Monday, August 03, 2009

कपड़े को मैला होने या मैला मान लेने पर इतना भी मत पीट पीट कर धोएँ कि फट ही जाए !

आजकल मैले कपड़े खूब धुल रहे हैं, सरेआम धुल रहे हैं, इतने धुल रहे हैं कि लगता है कि अब उनकी खैर नहीं। मित्रो, कपड़े को मैला होने पर(या मैला होने के भ्रम में भी) धोओ, अवश्य धोओ, परन्तु ध्यान रहे कि वह फट ही न जाए। फट ही गया तो धुलाई किस काम की रहेगी ? मुझे तो उनके चरमराने की आवाज साफ सुनाई दे रही है।


इस ब्लॉगजगत की विशेषता ही यह है कि यहाँ आकर हम अपने विचार परोस जाते हैं। विचार भी खाने की तरह होते हैं। अपने में शायद ही कोई बहुत बुरा होता है किन्तु किसी को पसन्द आता है तो चख जाता है, किसी को बहुत पसन्द आता है तो खाकर 'वाह वाह' कर जाता है, कोई चखता है और उसे पसन्द नहीं आता तो या तो बता जाता है या बिना बताए ही चले जाता है और किसी को उससे पूर्ण परहेज होता है, वह चखता ही नहीं। मैं 'बैंगन का भर्ता' नहीं खाती। मेरे न खाने के अपने कारण हैं। जो मुझे बहुत ही तार्किक लगते हैं, न भी लगें तो मेरे न खाने से भर्ते को क्या हानि ? मैं शाकाहारी हूँ, माँस नहीं खाती, न कभी खाऊँगी। अब कोई कितने भी तर्क या कुतर्क उसके पक्ष में दे दे, किसी भी महानात्मा का कहा मुझे पढ़ा जाए, मैं अपने स्वाद के लिए किसी जानवर की हत्या तो करने से रही, उनकी भी नहीं जो मुझे बेहद प्रिय हैं और उनकी भी नहीं जो नहीं हैं।


विचार परोसना तक तो सही है किन्तु विचारों की बाढ़ ही ले आओगे तो हम उन्हें हजम कहाँ कर पाएँगे, बस आकंठ डूबने के भय में सहम जाएँगे। यह भी बहुत सम्भव है कि आपके परोसे भोजन से विरक्ति ही हो जाए। नहीं विश्वास तो अपने प्रिय व्यंजन को मनों में अपने सामने रखिए, संभव है कि खाने का मन ही नहीं होगा, साहसी और जिद्दी हैं तो शायद पेट भर या उससे भी अधिक(यदि जिद्दी के साथ लालची भी हैं तो) खा ही लो, परन्तु देखना भविष्य में वह आपका प्रिय व्यंजन नहीं रह जागा। जिद में भले ही आप उसे प्रिय कहते फिरें।


इस अति परोसने से कुछ ऐसा ही हो रहा है। बहुत से लोग जो किसी विशेष व्यंजन को पसंद भी करते थे अब वितृष्णा से भर गए हैं। परन्तु परोसने वाले थक ही नहीं रहे। परोसे ही जा रहे हैं और साथ में कपड़े को मैला, मैला कहकर पीटते ही जा रहे हैं। यह नहीं समझ रहे कि उनके अपने ही वस्त्र तार तार हुए जा रहे हैं। कपड़ा धुल गया, बहुत धुल गया, अब बारी मन की है, थोड़ा उसे साफ कर लेते हैं। सच तो यह है कि कपड़ा शायद कभी इतना मैला ही नहीं था जितना कि हमारा मन मैला था। उसे धोने के लिए कौन सा डिटर्जैन्ट लाएँ ? शायद आत्ममुग्धता का घूँट थोड़ा छोटा लगाएँ ? 'मैं मैं' बकरी को शोभा देता है मनुष्य को नहीं, चाहे सच में हमारा मन इसी 'मैं मैं' से रचा बसा हो फिर भी उसे जग उजागर कितना कर सकते हैं ? यदि कपड़ा इतना धुलने पिटने के बाद भी बचा रह गया हो तो इस 'मैं' को क्या थोड़ा उसमें लपेट देना सही नहीं होगा ? थोड़ा ढका रहेगा तो लोग उससे कम परेशान होंगे। अब औरों के 'मैं' के लिए भी तो थोड़ी जगह छोड़नी होगी। नहीं छोड़ेंगे तो उनका 'मैं' आपके 'मैं' से भिड़न्त तो न चाहकर भी कर ही बैठेगा।


