बचपन से सुनती आई हूँ 'जाको राखे साँइया मार सके न कोय।' सदा आश्चर्य होता था कि यह साँई कैसे निर्णय करता है कि किसको रखना है किसको मारना है। ऐसा क्यों होता है कि कुछ लोग उसके प्रिय बन जाते हैं और कुछ नहीं। क्या वहाँ साँई के घर में भी पक्षपात होता है? कल एक समाचार पढ़ा तो वही बचपन की सुनी कहावत याद आ गई 'जाको राखे साँइया मार सके न कोय।'
एक २२ वर्षीय रूसी आदमी अपने दो मित्रों के साथ वोडकापान कर रहा था। एलेक्सी व उसके मित्रों ने मिलकर तीन बोतलों को खाली कर दिया। कितने मिली लीटर की बोतलें थीं यह तो नहीं पता परन्तु नशा कुछ इतना चढ़ा कि उसने रसोई की खिड़की खोली और बाहर छलाँग लगा दी। उसकी घबाराई पत्नी सीढ़ियाँ उतर कर बाहर भागी। परन्तु उसके पहुँचने से पहले ही एलेक्सी उठा और वापिस घर पहुँच गया। जब तक एम्बुलैंस पहुँची उसने फिर से रसोई की खिड़की से छंलाग लगा दी। उसे हल्की चोटें ही लगीं। साँई जी की याद मुझे इसलिए आई क्योंकि वह पाँचवी मंजिल से कूदा था और एक बार नहीं, दो बार!
जब नशा उतरा तो उसे उसके कारनामे बताए गए। एलेक्सी पीने की आदत छोड़ने की सोच रहा है।
परन्तु मैं सोच रही हूँ कि क्या कारण होगा कि साँई उस पर इतना मेहरबान हुआ। छोटे छोटे बच्चे अजीब अजीब कारणों से मर जाते हैं। बिजली गिरने से, नाले में या नाली के ढक्कन चुरा लिए जाने से उसमें गिरने से, घर में आधी बाल्टी पानी में डूबकर, दंगों में, जुलाब लगने से या जन्म लेते समय ही मर जाते हैं। उन्होंने क्या बुरा किया होगा और एलेक्सी ने क्या भला किया होगा?
लगता है साँई के यहाँ या तो सबकुछ अललटप्पू (अटकलपच्चू,यादृच्छिक, random) है या वहाँ के कामकाज में भारी धाँधली है। या तो उसके यहाँ भी कर्मचारियों की कमी है या उनका भी कोई मजदूर संघ है जो हड़ताल किए हुए है। हो सकता है कि उनका मानव संसाधन विभाग बहुत खस्ता हाल है। वैसे भगवान के दरबार में यह मानव संसाधन विभाग कहलाएगा या देवता संसाधन विभाग या फिर भगवान (कनिष्ठ) संसाधन विभाग? कुछ समझ नहीं आता।
लगता है कि हमारे पूर्वज भी किसी ऐसी ही घटना से प्रेरित हुए होंगे और उन्हें भगवान का विचार नकारना पसन्द नहीं आया होगा। तब उन्होंने पुनर्जन्म व कर्म के सिद्धान्त की कल्पना की होगी। शायद ये एलेक्सी साहब पिछले जन्म के जबर्दस्त पुण्यात्मा रहे हों।
मुझे तो सबकुछ अललटप्पू (अटकलपच्चू,यादृच्छिक, random) है वाले सिद्धांत में ही अधिक दम लगता है। हमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक सबकुछ क्रिया और प्रतिक्रिया के सिद्धांत और अधिकतर सबकुछ अललटप्पू वाले सिद्धांत पर चलता रहता है। कब कौन सा सिद्धान्त उपयोग होता है यह सिवाय सबकुछ अललटप्पू सिद्धांत के और किसी बात पर निर्भर नहीं करता।
एक अनुमान और है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि मदिरापान से मन के साथ साथ शरीर भी हल्का हो जाता है या फिर मन की तरह शरीर भी उड़ने लगता है? परन्तु प्रत्येक परिकल्पना को सिद्धान्त घोषित करने से पहले उसे जाँचना पड़ता है। यहाँ कई कठिनाइयाँ हैं। एक तो अपने पास यह प्रयोग करने को एक ही शरीर है। दूसरा दुमंजिले से अधिक ऊँची कोई इमारत नहीं है। (अपनी तो इकमंजिला ही है, अब किसी अन्य के मकान की छत पर चढ़कर या उसकी रसोई की खिड़की खोलकर तो यह प्रयोग हो नहीं सकता!) तीसरा गुजरात में ऐसा प्रयोग करना असंभव है। सो मैं तो सिद्ध न कर पाने की स्थिति में अपना मत, मतदान की इस पावन ॠतु में, अललटप्पू सिद्धांत को ही देती हूँ।
