आज सुबह जब यह समाचार पढ़ा कि एक पिता व पुत्र दोनों दसवीं की परीक्षा दे रहे हैं और पिता को पुत्र ही घर पर पढ़ाया करता था तो मेरे चेहरे पर मुस्कान तैरने लगी। पिता आठवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ चुका था व सिंचाई विभाग में काम करता है। पुत्र स्कूल जाता है और घर लौटकर पिता को पढ़ाता है व स्वयं भी पढ़ता है। पिता को आशा है कि दसवीं पास करने से उसकी पदोन्नति हो जाएगी।
मुझे सदा यह लगता है कि मेरे विचार व सोचने का तरीका मेरी बेटियों से बहुत प्रभावित है। जब मैं उस समय के बारे में सोचती हूँ जब वे इस संसार में नहीं आईं थीं और तब की मैं के बारे में सोचती हूँ तो पाती हूँ कि तब की मैं आज जैसी नहीं थी। कुछ कुछ तो थी परन्तु कोयले सी कार्बन थी। आज जितनी थोड़ी बहुत चमक मुझमें आई है वह उन्हीं के कारण है। उन्होंने अपनी तरफ से मुझे हीरा वाले कार्बन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कसर रही तो मेरे अपने प्रयासों में व मेरी सोखने की शक्ति में।
शायद ही कोई दिन ऐसा रहा हो जब उनसे मैंने कुछ नया नहीं सीखा। मैं उनके साथ सदा बच्ची ही बनी रही। माँ तो थी मैं उनकी किन्तु उनकी हर मस्ती, हर शैतानी व हर खेल में मैं भाग लेने की कोशिश करती थी। यहाँ तक कि उनके मित्र भी आते थे तो वे भी मुझे अपने खेलों में शामिल कर लेते थे। फिर सदा ही हम तीन व हमारे कुत्ते ही होते थे। पति तो सदा सुबह होते ही जो फोन पर लगते थे तो घर में बिताए अधिकतर समय उसी में लगे रहते थे। शाम को बहुत देर से घर आते थे। मेरी असली साथी तो सदा मेरी बेटियाँ ही रहीं।
जीवन का न जाने कितना दर्शन मैंने उनसे ही सीखा। पहले से पढ़े लेखकों व पुस्तकों को मैंने उनके साथ पढ़कर नई नजर से देखना सीखा। जब भी वे लाइब्रेरी से कोई किताब लातीं, चाहे वह बच्चों की ही क्यों न हो, सदा पढ़ने की मेरी भी बारी होती थी। मैंने फिर से कॉमिक पढ़े, फिर से ऍन रैंड पढ़ी, फिर से बच्ची से किशोरी और किशोरी से युवा हुई। लगता था कि जो बातें पहले केवल मस्तिष्क को छूती थीं तब हृदय को भी छूने लगीं। यदि पहले जीवन में सात रंग थे तो तब सात सौ शेड्स दिखने लगे। हर खुशी, हर वस्तु, हर सोच ने एक नया आकार व रंग ले लिया था। एक बिल्कुल ही नया रूप, आकार व रंग। पहले जो चीजें धुँधली थीं अब वे काफी साफ नजर आने लगी थीं। मैं अपने आप को भी समझने लगी थी। लोगों को , उनके व्यवहार को समझने लगी थी। आश्चर्य होता है कि पहले मैं यह सब क्यों नहीं समझ पाती थी।
कुछ इतने गूढ़ जीवन दर्शन से मेरा परिचय कराया कि मैं कभी कभी आश्चर्यचकित रह जाती हूँ सोचकर कि छोटे बच्चे जिस सत्य को देख पाते हैं हम क्यों नहीं। जैसे यदि हम किसी के लिए कुछ करते हैं तो वास्तव में उसके लिए नहीं अपने लिए, शुद्ध रूप से अपने स्वार्थ के लिए करते हैं। क्योंकि वैसा करना हमें खुशी देता है और हमारे मन में हमारी जो छवि है उसको और सुदृढ़ करता है। सो किसी अन्य के लिए किया मत सोचो अपने लिए किया सोचकर चलो। अतः वह अब हमें धन्यवाद देगा की कामना न करो। इस सोच ने ही जीवन को कितना सरल कर दिया।
