आज का दिन या कहिए शाम सफल हो गई। शाम को माँ के साथ बाहर बगीचे में बैठी थी। पीठ के पीछे मोंगरे व जाई की बेलें पूरी दीवार को ढके हुए अपने फूलों से सुगन्धी बिखेर रहीं थीं। ठीक हमारे आगे कुछ गुलाब इस गर्मी के मौसम में भी खिल कर अपनी जिजीविषा प्रदर्शित कर रहे थे। छोटे से कमल कुंड से कमल के पत्ते सामने लगे बल्ब के हल्के प्रकाश में स्नान कर रहे थे। मंद पवन में वे हिलते तो लगता मानो उनकी दर्पण सी सतह पर सैकड़ों छोटे छोटे तारों के बिम्ब झिलमिला रहे हों। सामने रबर के पेड़ की शाखाओं व पत्तियों के बीच से चाँद हमसे लुकाछिपी खेल रहा था। दूर कहीं कोई चिड़िया चहचहा रही थी। नाक, आँख, कान व त्वचा सब मानो एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे थे कि कौन सबसे सुखद अनुभूति मेरे मस्तिष्क तक पहुँचाएगा। माँ कभी कोई भूला बिसरा गीत गुनगुनाती तो कभी किन्हीं कविताओं की पंक्तियाँ।
मैं मंत्रमुग्ध सी सभी इन्द्रियों में चलती स्पर्धा का आनन्द ले रही थी। चाँद अपने सौन्दर्य से लगभग लगभग विचलित कर रहा था। शनिवार को पूर्णिमा है और कल व्रत की पूर्णिमा। मैं कई दिन से उसे बढ़ता देख रही हूँ, ठीक वैसे ही जैसे किसी बच्चे को बढ़ता देखते हैं। प्रतीक्षा में हूँ कि वह कब अपने पूर्ण यौवन पर पहुँचेगा। जानती हूँ कि फिर वह घटता जाएगा, जैसे बुढ़ापे की ओर जाएगा। आजकल बुढ़ापे के बारे में अधिक ही सोच व लिख रही हूँ। कुछ दिन में शायद मेरी इस विषय पर लिखी श्रृँखला तैयार हो जाए। सोचती हूँ कि इन विचारों को झटकूँ या चलने दूँ। मैं चलने देती हूँ।
तभी घास में कुछ जगमगाया। मैं पागल बच्ची की तरह उठकर उस ओर भागी। धड़कते हृदय से बस यही सोचते हुए कि यह वही हो। बहुत बहुत वर्षों से खोया, वही हो। मैं पास पहुँची, झुकी और निहारती गई। वही तो था। मेरे बचपन का मनमोहक जीव। मेरी खुशी का कोई अन्त नहीं था। मन किया उसे छू लूँ किन्तु जानती हूँ कि हम ही तो उसके अपराधी हैं सो बिन छुए मंत्रमुग्ध देखती रही। फिर लौटकर माँ के पास आकर बैठ गई। बोली,'अपने साथियों को भी यहीं बुला लो ना! हम कभी कोई कीटनाशक नहीं छिड़कते। यहीं आकर बस जाओ ना!पिछले कितने सालों से तुम गायब थे। बच्चों की एक पीढ़ी ने तुम्हें देखा ही नहीं होगा। बस कविता कहानियों में तुम्हारा वर्णन सुना पढ़ा होगा। जुगनू नाम उनके मन में वह बाँवलापन नहीं पैदा करता होगा जो मेरे मन में करता है।'
मैं अपनी कविताओं की उन पंक्तियों को याद करती हूँ जिसमें मैंने जुगनू का जिक्र किया है। उन पलों को भी जीना चाहती हूँ जिन पलों में उन्हें लिखा था और उन भावनाओं को भी जो लिखते समय मुझे मथ रही थीं।
माँ रामायण की वे चौपाइयाँ सुनाने लगीं जिसमें सीता ने रावण की तुलना जुगनू से की है। शायद राम की सूर्य या चन्द्र से। जादू टूट गया। मैं माँ से कहने लगी कि स्त्री होकर क्यों रामायण को याद करती हो। फिर स्त्रियों द्वारा किए जाने वाले सुन्दर काँड पाठ से उपजी अपनी कटुता बताने लगी। नाक, आँख, कान, त्वचा जो सुगन्ध, दृष्य, चहचहाने व शीतल पवन से उपजी प्रतिस्पर्धा कर रहे थे वे नैपथ्य में चले गए, जिह्वा पर केवल एक तीखा कटु स्वाद रह गया तुलसी वचनों का व इस स्थानांतरण से पहले की जगह सुन्दर काँड पाठ करती स्त्रियों की याद का।
जुगनू तुम कल फिर आना। कल मैं दुखदायी बातों के लिए कान बंद रखूँगी। कल मैं केवल तुम्हें निहारूँगी। 'ढोर, गंवार, शूद्र, पशु, और नारी' मेरे अन्तः से आकर मेरे कानों में सीसा नहीं डाल सकेंगे।
लौट आना मेरे नन्हे मित्र! कल की शाम मैं केवल तुम्हें अनुभव करूँगी।
घुघूती बासूती
Thursday, May 07, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
सुन्दर दिशा चिंतन।
ReplyDeleteबहुत हीं भावपूर्ण रचना.
