न जाने क्या बात है कि स्त्रियाँ जो वर्षों से करती आ रही हैं उसे ही थोड़ा सा तोड़ मरोड़ के नए रूप में जब पुरुष करता है तो उसकी इतनी चर्चा होने लगती है। अब देखिए लगभग जब से सैन्डल का आविष्कार हुआ स्त्रियाँ उसका शस्त्र के रूप में उपयोग करती आई हैं। कभी किसी ने उसकी इतनी चर्चा नहीं की। मजाल है कि किसी ने उसे टी वी, समाचार पत्रों का प्रमुख समाचार बनाया हो या किसी पिटे या पिटने का कारण बने प्रत्याशी को चुनाव में खड़ा करते करते बैठाया हो। और यह तब जब निशाना सदा बराबर बैठा हो। परन्तु पुरुषों ने अपने जूते का अस्त्र के रूप में क्या उपयोग किया हंगामा ही हो गया। सारा संसार, टी वी, समाचार पत्र जूतामय हो गए। वह भी तब जब निशाना सदा ही चूका है। यदि सही लगता तो न जाने कितना हल्ला मचाते। फिर भी कहते हैं कि स्त्रियों के साथ बराबरी का व्यवहार होता है। हुँह !
कभी ध्यान से देखिए सैन्डल सुन्दर होते हैं। उनमें कभी जरी, कभी सितारे, मोती तो कभी अर्ध मूल्यवान (मध्यम मूल्यवान ) पत्थर जड़े होते हैं। वे नाजुक दिखते हुए भी खोपड़ी में छेद करने की क्षमता रखते हैं। उनमें से दुर्गन्ध नहीं आती। वे जूतों की तरह तंगदिल नहीं होते। यहाँ तक की वे जूतों की तरह बड़बोले न होकर बेजुबान होते हैं। तभी तो कोई उन्हें महत्व ही नहीं देता। जमाना अपना राग स्वयं अलापने का आ गया है। तभी तो जहाँ देखो जूता पुराण चल रहा है।
हमारी कुछ सहेलियों को लगा कि यह समता के सिद्धान्त के विरुद्ध है। यदि शस्त्र का कोई महत्व नहीं इस संसार में तो हम अपने सैन्डल को भी अस्त्र बनाकर ही रहेंगी। फिर यह हमारे सैन्डल की इज्जत का प्रश्न है सो वार चूकने भी नहीं देंगी। सो सोचा गया कि गर्मियों की छुट्टियों के चलते वैसे ही कोचिंग की कक्षाएँ उजाड़ पड़ी हैं, अध्यापिकाएँ खाली बैठी हैं। क्यों न कमरों व अध्यापिकाओं का सदुपयोग किया जाए और सैन्डल के साथ हुए अन्याय का बदला लिया जाए। सो अब वे अपनी कक्षा में सैन्डल को अस्त्र बनाने का प्रशिक्षण देंगी। साथ में स्त्रियों को निशानेबाजी की कला भी सिखाएँगी।
हम लोग यूँ ही ख्याली पुलाव बनाने में समय बर्बाद नहीं करतीं। बस फटाफट विज्ञापन व बैनर बन गए। अभी भी देर नहीं हुई है। यदि लड़कियों को कुछ लगकर प्रशिक्षण दिया जाए तो भाषणों का दौर खत्म हो इससे पहले ही हमारी लड़कियाँ सैन्डल रूपी अस्त्र के उपयोग में दक्ष हो जाएँगी। लड़कियों को छूट दी गई है कि अपने व अपने सैन्डल के मनपसन्द चेहरे /सिर का चित्र ब्लैकबोर्ड पर बनाएँ और फिर निशाना साधें।
दो दिन तो हो गए प्रशिक्षण मिलते हुए। लड़कियाँ तो हर क्षेत्र में अवसर मिलते ही अपने को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध कर देती हैं। अभी से ही उनका निशाना अचूक हो गया है। अब तो वे और सैन्डल दोनों ही अपना कमाल दिखाने को व्यग्र हो रहे हैं। बस आवश्यकता है तो एक ठो उपयुक्त सिर की। है कोई सुझाव ?
घुघूती बासूती
Sunday, April 12, 2009
सैन्डल अनन्त, सैन्डल स्कैन्डल अनन्ता !
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नाराज न हो तो एक बात कहूँ? चैरिटी बिगिन्स एट होम!
ReplyDeleteहाहाहा ! सुब्ह्मन्यम जी, जिसका सैन्डल उसी का सर !
