वस्त्र कैसे हों? यह एक बहुत ही कठिन व निजी प्रश्न है और इसमें स्थान, जलवायु, आर्थिक स्थिति और उम्र भी बहुत बड़ी निर्णायक भूमिका निभाती है। इसे व्यक्ति विशेष पर छोड़ देना ही सबसे बेहतर होता है। किन्तु जब लोग किसी संस्था से जुड़ते हैं तो संस्था को लगता है कि वे लोग संस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं और संस्था चाहने लगती है कि उसके प्रतिनिधि उसके मूल्यों को अपने व्यवहार, व्यक्तित्व व पहनावे में संसार के सामने रखें। व्यवहार अधिक महत्वपूर्ण है परन्तु उसे नियन्त्रित करना अधिक कठिन है सो संस्थाएँ पहनावे को ही नियन्त्रित करने में लग जाती हैं। सच तो यह है कि हमारा उथलापन पहनावे को ही व्यक्तित्व मान लेता है।
संस्थाएँ यदि पहनावे में क्या अपेक्षित है यह भर दिशा निर्देश या गाइडलाइन्स में बता दें तो समस्या काफी सीमा तक सुलझ सकती है। वे कौन से वस्त्र पहनें भारतीय या विदेशी यह निर्णय न ही करें तो बेहतर है। वैसे भी जिस देश का काम काज अंग्रेजी में होता है वहाँ परिधान के भारतीय होने पर जोर देना गलत होगा। फिर यह देश इतना बड़ा और इतनी विविधता लिए है कि किसी एक या दो परिधानों पर भारतीयता का ठप्पा लगाना मूर्खता ही होगी। अस्सी के दशक में जब दक्षिण भारत में सलवार कुर्ते का चलन बढ़ा तब वहाँ के परम्परावादी लोग लड़कियों के लहंगे व आधी साड़ी या पावदा (यह वहाँ का अविवाहित किन्तु बड़ी लड़कियों का पाराम्परिक परिधान है, था कहना अधिक उचित होगा। अब यह केवल विवाह व त्यौहारों तक सीमित हो गया है। लहंगे के ऊपर साड़ी का ब्लाउज और आधी साड़ी लहंगे पर चुनरी की तरह बाँई तरफ से खोंसी जाती है और फिर साड़ी के पल्लू की तरह ही ली जाती है। देखने में बहुत सुन्दर लगती है। ) न पहनने से परेशान थे। आज सलवार कुर्ता लगभग पूर्णतया दक्षिण भारत में स्वीकार कर लिया गया है। मुझे याद है एक दक्षिणी विद्यार्थी का यह कथन कि उत्तर भारत के प्रॉफेशनल कॉलेजों में सलवार कुर्ता अधिकतर दक्षिणी लड़कियाँ ही पहनती हैं जबकि उत्तर भारतीय लड़कियाँ जीन्स पहनती हैं। यह बात नब्बे के दशक की है। आज की स्थिति मैं नहीं जानती।
पूर्वोत्तर में भी आसाम में मेखला चादर है तो शेष जगह एक लुँगी की तरह का wrap around और ब्लाउज है। बंगाल में साड़ी पहनने का अलग ही तरीका है। परन्तु सब जगह समय के साथ बदलाव आया है। और सबसे अधिक बदलाव तो पुरुषों के पहनावे में आया है। गूगल में जाकर यदि पुरुषों के पारम्परिक भारतीय परिधान देखें तो लगेगा कि ये गायब हो गए हैं। अधिकतर पुरुषों को तो वे पहनने भी नहीं आएँगे! क्या कोई पुरुषों के पारम्परिक परिधानों के लुप्त होने के कारण बता सकेगा? या फिर मेरी बिटिया के स्कूल द्वारा मजाक में दिए हास्यास्पद तर्क से ही काम चलाना होगा? वहाँ बताया गया था कि एन्ग्लो वैदिक का एन्ग्लो लड़कों के लिए है और वैदिक लड़कियों के लिए ! अतः लड़के पैन्ट्स पहनेंगे और लड़कियाँ सलवार कुर्ता और दुपट्टा !
