न जाने क्यों कुछ लोगों को अलग राग अलापने का रोग होता है। मुझे भी यही रोग है। होना तो यह चाहिए कि जिस सुर में सब गाएँ आप भी अपना सुर मिला दो। माँ कहती हैं कि तुम्हें तो हर बात में स्त्री पक्ष दिखता है। मैं कहूँगी स्त्री पक्ष ही नहीं मुझे पैन्टिंग में केवल उगता सूरज ही नहीं ढली हुई रात भी दिखती है, पेड़ है तो उसके साये के नीचे बढ़ने का संघर्ष करती कमजोर घास भी दिखती है, पूर्णिमा का चाँद है तो उसके प्रकाश में न दिख पाने वाले तारे भी थोड़े से दिखते हैं, फिर भी पूर्ण चित्र तो कभी भी नहीं देख पाती, न कभी देख पाने के सपने पालती।
सो राखी या रक्षाबन्धन के दिन मेरे मन में न केवल भाई बहन के अमर स्नेह के वे चित्र ही उभरते हैं अपितु बहुत से और खयाल आते हैं। ये खयाल रंग में भंग तो डालते ही हैं किन्तु मेरे हिसाब से चित्र को पूरा भी करते हैं।
क्या भाई का होना आवश्यक है? या सिक्के के दूसरे पहलू को देखें तो क्या बहन का होना आवश्यक है? हो सकता है कि जब पाँच सात बच्चे होते थे और दो चार और पैदा करने में कोई विशेष आर्थिक व सामाजिक कठिनाई नहीं थी तब शायद भाई बहन दोनों का होना आदर्श माना जा सकता था। परन्तु आज के समय में? आज तो पति पत्नी एक या दो बच्चों की सोचकर ही चलते हैं। ऐसे में एक पुत्र हो और एक पुत्री यह चाहत तो बेमानी है। फिर यह हो भी जाए तो भी भाई को भाई नहीं मिलेगा और बहन को बहन। सो राखी के त्यौहार का बहुत लम्बे समय तक हर परिवार में चलना कठिन ही लगता है। जहाँ भाई बहन दोनों हैं वहाँ भी रिश्ते कितने निभाए जाते हैं यह सोचने की बात है।
यह रिश्ता सबसे अधिक मधुर इसलिए कहलाता था क्योंकि बहन को परिवार की जमीन जायदाद से कोई हिस्सा नहीं मिलता था। उसके हाथ यदि कुछ आता था तो यह मधुर रिश्ता ही। भाई जायदाद को लेकर लड़ लेते थे, बहन को तो बस यही चिन्ता रहती थी कि माता पिता के बाद उसका मायका बना रहे और वह मायका भाइयों के कारण ही बना रहता था और भाई भी यह जानते थे कि बहन को अपने जन्म के परिवार से केवल और केवल स्नेह ही मिलना है और कुछ नेग और कुछ नहीं। सो कहीं चैत की भिटोली(जैसे कुमाऊँ में चैत्र मास में बहन को कुछ रुपए भेंट में मनी और्डर कर दिए जाते थे)तो कहीं राखी में कुछ रुपए या भेंट दी जाती थी। जिन बहनों के भाई नहीं होते थे उनका मायका माता पिता के साथ ही खत्म हो जाता था। तब लोग घूमने को कश्मीर या कन्याकुमारी या विदेश तो जाते नहीं थे, स्त्री के पास घर के कामकाज और ऊब से निकलने को मायका ही एक स्थान होता था। सो बचपन से उन्हें भाई का महात्म्य सुनाया, सिखाया, दिखाया जाता था।(आज जब स्त्री भी भाइयों के बराबर हिस्से की अधिकारी हो गई है और धीरे धीरे इस हिस्से की माँग भी करना शुरू कर देगी तो ये भाई बहन के सम्बन्ध पहले से नहीं रह जाएँगे। और इन सम्बन्धों को पहला सा बनाए रखने के लिए स्त्री को उसके अधिकारों से वंचित भी नहीं रखा जा सकता।)
मुझे याद है बचपन में सुनी उस रीटा की कहानी जिसने भगवान के आगे भाई की माँग की और बदले में एक विचित्र सी कसम खाई कि भाई होगा तो यह करेगी और भाई होने पर पूरी भी की और भगवान के पास भी चली गई। भाई की यह ललक शायद एक स्वाभाविक ललक नहीं है अपितु समाज जनित ललक है। मेरी दो बेटियाँ हैं, मुझे याद नहीं कि उन्होंने कभी भाई की कमी महसूस की हो या भाई हो ऐसी इच्छा दिखाई हो। हाँ बड़ी बेटी जब अकेली थी तो बहन लाने की माँग जरूर की थी तब जब पड़ोसी बच्चे कोई खिलौना न देने पर 'नहीं दोगी तो हम चले जाएँगे' की धमकी देते थे। मेरी बेटियों में भाई की ललक शायद इसलिए नहीं थी क्योंकि हमने घर में पुत्र न होने का कभी दुख नहीं मनाया, न पुत्र का महत्व ही कभी बताया, न इस विषय में कभी बात ही की। या यह बात की कि कैसे मेरे पति को अपने पुत्र होने के कर्त्तव्य निभाने हैं या कैसे मुझे मायके से अपेक्षाएँ हैं। वे केवल यह जानती थीं कि दादा दादी बाबा के माता पिता हैं और नाना नानी माँ के। उनका सम्मान करना है और जब वे हमारे पास आएँ तो उनकी देखभाल करनी है क्योंकि वे वृद्ध हैं। न दादा दादी पुत्र के माता पिता होने के कारण विशेष थे न मेरे पुत्री के माता पिता होने के कारण विशेष नहीं थे। सो सारा मामला संस्कार का है।