मैं शाकाहारी थी किन्तु पशु प्रेम मैंने उनसे सीखा। मेरे लिए शाकाहारी होना केवल एक तथ्य था। शाकाहारी होने का कारण केवल अपने परिवार की जीवन प्रणाली का हिस्सा था। शायद माँसाहार से घृणा भी उसी का हिस्सा थी। पति का परिवार माँसाहारी था। बच्चियों को भी माँसाहारी बनाया। किन्तु जब वे बड़ी हुईं तो माँस जो उनका प्रिय भोजन था उन्होंने स्वयं पशु प्रेम के चलते त्याग दिया। मुझे कुत्तों ही नहीं हर प्राणी से प्यार करना उन्होंने ही सिखाया। कुत्तों की माँ व बिल्लियों की नानी उन्हीं ने बनाया।
मेरे जीवन मूल्यों पर उनकी गहरी छाप है। इतनी गहरी कि उन्हें घर छोड़े हुए १२ साल होने को हैं परन्तु बड़ी ने १७ साल में और छोटी ने १४ साल में मुझे जो सिखाया वह आज भी मैं नहीं भूली हूँ। कुछ भी नहीं हल्का पड़ा है बल्कि समय के साथ साथ मैं अपने पर उनकी छाप और भी साफ देख पाती हूँ। आज भी मैं उन्हें कहती हूँ कि यदि उम्र के साथ स्वार्थ, भ्रम व खड़ूसपन मुझमें आने लगे तो मुझे रोक लेना, टोक देना। मैं अपने जीवन में आई उन नन्हीं गुरुओं से सीखा कोई भी पाठ भूलना नहीं चाहती।
घुघूती बासूती
यह लेख जब हमारे प्रान्त में दसवीं की परीक्षाएँ हो रही थीं तब लिखा था।
घुघूती बासूती
Saturday, May 09, 2009
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वो कहते हैं ना, "child is the father of man". बच्चे जैसे जैसे बडे होते जाते हैं उनका इस दुनिया का तजुर्बा बढता जाता है जो हमसे कुछ अलग भी होता है ।
ReplyDeleteबहुत सशक्त आलेख. नन्हे गुरुओं की सीख एक अलग आयाम देती है हमारी सोच को और सीख के द्वार तो हमेशा खुले रखना ही चाहिये --हर पल कुछ न कुछ नया यह जीवन, हमारे बच्चे, हमसे जुड़े और हमसे अनजान सभी..सीखाते हैं और जीवन की पुस्तक समृद्ध होती जाती है.
ReplyDeleteआलेख बहुत बहुत अच्छा लगा. बधाई.
सहमत आपसे .. पहले की तुलना में आज के बच्चों में बहुत धीर गंभीर हैं .. उनके साथ मित्रवत् रहने से बहुत कुछ सीखने को मिल जाता है।
ReplyDeleteदीदी ,बेटा हो ये बेटी ,उनके साथ न सिर्फ उनके जैसा बन जाना बल्कि कभी कभी उनसे छोटा बन जाना कितना सुख देता है .मेरा तीन साल का बेटा मेरे सर पर हाँथ फेरते हुए मुझे गुस्सा न करने की सलाह देता है जब मैं उसके सीने में सर छुपाकर सोने की कोशिश करता हूँ |उस वक़्त मुझे लगता है ,क्रोध न करना इतना कठिन भी नहीं है ,बेहद सुन्दर लिखा है दीदी
ReplyDeleteसीखा तो किसी से भी जा सकता है.. पर उसके लिए दिल का मजबूत होना भी जरुरी है.. बहुत उम्दा पोस्ट..!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर आलेख. हमारा मानना है कि परिस्थितियों का भी इसमें बड़ा योगदान है. यदि माताएं बड़े शहर में रह रही हों तो संभवतः बड़ा अंतर पड़ जाएगा
ReplyDeleteअपनी ही बात लगी आपकी इस पोस्ट में :) मैंने भी सही मायने में अपनी बेटियों से बहुत कुछ सीखा है ... बहुत ही अपने दिल के करीब लगी यह पोस्ट .सुन्दर पोस्ट :)
ReplyDeleteआपकी हर बात से पूर्णता: सहमत...जीवन के हर मोड़ पर बच्चे आगे बढने का नया उत्साह भर देते है...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया पोस्ट. हमेशा की तरह.
ReplyDeletemain pahli baar aapke blog pe aayee hun....boht sunder or sach likha hai aapne...
ReplyDeleteहम अपने जीवन का बचपन, किशोरावस्था, जवानी फिर से अपने बच्चों में जिते हैं....