यही हाल 'मेरा पैगम्बर तेरे से बड़ा' वालों का हो रहा है। धर्म कोई कमीज तो हो नहीं हो गई कि सफेदी की तुलना की जा सके। यदि धर्म को कमीज भी मानते हो तो भाई, जैसी भी है मैं तो अपनी वाली ही पहनूँगी क्योंकि वही मुझे फिट बैठती है और उसी में मुझे सुविधा लगती है। अब आपकी वाली तो उधार लेकर पहनने से रही। आप अपनी पहनिए, मुझे मेरी पहनने दीजिए। न पसन्द आए तो मत देखिए उसकी तरफ, मैं देखने को कह भी नहीं रही। पैगम्बर तो जो कहना चाहते थे कहकर चले गए। अब भूत में जाकर हम उन्हें न तो रोक सकते हैं, न यह पूछ सकते हैं कि भाई यह सब क्यों कह गए ? हम पसन्द करें या न करें, अब जाकर उनसे अपनी आपत्ति तो दर्ज करा नहीं सकते। आप उनकी न कहकर अपनी कहें तो कोई संवाद भी किया जा सकता है।


तो जो मित्र इन मैली कमीजों, उनकी धुलाई से तंग आ चुके हैं, आइए, मेरे परोसे को देखें, मन करे तो चखें, स्वाद लगे तो खाएँ, न लगे तो न खाएँ। मन करे तो स्वाद या बेस्वाद बताते जाएँ, न करे तो न बताएँ परन्तु मैला, मैला कह इसकी फटने की स्थिति तक धुलाई न करें। यह कमीज है और मेरी कमीज है आप अपनी को ही पहनिए, धोइए, पटकिए, उसे पहन इतराइए, परन्तु मेरी पसन्द की कमीज मुझे पहनने दीजिए, उसे धोने के चक्कर में न पड़ें, न अपनी को उससे बेहतर कहिए (कहना ही है तो कहिए, हम रोक तो नहीं सकते) बस जबरन अपनी कमीज मुझे पहनाने की चेष्टा मत कीजिए। ऐसा करते जाएँगे तो मुझे भी आपकी कमीज मुझे क्यों पसन्द नहीं बताना पड़ेगा। और मैं आपकी कमीज को धोना नहीं चाहती, न ही उसे कहाँ कहाँ कीड़ों ने खाया है, कहाँ कहाँ कितने दाग हैं, आपको दिखलाना चाहती। क्योंकि जब मैं ऐसा करूँगी तो मेरी कमीज के दोष और भी अधिक दिखने लगेंगे। बेहतर होगा कि सबको अपनी अपनी कमीज मुबारक हो!


घुघूती बासूती

37 comments:

  1. ये एक दौर है, गुज़र जाएगा.

    ReplyDelete
  2. Anonymous3:31 am

    आपकी बात से पूर्णतया सहमत हूँ. हाल में ब्लॉग-जगत जिन हालातों से गुज़र रहा है, उनके बारे में तो यही कहना चाहूंगा कि आप जब किसी की तरफ एक उंगली उठाते हैं तो याद रखिये कि बाकी की चार उंगलियाँ आपकी तरफ होती हैं. सिर्फ़ किसी को नीचा दिखाने के लिए की गयी बेवजह की निंदा एवं अपशब्दों की जगह अगर समीक्षा एवं आलोचना ले ले तो एक स्वस्थ वातावरण पुनः बन सकेगा.

    साभार
    प्रशान्त कुमार (काव्यांश)
    हमसफ़र यादों का.......

    ReplyDelete
  3. Anonymous5:50 am

    बढ़िया

    ReplyDelete
  4. आपने संकेत में बहुत कुछ कह दिया। सुन्दर प्रस्तुति।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

    ReplyDelete
  5. आपसे सहमत!

    सबको अपनी अपनी कमीज मुबारक हो!

    हमारी तरफ से भी!! थके हुए मैली कमीज पहने घूम रहे हैं ईस्वामी का संदेश लिये:

    ये एक दौर है, गुज़र जाएगा.

    ReplyDelete
  6. मुझे कबीर क्‍यों याद आ रहे हैं । आजकल कबीर कुछ ज्यादा ही याद आते हैं ।

    ReplyDelete
  7. समझदारी और स्वस्थचित्तता भरी बात ।

    ReplyDelete
  8. एक सार्थक और सामयिक लेख देने की लिए आभार ! पहले जैसी लिखने की की इच्छा ही नहीं होती, हिंदी ब्लाग जगत में अच्छे विचार दुर्लभ होते जा रहे हैं ! लिखने का सोचते ही लगता है किसी गैंग वार से भिड़ने जा रहा हूँ !
    ऐसे में समीर लाल और अनूप शुक्ल की मस्त ढपली अच्छी लगती है, मगर यह धैर्य और अंदाज़ कहाँ से लाया जाए ??

