गाय के नाम पर ही सही
न जाने कितने समय से हमें बताया जा रहा है कि पॉलीथीन की थैलियाँ हमारे पर्यावरण के लिए बहुत घातक हैं। परन्तु कोई भी अपनी इस जरा सी सुविधा को त्यागने को तैयार नहीं है। हरेक को सामान पॉलीथीन में ही चाहिए। अब तो हाल यह है कि आप न चाहें तो भी दाल, चावल, गेहूँ, हर वस्तु पहले से ही पॉलीथीन में पैक होकर आती है। फिर जब आप खरीददारी कर चुकें तो इस सब सामान को रखने को एक और बड़ा सा पॉलीथीन मिलता है। सब्जी वाले अलग पतली कमजोर पॉलीथीन की थैलियों में सब्जी देने को तैयार रहते हैं। मुझ जैसे लोग को अपने कपड़े के थैले आगे करते हैं उन्हें वे आश्चर्य से देखते हैं।
मुझे सुपर मार्केट्स, मॉल आदि से भी कोई समस्या नहीं है। समस्या है तो उनकी हर सामान के लिए दिए जाने वाली बड़ी बड़ी पॉलीथीन की थैलियों से ! यहाँ जाओ तो आराम से सब्जी आदि खरीदी जा सकती है। सब्जी तुलवाने के लिए डालने के लिए पॉलीथीन की थैलियों का अनन्त गोल गोल लिपटा हुआ थान सा रहता है। एक एक सब्जी के लिए निकाले जाओ, डाले जाओ। फिर जब बिल बन रहा होता है तब इनको बड़े बड़े पॉलीथीन की थैलियों में डाला जाता है। कहीं कहीं तो इन्हें गरम लोहे पर लगाकर इस तरह पैक किया जाता है कि इनका दोबारा उपयोग नहीं कर सकते।
कमी थी तो हर वस्तु पाउच में आती है। शैम्पू से लेकर, सुपारी, गुटखे तक सबकुछ। उपयोग करिए और फैंकिए। कहीं भी फैंकिए। साफ करने के लिए कौन आएगा इसकी चिन्ता मत करिए। कुछ कुछ गीता के ज्ञान के अंदाज में। हे भारतीय, तू तो बस अपना गुटखा खा और पाउच सड़क पर फैंक, सफाई की तू चिन्ता मत कर (कैंसर की भी नहीं)। खैर, कैंसर की पीड़ा तो आपका निजी मामला है किन्तु यह सड़क, यह धरती, यह तो सार्वजनिक है। इसपर तो रहम कीजिए। पाउच गरीबों के लिए शायद वरदान साबित हुए हैं। मुझे याद है कर्नाटक में यदि शनिवार को स्कूल छूटते समय दुकान पर पहुँच जाओ तो छात्र छात्राओं की भीड़ शैम्पू के पाउच खरीदने को लग जाती थी। सौ रुपए के लगभग की शैम्पू की बोतल न खरीद पाने वाले एक रुपए का पाउच तो खरीद ही सकते थे। परन्तु दुख तब होता है जब हम बड़ी बोतल खरीद सकते हैं और फिर भी पाउच खरीदते हैं। काश, ये शैम्पू भी होम्योपैथिक दवाओं की शीशियों जैसी शीशियों में मिलते। काँच का कम से कम पुनः उपयोग तो हो सकता है।
हमारे माता पिता भी तो कपड़े के थैलों में समान लाते थे। क्या अपने साथ थैली ले जाना इतना कठिन हो गया है? हम अपनी कार, स्कूटर आदि में कपड़े के थैले या पहले के घर में पड़े पॉलीथीन के थैले रख सकते हैं ताकि जब भी कुछ खरीदना हो इनका उपयोग कर सकें।
सारे शहर, गाँव पॉलीथीन की थैलियों से अटे पड़े हैं। सड़कें, नालियाँ, कूड़े के ढेर सब इनसे भरे हुए हैं। नालियों में पानी आगे नहीं सरकता। मुझे याद है कि जब एक नदी में बाढ़ आई थी तो उसके बाद आस पास की सारी झाड़ियाँ, पेड़ वनस्पति इनसे सुशोभित थे। पहले जहाँ जंगली पौधों पर फूल दिखते थे अब वहाँ पॉलीथीन की थैलियाँ दिखती हैं। बरसात का पानी नालियों, नालों से निकल नहीं पाता। पहले तो केवल भूमि के कटाव व बहाव से नदियाँ कम गहरी होती जा रही थीं अब ये पॉलीथीन की थैलियाँ और आ गईं हैं।
