आज ही के टाइम्स औफ़ इन्डिया में पढ़ा कि राजकोट के एक स्कूल की दो शिक्षिकाओं ने परीक्षा देते एक एक 11 वर्षीय छात्र को स्टील के स्केल से इतना मारा कि उसके शरीर पर छाले बन गए। वह दर्द से चिल्लाता रहा और वे उसे मारती रहीं। उनके अनुसार उसने उनके पर्स से 15रुपए चुराए थे। हो सकता है कि बच्चे ने यह अपराध किया भी हो। किन्तु इस या किसी भी अपराध की ऐसी सजा !
कल टी वी पर एक बच्ची को घंटों धूप में खड़ा रखने से उसके बेहोश व शायद कौमा में पहुँचने की खबर थी।
हमारे देश में बच्चों का एक बहुत बड़ा प्रतिशत स्कूल जाता ही नहीं है। जो स्कूल जाते हैं यदि अध्यापक उनपर अपना सारा क्रोध मार पीट कर निकालेंगे तो बहुत से बच्चे स्कूल जाने से कतराएंगे। हर दिन समाचार पत्रों में बच्चों के साथ स्कूल में हुई मारपीट के समाचार छपते हैं। समाचार तो तब ही बनते हैं जब बच्चे हस्पताल पहुँच जाते हैं। मारपीट के वे मामले जिनसे केवल बच्चों का मन ही आहत होता है समाचार नहीं बनते। परन्तु न जाने कितने ऐसे बच्चे स्कूल जाने की बजाए कहीं कुछ काम पकड़ लेना बेहतर समझ लेते होंगे। ऐसे ही बच्चे फिर काम के स्थान पर हिंसा व बर्बरता का शिकार बनते होंगे।
जो समाज अपने बच्चों पर हिंसा करता है वह कहीं से भी सभ्य नहीं कहला सकता। इस बर्बरता के बीच बए हुए बच्चे यह सीखते हैं कि शक्तिशाली किसी पर भी अपना बल प्रयोग कर सकता है और बलप्रयोग ही मामले सुलझाने क एक मात्र तरीका है। जब हम कहीं अपने देश की बुराई होते या दिखाते देखते हैं तो हम यूँ भड़क उठते हैं जैसे हमारा देश व समाज आदर्श हों। यदि हममें इतना ही देशप्रेम भरा हुआ है तो सबसे पहले हमें अपने बच्चों पर अत्याचार करने पर रोक लगानी होगी। इसके लिए कानून तो अवश्य होंगे परन्तु कानून अपराध होने के बाद केवल सजा दे सकते हैं। हमें यह देखना होगा कि बच्चों पर ये अत्याचार होते ही क्यों हैं।
इसके कई कारणों में से एक कारण ऐसे लोगों का भी अध्यापक बनना है जिनमें अध्यापक होने की वह मूलभूत विशेषता की कमी है जो एक अध्यापक में आवश्यक है। जितने धैर्य व बच्चों के प्रति प्रेम की इस पेशे में आवश्यकता है उतनी और कहीं नहीं। यह सच है कि बच्चे बहुत बार इतना उकसाते व क्रोध दिलाते हैं कि अध्यापक अपना धैर्य खो बैठता है। परन्तु यही धैर्य तो एक आम व्यक्ति को एक अध्यापक से अलग करता है। यदि हममें यह योग्यता नहीं है तो हमें अध्यापन में आना ही नहीं चाहिए। मुझे याद है कि अध्यापन आरम्भ करने से पहले मैंने अपने से यह वायदा किया था कि जिस दिन मेरा मन किसी को मारने का हुआ या मेरा हाथ उठा उसी दिन मैं अध्यापन बंद कर दूँगी। एक बच्चा तो जैसे मार खाना अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानता था। जिस दिन मेरा हाथ उठने ही वाला था मेरे आँसू ही लगभग निकल गए। गई तो मैं क्रोध में उसपर हाथ उठाने ही को थी परन्तु उसके पास पहुँचकर उसे अपने गले से लगा लिया। वह भी मेरी विवशता को समझ रो पड़ा।
