गाली विमर्श से मुझे इस विषय से सम्बन्धित कुछ यादगार बातें याद आ रही हैं और कुछ प्रतिदिन की प्रतिक्रियाएँ।
पहले प्रतिदिन वालीः
पति किसी मनुष्य या वस्तु को साला कहता है। पत्नी कहती है , 'ओह, तो यह भी मेरा भाई है। क्या उसे साला कहने के पीछे भावना उसे मेरा भाई घोषित करने की है या उसकी बहन को अपनी पत्नी ?' स्वाभाविक है भावना दूसरी ही रहती है। इसके बाद वह अपने तरकश में से अगला तीर निकालता है जिसके अन्तर्गत वह जिसे गाली दे रहा है उसका सम्बन्ध उसकी बहन से स्थापित करता है। ठीक इससे पहले वह उसे अपनी पत्नी का भाई घोषित कर चुका होता है। अब पत्नी पूछती है कि 'क्या तुम मेरे और उसके बीच सम्बन्ध स्थापित कर रहे हो या सम्बन्ध हैं यह तुम्हारा आशय है?' पति पत्नी को घूरता है, उसकी मंद बुद्धि व गालियों के क्षेत्र में उसके अज्ञान पर मुस्कराता है। परन्तु वही पत्नी जब गालियाँ देकर अपने गालियों के क्षेत्र में ज्ञान की वृद्धि का सबूत देती है तो पति नाराज, दुखी, निराश हो जाता है।
वैसे सिवाय नपुंसक क्रोध या सही समय पर सही बेहतर शब्द न मिल पाने के या कल्पना के अभाव के गाली देने के और क्या कारण हो सकते हैं? मुझे नहीं लगता कि लोग उसका अर्थ सोचकर गाली देते हैं और यह तो और भी भयानक स्थिति है। इसका अर्थ है कि आप जो भी कह रहे हैं वह बिना सोचे समझे कह रहे हैं। तर्क से उसे तो समझाया जा सकता है या बहस की जा सकती है जो तार्किक बात कर रहा हो, किन्तु जो बिना सोचे, साँस लेने की क्रिया के समान, गाली दे रहा हो उससे क्या तर्क किया जाए?
अब यादगार बातें:
मुझे एक नवयुवती की कही बात याद आ रही है, ' चाची गाली देकर तो देखो । देखो , कैसी केथार्सिस की फीलिंग होती है।' केथार्सिस याने भाव-विरेचन (?) याने कुछ वैसी संतुष्टि जो मवाद भरे फोड़े के फूटने पर होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि वह सही कह रही थी। यह गाली भी गुस्से का केथार्सिस ही होता होगा। देखा जाए तो स्त्रियों से अधिक इसकी आवश्यकता किसे हो सकती है? सदियों से दबाई,छिपाई हमारी इच्छाएँ,भावनाएँ,हमारा गुस्सा सच में केथार्सिस माँगता ही माँगता है। फिर भी क्या हम इसके लिए कोई सकारात्मक रास्ता नहीं ढूँढ सकते या कम से कम क्रोध में वह तो कहें जो हम कहना चाह रहे हैं न कि किसी के किसी से शारिरिक सम्बन्ध स्थापित करें,जो हमारा उद्देश्य बिल्कुल भी नहीं है। क्या यह कहना अधिक सही नहीं होगा कि 'मैं तुम्हें पीटना चाहता/चाहती हूँ।' अधिक रसमय बनाना हो तो मार मार कर भुर्ता तो है ही। या 'मैं तुम्हारा सिर फोड़ देना चाहता/चाहती हूँ।' या 'मैं तुम्हारी हत्या कर देना चाहता/ चाहती हूँ।'