भाई होना वैसे ही अच्छा है जैसे बहन होना। यदि रिश्ते बराबरी के हों तो बहन भी बहन का साथ दे सकती है, सुख दुख बाँट सकती है। सच तो यह है कि बहन ही अधिक बाँट सकती है। भाई के घर में भी रिश्ता तो भाभी ही बनाए रखती है। बहुत ही कम भाई होंगे जो बहन के साथ बैठ घंटों मन की बात करते हैं। यह काम तो भाभी या बहन ही कर पाती है।
मुझे एक बहन की याद आ रही है। उसका परिवार एक ऐसे समय से बाहर निकला था जो दलदल में फँसे होने सा था। दलदल में फंसी वह जानती थी कि भाई से गुहार लगाना बेकार होगा। सो नहीं लगाई। खैर वह दलदल से बाहर निकली। कुछ ही महीनों में भाई के घर एक विवाह था। वह वहाँ गई। यह पहला अवसर था जब इस भयंकर स्थिति से बाहर निकलने के बाद वह अपने मायके के किसी सदस्य से मिल रही थी,जब अपना दर्द वह किसी अपने से बाँट सकती थी। सांत्वना तो दूर की बात है, भाई ने हालचाल भी नहीं पूछा। उसे चुप रहने को कहकर भाई अपनी उस साली से यात्रा विवरण माँग रहा था जिससे वह प्रायः मिलता था और जो महज चार घंटे की यात्रा कर आई थी। सोचने की बात है कि साली भी जीजा को राखी बाँध सकती है (यहाँ यही अधिक सही व सहज भी होता), ननद भी भाभी को या भाभी ननद को। प्रश्न भाई बहन का नहीं, मन मिलने का है। राजस्थान में ननद भाभी को राखी बाँधती है। (बताया जाता है कि पति पत्नी के अलावा कोई भी किसी को राखी बाँध सकता है। वैसे भी पुराने समय में पुरोहित यजमान को राखी बाँधते थे।) क्या उपरोक्त भाई बहन में राखी का कोई महत्व है?
ये त्यौहार महत्वपूर्ण थे। जीवन की एकरसता को कम कर जीवन में उमंग लाते थे। उस जमाने में जब स्त्रियाँ जब मन करे मायके या कहीं भी घूमने प्रस्थान नहीं कर पाती थीं, तब ये उन्हें मायके जाने का एक ठोस कारण देते थे। या फिर जब भाई बहन के घर रहने नहीं जा सकता था, यह भाई को बहन के घर जाने व वहाँ जाकर उसकी खोज खबर लेने का एक जायज कारण प्रदान करते थे। परन्तु आज के छोटे छोटे एक या दो बच्चों वाले परिवार में तो ये केवल पुत्र या पुत्री, भाई या बहन की कमी ही महसूस करवा पाते हैं। (किसी भी परिवार में यदि दो बच्चे होंगे तो एक पुत्री व पु्त्र होने की सम्भावना ५० प्रतिशत है और दो पुत्रियों की २५ प्रतिशत और दो पुत्रों की भी २५ प्रतिशत। यह तब जब अवांछित पुत्रियों का गर्भपात या शिशु हत्या चाहे उसका ध्यान न रखकर या बीमार पड़ने पर उसका उचित इलाज न करवाकर न की जाए।) या फिर इस त्यौहार के प्रति 'अच्छा आज राखी है!' का सा उदासीन भाव ही पैदा करते हैं।
मौसेरे, ममेरे,चचेरे भाइयों को राखी भेजना या बाँधना भी एक विकल्प है किन्तु कितने कम उम्र भाई अपनी दूर की बहनों की यत्न से भेजी राखी का जवाब भी देते हैं? ऐसे में यह सिलसिला एक ना एक दिन टूट ही जाता है। जो बच्चे साथ पले बढ़े नहीं उनपर जबर्दस्ती स्नेह थोपा नहीं जा सकता। जैसे जैसे परिवार दूर दराज के शहरों में जाकर बसेंगे इन रिश्तों की गर्माई अगली पीढ़ी तक रख पाना कठिन तो होता ही जाएगा। या फिर एक विकल्प दिनेश द्विवेदी जी का दिया हुआ है कि इसे विश्च बंधुत्व का रूप दे दिया जाए।
फिर भी जब तक यह त्यौहार चलता है, सबको शुभकामनाएँ।
घुघूती बासूती
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राखी अपनी रक्षा के लिए नहीं भाई के संकटों से रक्षा हो इस कामना के साथ बाँधी जाती है. इसमें क्या बूरा है?