महाराष्ट्र में तब परकर पोल्का( लंहगा और लंहगे के ऊपरी भाग को ढकता हुआ ढीला ब्लाउज ) के स्थान पर स्कर्ट ब्लाउज को स्वीकारा गया। ९ गज की साड़ी के स्थान पर ६ गज की साड़ी चल निकली। साड़ी भी सारे भारत में अलग अलग तरह से पहनी जाती थी। माँ जब गाँव जातीं तो सीधे पल्ले की साड़ी पहनती। उल्टे पल्ले की साड़ी जो आज पूरे भारत में स्वीकार्य है तब गाँव में फैशन मानी जाती। शायद कोई हरियाणवी मित्र मेरी इस बात को भी मानेगा कि एक समय में हरियाणवी स्त्रियाँ घर से बाहर निकलते समय सलवार कुर्ता नहीं लंहगा पहनती थीं। साड़ी भी नहीं। तो कैसे लहंगे और जेब वाले लम्बे ब्लाउज(कुर्ती ) से सलवार कुर्ते, फिर साड़ी और फिर वापिस सलवार कुर्ते की यह स्वीकृति यात्रा हुई?
कैसे सलवार कुर्ते जैसे एक पूर्णतया पंजाबी परिधान को सम्पूर्ण भारत ने सुविधा के कारण अपना लिया ? जब स्त्रियाँ घर से बाहर बसों व ट्रेन से यात्रा करके जाने लगीं तो साड़ी को पार्टी परिधान मानने लगीं और सलवार कुर्ते को नित्य का परिधान! साड़ी में कितने ही गुण क्यों न हों कुछ असुविधा भी है। असुविधा को भी भूल जाएँ तो कुछ व्यवहारिक समस्याएँ हैं जिनके चलते यह भागने, दौड़ने, भीड़ में धक्कामुक्की करने व यात्रा में लेटने सोने के लिए सबसे सही नहीं है।
सलवार कुर्ता साड़ी की इन्हीं असुविधाओं के चलते व इसके 'पंजाबी किन्तु भारतीय तो है' की मान्यता व इससे लगभग सारा शरीर ढके जाने के कारण अधिक लोगों की स्वीकृति पा गया। परन्तु जैसे किसी समय दक्षिण भारत ने सलवार कुर्ते को मान्यता दी वैसे ही उत्तर भारत जीन्स व ट्राउजर्स को मान्यता देने की लड़ाई लड़ रहा है।
सत्तर के दशक में जब हम कॉलेज में थे तो आधी से अधिक छात्राएँ बेलबॉटम, ट्राउज़र्स, पेरेलल्स व जीन्स पहनती थीं। हो सकता है कि यह महानगरों में ही होता हो परन्तु मुझे प्रत्यक्ष में कोई विरोध नहीं दिखा। थोड़ा दबा सा विरोध फ्रॉक या स्कर्ट ब्लाउज का अवश्य होता था किन्तु रोक नहीं थी। मुझे आश्चर्य होता है कि आज लगभग पैंतीस या चालीस वर्ष के बाद इसका अधिक व मुखर विरोध हो रहा है। तब विरोध अधिकतर तब होता था जब ये ही परिधान विवाह के बाद पहने जाते थे।
क्या हम आज कम सहिष्णु हो गए हैं ? या संस्कृति के ठेकेदार अधिक मुखर हो गए हैं ? या फिर हमारे परिधान उस सीमा को पार कर गए हैं जहाँ तक समाज बदलाव को स्वीकार कर सकता है ? या फिर हमारे छात्र व छात्राएँ पार्टी व कॉलेज का अन्तर भूल गए हैं ? मुझे लगता है कि जीन्स या ट्राउज़र्स का विरोध करने की अपेक्षा कैज़ुअल, फ़ॉर्मल व पार्टी परिधानों का अन्तर समझना व समझाना अधिक उचित होगा। जीन्स(हिपस्टर कैज़ुअल नहीं हो सकती,कैज़ुअल वस्त्र शायद वे होते हैं जिन्हें हमें बारम्बार सम्भालना, ठीक करना नहीं पड़ता, यदि यह सब ध्यान रखना पड़े तो हम कैज़ुअल नहीं रह पाते! ) व टीशर्ट कैज़ुअल, ट्राउज़र्स व कॉलर व बाँह वाली कमीज, अमिनि स्कर्ट व स्कर्ट तक आता