गालियाँ कुछ कुछ उच्चारण के लहजे सी होती हैं। जिस समाज के बीच आप रहते हैं उस समाज के उच्चारण की तरह इसका रंग भी आप पर चढ़ जाता है। मुझे याद है बचपन में हमारी बदली ऐसी जगह हुई जहाँ गालियों के बिना पुरुषों,लड़कों का बात करना लगभग निषेध सा दिखता था। मैंने..पान खाया। ..पान तो ... बेकार था। हैं बे ..., क्यों बे ..., कल तू... क्यों नहीं आया ? अब जैसा कि समाज में होता आया है,(रूप देखकर तो ॠषियों का मन भी डोलने लगता है,ॠषि पत्नियों का नहीं, 'boys will be boys' की तर्ज पर ) यह सब सीखकर भाई ने भी गाली दी। माँ गाली सुनकर सन्न रह गईं। कुछ उपाय तो करना ही था। सो उन्होंने कहा कि उन्हें अपने बेटे को दिए ऐसे बेकार संस्कारों के लिए पश्चात्ताप करना होगा। उन्होंने जाकर सिर से स्नान किया। फिर सारा दिन भूखे रहकर रामायण का पाठ किया। वह दृष्य अविस्मरणीय है,माँ के लम्बे बाल जो खुले होने पर धरती पर भी फैले हुए थे,सामने रखी रामायण और पश्चात्ताप में जलता भाई! यह उपाय रामबाण साबित हुआ। शायद ही कोई पुत्र हो जो गालियों का आनन्द उठाने के लिए माँ को भूखा रामायण का पाठ करवाए। अभी तक यह स्पष्ट नहीं हुआ कि पिताजी की क्या भूमिका रही थी।
वैसे मैं उस माँ का अनुसरण करने को नहीं कह रही,परन्तु यदि हम चाहते हैं कि हमारी पुत्रियाँ ये शब्द ना उपयोग करें तो हमें स्वयं चाहे हम स्त्री हों या पुरुष इन शब्दों से परहेज करना होगा। अन्यथा हमें ये शब्द दिन रात सुनने ही होंगे,और न केवल पुरुष के मुँह से स्त्री के मुँह से भी। अब निर्णय आपका अपना है।
साबुन से मुँह धोना भी एक इलाज है। स्त्रियों को समझाने वाले कितने पुरुष अपनी बुरी आदत को छोड़ने के लिए इस उपाय का उपयोग करेंगे?
घुघूती बासूती
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ज़िन्दगी के अन्छुए पहलुओं का सार बहुत बढ़िया लगा
ReplyDeleteसचमुच एक गंभीर विमर्श ! गाली अथवा स्लैंग प्रायः उन अर्थों से संपृक्त नही होते जिनसे वे प्रत्यक्षतः जुड़े दिखाई देते हैं .लिहाजा ऐसे संवादों की प्रभावोद्पाद्कता भी ऐसे ही होती है -कोई उन्हें गंभीरता से नही लेता .पर हाँ सुसंस्कृत नर नारी को सार्वजनिक जीवन में इनसे परहेज करना ही चाहिए -पर परिवेश का भी काफी प्रभाव बोलचाल पर पड़ता ही है -अब पोलिस सेवा ही ले लीजिये जहाँ हार्ड कोर अपराधियों से बातचीत भी गाली गलौज में करना एक पेशागत मजबूरी है .यहाँ चाहे दारोगा जी या आए पी एस अधिकारी पुरूष या स्त्री हो उसे न चाह कर भी "पारिभाषिक शब्दावलियों " का प्रयोग करना ही पड़ता है -खग जाने खग ही की भाषा !.मुझे याद है कि एक दारोगा जी का तोता धाराप्रवाह साले ..माधड**** भो**** आदि सुभाषितों का उच्चारण करता था ...तो गाली गलौज का एक परिप्रेक्ष्य यह भी है .