ReplyDeleteबहन को भाई की और भाई को बहन की कामना होती ही है. इसमें भी कोई बूराई नहीं है.
बहन का सम्पति में हिस्सा नहीं होता होगा, मगर दहेज में क्या कम जाता होगा? हमारे यहाँ ऐसा रिवाज था कि आजिवन कपड़े यहाँ तक की चमप्पल भी मायके की होती थी और मृत्यु पर चीता भी. (यह पहले की बात है, अब तो सब बदल गया है)
क्या मैंने उल्टा चिंतन किया है? :)
बहन है तो भाई भी जरूरी है। भाई है तो बहन भी। हम आज भी इस यथास्थितिवाद से बाहर आने की कोशिश नहीं कर पाए हैं। आज जिस तरह से रिश्ते बेमानी बनते जा रहे हैं उसमें और परेशानियों को बढ़ाने से क्या हासिल?
ReplyDeleteबहरहाल, मैं आपके विचारों से सहमत हूं।
घुघूती जी, एक विचारणीय पहलु उठाया है आपने ! लेकिन मैं प्रतिक्रया थोड़ी नटखट तरह की दे रहा हूँ , उम्मीद है बुरा नहीं मानेगे आप !
ReplyDeleteराखी का भविष्य फिलहाल तो उज्जवल ही लग रहा है, वशर्ते कोई और कमबख्त अपनी टी आर पी बढाने के लिए एक और सीरियल 'राखी का तलाक' शुरू ना कर दे तो ..... :)
अगर यही बात है तो कोई भी त्यौहार नहीं मनाया जाना चाहिए.. त्योहारों का अल्टीमेटली तो यही उद्देश्य होता है कि परिवार वाले हमेशा साथ रहे.. पर इस लेख के अनुसार भाई और बहनों में जायदाद को लेकर विवाद हो तो कोई भी त्यौहार नहीं मनाना चाहिए.. राजस्थान में शादियों में मायरा (चाक भात )भी होता है.. जिसमे मायके से लड़की के बच्चो की शादी में घर से उपहार भेजे जाते है.. ये उनके ससुराल में होने वाली हर शादी में दिया जाता है.. चार बहनों के एक भाई को मैं भी जानता हूँ.. जिन्होंने अपनी बहनों के बच्चो के लिए मायरा दिया फिर अपनी बेटियों के बच्चो के लिए मायरा दिया.. वो मेरे नानाजी थे.. उनकी बहने आज भी गर्व से उन्हें अपना भाई कहती है.. पर लेन देन से रिश्तो की गहराइयो को नहीं नापा जाता..
ReplyDeleteवैसे मुझे भी अलग राग अलापने का रोग है :)
मुझे पैन्टिंग में केवल ढली हुई रात ही नहीं उगता सूरज भी दीख्ता है, बढ़ने का संघर्ष करती कमजोर घास है तो उसके ऊपर उन्नति करता हुआ पेड़ भी दीख्ता है, पूर्णिमा में छुपे हुए तार है तो उसके बीच चम चमाता चाँद भी दीख्ता है.., पूर्ण चित्र तो मैं भी कभी नहीं देख पाता,.
देखिये जायदाद की बात रही तो बहन जिस घर में जाती है वहां उसके पति को भी मिलती है. बहरहाल रिश्ते वही चलते हैं जिनमें स्वार्थ का स्तर न्यूनतम हो. जहां स्वार्थ बढ़ जाता है वहां रिश्ते खत्म हो जाते हैं.
ReplyDeleteइस उमर में इतना और फिर उतना सब सोचना ठीक है? वह भी जबकि इतनी पुरानी धरा हो भारत की ऐसी गहरी परम्परा हो? ऐसे टेढ़े विचारों की ही अदा रही होगी कि इस वर्ष (और पता नहीं जोड़कर पीछे के कितने वर्ष) मेरा हाथ सूना रह गया..
ReplyDeleteराखी न हो तो फिर बहनें क्यों होती है, सामंत-सम भाई ही क्यों होते हैं, या चार कदम आगे और फिर दो कदम पीछे आकर सोचने लगिए (और सोचते रहिये) कि आखिर फिर जीवन ही क्यों होता है?