ReplyDeleteमंत्र-मुग्ध कर देने वाली लेखनी
ReplyDelete---
चाँद, बादल और शाम
बहुत सुन्दरता से अभिव्यक्त किये हैं आपने अपने मनोभाव!! डूब कर पढ़ा...आयेंगे वो नन्हें दोस्त कल फिर...
ReplyDeleteमंत्र-मुग्ध कर देने वाली लेखनी
ReplyDeleteतभी तो कहूं कि आपसे नाता क्या है ?
ReplyDeleteअब समझा ?
यहां घने जंगल और घुप्प अंधेरे में आपके नन्हे मित्रों की पूरी सेना तारों सी चमकती है और मैं अक्सर स्याह रंगत में गुम होकर उन्हें निहारता रहता हूं ! आकाश और धरती पर समानांतर चमकते तारों मंडलों नें मुझे भी सम्मोहित कर रखा है !
और हां शायद तुलसी अपनी पत्नि से अलगाव जनित कुंठा के कारण ऐसा कह गए हों ?
यदि कारण यही हो तो स्त्रियों की अहमियत स्वयं सिद्ध है !
यानि तुलसी स्त्री से दूर होकर ही गलत हुए ? है ना ?
वैसे नारी सम्मान के विषय में मैं आपसे सहमत हूं !
असम में था, तब खूब जुगनू देखे...वहाँ बहुतायत में होते थे. यहाँ देखने को नहीं मिलते...
ReplyDeleteनन्हा दोस्त......जुगनू.......रामायण......इतने सारे भाव.........सबका सुंदर चित्रण.......अच्छा लगा।
ReplyDeleteक्या बोलू इतनी खुबसूरत एहसास को आपने बयान किया है कि मै एक अनोखे से पल को जी ली,जो आजकल व्यस्त जीवन मे सोचकर भी नही आती ख्यालो मे,मै यह भी चाहती हु कि इसतरह के खुबसुरत पलो से अपनी दोनो बेटियो के बचपन भर दू,पर मुम्बई शहर मे जुगनू कही दिखते नही है,अन्य प्राकृति छट्टा भी इतनी प्राकृतिक नही होती है. पर जब भी मौका मिलता है उन्हे प्राक़ृतिक सौन्दर्या के बारे मे बताती हूँ!
ReplyDeleteसच, बचपन में मैं भी इनके बारे में बहुत सोचता था और मेरे नन्हे दिमाग को जो एक ख्याल हमेशा छू जाता था वह यह कि उस समय मेरी बड़ी बहन ने मुझे बताया था कि जरूर ये जुगनू पिछले जन्म में हवाई जहाज के पायलट रहे होंगे !
ReplyDeletepadhkar acha laga;mujhe nahi lagta ki main apke is lekh par kuch tippani dene ke liye shabdon ka chunaav kar paoongi........