लाख कानून बना लें, इनकी खपत दिन पर दिन बढ़ती ही जा रही है। राजकोट में कुछ समय पहले भी कपड़े की थैलियों का अभियान चलाया गया था। २४ दिसम्बर के टाइम्स औफ इंडिया में खबर आई थी कि पॉलीथीन के उपयोग पर रोक लगाने व कपड़े की थैलियों का प्रचार करने के लिए राजकोट नगर निगम कम दामों में सब्जी बेचने वालों व दुकानदारों को कपड़े की थैलियाँ मुहैया कराएगी। 'एश्वर्य महिला उद्योग सहकारी मंडल' पुराने व फालतू बचे कपड़ों की धुलाई कर इनसे पाँच किलो समान लायक कपड़े के थैले एक रुपए में उपलब्ध करा रहा है। परन्तु यह कितना सफल हुआ कह नहीं सकती।
हमारे देश में कुछ भला करना हो तो लोगों को विज्ञान या लोक कल्याण या पर्यावरण की दुहाई देना बेकार है। यदि किसी उद्देश्य को पाना हो तो बात को थोड़ा सा धार्मिक रंग दे दो और देखो बात बनने की सम्भावना बढ़ जाती है। अब लगता है कुछ बात बनेगी। सबको पता तो था किन्तु अब और बताया जा रहा है कि कचरे के साथ हमारी गौ माताएँ पॉलीथीन भी खा लेती हैं। इससे वे कितना पौष्टिक दूध दे पाती हैं यह तो पता नहीं किन्तु जब उनके पेट में इसकी मात्रा बढ़ती जाती है तो उन्हें कष्ट होता है। अब सैकड़ों लोगों के सामने पशु चिकित्सक ऐसी गायों का औपरेशन करके ये पॉलीथीन की थैलियाँ निकाल रहे हैं। हाल में ही एक गाय के पेट में से ३५ किलो तो दूसरी के पेट से ८० किलो पॉलीथीन व प्लास्टिक निकाला गया।(क्या यह सम्भव है?) 'श्री खिरक गौसेवा चैरिटेबल ट्र्स्ट' अब लोगों में जन जागरण फैलाएगा कि पॉलीथीन व प्लास्टिक हमारे पर्यावरण व हमारी गायों के लिए कितना हानिकारक है। अब यदि गाय के प्रति श्रद्धा के कारण ही लोग पॉलीथीन का उपयोग कम कर दें तो यह धर्म व धार्मिक भावनाओं का एक सकारात्मक उपयोग होगा। पोरबंदर व वैरावल के मछुआरे नाविक मुरारी बापू के आग्रह पर शार्क- व्हैल की रक्षा करने का वचन ले चुके हैं व जब ये मछलियाँ इनके जाल में फंसती हैं तो वे उन्हें स्वतन्त्र करने को अपने पचास हजार रुपए के जाल भी काट देते हैं। उन्होंने मछुआरों को बताया कि जैसे आपकी बेटियाँ गर्भावस्था में अपने मायके आती हैं वैसे ही ये मछलियाँ भी प्रजनन के लिए आपके तट पर आती हैं। उनकी बात मानने से शार्क- व्हैल की लुप्त होती जाति की रक्षा हो रही है। यदि 'श्री खिरक गौसेवा चैरिटेबल ट्र्स्ट'के धार्मिक प्रचार से हमारी गायों के साथ साथ हमारी धरती की भी रक्षा हो जाए तो मैं उनकी आभारी रहूँगी।
घुघूती बासूती
Sunday, March 29, 2009
गाय के नाम पर ही सही
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Dilli main Polythene ban to ho gayi hai lekin, iska asar "Aggrawal Sweets' Ya "UCB" ya kisi mall jaise bade sansthanon main hi dekhne ko milta hai. Bade star par laago karne ke liye, Kanoon ki nahi , Jagrookta ki avshyakta hai.
ReplyDeleteKewal polythene hi nahi, Sarvajanik sthan par "Dhoomrapaan" , "madripaan" karke vahan chalana, Kisi bhi sthan par "Laghu Shanka" aadi sabhi ban hai, Par Maine to "Katl" aur "Loot" bhi sarvajanik hota dekha hai...