वैधानिक चेतावनीः
कृपया कोई भी परिकल्पना सिद्ध करने की चेष्टा न करें। यह चेष्टा प्राणलेवा हो सकती है।
किसी पशु पर भी यह सिद्ध करने की चेष्टा न करें।
घुघूती बासूती
Saturday, April 11, 2009
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वैधानिक चेतावनीः
ReplyDeleteकृपया कोई भी परिकल्पना सिद्ध करने की चेष्टा न करें। यह चेष्टा प्राणलेवा हो सकती है।
किसी पशु पर भी यह सिद्ध करने की चेष्टा न करें।
मान ली आपकी बात
हमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक सबकुछ क्रिया और प्रतिक्रिया के सिद्धांत और अधिकतर सबकुछ अललटप्पू वाले सिद्धांत पर चलता रहता है।
ReplyDeleteहम तो इसी में विश्वास रखते हैं जी.
काफी कुछ सोचने के लिये मजबूर करता है अललटट्पु
ReplyDeleteसिध्दांत ...............परमात्मा लोक की यात्रा काफी रोचक है ................वाकई भागवान कर्म के अनुसार फल देता है ..............यह सच है या गलत सही मे विचार विमर्श का विशय हो सकता है..........
काफी कुछ सोचने के लिये मजबूर करता है अललटट्पु
ReplyDeleteसिध्दांत ...............परमात्मा लोक की यात्रा काफी रोचक है ................वाकई भागवान कर्म के अनुसार फल देता है ..............यह सच है या गलत सही मे विचार विमर्श का विशय हो सकता है..........
काफी कुछ सोचने के लिये मजबूर करता है अललटट्पु
ReplyDeleteसिध्दांत ...............परमात्मा लोक की यात्रा काफी रोचक है ................वाकई भागवान कर्म के अनुसार फल देता है ..............यह सच है या गलत सही मे विचार विमर्श का विशय हो सकता है..........
नो-वोट का विकल्प है।
ReplyDeleteअगर कभी वोदका पी तो मैं शायद कुछ बता पाउं। लेकिन लगता यही है जो आपने कहा है। अपना वोट आपके सिद्धांत को।
ReplyDeleteवैधानिक चेतावनीः
ReplyDeleteकृपया कोई भी परिकल्पना सिद्ध करने की चेष्टा न करें। यह चेष्टा प्राणलेवा हो सकती है।
किसी पशु पर भी यह सिद्ध करने की चेष्टा न करें।
बिल्कुल आपकी बात मान कर गौर की जाएगी
अपने आप को बचाने की कोशिश ज्यादा जानलेवा होती है. नशे में कोशिश नहीं की और बच गया.
ReplyDeleteनहीं जमी बात? कोई बात नहीं....
अललटट्पु सिध्दांत ---ही कर्म करने को प्रेरित करता है..फिर चाहे जो भी होगा अच्छा ही होगा...
ReplyDeleteमानव की स्वाभाविक प्रवृति है कि उसे जिस बात को करने से रोका जाए वह उसी को करने की सोचने लगता है...:)
हमारे जितने नेता हैं वे अनवरत हलके बने रहते हैं. द्विवेदी जी ने उपाय सुझाया है.
ReplyDeleteकुछ बाते तो जरूर सोंचने को मजबूर कर देती हैं ... जहां रेलवे कर्मचारी की लापरवाही से हुई दुर्घटना उतने लोगों को मौत के मुंह में ले जाती है ... वहीं ऐसी घटनाएं भी घटा करती हैं जहां अपनी गलती के बावजूद कुछ गडबड नहीं होता।
ReplyDeleteयह जरूर चौकानें वाली बात है .
ReplyDelete(1) पहली छलांग तक चांस कहता ! पर दूसरी से लगता है कि ईश्वर है और नियति भी है !