ब्लाउज फ़ॉर्मल, मिनि स्कर्ट या छोटी टॉप पार्टी परिधान मानी जाती हैं। प्रायः सभी दफ्तरों में यही नियम होता है। साड़ी व सलवार कुर्ते को सभी जगह मान्यता दी जाती है क्योंकि इन्हें पहनने से भारत में किसी को रोकना उतना ही गलत होगा जितना कई होटल व क्लब आदि में पुरुषों को धोती कुर्ते या कुर्ते पाजामे पहनने से रोकना गलत लगता है। पुरुषों के लिए पूरी बाँह की कमीज, टाई, व ट्राउजर्स, या सूट फॉर्मल होता है।
जैसे अपने सुविधाजनक होने के कारण सलवार कुर्ता पूरे भारत में मान्यता प्राप्त कर गया वैसे ही जीन्स भी अपनी सुविधाजनक व कम से कम मैन्टेनेन्स की लागत व टिकाऊ होने के कारण मान्यता प्राप्त कर ही लेंगी। जीन्स जेब व मेहनत के हिसाब से सबसे सस्ती पड़ती हैं। दो जीन्स में पूरा कॉलेज जीवन बिताया जा सकता है। एक में बिताने वाले भी बहुत मिल जाएँगे। ना इस्तरी का झँझट, ना आज कौन सा परिधान पहनें सोचने की झँझट, बस चार पाँच टी शर्ट्स में से कोई एक उठाई और जीन्स के साथ पहन ली। सलवार कुर्ते के साथ इस्तरी करने की समस्या रहती है। साड़ी तो खैर पहनना ही धोबी को हर बार इस्तरी के रुपए चढ़ाने वाला धोबीप्रिय परिधान है।
जो लोग वर्दी के पक्ष में हैं वे अमीर गरीब का तर्क देते हैं। मुझे लगता है कि मनुष्य में इस उम्र तक इतनी समझ तो आ ही जानी चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति की जेब अलग अलग होती है और दूसरों की बराबरी करना घाटे का सौदा है। वर्दी लागू करेंगे तो क्या सबके लिए बस में या साइकिल पर आना भी निर्धारित करेंगे ? जब कोई मंहगी नई मोटरसाइकिल या कार में आएगा तो क्या आप उसे रोक देंगे ? कभी न कभी तो इन नवयुवकों/ नवयुवतिओं को जीवन की सचाई का सामना करना ही होगा। हम उन्हें कहाँ तक बचा पाएँगे? कपड़ों के पीछे पागल न होना भी एक आत्मविश्वास की स्टेटमेंट होता है। मेरी बिटिया ने तो मेरी किसी युग की जीन्स में कॉलेज के तीन साल निकाल दिए। यह उसका फैशन या आत्मविश्वास का स्टेटमेंट था।
कुछ वर्ष पहले म्यानमार में छात्रों के लिए राष्ट्रीय पारम्परिक परिधान पहनना अनिवार्य कर दिया गया था। मेरे डॉक्टर मित्र को दुख था कि उसके बेटे जीन्स नहीं पहन सकेंगे क्योंकि लूँगी (longyi) पहनना अनिवार्य हो गया था।
हमारे अधिकार व स्वतंत्रता धीरे धीरे ही छीने जाते हैं, एक झटके में नहीं। छीनने वाले यह देखते रहते हैं कि हमारी सहनशक्ति कितनी है। यदि एक वार हम झेल जाएँ तो वह अन्तिम नहीं होगा। इसके बाद एक और फिर एक और होना निश्चित है। साड़ी जैसे परिधान जिसके लिए प्रत्येक भारतीय के मन में आदर है, शायद वैसा ही जैसा माँ के लिए होता है, उसे भी एक नई दृष्टि से देखा जा रहा है। बहुत से स्कूलों में एक तरफ तो जहाँ अध्यापिकाओं के लिए साड़ी पहनना अनिवार्य है वहीं साड़ी के ब्लाउज व उनमें से झलकती पीठ को छिपाने के लिए वर्दी के जैकेट पहनाए जा रहे हैं। अपने परिधान पर गर्व भी है और लज्जा भी!
