पितृसत्तात्मक इस समाज में नाम पर भी स्त्री का अधिकार कहाँ है ? आपका कुछ खो जाए तो ढूँढ सकते हो, पुलिस में रपट लिखवा सकते हो परन्तु जिसका नाम ही खो जाए वह कहाँ ढूँढे, कहाँ रपट लिखवाए? रपट लिखवाने को भी तो एक नाम चाहिए ! अब नाम खोजती स्त्री किस नाम से लिखे ? उस नाम से जिससे वह बचपन से पुकारी जाती थी, जिस नाम को उसने जीवन के बीस पच्चीस वर्षों तक जिया, जिस नाम से उसने न जाने कितने तमगे जीते या उस नाम से जो मंगलसूत्र के साथ उसको पकड़ा दिया गया कि लो बिटिया अब इसे ही अपना सबकुछ समझो ? कहना सरल है किन्तु जीना कठिन।
विवाह के साथ बहुत कुछ खोया और पाया जाता है। जीवन में खोना व पाना सदा साथ साथ चलता है। यह स्वीकार भी किया जा सकता है। किन्तु अपनी पहचान खोना ! यह एक अक्षम्य व बर्बर समाज ही किसी से करवा सकता है। दुर्भाग्य से यह 'किसी' सदा स्त्री ही होती है। नाम खोने की पीड़ा वही समझ सकता है, जिसने अपना नाम खोया हो और जिसके लिए नाम का कोई महत्व रहा हो। अधिकतर पुरुष यही कहेंगे कि इसमें क्या बड़ी बात है। भाई, पल भर को अपने आप को अपनी सास के या पड़ोसी के नाम से जानने की कोशिश करके देखो। जीवन भर आप कहलाए थे समर दादाभाई हँसमुख और अचानक आपका नाम हो जाता है समर नान्जीभाई उदास !( या समर नान्जीबहन उदास और आप हैं पुरुष !)बोलिए कैसा लगेगा यह नया नाम ? क्या आपका हाथ हर बार किसी कागज पर यह नाम लिखते या यह हस्ताक्षर करते काँपेगा या नहीं ? हमारी पीढ़ी तो फिर भी भाग्यवान है कि सिमरन दादाभाई हँसमुख से केवल सिमरन नान्जीभाई उदास जैसी कुछ हो जाती है,सौभाग्य से सिमरन को तो अपने से चिपकाए रहती है। हमारी माँ की पीढ़ी का तो पहला नाम सिमरन तक बदल कर मंगला, श्यामा या गोपा या उस पल जो भी सुहाया कर दिया जाता था। सिमरन को स्मरण भी नहीं रहता था कि वह कभी सिमरन थी। यदि स्मरण करती थी तो सिवाय पीड़ा व नाम तक अपना न कह पाने की विवशता के कुछ भी हाथ नहीं आता था।हेम पान्डे जी ने अपने चिट्ठे शकुनाखर में छद्मनामधारी ब्लॉगर्स पर आधारित एक कहानी लिखी। उसपर बहुत सी टिप्पणियाँ आईं। वहीं ज्ञानदत्त पाण्डेय जी छद्मनामधारी मानव के बारे में कहते हैं.........