ReplyDeleteएक रोचक परिप्रेक्ष्य और भी है -शादी व्याह में आज भी गाली गाने की रस्म लोक जीवन में है -बारातियों के लिए बाकायदा गाली गाई जाती है -जहाँ यह महिलाओं का डोमेन है .क्या लच्छेदार गालियाँ गाती हैं महिलायें ,पर उनके मूल में प्रेम भाव होता है .मुझे तो व्यक्तिगत रूप में इस रस्म से कुछ चिढ भी है पर यह रस्म बहुत से ग्रामीण संस्कृतियों में आज भी जीवंत है .
तो इन गलियों का सन्दर्भ और परिप्रेक्ष्य अवश्य देखा जाना चाहिए -मगर इसे लेकर नर नारी युद्ध ? सर्वथा त्याज्य है !
सामान्यत: सहमति किंतु अपने इस कथन को देखें-
ReplyDeleteवैसे सिवाय नपुंसक क्रोध या सही समय पर सही बेहतर शब्द न मिल पाने के या कल्पना के अभाव के गाली देने के और क्या कारण हो सकते हैं? मुझे नहीं लगता कि लोग उसका अर्थ सोचकर गाली देते हैं और यह तो और भी भयानक स्थिति है। इसका अर्थ है कि आप जो भी कह रहे हैं वह बिना सोचे समझे कह रहे हैं। तर्क से उसे तो समझाया जा सकता है या बहस की जा सकती है जो तार्किक बात कर रहा हो, किन्तु जो बिना सोचे, साँस लेने की क्रिया के समान, गाली दे रहा हो उससे क्या तर्क किया जाए
ये गालीदाता की पक्ष में बेहद सद्भावपूर्ण कथन लग रहा है। मुझे लगता है कि यदि सोचकर गानी दी गई है तो क्षमा किया जा सकता है, तर्क तो किया ही जा सकता है। लेकिन यदि ये अनसोचा उद्गार है तो इसलिए खतरनाक है क्योंकि इसका आशय है कि गालीभाव (जो खुद की प्रभुता के रूढि़बद्ध हो जाने से उपजते है) के अवचेतन में जम गया है। अत: ये दमित इच्छाओं की फ्रायडीय अभिव्यक्ति ही हैं, अत: ज्यादा आपत्तिजनक हैं।
मसिजीवी जी, मैं भी यही कह रही हूँ कि गालियाँ जहाँ साँसों की तरह अवचेतन में रच बस गई हों वहाँ तर्क कहाँ काम करेगा? सो यह स््िति अधिक भयावह है।
ReplyDeleteऔर सद्भाव रखना तो आवश्यक है ही। यदि सद्भाव न होगा तो बहस, तर्क आदि का स्थान कहाँ रह पाएगा? यदि हम हर व्यक्ति को पकड़कर कटघरे में खड़ा कर देंगे तो उसमें बदलाव आने की बजाए कट्टरपन आ जाएगा। भला मानस हमारा साथ भी देना चाहता हो तो भाग लेगा। उस मानसिकता से जहाँ तक हो हमें बचना है। कहना सरल है और मैं भी जोश में यह गलती करती रहती हूँ। हमारा उद्देश्य लोगों तक अपने विचार व भावनाएँ पहुँचाना है। स्त्री की तरह सोचकर देखने को कहना है। न कि उन्हें स्त्री का शत्रु या दोषी साबित करके एक अलग पाले में खड़ा कर देना है।
घुघूती बासूती
ये कहना "आगे बढ़कर अपने लिए एक रेड लाईट एरिया[ चाहें तो रंग बदल लें] खोल लें" एक गाली ही हैं
kya kahe samjh nahi aa raha lekin aapse sehmat hai ghughuti ji.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDelete"स्त्री की तरह सोचकर देखने को कहना है। न कि उन्हें स्त्री का शत्रु या दोषी साबित करके एक अलग पाले में खड़ा कर देना है।"
ReplyDeleteआपने दिल छू लेने वाली बातें कहीं हैं, ऐसे ही हम उन्नति की सोच सकते हैं, टीका टिप्पणी, मैं सही तुम ग़लत, तुम करो तीन, मैं करूँ पाँच...से स्थिति और दयनीय ही बनेगी....जिसका परिणाम दोनों को भुगतना होगा|
जबरदस्त विवेचन.....और मैं तो जिस प्रोफेशन से ताल्लुक रखता हूँ,वहाँ तो कई बार बगैर गाले निकाले सामान्य बात करना भी आपकी कमजोरी का द्योतक बन जाता है....