बहुत दिन से इसका प्रयास हो रहा है परन्तु वही बात है कि -मुद्हूँ आँख कतहुं कछु नाहीं. पता नहीं कब लोग सुधरेंगे .
ReplyDeleteअनुकरणीय अभियान !
ReplyDelete...aur to aur doodh bhi "Mother dairy" wale polythene main dete hai.
ReplyDeleteDilli hi nahi mere grah rajya Uttarakhand main to aur bhi buar haal hai.
एक गंभीर समस्या है पोलीथिन ,छोटे छोटे पाउच बड़ी बड़ी रुकावट पैदा कर रहे है . शहरो मे बंद नालियाँ और गाँव मे जमीं को बंजर कर रही है यह वस्तुए . जब तक हम जागरूक नहीं होंगे तब तक कुछ नहीं हो सकता . एक मन्त्र है खुद सुधरोगे जग सुधरेगा
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक और सामयिक सुझाव। साधुवाद।
ReplyDeleteधार्मिक प्रचार से यह सब रुक जावे तो बहुत बड़ी बात होगी.हम कुछ वरिष्ट नागरिक हर माह वन भोज के लिए जाते हैं. हर बार आस पास से सभी पोलीथिन आदि कि सफाई भी करते है और उन्हें इकठ्ठा कर ले आते हैं. पहले तो यह काम हम अकेले ही किया करते थे. देख देख कर कुछ मित्रों को शर्मिंदगी हुई होगी तो और भी लोग साथ देने लगे.
ReplyDeleteपॉलिथिन को रोकने का यह अच्छा तरीका हो सकता है।
ReplyDeleteआप थैला ले कर सामान लेने जा सकते हैं। पर आप सामान की प्लास्टिक की मूल पैगिंग का क्या करेंगे। समाधान शायद प्लास्टिक की बायोडीग्रेडेबल वेराइटी के अनुसंधान में निहित है। तब तक हर व्यक्ति को अपना योगदान दे कर कम से कम प्रयोग करना होगा।
ReplyDeleteबहुत बडी समस्या की ओर आपने ध्यान आकृष्ट करवाया है ... यह समस्या दिन ब दिन बढती ही जा रही है ... पोलीथीन में सामान लाने वाले अपने को आधुनिक समझते हैं ... कपडे के बैग में सामान ढोनेवालों को पिछडा ... हमने यह भी पाया है कि जिन छोटे दुकानदारों के पास पोलिथीन नहीं होती ... उसकी बिक्री कम होती है ... बडी मुश्किल है इस देश में सही बात को भी समझा पाना ... पढे लिखे लोग भी बेवकूफों की तरह व्यवहार करते हैं ... अनपढों के बारे में क्या कहा जाए।
ReplyDeleteघुघूती जी,जीवन शैली स्वकेंद्रित हो गयी है, जहाँ हमें ये सोंचने को फुर्सत नहीं कि आने वाली पीढियों को किन तरह की समस्याएं झेलनी पड़ेंगी. चाहे वो मामला पोलीथिन का हो, पेट्रोल का हो, pestiside का हो या कुछ और. और देश भी ऐसा कि न जहाँ कानून की पालना न डर.
ReplyDeleteवास्तव में पॉलीथीन की थैलियों के कारण सबसे अधिक कष्ट गायों को ही भोगना पड़ रहा है। किन्तु इसके पीछे सिर्फ हमीं लोगों की लापरवाही है क्योंकि हम पॉलीथीन की थैलियों को बिना सोचे विचारे कहीं पर भी फेंक देते हैं।
ReplyDeleteइंशा जी उठो, अब कूच करो..
ReplyDeleteकुछ समस्या सिर्फ समाज की सामूहिक सोच से ठीक हो सकती है
ReplyDeleteपोलिथीन पर रोक लगाने के साथ साथ, उसके "disposal" पर भी ध्यान होना चाहिए। ये पोलिथीन सडकों पर कैसे पहुँच जाते हैं? अगर सारा पोलिथीन कचरे के बजाए रद्दी वले को दिया जाए, तो ऊपरोक्त परेशानियाँ नहीं आयेंगी। उदाहरण के लिए, अपनी दूध की थैलियों को कचरे में न फेंकें - इकट्ठा कर लें और रद्दी वले को दे दें - थोडी कमाई भी हो जएगी बैठे बिठाए!