यह तर्क भी दिया जा रहा है कि हमारी स्त्रियाँ ऐसे परिधान पहनती हैं कि यदि किसी अंग/भाग/ज़िस्म को लगातार देखते जाओ तो वे अपने वस्त्र ठीक करने लगती हैं। मुझे आश्चर्य होता है कि उन्हें किसी ने यह नहीं सिखाया कि अपने से विपरीत लिंग के लोगों से बात करते समय दृष्टि उनके चेहरे पर केन्द्रित रखी जाती है न कि उनके शरीर के अन्य भागों पर। यदि आप किसी के बुर्के, या ढके सिर को भी घूरते जाएँगे तो वह उसे ठीक करने लगेगी या छूकर देखेगी कि कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं कि कहीं कौवे आदि ने सिर पर बीट तो नहीं कर दी। यदि यही किसी पुरुष के साथ किया जाए तो शायद वह भी सचेत हो जाएगा, मूँछ को घूरेंगे तो हाथ फिराकर देखेगा कि मूँछ पर खाना, दूध आदि तो नहीं लगा रह गया !
वैसे जहाँ तह उत्तरप्रदेश का प्रश्न है कम से कम अभी के लिए तो मायावती जी ने इस मुद्दे को सुलझा दिया है। परन्तु यह मुद्दा सरलता से मरता नहीं, रक्तबीज दानव की तरह बारम्बार उठ खड़ा होता है। स्त्रियों के लिए क्या उचित व अनुचित है या कहिए कि क्या स्त्रियोचित है हमारे समाज में अन्य महत्वपूर्ण समस्याओं के अभाव में, सबसे अधिक चिन्ता का विषय बनता जा रहा है।
यदि हम युवाओं को वयस्क मानने लगें तो जैसे वे देश के कर्णधारों का चुनाव कर सकते हैं शायद वैसे ही अपने वस्त्रों का भी कर लें।
घुघूती बासूती
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मेंटल एवोलुशन कहीं ज्यादा तो कहीं कम होता हैं । महिलाए मानसिक रूप से बहुत आगे जा चुकी हैं और पुरूष आज भी वहीं अटके हैं वस्त्रो पर ।
ReplyDeleteRachna
आज तो बस इतना कहूँगा कि सहमत हूँ उन सब बातों से जो आप कह रही हैं.
ReplyDeleteशोधपरक एवं विचारपूर्ण आलेख......बात बहुत सीधी है.......पर किसी की समझ में ही नहीं आती......क्या करें.....??
ReplyDeleteसाभार
हमसफ़र यादों का.......
