसूस करती रही। इस रिश्ते की मधुरता को मैंने जितना बिहार में जिया फिर कभी नहीं जिया। कुछ हमउम्र ननदें मिल गईं। तीन बहनें तो मेरे घर के पीछे बगीचे से जुड़े घर में ही रहती थीं। मीना, बुलू और टुलू की मैं कब और कैसे प्रिय बौउदी(बंगला में भाभी) बन गई मुझे स्वयं पता नहीं चला। पहली बार मैंने किसी श्याम वर्ण सुन्दरी को देखा था। परन्तु जो सबसे सुन्दर था वह था हमारे रिश्ते का मिठास व स्नेह!मैंने बंगाली व्यंजन बनाना सीखा,बाड़ के उस पार से खाने की कटोरी लेना और इस पार से देना सीखा। बाड़ के पास खड़े हो आवाज देना और फिर माँ का 'मीना, घुघूती डाक छे'आज भी कानों में गूँजता है। बंगाली सास की बहू बन मैं जितना बंगाली न बन पाई थी उससे अधिक इनके प्यार में बन गई।
बुलू शांति निकेतन में पढ़ती थी। जब भी वहाँ जाती तो बोलकर जाती कि बौउदी लौटते समय आपके लिए तांत की बंगाली साड़ियाँ लाऊँगी, दादा से कहना कि पैसा तैयार रखें। लौटती तो मेरे लिए अपनी पसंद की ढेरों साड़ियाँ लाती। साड़ियाँ तो वह बहुत सी पड़ोसिनों के लिए लाती किन्तु पहले चुनाव का अधिकार तो मुझे ही दिया हुआ था। साखा, पोला, लोहा (बंगाली विवाहिताओं द्वारा पहने जाने वाले सफेद,लाल कड़े, लोहा लोहे या लोहे और सोने की चूड़ी सा होता है जो विवाह में पहनाया जाता है।)और बंगाली साड़ियाँ पहना मुझे भाभी से बौउदी बना वे बेहद खुश होतीं।
फिर जब दुर्गा पूजा का अवसर आया तो हर शाम अपने साथ मुझे भी पूजा के पंडाल में ले जातीं, मुझसे अंजुली चढ़वातीं। पहली शाम जब वे मुझे लेने आईं तो मेरी साधारण सी रेशमी साड़ी को देख उनकी त्योरियाँ चढ़ गईं। 'बौउदी ये क्या है? आज के दिन तो खूब सजधज कर जाना होता है और यह तो आपकी पहली दुर्गा पूजा है। चलिए अपनी साड़ियों की पेटी खोलिए। हम साड़ी चुनकर पहनाएँगी। ऐसे तो हम आपको नहीं ले जाएँगी।'ननदों का लाड़ क्या होता है मैंने उनसे ही जाना था। फिर वह दुर्गा पूजा की रौनक!सुहागिनों का सिन्दूर खेलना, नृत्य करते हुए आरती करने का दृष्य! मैं अधार्मिक भी हर साल दुर्गा पूजा के रंग व उत्साह में रंग दी जाती!
मीना ने ही मुझे मछली साफ करना, काटना व पकाना सिखाया था। ओह, वह झिंगूर सा झींगा भी! मैं बेचारी शुद्ध शाकाहारी मटन,मुर्गा, मछली, झींगा पकाने लगी थी। उसका वश चलता तो शायद खिला भी देती। उसके साथ ही शनिवार को हटिया जाने वाली बस में मैं भी जाती और नेनुआ,कुमढ़ा,पटल,पुई साग और भी न जाने कितने बंगाली या बिहारी नाम वाली सब्जियाँ खरीदकर लाती। उसने ही मुझे झड़बेरी का मीठा अचार डालना सिखाया। अखाद्य सी डालियों,पत्तियों (जैसे कुमढ़े की) की भाजी बनाना सिखाया। सहजन की फलियों की पिसी सरसों में तीखी सी सब्जी बनाना सिखाया। हाँ वह मेरे घुघूत को करेले की रसेदार सब्जी खाना कभी नहीं सिखा पाई।
मीना व उसकी बहनों के अलावा भी कितनी सारी सहेलियाँ बनीं। संजू मराठी थी,एक पड़ोसिन गुजराती,एक कोंकणी,एक मामी मराठी थीं,बहुत सारी बिहारी लड़कियाँ थीं। संजू,मीना व अन्य सहेलियों के साथ हमने जितनी शैतानियाँ की उतनी तो शायद हॉस्टल में भी नहीं की थीं।
मेरी बिटिया के पहले जन्मदिन का केक संजू ने बनाया व सजाया था। संजू सबसे बड़े साहब की बेटी थी किन्तु सबसे सरल स्वभाव की थी। उसकी माँ ने मेरी बिटिया के लिए फ्रॉक सिला था।
और होली! नहीं होली किसी और दिन! आज तो पास के पंडाल से दुर्गा पूजा की आवाजें आ रहीं हैं और कानों में बौउदी और 'मीना, घुघूती डाक छे'गूँज रहा है। और याद आ रहा है तीन सालों के लिए घुघूती का बंगला वधू बनना!