ReplyDeleteएक बहुत जरूरी पोस्ट ।
ReplyDeletepolithin kaise hamare jiwan-sankat ka karan bante ja raha hai. ek uchit shoch ko prastut karane ke liye saadhuwad....
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक एवं अनुकरणीय प्रयास.....
ReplyDeleteसही लिखा है आपने,........प्लास्टिक से जहां इंसान को फायदा हुवा है वहीं पोलीथिन के बैग और कूड़े कचरे में फैंके जाने वाली cheejon से नुक्सान भी होता है, हमारे पर्यावरण, और जीव जंतुओं को भी इंसान का किया ढोना पढता है. आपके लेख में सही लिखा है हमारे देश में चेतना की बहुत कमी है पर धर्म के नाम पर सब लोग भेड़ चाल की तरह सब कुछ मान जाते हैं. इस तरह का प्रचार और वो भी जाने माने संत करेंगें तो सुधार होने की सम्भावना बढ़ जाती है.
ReplyDeleteउत्तम विचार है की इस को गाऊ बचाओ अभियान में शामिल करना चाहिए और प्रचार करना चाहिए की प्लास्टिक का उपयोग गाऊ माता के लिए खतरा है.
आपने बहुत ही सार्थक बात कही गई. कुछ नही करने से कुछ तो करना बंद नही कर सकते ना.
ReplyDeleteपर पोलिथीन की समस्या बडी विकट होती जारही है. इस तरह की जागरुकता बढाने वाली पोस्ट लिखी जानी चाहिये. बहुत धन्यवाद.
रामराम.
बहुत अच्छी पोस्ट लिखी है आपने। सचमुच अगर गौमाता के नाम पर या किसी स्वामी के सद्प्रयासों से पर्यावरण की रक्षा होती है तो हम उनके समक्ष नतमस्तक हैं। ये बात तो सही है कि राम के नाम पर; धर्म के नाम पर हमारा जनमानस जल्दी समझता है।
ReplyDeleteहम सभी अगर सोच ले कि हम ही बदलाव ला सकते हैं तो बदलाव निश्चित है...
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक मुददा उठाया है आपने सच में यह हमारे लिए शर्मनाक और दुख की बात है हम आप और सभी भुटटे छलली हमेशा घर लाकर भूनते थे लेकिन अब वो भी पैकेट बंद आ गई इस मामले में हिमाचल अच्छा है कम से कम सब्जी लेने जाओ तो घर से थैला लेकर जाओ या फिर कागज के लिफाफे में लाओ
ReplyDeleteहम स्वयं करें , समाज और अन्य को न देखें ।
ReplyDeleteभारत मै यह बीमारी इस कद्र फ़ेले गी मेने कभी सोचा भी ना था, लोग भी बिना देखे थेलियो को इधर उधर फ़ेक देते है, इस का बस एक इलाज है अगर सरकार चाहे ( यह इलाज युरोप मे काफ़ी समय पहले हो चुका है ओर कामयाब है)पलस्टिक की थेली दुकान दार फ़्रि मै ना देकर पांच रुपये से ज्यादा कि बेचे, थेली इतनी मजबुत हो कि कम से कम चार, पांच किलो का वजन सहन कर सके, ओर थेली वापिस करने पर पेसे वापिस (पानी की बोतलो के साथ भी यही हो )फ़िर देखे कोन फ़ेकता है थेलियां , बोतले...
ReplyDeleteधन्यवाद
इस गम्भीर समस्या के प्रति हम जरा भी गम्भीर नहीं हो पाए हैं। यही स्थिति इस समस्या को दुर्निवार बना देती है। ऐसे विचारों के प्रसार से शायद कुछ जागरूकता आये।
ReplyDeleteबहुत सही लिखा आपने।कपड़े के थैले अब तो याद बन कर रह गये हैं।प्लास्टिक ने बुरी तरह जकड़ लिया है।समय रह्ते इससे छुट्कारा ज़रूरी है।
ReplyDeleteसही कहा कि किसी चीज़ को आम जनता तक पहुचाने का ठीक-ठाक माध्यम धर्म ही है। पुरना ज़माने में पीपल को पूजने से लेकर नदियों और बरसात की उपासना इसी का सुबूत है। धर्म के बहाने अच्छे काम कम ही होतें हैं, लेकिन होते हैं तो बेहतर...।
ReplyDeleteगुस्ताख
पॉलीथीन एक ऐसी वस्तु है जो वर्षो जमीन में रहने के बाद भी सड़्ती-गलती नहीं है। पर्यावरण की यह एक नम्बर की दुश्मन है।
ReplyDeleteI just have two links to share!