आप की समझ वस्तुपरक है। उस से असहमत हुआ नहीं जा सकता।
ReplyDeleteबहुत ही सुलझा हुआ लेख है और आपकी बात से बिल्कुल सहमत है । आपने सही कहा की पहले इस तरह से कपडों को लेकर विरोध नही होता था जैसा अब होने लगा है ।
ReplyDeleteअसहमत होने का कोई कारण भी तो नज़र नही आता।ये बात तो देख कर हैरानी होती है महाराष्ट्र के गावों से परकर-पोल्के की गुपचुप तरीके से विदाई हो गई है और उसकी जगह सलवार कमीज के साथ जीन्स और टाप ने ले ली है।गांधी टोपी जो सेठ-साहूकार,किसान और मज़ूरों के सर पर समान रूप से सजी नज़र आती थी,पता नही कंहा चली गई है,हां बच्चों के सिर पर कभी-कभी उल्टी कैप लटके देख कर थोड़ा खराब ज़रूर लगता है।धारीवाला पैजामा और बण्डी भी गुज़रे ज़माने का किस्सा बनकर रह गई है धोती तो भी संकट मे है,हां कैपरी,बरमूड़ा,जीन्स,लोअर और ढेरोम जेबो वाली पतलूने अब हर तर्फ़ नज़र आती है ।उस पर गांववाले भी शहरियों से ज्यादा हक़ जता रहे हैं।
ReplyDeleteघुघूती जी
ReplyDeleteमेरे ख्याल से सलवार कुर्ता वैदिक भी नहीं है ! तो कुछ यूं लिखा जाये लड़के एंग्लो और लड़किया ??? सही शब्द , वो लोग सुझायें जो वस्त्र विज्ञान के इतिहास के अध्येता हैं और जो कह सकें कि सलवार कुर्ता फलां समय का और फलां टाइप का है ! मैंने पहले भी कहा है कि ड्रेस शरीर की सुरक्षा / कम्फर्ट्स और पसंद से जुडी होना चाहिए ! ड्रेस का स्टीरियो टाइप होना मायने नहीं रखता ! पारंपरिक मेखला चादर , पोल्का , पावदा या फिर जींस अगर सहज लगते हों और पहनने वाले को पसंद हों तो इसकी संस्वीकृति में बहस नहीं होनी चाहिए !... और लड़के लड़कियों की ड्रेस के मामले में लैंगिक भेदभाव तो बिलकुल भी जायज़ नहीं है ! आपसे सहमत हूँ कि किसी का व्यक्तिव महज कपडों से निर्धारित किया जाना उथलापन / बल्कि मानसिक दिवालियापन है ! चूँकि आप तर्काधारित बाते लिख रही है इसलिए असहमत होना दानिशमंदी तो नहीं ही होगी इसलिए हमारी टिप्पणी और धारणा को केवल इतना ही माने :
"बिना लैंगिक भेदभाव शरीर को सहज , संरक्षित करने वाले और व्यक्तिगत पसंद के वस्त्र ही पहनना चाहिए ! इन्सान को इन्सान ही रहने दें ! उसे 'वस्तु' / 'उत्पाद' की तरह "ब्रांडेड पैकेजिंग" का शिकार ना बनाया जाये "
मेरा मानना है की इन्सान को अपनी व्यक्तिगत रुचि ओर जिसमे उसको कम्फर्टेबल लगे वो पहनना चाहिए .....हम किसी को क्यों बताये उसे क्या पहनना है... इन्सान की पहचान उसके आचरण ओर व्यवहार से होती है..उसके वस्त्रो से नहीं.
ReplyDeleteलड़के अंग्लो लडकियां वैदिक? शीर्षक ही बहुत कुछ कह देता है. बाकी पूरे पोस्ट में सार्थक बातें हैं लेकिन रक्तबीज इतना सोचते हैं क्या?
ReplyDeleteशीर्षक बड़ा रचनात्मक है। लेख अच्छा है।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लेख लिखा आपने ...आभार
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लेख लिखा आपने ...आभार
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन और शोध परक आलेख के लिए आभार और बधाई.
ReplyDeleteपरिधान जैसे विषय पे अपने आप में सम्पूर्ण एवं रोचक लेख लिखना आपकी लेखनी की दक्षता को दर्शाता है.पढ़कर आपकी लेखनी की भूरी भूरी प्रशंसा कने को जी चाहता है.पर उपुक्त शब्द नहीं मिल रहे है.खैर ,आशा करता हूँ, भावनाओं की अभिव्यक्ति को आप जरूर स्वीकार करेंगे...!