दीदी बात शुरू करने के पहले क्षमा माँग ले रही हूँ...! आप जानती हैं कि आप के लिये विशेष नेह और सम्मान है मन में मेरे।
ReplyDeleteभाई ही होना आवश्यक नही..बहन भी होना आवश्यक है। जिन के बहन नही होती, वे भी उतने ही दुखी होते हैं। ब्लॉग जगत में पंकज सुबीर और अर्श के वक्तव्य उदाहरण हैं इसका। हर रिश्ते का अपना महत्व है। हो सकता है कि आपकी बेटियों ने न कमी महसूस की हो लेकिन मैने देखा है, मेरे बड़े भईया के दो ही बेटे हैं और जब छोटे भतीजे के १२ साल बाद घर में छोटे भईया की बेटी आई तो दोनो की खुशी का ठिकाना ना रहा। अब भी वो दोनो उतनी ही लाडली हैं, अपने भाईयों की। कहने का तात्पर्य है कि जिंदगी किसी के लिये नही रुकती, मगर जो नही होता उसकी टीस तो कहीं न कहीं उठती ही है। भाइयों को बहन की..बहनो को भाई की।
फिर हर रिश्ते की भावना मायने रखती है। आज की परिस्थितियों के चलते ये संभव नही कि परिवार आदर्श ही हों, मगर आस पड़ोस, अगल बगल, घर परिवार जहाँ कहीं ये फीलिंग आ जाये, वही भाई है और वही बहन...! संबोधन का बड़ा असर होता है। मैने ताउम्र निभते निभाते देखा है इन रिश्तों को।
कश्मीर, कन्या कुमारी या विदेश..कहीं भी घूम आयें, घर की साध नही छूटती...! मायका बना रहे इसकी चिंता स्वाभाविक चिंता है। भाई से तालमेल बिठा के रखने में हर्ज़ ही क्या है ? तालमेल तो जिंदगी के हर कदम पर बिठाना ही पड़ता है।
और ऐसा नही है कि बस भाई के नेग देने से ही रिश्ते बनते हैं। अगर प्राचीन रिवाजों की ही बात करें, तो जितना उन्हे भाई से मिलता था, उतना वो दूसरी तरह दे भी आती थीं। भाई नेग देते थे, तो बहनों की भेटें भी उतनी ही होती थी। भाई, भौजाई, भतीजे भतीजी सब के लिये कपड़े गहने अपनी हैसियत के अनुसार लाना और जाने पर विदाई स्वरूप में ये पाना, मुझे लालच कम और उत्साह अधिक लगता है। वैसे ही जैसे दो मित्रों के बीच उपहार का आदान प्रदान लालच नही नेह प्रदर्शन का तरीका है।
कल संजोग था कि मैं इस दिन छुट्टी पर नही थी। पार्किंग की जगह एकदम साफ...! आफिस में दो लोग..! सड़कें सूनी..! आते जाते लोगो के हाथ में मिठाई, नये कपड़ों का उत्साह...! त्यौहारों की जरूरत कल से ज्यादा आज है। भागदौड़ में अगर हम अपना कल जीवित करने के लिये एक दिन निकाल ही लेते हैं, तो अगले दिनो की ऊर्जा हेतु ठीक ही है ये।
हाँ एख जगह सहमत हूँ मै कि अगर भावनाएं नही मिल रहीं। मन में कलेश है तो धागे बाँध कर रिवाज पूरा करने का कोई मतलब नही। जिस मौसेरे, चचेरे, ममेरे भाई से मेरी बात भी नही हुई। कोई भावना भी नही उसे धागा भेज कर भुला देना कोई बुद्धमत्ता नही। जरूरत है संवेदनाएं, सहयोग, भावनात्मकता बनाये रखने की।
भाई का नाम ना भी दिया जाये तो सहज रिश्तो की आवशथयकता किसे नही होती। ऐसा रिश्ता जिसके होने से ये अहसास हो कि कोई मेरे साथ है। मैं दुखी होऊँगी तो काँधा देने को, खुश होऊँ तो मिठाई खाने को। वो हमारी सुरक्षा किसी से लड़ के नही करता बस सुरक्षित होने का अहसास दिलाता है। मेरे लिये भाई का मतलब यही है और शायद मेरे भाइयों के लिये बहन की परिभाषा भी शब्दशः यही होगी। स्त्री पुरुष से परे.....!
विश्वबंधुत्व की भावना भी उत्तम है।
क्षमा के साथ :)
यह रिश्ता सबसे अधिक मधुर इसलिए कहलाता था क्योंकि बहन को परिवार की जमीन जायदाद से कोई हिस्सा नहीं मिलता था। उसके हाथ यदि कुछ आता था तो यह मधुर रिश्ता ही।
ReplyDelete-पता नहीं क्यूँ, यह बात गले नहीं उतर रही. इससे इतर कुछ और चिन्तन करना होगा.
खैर, हो सकता है कि कहीं यह नज़रिया भी हो.