ReplyDeleteLink 1:
Link 2:
Thanks
~A
sahi kaha ...kisi bhi bahaane baat bane to sahi...!
ReplyDeleteअगर हम इस सुँदर पृथ्वी को कूडे कचरे से पाट देँगेँ तब मानवता का भविष्य खतरे मेँ है :-(
ReplyDeleteक्या समय परत्व लेख है.
ReplyDeleteये बात दिल को छू गयी - कि जैसे अपनी कन्यायें अपने मैके आती है, वैसे ही ये व्हेल मछलियां भी प्रजनन के लिये आती है.
hamari vyawastha hamesha ek lamba raasta dhoondhti hai. Har tarf kanoon banaye ja rahe hain upyog rokne ke liye are bhai aap utpadan pe rok kyo nahi lagate. kyonki phir aap aam aadmi pe danda kaise chalayenge.
ReplyDeleteaap plastic syringe ka utpadan karte hain uska disposal kaise ho ye saalon baad yad aata hai jab koi beemari failti hai
Ham samasya ki jad pe nahi waar karna chahte. kyonki vassoli band ho jaayegi
खराब चीज को रोकने के लिए कोई भी बहाना चलेगा।
ReplyDelete-----------
तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन
बहुत बाड़िया... वाकई मे पड़कर आनंद आगय. आप कॉन्सी टूल यूज़ करते हे ?
ReplyDeleteरीसेंट्ली मे यूज़र फ्रेंड्ली टूल केलिए डुंड रहा ता और मूज़े मिला "क्विलपॅड".....आप भी इसीका इस्तीमाल करते हे काया...?
सुना हे की "क्विलपॅड" मे रिच टेक्स्ट एडिटर हे और वो 9 भाषा मे उपलाभया हे...! आप चाहो तो ट्राइ करलीजीएगा...
www.quillpad.in
धर्म का सहारा लेकर संकटग्रस्त जानवरों को बचाने के अन्य प्रयास भी हुए हैं जो कुछ-कुछ सफल भी रहे हैं। यहां गुजरात के समुद्रों में व्हेल शार्क नामक मछली प्रजनन करने आती है (इसे हिंदी में क्या कहते हैं, यह नहीं मालूम)। यह मछलियों की दुनिया का सबसे बड़ा सदस्य है और कुछ 40 फुट जितनी लंबी हो जाती है, यानी एक बस जितनी। मछुआरों के जालों में फंसकर यह बड़ी संख्या में मरती है। यह मछली अत्यंत संकटग्रस्त भी है और सारी दुनिया में इसकी संख्या निरंतर कम होती जा रही है।
ReplyDeleteऐसे में दिल्ली के वाइल्डलाइफ ट्रस्ट नामक संस्था ने इसे बचाने के लिए गुजरात के प्रख्यात रामायण कथाकार मोरारी बापू का सहारा लिया है। मोरारी बापू को गुजरात में बड़ी श्रद्धा से देखा जाता है। वे अपने धार्मिक प्रवचनों में व्हेल शार्क को बचाने की बात भी कहते हैं, और बड़े ही प्रभावशाली ढंग से लोकल ईडियम में कहते हैं। वे कहते हैं कि व्हेल शार्क हमारी बेटियों के समान हैं जो बच्चा जनने माइके आई हैं। उनकी देखभाल करना हमारा फर्ज है। लोग इस तरह की शब्दावली को ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं, बनिस्बत पर्यावरणविदों की वैज्ञानिक तर्कों के।
पर सवाल यह है कि क्या हमें धर्म का सहारा ऐसे कामों के लिए लेना चाहिए? धर्म का मुख्य प्रयोजन सामंति व्यवस्था को कायम रखना है। और अपनी हर समस्या के लिए धर्म के पास दौड़कर हम उसे मजबूत ही करेंगे, और धर्म मजबूत हुआ तो सामंति व्यवस्था भी आसानी से ढहेगी नहीं। और सामंती व्यवस्था को ढहाए बिना महिलाओं को समान अधिकार भी नहीं प्राप्त होंगे। अनेक अन्य समस्याएं भी ज्यों कि त्यों बनी रहेंगी, जैसे, समाज में ऊच-नीच की भावना, कुछ वर्गों को विशेषाधिकार मिलना चाहे वे सवर्ण हों या पुरुष हों।