प्रकाश सिंह
एक सम्पुर्ण आलेख कहीं कोई गूंजाएश ही न्ही की कुछ कहा जाय |बहुत बहुत बधाई |
ReplyDeleteघुघूती जी आपने बहुत सीधी सच्ची बात कही है, मगर समस्या यह है की तर्कपूर्ण बात की बहुत ज्यादा इज्ज़त नहीं है उन लोगों में जो डंडे के बल पर समाज चलाना चाहते हैं.
ReplyDeleteएक बात जो आपने नहीं लिखी या आप लिखने से कतरा गयीं, वो ये है की वस्त्र पहनने का कारण सिर्फ सुविधा नहीं, आकर्षक लगने की इच्छा भी होती है. हर इंसान आकर्षक लगाना ही चाहता है, चाहे वो कपडे से हो, बालों से हो, गहनों से हो, या इत्र से हो या इन सभी से हो. वस्त्रों का ये एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है. वरना तो पजामे के अन्दर सब एक जैसे ही हैं.
आकर्षक लगने के पैमाने समाज, और व्यक्ति के हिसाब से अलग होते हैं और बहुत जल्दी ही बदलते भी हैं. आकर्षक लगना हमारी जींस में है, और उसे कोई बदल नहीं सकता. इन सब चीजों पर रोक लगायेंगे तो कुंठित समाज के अलावा हम कुछ नहीं पैदा करेंगे.
आपसे मैं कई बार पहले अनुरोध कर चुका हूँ की आप अपने चिट्ठे की पूरी फीड उपलब्ध करिए. कृपया हमारा ध्यान करें.
आपने सामयिक मुद्दे पर
ReplyDeleteबहुत ही सशक्त तरीके से लिखा है !
देखा जाए तो लड़कियां जींस में स्वयं को ज्यादा सुरक्षित महसूस करती हैं ! उनके अन्दर आत्म-विश्वास भी ज्यादा आ जाता है साथ ही हर तरीके का काम करने की सहूलियत भी रहती है .. चाहे रुपये-पैसे रखने हों ... चाहे भाग-दौड़ करनी हो ... चाहे स्कूटी पर बैठना अथवा चलाना हो !
मैं एक और बात कहना चाहूँगा की "ड्रेस कोड" से ज्यादा "ड्रेस सेंस" जरूरी है ! अगर शालीन तरीके से आपने सलवार सूट या साड़ी नहीं पहनी है तो वो भी अश्लील लग सकती है !
इसलिए मेरे ख्याल से कपडे पहनने का सऊर भी बहुत जरूरी है !
वस्त्र पहनना नितांत व्यक्तिगत मामला है. अपनी सुविधा और पसंद के अनुसार समयानुकूल वस्त्र पहने जाने चाहिए.
ReplyDeleteबेहतरीन आलेख, शोध लेखकों के लिए बहुत अच्छी जानकारी, शुभकामनायें !
ReplyDeletevakai main bahut hi sahi batt kahi hai aapne...
ReplyDeleteआपने बहुत सही कहा है, मै आपकी बात से सहमत हूं लेकिन अब भी यही कहुंगा "ड्रेस सेंस" होना ज़रूरी है वरना किसी भी शालीन परिधान को अश्लील बनने मे वक्त नही लगता।
ReplyDeleteमैं कपडॊं पर पाबंदी या उनकॊ पहनने को मना नही कर रहा हूं.........मै ये कह रहा हूं की जब भी कोई परिधान पहनो चाहे वो देशी हो या विदेशी उसमें शालीनता का ख्याल रखें।
पार्टी वियर और डेली वियर मे फ़र्क करें।
बस ये नंग्नता की श्रेणी में आने पायें।
और रही बात ड्रेस कोड की तो मै उसके हक में हु लेकिन वो दोनो के लिये होना चाहिये।