ReplyDeleteअब सैन्डल वालियों से भी जब भयभीत कोई न हों तो मैं नाराज होकर भी क्या कर लूँगी? वैसे देखिए अब यह प्रक्षेपास्त्र बन गया है। सो सावधान !
घुघूती बासूती
अब जैसे इसी की याद दिलानी बाकी रह गयी थी -आप ने कमी पूरी कर दी ! यह जूती संधान -श्रेय आपको ही जायेगा !
ReplyDeleteसॆंडल पुराण का ये अंदाज़ नया और रोचक लगा. जूते में वह लोच , वह कमनीयता, और नज़ाकत नहीं , इसीलिये नेताओं पर एकदम फ़िट है. बाकी मजनूंओं का क्या अनुभव है, ये तो वहीं बतायेंगे.
ReplyDeleteगजब का मुद्दा उठाया आपने। बधाई।
ReplyDeleteस्त्री के सैण्डल शस्त्र और पुरुष के पादुका प्रहार में कुछ मौलिक अन्तर है:
१. लोच, कमनीयता, नजाकत - बकौल दिलीप कठवेकर जी
२. सैण्डल: नाजुक, दुर्गन्धरहित, दिलदार । जूते: कठोर, दुर्गन्धयुक्त, तंगदिल (बकौल घुघूती जी)
३. सैंडल का प्रयोग स्त्री द्वारा उसके साथ नितान्त व्यक्तिगत अन्याय करने वाले के विरुद्ध ही किया जाता रहा है। लेकिन पुरुषों ने जूते का प्रयोग सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों पर आम जनता या एक बड़े जन समुदाय के साथ अन्याय करने वालों के विरुद्ध किया है।
४.पुरुष ने बाकायदा टीवी कैमरों के सामने पहले से ही प्रसिद्ध महापुरुषों(VIPs) के विरुद्ध इस हथियार का प्रक्षेपण किया है। जबकि स्त्री की सै्ण्डिल लोकल लेवेल के टुटपुंजिए टुच्चों और मवालियों तक ही पहुँच पायी है।
५. विश्व के सबसे बड़े नेता के विरुद्ध ईराक से शुरू होकर भारत में चुनावों के समय इसका प्रयोग यह बताता है कि इसकी लान्चिंग बड़े विधिविधान और योजनाबद्ध तरीके से हुई है। सैण्डिल वालियों की तरह बिना सोचे-समझे इसे नहीं चलाया जा रहा है।
नोट: यदि विस्तृत जानकारी चाहिए तो देखें: पं.इष्टदेव सांकृत्यायन कृत ‘अथातो जूता जिज्ञासा’ की पचास कड़ियाँ ‘इयत्ता’ ब्लॉग पर।
ise kahte hain vastwaweek vyangya. Aapne to juta-katha kee dhara hee mode dee. juttam-paijjar ras ke aadee aapko mahilawaadee kah sakte hain... lekin main kahunga kee desh me laingik mudde par aapadmastak bahas kee jaroorat hai.
ReplyDeleteसेण्डलास्त्र से भगवान बचाये! यह नाभिकीय हथियार से कम न होगा! :)
ReplyDelete'आवश्यकता है तो एक ठो उपयुक्त सिर की।'
ReplyDelete-यह बात मौजूं नहीं लगी. भारतीय राजनीति में तो ऐसे उपयुक्त सिर और चेहरों की कोई कमी नहीं.
हेम जी, आप भूल रहे हैं कि सैन्डल का भी कुछ स्तर, कुछ आत्मसम्मान होता है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
लीजिए, पुरुषों का स्त्रीकरण हो गया! अब तो खुश!
ReplyDeleteलीजिए, पुरुषों का स्त्रीकरण हो गया! अब तो खुश!
ReplyDeleteमुद्दा बहुत जायज है पर, इसका समाधान स्त्रियों के पास हीं है.
ReplyDeleteवैसे आपकी पिछली रचनाओं में कई पात्र हैं, जहाँ इसका प्रयोग बखूबी हो सकता है
जूते और अब सैंडलों से बचने के लिये आने वाले दिनो मे सारी प्रेस-कान्फ़्रेंस मंदिरो मे आयोजित की जायेंगी ताकी सारे पत्रकार पहले ही जूते-चप्पल और सैंडल उतार कर आयें॥
ReplyDeleteजूते और अब सैंडलों से बचने के लिये आने वाले दिनो मे सारी प्रेस-कान्फ़्रेंस मंदिरो मे आयोजित की जायेंगी ताकी सारे पत्रकार पहले ही जूते-चप्पल और सैंडल उतार कर आयें॥
ReplyDeleteइस नये सैन्डल मिसाइल से सर बचा के रखिये जी ..राजनेता ऐसे ढीढ हैँ कि पिटते हैँ और फिर भी कुर्सी की तरफ बढ जाते हैँ
ReplyDelete- लावण्या
आप ने इस प्राचीन अस्त्र का खूब ध्यान दिलाया। वैसे चप्पलें कैसी रहतीं। सैण्डल तो नाम से पुरुष जाति का है। इस प्राचीन अस्त्र से बचने के अभ्यास के चलते ही निशाने अब तक बचते रहे हैं, वरना ......