मेरी बच्चियाँ दो साल तक जिस स्कूल में पढ़ती थी व जहाँ कुछ समय बाद मैं भी पढ़ाती थी वहाँ एक अध्यापिका अपनी चूड़ियाँ उतार कर बच्चों पर पिल पड़ती थीं। एक अध्यापक की हथेलियों में कोई रोग था जिससे वे इतनी भयंकर रूप से रफ़ थीं कि बच्चों को जब थप्पड़ मारते तो खून निकल आता था। मुझे याद है कि मुझे बच्चियों को कहना पड़ा था कि यदि वे तुम्हें मारने लगें तो घर भाग आना बाद में जो होगा हम सम्भाल लेंगे। यहीं पर बाद में जब मैंने पढ़ाना शुरू किया तो कई क्रोधी स्वभाव वाली अध्यापिकाओं को क्रोध आने पर दस तक गिनने की सलाह देनी पड़ी। यह सलाह काफ़ी सीमा तक कारगार भी सिद्ध हुई। परन्तु जब स्कूल के चपड़ासी को अध्यापकों से अधिक वेतन मिलता था मैं अध्यापकों को अधिक दोष भी नहीं दे सकती थी। बहुत से निजी स्कूलों में अध्यापकों का जमकर शोषण होता है।
यदि हमारे देश में इस सबसे महत्वपूर्ण काम के सही मूल्य को सही आँका जाए तो सबसे अधिक वेतन अध्यापकों को ही दिया जाए। यदि ऐसा हो तो इस पेशे में सबसे बुद्धिमान व सबसे धैर्यवान लोगों का ही चुनाव होगा। तब धैर्यविहीन व बच्चों से प्रेम न करने वाले लोग भी केवल वेतन पाने के लिए अध्यापन में नहीं आ पाएँगे। होना तो यह चाहिए कि यह काम कोई विवशता से न अपनाए केवल अध्यापन व बच्चों से प्रेम के आधार पर अपनाए। शायद केवल कोई डिग्री ही इसका आधार न होकर सही मानसिक योग्यता को भी चयन का आधार बनाना चाहिए। होना तो यह चाहिए कि देश के सबसे अधिक प्रतिभावान छात्र बी एड आदि में प्रवेश पाने के लिए लालायित हों और फिर उनकी भावनात्मक व मानसिक परिपक्वता के आधार पर ही उन्हें प्रवेश मिले। ऐसे में हम भी अध्यापकों से अच्छा पढ़ाने की आशा कर सकते हैं। यदि मूँगफ़ली दोगे तो बन्दर ही मिलेंगे वाली कहावत भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में प्राय: चरितार्थ होती दिखती है।
जब हम अपनी साइकिल तक योग्य मैकेनिक के हाथ में ही सौंपना पसन्द करते हैं तो हम अपने बच्चों को सबसे योग्य पात्रों के हाथ में क्यों नहीं देना चाह्ते ? योग्य पात्र को वेतन देने में कंजूसी करेंगे तो ऐसे भी लोग अध्यापन में आएँगे जो जल्लाद होने की योग्यता रखते हैं। यदि हम चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ी को सही दिशा मिले तो अध्यापन को वह आदर देना ही होगा जो किसी जमाने में भारत में गुरू को मिलता था। साथ ही साथ अध्यापकों को भी समय समय पर तनाव की स्थिति में काउन्सलिंग की सुविधा मिलनी चाहिए।
घुघूती बासूती
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"कल टी वी पर एक बच्ची को घंटों धूप में खड़ा रखने से उसके बेहोश व शायद कौमा में पहुँचने की खबर थी।"- दिल्ली की वह बच्ची गुजर गई !
ReplyDeleteजब हम अपनी साइकिल तक योग्य मैकेनिक के हाथ में ही सौंपना पसन्द करते हैं तो हम अपने बच्चों को सबसे योग्य पात्रों के हाथ में क्यों नहीं देना चाह्ते ? ======================
ReplyDeleteबिलकुल सही, मैं पूरी
तरह सहमत हूँ आपके
विचारों से.....आजकल ऐसी
घटनाएँ रोज़ प्रकाश में आ रही हैं,
इससे बच्चे कुंठा और हिंसक प्रवित्ति
के शिकार भी हो रहे हैं....
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
ये सामंती मूल्य हैं जो इस तरह की हरकतें करवाते हैं।
ReplyDeleteअभी उसी बच्ची की खबर आ रही है :( दुखद !
ReplyDeleteकोमल शरीर को कष्ट देते दिल नहीं दुखता इनका..........