मुझे अपनी छोटी बहन बहुत याद आती है।शादी के बाद वो अपने घर मे खुश है मगर उसकी याद सभी भाईयो और मां को रोज़ आती है।खैर अब तो वो राखी भिजवा देती है।कभी कोई भाई चला जाता है तो कभी कोई राखी बंधवाने मगर इस साल कोई नहि गया।मै तो कुछ सालो से अपनी भतीजी से ही राखी बंधवाता हुं।फ़िलहाल वो ही मेरी बहन है।क्लास थ्री मे है वो उसमे ही मै अपनी बहन देख लेता हूं।
ReplyDeleteमैं यहाँ आया तो था आपका ई-मेल पता जानने के लिए,पता नहीं मिला लेकिन आपका यह सब लिखा मिला। पढ़कर मन में एक कचोट उठ गयी है। आपके विचार निश्चित ही आपके निजी अनुभव और अपने पारिवारिक संस्कारों की उपज होंगे, हम उनका सम्मान करते हैं लेकिन मेरे विचार से इस पर्व को ऐसे नकारात्मक नजरिए से देखने की आवश्यकता नहीं है।
ReplyDeleteकंचन जी ने, सहमते हुए ही सही, बहुत सही परिप्रेक्ष्य में इस बात को रखा है। आपने भी तो एक जगह लिखा ही है कि पति-पत्नी के अलावा सभी एक दूसरे को राखी बाँध सकते हैं। फिर इसमें छोटे परिवार और सहोदर भाई-बहनों की शर्त कहाँ से आ गयी? हमारे संयुक्त परिवारों में तो सगे भाई-बहन से ज्यादा चचेरे, फुफेरे, ममेरे भाई-बहन होते हैं और उनका आपसी व्यवहार कहीं से अलग नहीं होता। मुझे तो लगता है कि सम्पत्ति के बँटवारे की खटास को भी ये त्यौहार कम करने वाले साबित हो सकते हैं।
आज के दिन जिस उत्कृष्ट भावना पर बल दिया जाता है, उसमें अनेक सामाजिक बुराइयों को कम करने की शक्ति निहित है। अपनी पत्नी या प्रेयसी के अतिरिक्त सभी लड़कियों के प्रति हमारा भाव यदि भ्रातृसुलभ हो और सभी लड़कियाँ यदि लड़कों को भी इसी दृष्टि से व्यवहृत करें तो कैसा परिणाम होगा, यह सोच कर देखिए। आणविक परिवारों के बच्चे समाज में घुल-मिल कर रहना कैसा सीखेंगे? इसका एक सकारात्मक इशारा इस त्यौहार से भी मिलता है। हमारे आसपास सैकड़ों उदाहरण हैं जहाँ दो भिन्न परिवारों के स्त्री-पुरुष एक दूसरे से भाई-बहन का अटूट रिश्ता आजीवन निभाते हैं। वे इस रिश्ते का केवल रक्षाबन्धन के दिन नहीं बल्कि सालोसाल हर विशेष मौके पर पूरी गर्मजोशी से निर्वाह करते हैं।
आप उम्र के जिस पड़ाव पर हैं, निश्चित ही अनुभव की बड़ी पूँजी आपके पास है। आपकी बात को कतई खारिज नहीं किया जा सकता; लेकिन मेरा आशावादी मन बरबस ही अपनी भावना को व्यक्त करता चला गया, इसलिए यदि कोई बात नागवार गुजरी हो तो क्षमा करें।
एक अनुरोध: मैं अपने ब्लॉग की एक पुस्तक प्रकाशित करा रहा हूँ। इसमें प्रसंगवश आपकी एक कविता भी पूरे पते के साथ उद्धरित हो रही है। आशा है आपको इसमें कोई आपत्ति नहीं होगी। आपका ई-मेल पता उपलब्ध नहीं होने के कारण मैं औपचारिक सहमति नहीं प्राप्त कर सका हूँ। सादर!(सिद्धार्थ)
भाइयों और बहनों!
ReplyDeleteपहले ऐसे ही किसी नेता या वक्ता का भाषण आरंभ होता था। यह संबोधन किसे था। अर्थात अपनी पत्नी के अलावा सभी स्त्रियों को माँ, बहन और बेटी समझो। पर अब बदल गया। लोग कहते हैं ......
देवियों और सज्जनों!