ReplyDeleteमन्त्र मुग्ध कर देने वाला लिखा है अपने जुगनू. देखे एक युग बीत गया :)
ReplyDeleteजुगनू शहर मे दिखना अब तो तक़दीर की बात हो गई है।हम लोग कभी जंगल मे जाते हैं तो ज़रूर शाम ढलने के साथ-साथ आती रात के स्वागत मे आसमान पर आतिशबाजी करते जुगनूओं की मस्ती का मज़ा लेते हैं। और हां वो ढोर्…………… वाले मामले मे मुझे अपने मित्र राजकुमार और उसकी पत्नी आदरणीय भाभी के बीच आये दिन इसी बात पर होने वाली बहस याद आ जाती है जिसका पटाक्षेप भाभी जी ये कह कर करती थी कि नारी तो एक है और भी आखिर मे पहले के चार तो देख लो कौन है। बहुत अच्छा लिखा आपने।
ReplyDeleteबचपन मे जुगनू देखे, अब पता नहीं कहां तलाश करूं इनहें।
ReplyDeleteबहुत अद्भुत लिखा है आपने...काश एक आध चित्र भी दिखा देतीं...तो मजा आ जाता...
ReplyDeleteखोपोली में बरसात के दिनों में ढेरों जुगनू चमकते नज़र आते हैं...
नीरज
जुगनू खूब दीखते थे बचपन में. अभी गाँव गया था तो दिखे पर एक-दो :(
ReplyDeleteसुन्दर भावात्मक अभिव्यक्ति !!
ReplyDeleteप्राइमरी का मास्टरफतेहपुर
बहुत सुंदर पोस्ट .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर चित्रण..
ReplyDeleteजुगनू के पीछे तो हम भी भागे हैं, पर इतनी दीवानगी के साथ नहीं।
ReplyDeleteएक मार्मिक कथा, हार्दिक बधाई।
-----------
SBAI TSALIIM
घुघूती बासूती जी को बहुत बहुत आभार इतनी सुन्दर रचना पड़वाने के लिए
ReplyDeletebhut sundar .jugnu ki nai dhang se phchan .
ReplyDeletebadhai
आह..कितने दिनों बाद जुगनू याद आये! जुगनू के बहाने आपने बहुत सी गहरी बातें कह दीं!
ReplyDeleteछोटे-छोटे वाक्यों और सरल शब्दों में आपने गहन बात कह दी है। पढ़कर बहुत अच्छा लगा।
ReplyDeleteढोर, नारी, पशु... ताड़न के अधिकारी, वाली पंक्ति तुलसी रामायण में प्रक्षिप्त मानी जाती है। इसलिए उसे लेकर ज्यादा परेशान न हों। तुलसी स्त्री-विरोधी नहीं थे, जो उनकी रामायण के अन्य पंक्तियों से खूब उजागर होता है।
इस बात के लिए कुछ ऐसा लिखने का मन है लेकिन पता नहीं क्या? आपकी बात ने जमीं पर पड़ा हुआ वह जुगनू दिखाया और महसूस कराया, लेकिन फिर में और मेरे बचपन के बीच जाने क्या आ गया की एक टीस हो गई, फिर वही की.. बात जाने क्या. आखिर यह कैसा मनोविज्ञान है, इस ब्लॉग से मै और बचपन के बीच कोई ब्लाक नहीं बल्कि एक कंनेक्टिविटी आई. बचपन से बिछुडे हुए करीब २३ साल हो गए हैं, मगर कागज की कश्ती और बारिश का पानी जैसे इससे मिलाता है उसी तरह जुगनू से साक्षात्कार के बाद हुआ है, इतना मेरे लिए इस बात का मतलब है, बाकी कौन तुलसी कब क्या कह गए ये तो वही जाने.
ReplyDeleteअरे आपको इस जमाने में जुगनु खां मिल गये. हमारे बच्चों नें अब तक नहीं देखें ये हीरे के कण.
ReplyDeleteवैसे अब शहतूत, खिरनी, करोंदा, और ऐसे ही कई फ़ल जो हमारे बचपन की टोकनी में सजे रहते थे, आज गायब है. न्युज़ीलेंड का फ़ल मिल जायेगा.
पहले हमारे पहाड़ों में तो खूब सारे जुगनू दिखाई पड़ते थे. घर पर होता था या जब गाँव जाता था, रात को ये जुगनू काफी लुभाते थे. हाँ अब पर्यावरणीय असंतुलन के कारण वहां पर इनका दिखना थोड़ा कम हो गया है, परन्तु मैदानी इलाकों की तुलना में स्तिथि अभी भी बेहतर है.
ReplyDeleteहमसफ़र यादों का.......
जुगनू
ReplyDelete