ReplyDeleteमैं भी आपकी बातों से सहमत हूँ। गलतियों को सुधारने के और भी तरीके हैं।
यही इनकी नियति बन गयी है .अब गुरु जी लोग इसी तरह अपनी खीझ मिटा रहें हैं .
ReplyDelete@डॉ.द्विवेदी जी,सामंती मूल्य? या सामन्ती बुराई...! ऐसे घृणित और अक्षम्य कार्य को मूल्य (नकारात्मक ही सही) शब्द से नही जोड़ा जा सकता। यह तो ऐसा अधम कार्य है जो मनुष्य में पाशविकता का दर्शन कराता है।
ReplyDeleteहमें लगता है की मनुष्य अब हिंसक पशु बन गया है. घर में हिंसा न कर सके तो बाहर अपना रोष उतारो.
ReplyDeleteऐसे शैक्षणिक माहौल में बच्चों के पढने के बाद उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है ?
ReplyDeleteAAJ HI SAMAACHAR DEKHA. DELHI MEN EK BACHCHI KI ISI KAARAN SE MAUT HO GAI HAI.
ReplyDeleteKYA AISE HI SUDHREGI SHIKSHA VYAVASTHA?
जितने धैर्य व बच्चों के प्रति प्रेम की इस पेशे में आवश्यकता है उतनी और कहीं नहीं। ------ शतप्रतिशत सही... जिनमें बच्चों के प्रति प्रेम नही...उन्हे शिक्षक बनना ही नहीं चाहिए.
ReplyDeleteबहुत दुखद घटना घटी है।आश्चर्य होता है किसी बच्चे को इस तरह सजा़ देनें की हिम्मत कहां से आ जाती है ?
ReplyDeleteभारत में आज भी ऐसी शिक्षा प्रणाली है जहाँ, टीचर ही सर्वेसर्वा होता है। और स्थिति के हिसाब से ही मनुष्य की मानसिकता भी होती है। जहाँ बच्चों पर हाथ उठाने का चलन हो, वहाँ कोई कम तो कोई ज़्यादा इस अधिकार का उपयोग करेगा। इसके लिये ज़रूरी है कि कारगर क़ानून लागु हों और ऐसे शिक्षकों को तत्काल नौकरी से हटा कर पुलिस कारर्वाही की जाये। डिसिप्लीन करने के कई तरीक़े हैं,बच्चों पर हाथ उठा कर नहीं।
ReplyDeleteपाशविक है यह । मीनाक्षी जी ने सही कहा - " शतप्रतिशत सही... जिनमें बच्चों के प्रति प्रेम नही...उन्हे शिक्षक बनना ही नहीं चाहिए."
ReplyDeleteयह भी एक तरह का आतंकवाद है, और बच्चों को बेरहमी से पीट-पीट कर मार डालने वाले ये तथाकथित "शिक्षक" मोहम्मद कसब से कम नहीं। यहाँ भी देखें।
ReplyDeleteमैं तो यह नहीं समझ पाता कि कोई बच्चे को मार कैसे सकता है?
ReplyDeleteशायद इसके पीछे परपिडन का कोई मनोरोग काम करता है. जो भी हो, स्कूलों में पीटाई पर प्रतिबन्ध लगना चाहिए.
मैं तो भारतीय शिक्षण प्रणाली के ही खिलाफ हूँ.. पचास सालो में कुछ नहीं बदला.. वक़्त के साथ बदलना ज़रूरी होता है पर अब भी वैसा ही है जैसा पहले था..
ReplyDeleteमैंने अपने सहपाठी को पी. टी. आई. द्वारा सड़क पर मारे जाने का विरोध किया था.. बहुत मुश्किल रहा मगर मैंने चार सौ बच्चो से पत्र लिखवाकर पी. टी. आई. को तीन महीने के लिए बर्खास्त करवाया था.. उसके बाद मेरे स्कूल में रहने तक के दो साल तक इस प्रकार की कोई घटना नहीं हुई.. पर दुःख तो तब होता है जब लोग चुप चाप देखते जाते है..
देखा ना...अब तो रामप्यारी की बात पर यकीन हुआ ना कि रामप्यारी हमेशा टीचरों की बुराई ही क्यों करती है?
ReplyDeleteरामप्यारी कभी झूंठ नही बोलती. कई टीचर रामप्यारी को भी ऐसे ही पीटते हैं. बहुत गंदे होते हैं.