भाई बहन के प्यार में बुरा कुछ भी नहीं है। पर रक्षाबंधन के त्योहार को वहीं तक क्यों सीमित रखा जाए। वह माता-पिता के प्रति समर्पण के प्रतीक श्रवण कुमार का भी त्योहार है। वह संपूर्ण मानवता के प्रति बंधुत्व का त्योहार है। आपसी विश्वास को जाग्रत, ताजा और व्यावहारिक बनाए रखने का त्योहार है। वह विश्व-भ्रातृत्व का त्योहार क्यों नहीं हो सकता।
यह केवल हिन्दू त्योहार नहीं है। यह भारतीय त्योहार है। सब भारतीय विश्व भर में फैले हैं तो क्या इस त्योहार का विश्वभर प्रसार नहीं हो सकता है क्या। जब बहुत से त्योहार पश्चिम से पूरब तक आ सकते हैं तो पूरब से यह त्योहार पूरे विश्व में क्यों नहीं पहुँच सकता। इस त्योहार में तो धार्मिक बंधन भी नहीं है। इतिहास इस का साक्षी है।
फ्रेण्डशिप बैंड बांधी जा सकती है तो विश्व भ्रातृत्व के नाम पर श्रावण मास के पूर्ण चंद्र के दिन विश्व भ्रातृत्व दिवस क्यों नहीं मनाया जा सकता। हम प्रयास तो करें।
आप का बहुत बहुत धन्यवाद कि आप ने इस विचार को आगे बढ़ाया। वर्ना यह रक्षाबंधन के साथ ही विस्मृत कर दिया जाता। फिर अगले वर्ष मुझे या कुछ और लोगों को यह स्मरण होता या न भी होता।
विचारणीय
ReplyDelete"मौसेरे, ममेरे,चचेरे भाइयों को राखी भेजना या बाँधना भी एक विकल्प है ..."
ReplyDeleteसाल का एक ही तो यह दिन होता है जब अपने एक साथ मिलते और हंस-बोल लेते हैं....वर्ना, सभी तो अपने-अपने जीवन में व्यस्त हैं ही॥
घुघूती जी ,
ReplyDeleteमुझे तो भाई की याद आती ही है :)
और राखी बाँधना भी बहुत भाता है :-))
आपका नजरिया अलग सा लगा
आपके व्यक्तिगत विचारों का
सम्मान करते हुए ,
रक्षा बंधन पर स्नेह
- लावण्या
राखी का पारंपरिक रूप कंही न कही लिंगभेद/असमानताओं, स्त्री के अबलापन, और पुरूष के स्त्री से ज्यादा महत्त्व से जुडा है. बहने अक्सर घरो मे कहती है कि "मेरी उम्र भाई को लग जाय" और इसी बहाने भाई को लूटने का भी कार्यक्रम बनाती है। लम्बी उम्र की प्रार्थना अपने परिवारजनों और मित्रों के लिए करना अच्छा है, पर सिर्फ़ पुरूष के लिए इस कीमत पर करना ग़लत है। और उस कामना के बदले कोई उपहार या कुछ पैसे लेना मुझे इस कामना का भी अपमान लगता है। बदलते समय के साथ प्रतीकों का मतलब भी बदल जाता है और जैसे जैसे स्त्री-पुरूष के जीवन मे समान अवसर बढेगे, भेदभाव घटेगा, शायद आने वाली पीढी रक्षा-बंधन को नए नजरिये से देख सके। विशुद्ध रूप से शायद रक्षा-बंधन, भाई और बहन, भाई-भाई, और बहन-बहन के बीच एक दूसरे को याद करने और मात्र प्यार जताने का साधन बन जाय।
ReplyDeleteमतलब किसी भी भाई में आत्मीयता नहीं होनी चाहिए क्योंकि वहां संपत्ति का बटवारा होता है??
ReplyDeleteवैसे मैं जो लिखने आया था वह पहले कमेन्ट में ही लिखा हुआ है.. :)
सभी को रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनायें......विश्व-बंधुत्व का विचार सराहनीय है.....
ReplyDeleteवसुधैव कुटुम्बकम.......
साभार
हमसफ़र यादों का.......
जिनमें स्वार्थ का स्तर न्यूनतम हो. जहां स्वार्थ बढ़ जाता है वहां रिश्ते खत्म हो जाते हैं.
ReplyDeleterakhi ka bhavishya:
ReplyDeletelogon ka to ab ye attitude hai>>
"aap rakhi samajh ke baandh lo main friendship band samajh ke pehan loonga..."
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी sstripathi3371@gmail.com
ReplyDeleteसिद्धार्थ जी नमस्कार। आपकी टिप्पणी मिली। धन्यवाद। आप जो पुस्तक निकाल रहे हैं उसमें आपके ही ब्लॉग की सामग्री हो तो अधिक उपयुक्त रहेगा। किसी अन्य के लेखन को वहाँ डालना मुझे उचित नहीं लगता। सो मैं आपसे विनती करती हूँ कि मेरी कविता उसमें न छापें।
आपकी पुस्तक की सफलता के लिए कामना करती हूँ।
घुघूती बासूती
Ghugtiji, aapke dwara likhit rakhi ka bavishya ke bare mein jana. kafi jaankarian mili. lekin mujhe kuchh esha laga ki esme kuuch aapki personnel baten hai. shama chahuga. Hamarein yehan ke vrat tyoharon ka kuchh matlab hoga tabhi to yeh chal rahe hai. aaj ke daur mein aap kal ki tulana karna chaho to aapko sab bekar aur bekufi hi lagega.