मीना, जहाँ भी हो ये तुम्हारी भाभी/बौउदी का मन आज भी तुम्हें 'डाक छे'। आशा है तुम आज भी दुर्गा पूजा में सजी धजी गई होगी। ३२ सालों में चाहे तुम्हारे बादलों से काले लम्बे बालों में मेरे बालों की तरह चाँदी के तार गुँथ गए हों किन्तु तुम आज भी वही मेरी प्रिय श्याम सुन्दरी मनमोहक ननद हो। मेरी ओर से भी अंजुली चढ़ा देना मीना!
घुघूती बासूती
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एक बात मैं भी जोड़ना चाहूंगा इसमें.. मेरा अपना अनुभव..
ReplyDeleteमेरे पड़ोस में एक भाभी थी(अब मेरा पड़ोस बदल गया है, वह अभी भी वहीं रह रही है).. मेरी अपनी भाभी के आने से पहले ही मैंने सही मायने में देवर-भाभी के पवित्र रिश्ते को उनके साथ जीया है.. उनके बच्चों से भी जितना प्यार मिला वह कम नहीं..
अब जब हम पटना में नहीं होते हैं तो पापा-मम्मी को वही भैया-भाभी के भरोसे छोड़ते हैं.. वे भी लगभग अपने बच्चों सा ही कर्तव्य को निभाते हैं..
और हां, बिहार का नाम लेकर आपने मन तो मोह ही लिया साथ ही नोस्टैल्जिक भी कर दिया.. एक बात तो मैं गर्व से हमेशा कहता हूं, "बिहार भले ही कितना भी पिछड़ा हो.. मगर जितना प्यार और अपनापन वहां मिलता है वह और कहीं नहीं.." :)
मैं आप की टिप्पणी का स्पर्श पाकर अभिभूत हुआ और आप के ब्लॉग पर आपके विचारों से भी अवगत हुआ.
ReplyDeleteबढिया है । पता नहीं क्यों मुझे बांगला संस्कृति से बेहद लगाव रहा है । संगीत-साहित्य-परंपराओं सभी से । दिलचस्प बात ये है कि क्षेत्रीय भाषा संस्थान से बांगला का कोर्स भी मंगवाया । जो अधूरा छूट गया । बहरहाल..कभी तो सीख ही लेंगे । वैसे आपको एक सूचना भी देनी थी । आपके लिए एक गीत खोजा था--'घूर घुघुती घूर' ठेठ उत्तरांचल का । पर किसी तकनीकी व्यवधान का शिकार हो गया । फिर कोशिश करते हैं । तब तक इंतज़ार कीजिए ।
ReplyDeleteओह युनूस जी!यह गीत ही तो मैं जमाने से खोज रही हूँ। पहले आकाशवाणी में लोकगीतों के कार्यक्रम में सुना था। जब दे सकें तो मुझे सूचित अवश्य कीजिएगा। बेसब्री से प्रतीक्षा रहेगी।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
बहुत रोचक संस्मरण है।
ReplyDeleteबाड के इस पार से उस पार खाने की कटोरी थामना लिखकर तो आपने मध्यम वर्गीय मिठास को याद दिला दिया जो कि अक्सर आस पडोस मे मेरे यहां हुआ है।
मेरे यहां आज भी जब कभी घर में कुछ विशेष बनता है तो श्रीमती जी पडोसीयों के यहां जरूर भेजती हैं उसी तरह मेरे यहां भी पडोसी की कटोरी में कुछ न कुछ आ जाता है ।
एक बार कटोरी आ गई तो फिर खाली कटोरी भी नहीं लौटाई जाती, सो फिर मेरे यहां कुछ और बनता है और उसी कटोरी मे देकर कटोरी वापस करी जाती है :)
बहुत ही दिल को छूने वाला संस्मरण है ...... ऐसे लोग दुनिया के किसी भी कोने में क्यूँ ना चले जाओ ,कहीं ना कहीं मिल ही जाते हैं ,जो पराये होते हुए भी अपने बन जाते है .....
ReplyDeleteअरे वाह आपने इतने खूबसूरत दिन गुजारे और हमें अब बता रही हैं ?
ReplyDeleteयूपी बिहार और ऐसी ही दूसरी जगहों पर टैक्सियों को केवल दो सवारियों की आदत नहीं हुआ करती ! उन्हें आकंठ लदे फंदे देखने का मजा ही कुछ और है ,ठूंस ठूंस कर भरी गई रिस्की हो तो होता रहे !
और ये बाऊदी की ननद ,अनंत बच्चे , माछेर झोल , सेंदूर खेला ,मजा आ गया सब कुछ पढ़ कर ! जीबी इधर भी एक बन्दा है जो मछलियों और झींगा जैसे खाद्य पदार्थों का शौकीन है !......