ReplyDeleteआपकी यह पोस्ट बहुत ही जिन्दगी के करीब लगी,क्योकि मै भी आपनी बेटियो का दोस्त बनना चाहती हुँ और जिन्दगी को खडुसपने मे नही गुजारना चाहती,और मेरी पहली जिन्दगी सात साल की है तो दुसरी दो साल की,सही है सिखना कही से भी होता है पर अपने घर से हो तो बहुत ही सुखद एहसास होता है,मै बचपन से ही सिखने को इसी दृश्ती से देखती हुँकि सिखने के क्रम मे गुरु कोई भी हो सकता है.
ReplyDeleteसीखने की कोई उम्र नहीं होती. विनोबा भावे अनेक भाषाएं जानते थे. एक भाषा उन्होंने साठ वर्ष की आयु के बाद सीखी थी. कविवर पन्त ने कहा ही है-' कितना थोडा मनुज जान पाता आजीवन विद्यार्जन कर, किन्तु रहेगा ज्ञान सदा अगम्य, मनुज अबोध शिशु. '
ReplyDeleteबहुत सशक्त आलेख. अक्सर ऐसी स्वीकारोक्ति मुश्किल होती है. अमूमन बुजुर्ग अपने बच्चों को नासमझ ही मानते हैं.
ReplyDeleteआपने जीवन का एक अलग ही पहलू लिखा है. ज्ञान भी समय के साथ नूतन होता जाता है.
आपके शब्दों मे कहूं तो मुझे भी कम्प्युटर के बारे मे सारा ज्ञान मेरे बेटे और बेटी से ही मिला है.
सही बात है अगर मा-बाप मे सीकह्ने की ललक हो तो औलाद से बहुत कुछ सीखा जा सकता है.
एक बहुत ही लाजवाब और सुंदर पोस्ट. बहुत धन्यवाद.
रामराम.
घुघूती जी मेरी पांच साल की बेटी तो गज़ब के स्वभाव की है ...जब उसके साथ बहर जाते हैं पर्स में कई पांच पांच के सिक्के ले जाने पड़ते हैं ....वो किसी भी मांगने वाले को खाली हाथ नहीं जाने देती ..चाहे वहां कितने ही मांगने वाले क्यूँ न हों ..यहाँ तक की भीख मांगने वाले बच्चों को कोल्ड ड्रिंक और चिप्स भी खिलाती है ...अगर ऐसा ना करूँ तो रोने लगती है ...कई दिनों तक उदास रहती है ....मुझे लगता है कहीं ये बड़े होकर अवसाद की रोगी तो नहीं हो जाएगी ...
ReplyDeletesach kitna gehra rishta hai,har shabd se mehsus hu,aye dular jo appko betiyon se mila hai,hamesha badhta hi rahe.
ReplyDeleteशाबाश।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लेख।
हर खुशी, हर वस्तु, हर सोच ने एक नया आकार व रंग ले लिया था। एक बिल्कुल ही नया रूप, आकार व रंग। पहले जो चीजें धुँधली थीं अब वे काफी साफ नजर आने लगी थीं। मैं अपने आप को भी समझने लगी थी। लोगों को , उनके व्यवहार को समझने लगी थी। आश्चर्य होता है कि पहले मैं यह सब क्यों नहीं समझ पाती थी।
ReplyDeleteapne blkul shi kha hai bachho ko apna mitra banane se hmne jo shiksha hasil ki hai uska nye rup me rivision ho jata hai jo hmare liye ak romanchak anubhav hota hai
meri dono bahuye meri guru hai dono apne bahar karykshetr me bhi safal hai aur ghar mebhi unka pura dkhal hai sath hi meri choti bhu ne hi mujhe blog ke liye protsahit kiya aur har roj uske office ke anubhav mere sath bantti hai aur nit nai meri prerna banti hai .
betiya dono kul ko roshan karti hai .yh sundar saty hai .mai bilkul sadharn grhini hu unhone mujhe urja di hai .
apke lekh se bhi mujhe prerna mili aur mai itna kuch likh gai .
dhnywad
shobhana chourey
लगभग यही स्थिति हमारे यहाँ भी है।
ReplyDeleteबेटी को तो मैं दादी माँ कहता हूँ :-)
सच में कितनी बाते सीखने को मिलती है... छोटो बडो दोनों से ही. बस सीखने की ललक होनी चाहिए. इसके लिए नयी नयी बातें और विचारों के लिए अपने आपको खुला रखना जरुरी है.
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