'मुझे नहीं लगता कि छद्मनाम से लिखने वाले या अपने बारे में कम से कम उजागर करने वाले बहुत सफल ब्लॉगर होते हैं। आपकी जिन्दगी में बहुत कुछ पब्लिक होता है, कुछ प्राइवेट होता है और अत्यल्प सीक्रेट होता है। पब्लिक को यथा सम्भव पब्लिक करना ब्लॉगर की जिम्मेदारी है। पर अधिकांश पहेली/कविता/गजल/साहित्य ठेलने में इतने आत्मरत हैं कि इस पक्ष पर सोचते लिखते नहीं।और उनकी ब्लॉगिंग बहुत अच्छी रेट नहीं की जा सकती।'
उनसे मैं यही कहूँगी कि सारी समस्या ही इस सोचने से उपजी है। यदि सोचती नहीं तो मैं भी गर्व के साथ अपना लेखन उस नाम के साथ ठेलती जाती जो मेरा नहीं है, परन्तु मैं ढो रही हूँ। संसार की अधिकतर स्त्रियाँ बहुत आराम से अपने नए नाम को अपना लेती हैं क्योंकि वे जन्मजात रानी बेटियाँ होती हैं, परम्पराओं को वे आराम से ओढ़ती, जीती हैं, प्रश्न नहीं करती, न समाज से न अपने आप से। परन्तु कभी कभी गलत नक्षत्र में कुछ ऐसी बेटियाँ भी जन्म ले लेती हैं ( वैसे बेटी का जन्म हो तो शुभ नक्षत्र तो हो ही नहीं सकते ! ) जो प्रश्न पूछने के असाध्य रोग से ग्रसित होती हैं। मैं उन्हीं अरानी बेटियों में से एक हूँ। प्रश्न करना और उनके उत्तर पाना और न पाने पर उन्हें खोजना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानती हूँ। वैसे स्त्री और जन्मसिद्ध अधिकार शब्द एक दूसरे के साथ शोभा नहीं देते। स्त्री और कर्त्तव्य या त्याग कैसे एक दूसरे की शोभा बढ़ाते हैं। कुछ वैसे ही जैसे...
शशिनाच निशा, निशयाच शशि
शशिना निशयाच विभाती नभः।
( स्मरण के आधार पर लिखा है, अशुद्धियाँ हो सकती हैं।)
अर्थात चन्द्रमा से रात्रि की शोभा बढ़ती है और रात्रि से चन्द्रमा की। चन्द्रमा और रात्रि से आकाश की शोभा बढ़ती है।
ठीक ऐसे ही हे स्त्री,
त्याग या कर्त्तव्य से स्त्री की शोभा बढ़ती है और स्त्री से त्याग की। त्याग व स्त्री (या कहिए त्यागमयी स्त्री से,वैसे किसी अन्य प्रकार की स्त्री की कल्पना ही हृदय दहला देने वाली होती है ना!)से समाज की शोभा बढ़ती है।
सो हे स्त्री, तू त्याग किए जा, नाम से लेकर अधिकारों तक का। इसी में तेरा व समाज का कल्याण है।
मैं छद्म नाम से इसलिए लिखती हूँ क्योंकि आज जो मेरा नाम है उससे मैं नहीं लिख सकती। कोई रोकटोक की बात नहीं है। मैं सौभाग्यवती हूँ कि लिखने और उस नाम से लिखने की मुझे अनुमति मिली हुई है। बहुत सी स्त्रियों को तो शायद कम्प्यूटर पर समय खोटा करने की अनुमति भी नहीं मिलती होगी। मैं उस नाम से इसलिए नहीं लिख सकती क्योंकि मुझे वह नाम अपना लगता ही नहीं। जो नाम अपना था उसे तो मैंने सौभाग्यवती कहलाने की कीमत के रूप में चुका दिया सो अब वह मेरा कहाँ से रह गया? वैसे दिल को बहलाने को यह भी सोच सकती हूँ कि उस नाम से क्या प्यार जो स्वयं पितृसत्ता के अन्तर्गत मुझे कुछ वर्षों के लिए दिया गया था, तब तक के लिए जब तक मैं अपने घर(अर्थात अपने पति के घर) की तरह अपना असली नाम, कुल, गोत्र नहीं प्राप्त कर लेती। ठीक वैसे ही जैसे जब तक माता पिता बच्चे के लिए एक उपयुक्त नाम नहीं ढूँढ लेते वे उसे छोटू या पप्पू जैसे किसी वैकल्पिक नाम से बुलाते हैं। यहाँ बहुत सी कहावतें याद आती हैं,स्त्री तो धान की रोप की तरह है जब तक उखाड़कर नई जगह न लगाओ पनप नहीं सकती,पराया धन आदि आदि।
खैर,मेरी नाम खोने की समस्या थोड़ी अधिक गम्भीर इसलिए भी है कि विवाह से पहले के अधिकतर मित्र मुझे मेरे सरनेम से ही बुलाते थे। अब वह ही मेरा नहीं रह गया है। तो यह ओढ़ा हुआ नाम और भी अटपटा लगता है। अपने इसी अनुभव के कारण मैंने अपनी बेटियों को सदा हस्ताक्षर करते समय अपने नाम को महत्व देने को ही कहा सरनेम को बिल्कुल नहीं ताकि विवाह के बाद उनकी यातना मुझसे कुछ कम ही रहे।
बहुत से पुरुष व कुछ स्त्रियाँ पूछेंगी कि यदि मुझे नाम बदलने से इतना ही कष्ट था तो मैंने विवाह किया ही क्यों? विवाह तो मैंने व मेरे पति दोनों ने ही किया। किसी जोर जबर्दस्ती से नहीं,अपनी इच्छा से किया फिर नाम की कीमत मुझे ही क्यों चुकानी पड़ी?