हमारा देश बेहद खूबसूरत है और इसकी परम्पराएँ , पहनावा भी बेहद खूबसूरत है ! मैं समझ सकता हूँ आपके जेवर , आपकी साडिया , बाड़ के पार का आदान प्रदान और दुर्गा पूजा ! इतनी सुखद स्मृतियाँ ,भला और क्या चाहिए इंसान को ?
दिल को छु लिया आपके संस्मरण ने | मैं भी झारखण्ड से हूँ आपके संस्मरण की एक - एक वाक्य ने मेरे मन के दृश्यपटल मैं अपनी जीवंत तस्वीर बना ली |
ReplyDeleteधन्यवाद !
आप ने अपने उन खूबसूरत दिनों को बहुत ही खूबसूरती से स्मरण किया है। बिहार कभी देखा नहीं लेकिन वहाँ के लोगों के सम्पर्क में आया हूँ। लगता है वहाँ के लोग ही वहाँ की निधि हैं।
ReplyDeleteआपका आलेख पढ़कर आनन्द आ गया |अब तो कटोरियों में सब्जी लेना देना पिछडेपन कि बात समझते है |
ReplyDeleteबिहार कि आत्मीयता जानकर बहुत अच्छा लगा |
आभार
चलिए आपके इतने दिन न दिखने की कमी पूरी हुई इस बेहतरीन संस्मरण को पढ़कर.
ReplyDeleteमेरे परिचय में भी बिहार से ऐसे लोग हैं जिन पर बंगाल की संस्कृति का पूरा प्रभाव दिखता है. बहुत भले लोग हैं वो भी.
हम तो इसी में पले हैं... तो पड़ोस की भाभी याद आ गयी हमें भी.
ReplyDeleteऔर हटिया से मुझे एक बार कंफ्यूजन हो गया कहीं ये रांची का हटिया तो नहीं... जहाँ मैं रहा करता था.
सुन्दर!!!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया संस्मरण..
ReplyDeleteपढ़ कर बहुत अच्छा लगा...
बहुत यादगार संस्मरण लिखा है आपने ..कटोरी का आदान प्रदान तो अब सिर्फ यादों में रह गया है ...बहुत वक़्त तेजी से बदला है सब सिमट गए हैं अब जैसे खुद में ही ..बहुत दिनों बाद आप दिखी आज ..अच्छा लगा
ReplyDeleteसुन्दर आत्मियता से भरा संसमरण।
ReplyDeleteहम तो कटोरियों के आदान प्रदान का सुख अभी भी उठा रहे हैं। इलाहाबाद कलेक्ट्रेट की ऑफिसर्स कॉलोनी में रहते हुए।
ReplyDeleteपड़ोस में आन्ध्र प्रदेश मूल की एक महिला आई.ए.एस. अधिकारी भी हैं, बाकी अपने प्रदेश के ही प्रशासनिक अधिकारी हैं। शोभना जी की ‘पिछड़ेपन’ वाली बात अभी यहाँ तक नहीं आयी है।
आपकी पोस्ट आत्मीयता बढ़ाने वाली है। बधाई।
wah badhiya sansmaran (?)
ReplyDeleteGhuguti Basuti.....
इष्ट मित्रों एवम कुटुंब जनों सहित आपको दशहरे की घणी रामराम.
ReplyDeleteaapka yah khubsoorat sansmaran paddh kar yah vishvas phir se jaagaa ki rishtedaariyon ke baahar bhi rishton ka apnapan hota hai. phir is baat par bhi dhyaan gaya ki yah sab tees se zyada varsh pahle ki baaten hain. baharhaal, dil ko chhoo lene vale sansmaran ke liye saadhuvaad.
ReplyDeleteवाह !!! बड़ा ही अपना सा लगा आपका यह संस्मरण....आपके भावों की धार में बह हम भी भावुक हो गए...
ReplyDeleteबहुत ही आत्मिक सुख प्राप्त हुआ इस संस्मरण को पढ़कर । मेरा बचपन बंगाल में बीता है, और आज भी बहुत सारी बाते मन किसी कोने में सुरक्षित है । आभार ।
ReplyDeleteबहुत ही बढिया संस्मरण है. ऐसे संस्मरण इसलिये अच्छे लगते हैं, क्योंकि इसमें उन मूल्यों का ज़िक्र होता है, उन संस्कारों की मेहक होती है, जो आजकल नदारद होते जा रहे हैं.
ReplyDeleteआभार.
अरे वाह ! बिल्कुल मे्रे भी यही हालात है…14 साल हो गये झारखंड रहते…छपरिया,भोजपुरी,बंगला सारी बोलियां ऐसी गड़-मड़ हो गयी हैं कि पता नही चलता अब कौन सी टोन मे बात कर रही हूँ :)
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