ReplyDeletemujhe lagtaa hai ki aapkee is post se prerit hokar saindal aur jutiyon kaa daur bhee shuru hone waalaa hai , yadi kisi media wale ne dekh padh liya to kal kee exclusiv khabar bhee ban saktee hai ye.
ReplyDeletemudda achcha hai
ReplyDeleteज्ञानदत्त पाण्डेय | Gyandutt Pandey ने कहा… के विचारो से जोड ले
ReplyDeleteआभार जी
HEY PRABHU
आपने एक जायज मुद्दा उठाया !!
ReplyDeleteहम तो कई बार सैंडलों को आक्रामक स्थिति में देख चुके हैं !!
विस्तृत संधान के लिए शुक्रिया !!
शायद इसीलिए अब काफी नुकीली सैंद्लें आ रही हैं बाजार में शायद मिसाइल नुमा ??/
अनिल जी ने सही कहा अब प्रे-कान्फ्रेंस मंदिरो मे हुआ करेंगी, जय सैन्डल की!
ReplyDeleteबहुत ख़ूब!:)
ReplyDeleteलगता है आपने सपने मे जय ललिता जी का सैअंडल कलेकेशन देख लिया है :)
ReplyDeleteसैन्डल में दम तब माने जब किसी नेता पर चले
ReplyDeleteमजेदार लेख। सैंडल वाकई धारदार हथियार है, ये आपके लेख के आधार पर कह रहा हूँ, न कि अपने अनुभव के आधार :)
ReplyDeleteबहुत सुंदर ख्याल है.:)
ReplyDeleteरामराम.
मैने हैलमेट पहन लिया है,....
ReplyDeleteजो भी हो, सैण्डल तो भावी प्रेमियों और भावी पतियों पर ही चल सकता है. नेताओं पर चलाना तो इसकी औक़ात कम करना ही होगा - क्योंकि वे तो सड़े टमाटरों-अंडो के काबिल भी नहीं !
ReplyDeleteAise mein to kahin blog par tippani karna bhi khatre se khali na ho jaye!
ReplyDeleteरवि रतलामी जी के माध्यम से आपकी सेंडल कथा आज पढ़ने का मोक़ा मिला, डराने वाला होकर भी रोचक लगा.दोनो अस्त्रो [जूता / सेंडल]के चलाने मे जो अंतर है उस पर किसी का ध्यान नही गया. पहले से फेंक कर काम लिया जाता है तो दूसरे को हाथ मे थाम कर ही प्रहार किया जाता है, अधिकतर.क्योकि सेंडल का प्रहारक कितना ही बहादुर क्यों न हो वह ये ख़तरा मौल लेना नही चाहता कि उपयोग उपरांत उसका अस्त्र अप्राप्य रह जाए,वह नंगे पाँव लौट्ने की कल्पना भी नही कर सकती. [हाय रे! नाज़ुक लोगो की मजबूरी]. निकट से किया गया प्रहार अचूक तो रहेगा ही [तारीफ की क्या बात?]. और फिर ये निकटता ही तो विकटता को दावत देती है,कभी-कभी . फिलहाल तो आपकी रत्न-जडित सेंडल से अनेक घायल हो गये और आप सेंडल बचाने मे कामयाब भी रही, बधाई.
ReplyDelete-मंसूर अली हाशमी
नेतागण लोहे की जालियों के पीछे से भाषण देने लगे हैं। टिप्पणीकर्ता हेलमेट पहनकर टिप्पणी लिख रहे हैं। बाकी सब घरों में छिपकर बैठ गये हैं। अब सोच लीजिये, बचा कौन? ;)
ReplyDelete(आपका लिखा व्यंग्य बहुत पसंद आया)
धन्य हुआ जूता कि आपने लिखा...धन्य हुए हम कि हमने पढ़ा. गजब का आलेख. सैंडिल की हथियार उपयोगिता सुनी तो थी किन्तु ऐसे!!
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