रामप्यारी तो इनसे डरकर पढाई छॊडने वाली है. और इसका सारा दोष इन्ही पर होगा.
मै मानता हूँ बच्चो की स्कूली शिक्षा सबसे कठिन ओर जिम्मेवारी का कार्य है क्यूंकि वही किसी बच्चे के जीवन की नींव का आधार है इसलिए शिक्षक का असाधारण होना शायद एक अनिवार्य शर्त है इस दुनिया के जितने भी महान व्यक्ति हुए है उन्हें कही न कही किसी मेंटर ने ही गढा है .... इसलिए मै भारतीय घरलू महिला की दाद देता हूँ जो अपने बच्चो को एक उचित शिक्षा ओर अनुशासन में बांधे रखने के लिए अपने आप को होम कर देती है ......
ReplyDeleteदुर्भाग्य से हमारे यहाँ न तो शिक्षको की योग्यता के लिए कोई पैमाना है जो नियम कानून है वहां धड़ल्ले से उनकी बखिया उधड रही है ....सरकारी स्कुलो में भारती कैसे होती है सब जानते है ...ओर दुर्भाग्य से सरकारी स्कूलों में ही मार पीटाई के किस्से होते है .उनमे से भी ६० प्रतिशत मामलो में महिला टीचर होती है ..दुःख की बात है की एक महिला ही कैसे बच्चो पर जुर्म ढा सकती है ..जबकि वे पुरुषों के अपेक्षा अधिक संवेदन शील होती है.....
रही प्राइवेट स्कूलों की बात ,अव्वल तो वहां कम तनख्वाह में टीचरों का शोषण होता है ,दूसरे स्कुल प्रबंधन की दादागिरी ,तीसरे अबिवाको के पास एक तो समय नहीं होता दुसरे वे भी अधिक प्रोटेक्टिव होकर अपने बच्चो पर एक थप्पड़ को भी अत्याचार मान लेते है ,मुझे याद है हमारे समय में टीचर रोज किसी न किसी की पिटाई करते थे ओर कभी किसी अभिवावक को लड़ते हुए नहीं देखा गया ,उल्टा हमारे पिता ने ही हमें ......
अब ऐसा क्यों है की आप पैसो से जो चाहे अपने बच्चो को बना सकते है डोनेशन से ?तो शिक्षा की value क्या रही ?
तो हल क्या है ?
क्यों ऐसा है की प्रतिभावान होते हुए भी किसी गाँव या सरकारी स्कूल में पढने वाला बच्चा किसी प्राइवेट स्कूल के बच्चे से किसी प्रतियोगी परिक्षा में कम महसूस करे ..सिर्फ इसलिए की वो गरीब है ....
तो क्या सामान शिक्षा प्रणाली लागू नहीं हो सकती ?क्यों नहीं सारे आरक्षण बंद करके शिक्षा मुफ्त हो ....एक जैसी हो ..जो गरीब है या वास्तव में जिन्हें जरुरत है ...उन्हें थोडा अधिक मौके दिए जाये ....बचपन में किसी एक क्लास तक सिर्फ ग्रेडिंग सिस्टम हो....
टीचर के लिए भी एक एक खास ट्रेनिंग प्रोग्राम हो...
वो दिल्ली वाली सन्नो गुजर गई। मंजू नाम की टीचर को पुलिस ढूंढ रही थी कल रात तक। अभी का पता नहीं। लेकिन मैं इसके खिलाफ नहीं हूं कि सीखाने के लिए सज़ा देना। पर सज़ा ऐसी होनी चाहिए जिससे सीख मिले। कोई बच्चा भाग रहा है पढ़ाई से तो उसको और ज्यादा पढने की सज़ा देनी चाहिए। क्लास में बोल बोल कर रीडिंग करवाएं। लेकिन टीचर सज़ा देकर उसे सुधारने की वजाय बिगाड़ ही देते हैं।
ReplyDeleteयह तो बिलकुल ही सही होगा कि ऐसे शिक्षकों को मुअत्तल कर दीजिये. स्कूल प्रशासन का यह कर्त्तव्य बनता है कि इस बात की निगरानी करे कि किसी शिक्षक का वर्ताव बच्चों के प्रति कैसा चल रहा है. अब यदि ऐसी घटना होती है तो देखा गया है कि विद्यालय प्रशासन या तो मुँह छुपाता है या शिक्षक को बचने की कोशिश करता है. जो कि गलत है, हो सकता है कि उसका एक कारण मीडिया को स्कूल प्रशासन की फौरी कारर्वाई की प्रशंसा न करना और शिक्षक का गलत व्यवहार को बार बार दिखाया जाना हो, जिस से विद्यालय की छवि पर असर पड़ता है.