ReplyDeletegugti ji , aapne apne lekh ke dwara bahut kuch sochne par mazboor kar diya hai ....kya aajkal saare sambandh kisi aur neev par tike hue hai .
ReplyDeletevijay
pls read my new poem "झील" on my poem blog " http://poemsofvijay.blogspot.com
राखी का त्यौहार तो कुछ क्षेत्रों में दिनों दिन उत्साह से मनाया जा रहा है. हमारे शहर में अनेकों मुसलमान भी हिन्दू भाई बहनों से राखी बंधवा रहे हैं. इस परिप्रेक्ष्य में यह हिन्दू मुस्लिम एकता का एक अच्छा श्रोत हो सकता है. दिनेश राय द्विवेदी जी का विश्वबंधुत्व दिवस के रूप में इस पर्व को मनाये जाने का सुझाव उत्तम है. बहन के अभाव में अनेक लोग परिचय क्षेत्र की महिलाओं से या अनाथालय में जाकर राखी बंधवा रहे हैं.इस वर्ष तो अनेक स्थानों पर वृक्षों को भी राखी बांधी गयी.इस प्रकार इस त्यौहार को विस्तार मिल रहा है. अतः इसका भविष्य तो उज्जवल ही दिखता है. कुछ मुख्य त्योहारों, जैसे दीवाली और होली के साथ कुछ बुराइयां भी जुड़ी हैं,लेकिन यह त्यौहार बुराइयों से भी अछूता है.
ReplyDeleteआपही की तरह आज अनेक दम्पति पुत्र न होने पर पुत्र की कोई चाहत नहीं रखते.इससे सगे भाई की अनिवार्यता
तो समाप्त होर रही है, लेकिन इस त्यौहार का महत्त्व समाप्त नहीं हो रहा है.
आपने पति को राखी नहीं बंधे जाने की बात कही थी. लेकिन इन्द्राणी द्वारा इन्द्र को राखी बांधे जाने का जिक्र धार्मिक ग्रंथों में है.
Respected Ghughutijee,
ReplyDeleteI had been reading your posts often. reminds me of Shivanijee. You seem to have clear, organized, logical and realistic line of thoughts...
apne bare main bataiyega..achha lagega.
LALIT JOSHI ( lalitoshi@hotmail.com)
क्षमा कीजियेगा .........शीर्षक पढ़कर मुझे लगा, संभवतः आप राखी (सावंत) के भविष्य पर कुछ प्रकाश डालने वाली हैं....
ReplyDeleteखैर आपने जो प्रसंग उठाया और उसपर जो टिप्पणियां आपको प्राप्त हुई हैं अबतक, मुझे पूरी उम्मीद है कि आप इससे पूर्णतः असहमत होंगी....पर मैं यह कहना चाहूंगी कि जिससे आप असहमत हैं,वह भी एक दृष्टिकोण है,जैसे आपका अपना एक दृष्टिकोण है....
खैर आपके लेख के बहाने अधिकांश लोगों की समवेत प्रतिक्रिया ने उल्लासित इस कारण किया कि हमारा समाज अभी भी हमारे सांस्कृतिक परम्पराओं के प्रति आस्था रखता है और रिश्तों के सकारात्मक पक्ष पर ही ध्यान केन्द्रित रखना चाहता है यह उत्साहजनक है.
मेरे सहोदर दो भाई हैं, जो कि मेरे सबसे अच्छे मित्र हैं ,पर मैंने बहन की कमी हमेशा महसूस की जो. कि ईश्वर की दया से मेरे भाभियों के रूप में पूरी हुई. इनके अलावे भी मन के बंधन में बंधे और भी भाई और उनके परिवार हैं,जिनका अपने जीवन में होना मुझे ईश्वर की परम कृपा लगती है ..मुझे ये सभी सम्बन्ध पूर्णता देते हैं....
आपकी एक बात से मैं अवश्य सहमत हूँ कि मन से गहरे जुड़े सम्बन्ध ही सच्चे सम्बन्ध होते हैं,नहीं तो सहोदर भी अपने नहीं होते....रिश्तों के बगैर खुशी खुशी जीने वाला इंसान या तो पर्वत कंदराओं में निवास करने वाला कोई साधू संत होगा या फिर बहुत बड़ा दुष्टात्मा...
इंसान का अस्तित्व जबतक है,रिश्तों का अस्तित्व भी होगा ही और मुझे लगता है जबतक स्त्री पुरुष के अन्दर संवेदना है भाई बहन के रिश्ते की आवश्यकता और अस्तित्व भी बना रहेगा....
Raam jaane.