मुझे याद आता है कि पी एच डी करती मेरी दीदी के विवाह के लिए जब वर ढूँढा जा रहा था तो दीदी ने वर की पढ़ाई आदि के अतिरिक्त एक और माँग की थी कि जहाँ तक हो सके कोशिश की जाए कि हमारे ही सरनेम वाला वर ढूँढा जाए। किन्तु एक तो कुमाऊँनी समाज बहुत छोटा व सीमित है उसपर एक ही सरनेम के लोग प्रायः एक ही गोत्र के होते हैं सो उसकी यह इच्छा पूरी करना बहुत कठिन हो गया था। अब वह वर्षों से पी एच डी की मेहनत कर जिस डॉक्टर शब्द को अपने नाम के आगे लगाना चाहती थी वह अन्त में लगा किसी पराए से नाम के आगे !
यह नाम बदलने की परम्परा तब इतनी कष्टप्रद व क्रूर नहीं लगती होगी जब लड़कियों का विवाह बहुत छोटी उम्र में हो जाता होगा। जब उन्होंने अपना नाम किसी कागज में वर्षों वर्ष लिखा नहीं होता होगा, जब वे अपने हस्ताक्षर की अभ्यस्त नहीं हुई होती होंगी,जब उन्होंने अपने उस नाम से ढेरों प्रमाणपत्र नहीं पाए होते होंगे।
वैसे वर्तमान में बहुत सी स्त्रियाँ अपने पुराने नाम को ही रखे रहती हैं। ऐसी स्त्रियों की संख्या कम है परन्तु निरन्तर बढ़ रही है। कुछ अपने पुराने सरनेम के आगे पति का सरनेम भी लगा लेती हैं। वैसे कुछ बहुत ही कम लोग एक नए सरनेम का सृजन कर लेते हैं जो दोनों के सरनेम के जोड़तोड़ से बना होता है।
प्रायः जब इस सरनेम बदलने की बहस छिड़ती है तो लोग कहते हैं कि पति पत्नी का अलग अलग सरनेम होगा तो बच्चों का क्या होगा? पारिवारिक एकता का क्या होगा? किन्तु क्यों हर ऐसे मुद्दे, जैसे विजातीय धर्म के विवाह आदि के मुद्दे को सुलझाने में स्त्री के सरनेम या धर्म की ही बलि माँगी जाती है? क्यों विवाह सुख पाते तो पति पत्नी दोनों हैं किन्तु कीमत प्रत्यक्ष रूप से केवल स्त्री से ही माँगी जाती है? परोक्ष में पुरुष भी काफी त्याग करते होंगे परन्तु सहज रूप से विवाह हो या मातृत्व सुख नाम, नौकरी आदि की बलि केवल स्त्री ही चढ़ाती है। कम से कम अपेक्षा तो उसी से की जाती है।
सो मैं इस छद्मनाम से इसलिए लिखती हूँ क्योंकि कम से कम यह नाम मेरा चुना हुआ तो है। यदि मुझसे मेरे नाम का अधिकार छिन गया तो यह नाम कम से कम मुझे एक छद्म नाम चुनने का अधिकार तो देता है। मेरे हर उस पहचान पत्र, जिसमें मेरा कोई विशेष योगदान नहीं है, में मेरा नहीं मेरे पति का नाम है। मेरे हर उस प्रमाणपत्र जिसमें मेरी प्रतिभा, मेरी मेहनत लगी थी, में मेरा खोया हुआ नाम है। कम से कम मेरा लेखन, मेरी रचनाएँ तो मेरी निजी हों। इसमें से तो मेरे प्रदेश,मेरे पहाड़,मेरी संस्कृति की सुगन्ध आती रहे। मुझे यह नाम अधिक अपना लगता है। मेरा या किसी भी छद्मनामधारी का लेखन इसलिए निम्नस्तरीय तो नहीं हो सकता कि वह छद्मनाम से लिखा जा रहा है। यदि वह निम्न स्तरीय है तो नाम के कारण नहीं अपितु इसलिए है क्योंकि मेरा या उनका लेखन परिपक्व नहीं हुआ है या भाषा का प्रवाह व ज्ञान कम है या हममें लेखन प्रतिभा है ही नहीं। चुनाव के इस मौसम में नाम के चुनाव के इस छोटे से अधिकार से तो मुझे वंचित नहीं रखा जा सकता ना !