ReplyDeleteमैं इस से असहमत नहीं हूँ कि एक अध्यापक को असीम धीरज का स्वामी होना पड़ता है. तथापि यह कहना कहूंगा कि अध्यापकीय योग्यता के इतर कई बार, जैसा कि आपने उल्लेख किया, एक शिक्षक स्वयं अपनी समस्याओं से झुंझलाया भी हो सकता है. हमारे यहाँ स्कूलों में एच आर विभाग की तो प्रथा ही नहीं है जो यह देख सके कि शिक्षकों की हालत कैसी है. उनके नियमित ट्रेनिंग, स्वास्थ्य संबन्धी जांच, रिक्रियेशन के उपाय भी जरूरी हैं. धीरज एक स्वस्थ शरीर और मन में ही वास कर सकता है. पारिश्रमिक की चर्चा तो आपने कर ही दी है. सरकारी संस्थानों में नियमित शिक्षकों की बात अलग है पर अवैतनिक शिक्षकों और निजी स्कूलों के शिक्षकों की बात करें तो उसे "कश्यप जी" के "फत्तू" के साथ तौल सकते हैं.
कुछ लोग कड़े कानून की मांग भी करते हैं, जो कि एक हद तक सही भी लगता है कि पश्चिम की तरह बच्चों को प्रताड़ित करने की क्रिया को अवैध ठहरा दें. पर यदि पश्चिम के बच्चों को देखें तो हमें हमारे बच्चे अभी भी विश्व के सबसे अच्छे बच्चों में गिनने योग्य लगते हैं. अधिकतम बच्चों में गुरु और माता पिता के प्रति सम्मान और डर का भाव है और अनुशासित भी हैं. फिर भी यह असंगत न होगा यदि शिक्षकों को यह बात अच्छी तरह समझा दी जाये कि चाहे कुछ भी हो किसी बच्चे का अहित होने पर चाहे वो मानसिक हो या शारीरिक उन्हें उसका जिम्मेदार ठहराते हुए सजा दी जा सकती है.
बच्चोँ की शिक्षा बहुत जरुरी है और उन्से प्रेम उससे भी ज्यादा
ReplyDelete- लावण्या
वह 11 साल की बच्ची, सन्नो नाम था उसका, अब नहीं रही।
ReplyDeleteशिक्षकीय हिंसा में उसकी मौत हो जाने से कुछ अन्य संगीन मामले भी सामने आए हैं।
बच्ची की पोस्टमोर्टम रिपोर्ट आ चुकी है। डाक्टरों का कहना है कि बच्ची का शरीर किसी पूर्व बीमारी से पहले से ही बहुत कमजोर था। मारे-पीटे जाने और अप्रैल की धूप में (तापमान 44 डिग्री तक जा सकता है) तीन-चार घंटे खड़ा रखने से वह इसी कारण से मरी थी (कि वह पहले से ही बीमार थी)।
दूसरी बात जो सामने आई है, वह यह है कि मार खाकर और 3 घंटे धूप में खड़ा रहने के बाद जब बच्ची घर पहुंची, तो उसके मां-बाप ने उसे तुरंत डाक्टर के पास न ले जाकर नीम-हकीमों को पहले दिखाया। यदि वे उसे तुरंत किसी डाक्टर के पास या अस्पताल ले गए होते, तो शायद सन्नो आज जिंदा होती।
इससे ये सवाल उठते हैं:-
1. यदि सन्नो लड़का होता, तो क्या उसकी बीमारी के प्रति उसके मां-बाप इतनी लापरवाही दिखाते?
2. यदि सन्नो लड़का होता, तो क्या उसके मां-बाप उसे तुंरत डाक्टर के पास नहीं लेकर दौड़े होते?
सन्नो का यह दुखद कांड लड़कियों के प्रति हमारे समाज और परिवरार में जो क्रूर भेद-भाव होता है, उसे भी उजागर करता है।