    ReplyDelete
  9. Anonymous7:58 am

    गैंगवार!?

    यह भी बढ़िया

    ReplyDelete
  10. आप ने सांकेतिक भाषा में बहुत कुछ कह दिया। बहुतों को लपेट दिया। समझदार को तो इशारा ही काफी होता है।

    ReplyDelete
  11. बहुत अच्छा सन्देश दे दिया आपने इशारों में. दोनों ब्लोग स्वामियों के लिये.

    ReplyDelete
  12. मुझे तो लग रहा था, मेरी ही कमीज सफेद है...आपकी गंदी है..क्योंकि जब से मेरी कमीज आई है धोने का रिवाज भी तभी से आया है :)

    आत्ममुग्धता की अवस्था है और नया नया मुल्ला ज्यादा जोर से बाँग देता ही है...यही हो रहा है....आप तो देख देख कर केवल मुस्कुराओ..बस.

    ReplyDelete
  13. समय के साथ साथ सभी कुछ बदलेगा...बदलता रहा है...सभी अपने चश्मे से देखते हैं......सो ऐसा होता रहता है......आपने बढिया लिखा।शायद वो भी समझ सके।

    ReplyDelete
  14. बेंगाणी जी से सहमत, सटीक और सन्तुलित शब्द कोई घुघू्ती जी से सीखे… :)

    ReplyDelete
  15. Ghughuti jee.....self praise and criticizing others ...these traits point at people with less self-esteem....i am glad that you pointed out your annoyance at this...looking forward for more of your writings..i enjoy reading you a lot.

    ReplyDelete
  16. आप ने सांकेतिक भाषा में बहुत कुछ कह दिया। बहुतों को लपेट दिया। समझदार को तो इशारा ही काफी होता है।घुघुती जी देखिये बहाने से द्विवेदीजी अपने को समझदार कहना चाह रहे हैं! बताइये क्या सुलूक किया जाये?

    ReplyDelete
  17. मैने देख लिया - मेरी कमीज मेरे पास है। न बिकाऊ, न दान में देय! :)

    ReplyDelete
  18. मनुष्य को अति से हमेशा बचना चाहिये......कहा भी गया है......अति सर्वत्र वर्जयेत्‌.जो धो रहे है धोने दिजिये.....धोते धोते खुद ही धुल जायेगे.आभार.

    गुलमोहर का फूल

    ReplyDelete
  19. स्क्रिप्ट अच्छी, मगर फिल्म फ्लॉप

    सुपर हित फिल्मों के निर्माता सलीम खान की फिल्म देखे "स्वच्छ सन्देश: हिन्दोस्तान की आवाज़"

    ReplyDelete
  20. स्क्रिप्ट अच्छी, मगर फिल्म फ्लॉप

    सुपरहिट* फिल्मों के निर्माता सलीम खान की फिल्म देखे "स्वच्छ सन्देश: हिन्दोस्तान की आवाज़"

    ReplyDelete
  21. "tera pagambar mere se chhota.." naye dour ki kuchh galtiyo me se ek hi hai aisi soch. apka aalekh vastvik pida ko ujagar karta hai...

    ReplyDelete
  22. कुछ लोग अपने मानसिक दिवालियेपन के साथ इस हिन्दी ब्लॉग जगत में आ गये हैं, अब मैंने तो कसम खाई है वो भी नमक निंबू के साथ कि अब उस स्वच्छ स्वच्छंद ब्लॉग पर नहीं जाऊँगा, देखते हैं शायद अकेले एक पाठक के जाने से उसका कितना घाटा होता है तो आप सब भी कसम खाइये कि अब उस जगह नहीं जायेंगे।

    अरे लिखने वाले लिखते रहेंगे अगर कोई पढ़ने वाला न होगा कोई टिप्पणीकार न होगा तो वह भी भला क्या करेगा।

    ReplyDelete
  23. बढि‍या कटाक्ष।

    ReplyDelete
  24. सही है कपडे की मैल तो साफ़ हो कपडा बच्चा रहे

    ReplyDelete
  25. बहुत ही सही , सीधी और सच्ची बात कही आपने .....आभार

    ReplyDelete
  26. मन एक मैली कमीज़ है . संदर्भ : भवानी भाई

    ReplyDelete
  27. घड़ी डिटर्जेंट अपनाइये....समय के साथ सब धुल जाता है...केवल धीरज चाहिए:-)