घुघूती बासूती
पुनश्चः इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए हेम पाण्डे जी ने एक और लेख... लिखा है।
घुघूती बासूती
Saturday, April 25, 2009
स्त्रियों को नाम का अधिकार कहाँ है, यह तो संसार की अन्य वस्तुओं की तरह पुरुषों का एकाधिकार है।
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एक पूर्ण आलेख । शारदा की कहानी भी इसी मुद्दे पर थी ।
ReplyDeleteमैंने अपना नाम नही बदला है, शादी के बाद भी. इसलिए दिक्कतें तो पेश आती है ..पर संतुष्टि भी मिलती है.
ReplyDeleteबहुत सटीक और गहरी बात लिखी आपने.
ReplyDeleteरामराम.
ऐसा क्यो है समाज?समाज बनाने वाले लोग क्या सम्वेदनाहीन और जड थे?क्या औरते यानि बेटियाँ बाद मे आस्तित्व मे आयी ?तब तक मर्दो की दुनिया बन चुकी थी?न जाने कितने सारे प्रश्न जेहन मे आते हैकभी ऐसे प्रश्नो से तथाकथित लोग क्यो दुखी होते है?
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ReplyDeleteक्या आपके कहने का यही मतलब है कि स्त्रियों का विवाहोपरांत उपनाम बदला नहीं जाना चाहिए.. बच्चो का उपनाम चाहे पिता का उपनाम ही रखा जाये ?
ReplyDeleteक्या कहें जी एक पुरूष जो ठहरे...वैसे उपनाम एक परिवार का नाम होता है अतः जब उस परिवार से जूड़ना है तो उसका नाम अपनाने में क्या आपत्ति है? मगर कई जगह यह देखा है की "कंचन" शादी के बाद "सुमन" हो गई. यह कष्टदायी है.
ReplyDeleteशादी के बाद नारी ही अपना घर क्यों छोड़े? जब जब ऐसा सोचता हूँ, हल नजर नहीं आता....
ReplyDeleteghughuti ji aapke har shabd se sehmat hai,aisa kyun is sawal ka jawab hame nahi malum,magar hamne bahut log aise dekhe hai jo apnemaa ka naam suname hi lagate hai,magar in ki sankhya behad kum hai.ye saja hi hai jo naam badalna pade.koi hul hai kya iska?
ReplyDeleteapki baat se sehmat to hoon...
ReplyDeletepar mahilaaon ko bhi is laade gaye "inferiority complex" se khud hi ubarna hoga....
बहुत से महत्वपूर्ण सवाल उठाएं है आपने। उन पर जरूर विचार होना चाहिए।
ReplyDeleteपर घुघुती बासूती तो आपकी पहचान हो चुका नाम है। फ़िर यह छद्म कैसे रहा ? यह छद्म क्या होता है, अपनी समझ नहीं आया।
मुझे विश्वास है कि दुनिया बदलेगी।
ReplyDeletewhat is in a name...a rose by any other name smells just as sweet...[shakespeare]
ReplyDeleteghughuti ji ....maafee chahungee...kai mahilaaen shaukiy taur par bhi apne naam ke aage pati ka naam jod letee hain...bina kisee dabaav ke...ye unkee vyaktigat pasand hotee hai...
adhikar or right are not given by anyone . its only when we wait for someone to give we loose what is right and lawfully ours .