ReplyDelete(2) सलाह का शुक्रिया , लेकिन हिन्दुस्तानी होने के नाते ये एक्सपेरीमेंट मैं खुद पर करने के बजाये किसी रसियन पर ही करना पसंद करूंगा !
(3)यदि उचित समझें तो बतायें, कि समाज विज्ञान से आपका कोई सरोकार है ? या ये मेरा भ्रम मात्र है ?
एक अनुमान और है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि मदिरापान से मन के साथ साथ शरीर भी हल्का हो जाता है या फिर मन की तरह शरीर भी उड़ने लगता है?
ReplyDeleteमुझे तो आपकी इस बात मे कुछ तर्क दिखाई देता है..पर आपके जैसी ही मजबूरी है..प्रयोग नही कर सकते.
रामराम.
apki post ki charcha sirf mere blaag me
ReplyDeleteसमयचक्र: चिठ्ठी चर्चा : जो पैरो में पहिनने की चीज थी अब आन बान और शान की प्रतीक मानी जाने लगी है
गुजरात के बारे में आपका ज्ञान कच्चा है। यहां इस तरह के प्रयोग करने के लिए सभी साधन-सुविधाएं उपलब्ध हैं।
ReplyDeleteपाप- पुण्य कर्म का फल और सिध्धाँत ये सब ज्ञानी योगी , बहुत पहुँचे सिध्ध ही जानते हैँ
ReplyDeleteहम जैसोँ के लिये , प्रश्न ही हैँ !
- लावण्या
हो भी सकता है.............सोचने वाली बात है।
ReplyDeleteअली जी, कुछ भी पूछ सकते हैं, बस उत्तर देना अनिवार्य न हो तो ! चयनाधिकार में भारी आस्था है।
ReplyDeleteमेरा समाजशास्त्र से आज तो उतना ही सरोकार है जितना किसी सामाजिक प्राणी का होता है। हाँ, कुछ दशाब्दियों पहले यह विषय भी ढेर सारे विषयों में से मेरे पाठ्यक्रम का हिस्सा था। बड़ी बहन ने इस विषय में पी एच डी की थी व विश्वविद्यालय की व्याख्याता थीं। कुछ जीन्स का चक्कर हो सकता है।
घुघूती बासूती
अललटप्पू सिद्धांत पर विचार किया. भरोसा करने के लिए भी तैयार हो गया. फिर सोचा कि बहुत सारी बातें अन-एक्स्प्लेंड रहती है. ऐसे में शायद यह बात भी उनमें से एक हो.
ReplyDeleteआपने बहुत बढ़िया लिखा है.
घुघूती जी , मैं सारे इंसानों के चयनाधिकार का सम्मान करता हूं ! इसीलिए मैंने लिखा था "यदि उचित समझें तो बतायें" ! सुखद अनुभूति आधारित प्रश्न था, आपने उत्तर दिया, मैं आभारी हूं ! सच कहूं तो उत्तर पढ़ कर बहुत देर तक हंसता रहा ! आखिर अनुभूति का सच हो जाना किसे अच्छा नहीं लगता ?
ReplyDeleteइश्वर तो मानव-कल्पना की उपज है, और मानवीय चीजों से शिकायत होना मानवीय गुण(?)है:)
ReplyDeleteरोचक!
ReplyDeleteहमारे जन्म से लेकर मृत्यु तक सबकुछ क्रिया और प्रतिक्रिया के सिद्धांत और अधिकतर सबकुछ अललटप्पू वाले सिद्धांत पर चलता रहता है।
ReplyDeleteलगता तो ऐसा ही है ।
आपकी बात सही है...भगवान् के यहाँ का कारोबार बस यूँ ही अललटप्पू ही चल रहा है...क्यूँ की उसके यहाँ से ऐसी ऐसी भीषण गलतियाँ होती हैं की इंसान कभी सपने में भी सोच नहीं सकता...इसे कहते हैं कम्प्लेसेंसी...भगवान् को मालूम है की उसका कोई विकल्प नहीं इसलिए जो मन में आये करता है...और उसके ठेकेदार या चमचे उसके हर काम को जस्टी फाई करदेते हैं बस इसे से चलरहा है ऊट पटांग उसका कारोबार...
ReplyDeleteनीरज