ReplyDelete{ Treasurer-S, T }
Ghughuti Mausi! ek baat to ek dum tai hai ki aapki bitiyon ke pati ki zindagi thodi chain se kat-ti hogi, raakhi waale dino mein. Bechaara mere jija, hamesha rakhi waalaa lifaafaa gaadi mein reh jaataa hai, aur woh mujhe phone karke bolte hain, "tumhari behan poochhe to bol dena, rakhi mil gayaa, warnaa 2-1 din meri zindagi kuchh aasaan nahi rahegi". Bechaaraa sharif, nirih insaan.
ReplyDeleteआपकी बात.....गोया मेरी ही बात.....दो बेटियाँ हैं मेरी.....और उनका भाई.....कोई नहीं.....मस्त हैं मगर मेरी बेटियाँ.....सोचते हैं हम भी कभी कि क्या होगा जब कभी चली जायेंगी ये "अपने घर".....आंसू तो निकाल देती ही हैं ये बेटियाँ.....जब तलक रहे गाफिल मेरे सीने के पास वों....मुझे तहे-दिल से अजीज़ हैं मेरी बेटियाँ....मैं नहीं जानता कि उनके बाद कैसे जी पाउँगा मैं....मेरी जान की सामाँ हैं मेरी प्यारी बेटियाँ....बेशक सबके भाई तो नहीं होते जहां में.....एक-दुसरे की भाई हैं मेरी बेटियाँ.....!!
ReplyDeleteआपकी बात.....गोया मेरी ही बात.....दो बेटियाँ हैं मेरी.....और उनका भाई.....कोई नहीं.....मस्त हैं मगर मेरी बेटियाँ.....सोचते हैं हम भी कभी कि क्या होगा जब कभी चली जायेंगी ये "अपने घर".....आंसू तो निकाल देती ही हैं ये बेटियाँ.....जब तलक रहे गाफिल मेरे सीने के पास वों....मुझे तहे-दिल से अजीज़ हैं मेरी बेटियाँ....मैं नहीं जानता कि उनके बाद कैसे जी पाउँगा मैं....मेरी जान की सामाँ हैं मेरी प्यारी बेटियाँ....बेशक सबके भाई तो नहीं होते जहां में.....एक-दुसरे की भाई हैं मेरी बेटियाँ.....!!
ReplyDeleteइंतज़ार में बड़ी क्रियेटिव हो गयी हो पूजा......
ReplyDeletedear basutiji,
ReplyDeletearticle is good, agreed with u. but probbality of having 1 son n 1 daughter or 2 sons or 2 daughther, will always be 50% only , not 50,25, 25. anyway, i know, point in the article is not this probability calculation.
घुघुती जी, आपकी हर पोस्ट अलग सी लगती है। सम्मान के साथ ही इस पोस्ट पर भी टिप्पणी करूँगी। एक अच्छी बात लगी ब्लाग जगत की कि जिस किसी को भी ये पोस्ट आपके विचारानुसार नहीं लगी, उन सब ने अपने मन की बात सही सही रखी। वाह बहुत बढि़या, क्या बात है जैसे हां में हाँ मिलाये जाने वाली टिप्पणियाँ कम रहीं। आपके परिवार में भाई-बहन/लड़के-लड़की में कोई भेदभाव नहीं ये जान कर अच्छा लगा। ऐसी आइडियल फ़ैमिली पूरे भारत में हर किसी का परिवार हो, यही कामना है।
ReplyDeleteIs Shamaa ko jalaaye rakkhen.
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
कुछ चीज़े मिक्स हो गई हैं....फिर भी मुझे आपका लिखा अच्छा लगता है सो य़ह भी लगा। साफ़गोई और सलीके से कही बातें।
ReplyDeleteमेरी अपनी कहूं तो मुझे राखी त्योहार बहु डल सा लगता है। दूरदराज जा बसने के बावजूद रिश्तों की गर्माहट खत्म नहीं होती अगर आपसी समझ कायम है। आज के कम्युनिकेशन वाले यूग में तो अगर सतत सम्पर्क है तो गर्माहट भी कायम रहती है। पर राखी-रक्षासूत्र जैसी बातें सिर्फ किताबी लगती हैं।
राखी के बाद एक दो बार आपके ब्लॉग तक पहुंचा. लेकिन कुछ नया नहीं मिला.आज वाया मानसिक हलचल आपके ब्लॉग तक आया. आज भी वही हाल है.आप जैसे नियमित लेखक के लिए यह अंतराल लंबा होता है.
ReplyDeleteवैसे रक्षा बन्धन के त्यौहार को भाई बहन से कैसे जोड़ दिया गया इसका कोइ प्रमाण हमारे पौराणिक ग्रन्थों में नही मिलता है! भैया दूज जरुर भाई बहन से सम्ब्नधित त्यौहार है! रक्षा बन्धन का भाई बहन के त्यौहार के रूप मे प्रचार केवल शहरी समाज, फ़िल्म और मिडिया की देन है
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