ReplyDeletefreedom is to be enjoyed by one and all .
people especially woman always try to blame someone else when they dont want to do something
i dont think changing name is of any significance , one can if one wants to and one may not if one does not want to
woman themselfs try to become torch bearers of tradition and then they critisize the whole system
but when it comes to them they will follow the same system because its always easier to follow a set line
for some getting married is the sole aim of life and tey enjoy every previlage of marriage and after enjoyingit they critsize the system
ONE HAS A RIGHT TO CRITSIZE SOMETHING ONLY IF ONE FIGHTS AGAINST THAT THING BY GOING WITH THE FLOW OF THINGS ONE ONLY GETS THE BEST OUT OF IT AND STILL CIRTISIZE IT
WOMAN HAVE ALL THE RIGHTS AND IF THEY WANT TP AVAIL THE RIGHTS THEY NEED TO GET UP AND AVAIL IT
जो बदलाव हम चाहते हैँ उसे हमीँ से शुरु करना चाहीये -
ReplyDeleteपूरे समाज को बदलने का खयाल
एक स्वप्न ही है ..
very rarely one person can do it .
But good thoughts
do leave an influence.
- लावण्या
मैं तो बस एक बात जानता हूँ ...अधिकार भीख में या किसी की कृपा से नहीं मिलते .....अधिकारों की लड़ाई लड़ी जाती है ...अधिकार खुद लिए जाते हैं
ReplyDeleteआपने हिलाकर रख दिया ....लाजवाब लिखा है ....आपसे सहमत हूँ
सुन्दर पोस्ट। हमारे गांव में पहले ब्याह के बाद महिलायें अपने मायके के नाम से जानी जाती थीं (पिपरौली वाली, मवई वाली, राधन वाली) अब नयी पीढी़ में ब्याह के बाद महिलायें अपने नाम से जानी जा रही हैं। बदलाव हो रहा है।
ReplyDeleteमेरी एक भारतीय मित्र ने हाल ही में शादी की। उसका कुलनाम अभी भी वही है, और उसने कहा है कि वह उसे नहीं वदलने वाली। उसके पति को भी इसपर कोई आपत्ति नहीं है। दोनों की उम्र ३० के आसपास है।
ReplyDeleteदूसरी ओर मेरी एक अमेरिकी मित्र ने भी हाल ही में शादी की है। लेकिन उसके पति ने उसे साफ कह दिया है कि "जब तक महिला के नाम के साथ पति का कुलनाम नहीं जोड़ा जाता, तब तक उसकी पहचान अधूरी रहती है।"
अब इसे आप क्या कहेंगे?
लवली ,आप के विचारों को जानने के बाद चला हेम पांडे को पढने !
ReplyDeleteछद्मनाम से लिखने की परम्परा पुरानी और हिन्दी और संस्कृत मे तो और भी ज्यादा पुरानी है।
ReplyDeleteAajkal to ab naam badalne jaisi cheej jyada nahin dikhti hai. hamara ghar hi is baat ka udaharan hai. waise ye samaaj me chal rahaa hai par nidan kya hai?
ReplyDeletekya aapas men LADNA?
aapki is baat se sahmat nahi hua jaa sakta ki jo chhdmnam se likhate hain vo safal nahi hote. agar aap hindi padhati hongi to Snova Borno isaka pramaan hain.
ReplyDeleteyahan aapne ek aur tippani ki hai "ki आपकी जिन्दगी में बहुत कुछ पब्लिक होता है, कुछ प्राइवेट होता है और अत्यल्प सीक्रेट होता है|"
jahan tak mera mananaa hai aapki jindagi mein jyadatar secrete hota hai aur utna hi public hota jitnaa aap karnaa chahein|
sahi aur nishpaksha tippadi ke liye aapka "naa jana huaa" hi hona behatar hai.
घुमक्कड़ जी आपने लेख घूमते हुए हड़बड़ी में पढ़ा है। यह कुछ वैसा ही हुआ कि सारी रात रामायण पढ़ी और सुबह पूछें कि सीता कौन था।
ReplyDeleteमैंने यह लेख ही ज्ञान्दत्त पाण्डेय जी की इस टिप्पणी का विरोध करने को लिखा था। टिप्पणी मेरी नहीं उनकी है।
घुघूती बासूती
You have hit the nail. Its really painful to change name! may be a lot may not agree, but to change your identity is difficult. Here in Punjab, they at times change the name also along with surname.
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