    ReplyDelete
  28. rajiv gandhi ko chhodkar hamara gungan karne lage ho,,,,,,karen kiyon na aakhir blog jagat men only 3 post se Rank-1 huya he khaksar (antimawtar.blogspot.com),,,
    world men koi huyaa ho to batana aise isaaron men nahin....hamaari tarah,, bhai limca record walon ka pata jano ho to batana,,,,...

    saleem khan ko to kal bataoonga,,,,, arun soorie par kuch lagaya he usne mahaanubhav wahan bhi padharo ,,
    happy blogging

    ReplyDelete
  29. बेहद सधी हुई एवं सांकेतिक भाषा के द्वारा आपने सब कुछ कह दिया!!
    वैसे किसी ने सच ही कहा है कि वक्त के पास हर मर्ज की दवा है!! इसकी भी जरूर होगी!

    ReplyDelete
  30. बेहद सच्चा आत्मस्वीकार...

    ReplyDelete
  31. kabeer ki bani aaj bhi prasngik hai .
    bura jo dekhan mai chla bura n miliya koy .
    jo dil khoja aapna mujhse bura n koy.
    mujhe malum nhi kiske liye ye likha hai kitu aalekh bhut hi achha hai ak sndesh deta hua .
    dhnywad

    ReplyDelete
  32. उसकी कमीज मेरी कमीज से सफ़ेद कैसे

    ले भर भर बाल्टी कीचड़ पलट दिया, हाँ अब सही है मेरी कमीज ही बची उसकी कमीज तो पोछना बन गई

    कड़वा है मगर सत्य है

    venus kesari

    ReplyDelete
  33. देखिये अनूप जी, आप अपनी कमीज पहनिये.. दिनेश जी की कमीज में अपना हाथ मत घुसाईये.. ही ही ही.. :)

    वैसे सच कहूं तो मुझे कुछ समझ में नहीं आया कि इस पोस्ट का मतलब क्या है? आजकल बस इने-गिने ब्लौग पोस्ट ही पढ़ पा रहा हूं और खासकरके विवादों से दूर..

    ReplyDelete
  34. घुघूती जी, बहुत दिनों बात ब्लांग पर आई हूँ, कुछ खास खबर भी नहीं कि क्या कुछ हुआ इधर बीच . . आप के बात कहने के ढग को हमेशा से पंसन्द करती रही हूँ .. आज भी....

    ReplyDelete
  35. सुपरहिट* फिल्मों के निर्माता सलीम खान की फिल्म देखे "स्वच्छ सन्देश:
    अपने मुंह मिया मिठ्ठू ....
    .ये कहावत अपने ऊपर फिट कर रहे क्या ?
    खुद की तारीफ़ तो सभी कर सकते हैं ....
    उस में क्या बड़ी बात है जी ?
    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~


    Only 3 post se Rank-1 huya he khaksar (antimawtar.blogspot.com),,,
    और ये महाशय ...रेकोर्ड बनाने में ,
    मगन हैं !!
    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~आपने हमेशा की तरह, सीधा और सच लिखा है घुघूती जी ;-)
    - लावण्या

    ReplyDelete
  36. घुघूति बासूति जी बधाई हो। आपकी यह पोस्‍ट आज दिनांक 10 अक्‍तूबर 2009 के दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज पर समांतर स्‍तंभ के अंतर्गत अपनी अपनी कमीज शीर्षक से प्रकाशित हुई है। उसकी स्‍कैनप्रति पाने के लिए अपना ई मेल पता मेरे ई मेल पते avinashvachaspati@gmail.com पर भेजिएगा। हो सकता है आपने कभी मेरी कोई पोस्‍ट पढ़ी भी हो।

    ReplyDelete
  37. घुघूति बासूति जी
    आप से पूर्ण सहमत हूँ की
    यदि धर्म को कमीज भी मानते हो तो भाई, जैसी भी है मैं तो अपनी वाली ही पहनूँगी क्योंकि वही मुझे फिट बैठती है और उसी में मुझे सुविधा लगती है। अब आपकी वाली तो उधार लेकर पहनने से रही। आप अपनी पहनिए, मुझे मेरी पहनने दीजिए।

    पर यहाँ जो हमारी कमीज़ पर लगातार कीचड़ फेक रहा है उसकी धुलाई तो जम कर करनी पड़ेगी ना ,मज़हबी उन्मादियों की मंशा है सरकार आईटी एक्ट के तहत सब बंद करवा दे इससे पहले ये मानेंगे नहीं !

    ReplyDelete