ReplyDeleteहर बार की तरह आपकी लेखनी ने जादू बिखेरा!
ReplyDeleteसोचकर या बिना सोचे- हर हाल में गलत तो गलत ही है.
ReplyDeleteअच्छा विश्लेषण.
इधर परिवारिक कारणों से व्यस्त रहा, अतः ब्लॉगजगत से दूरी रही..क्षमाप्रार्थी हूँ.
अब धीरे धीरे पुनः वापसी का प्रयास है.
नियमित लिखें. आपको शुभकामनाऐं.
जिस समाज के बीच आप रहते हैं उस समाज के उच्चारण की तरह इसका रंग भी आप पर चढ़ जाता है।
ReplyDeleteबिल्कुल सही बात है ! और इसी के चलते सारी समस्या है ! और शायद आदमी बिना सोचे समझे ही ये सब उच्चारण करता है ! शायद इसे नीम बेहोशी कह सकते है !
और इसको सही तो नही ठहराया जा सकता ! कृत्य तो गलत ही है चाहे कोई भी करे !
रामराम !
रचना जी, बिल्कुल गाली ही है। परन्तु स्त्री होने पर जब जब हम कुछ नई बात करेंगे, ऐसी बात जिसके लोग आदी नहीं होंगे तो ऐसा सुनने को मिलना बहुत होता है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
लेकिन इन्ही सब के बीच कुछ गालिया बडी मधुर और कर्ण प्रिय भी होती है
ReplyDeleteमरजानिये , ढोर , तेरी तो ऐसी की तैसी, झल्ली या झल्ला , जरा ध्यान से देखिये :)
दद्दा मैथिली शरण ग्प्त जी की
ReplyDeleteकविता है,
" हम सुधरेँ तो सुधर जायेगा,
ये सँसार हमारा,
एक दीप सौ दीप जलाये,
मिट जाये अँधियारा "
आपने सुलझे विचार रखे हैँ अपने आलेख मेँ घुघूती जी
- लावण्या
baat kahin se shuru ho khtm wahin hoti hai..agar aap samanata ki baat kartin hain to kalnkini kahlane ke liye taiyaar rahiye.aapse aise vyahwaar kiya jayega jaise aapka apna dimag to hai hi nahi ki "aap yah karo, wah karo" kahne wale bahut mil jaten hain.
ReplyDeleteबहुत सारगर्भित लेख...नमन आप की लेखनी को....
ReplyDeleteनीरज
चलो आप ने चर्चा को वापस गाली पर ले आयीं। वह भी पूरे मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के साथ। वरना यह स्त्री-पुरुष विभेद पर जा पहुँची थी। वैसे वह भी चर्चा का तार्किक अंत था। क्यों कि बहुधा गालियों की उत्पत्ति इसी विभेद और असामानता से हुई है। जैसे ही समाज से यह असमानता गायब हो जाएगी। गालियों की महत्ता भी मिट जाएगी।
ReplyDeleteवैसे विचार करें तो पाएंगे कि लगभग तमाम प्रचलित गालियाँ वर्जित यौन संबंधों को ले कर हैं। वर्जित यौन संबंध बनाना ही सब से बड़ा सामाजिक अपराध भी है। समाज में उस से निकृष्ठ व्यक्ति कोई नहीं माना जाता जो ये संबंध बनाता है।
आप को इस विशेष आलेख के लिए बधाई!
कोई इस मसले को दंगापीयूष पंगेबाज की नज़रों से नहीं देखेगा? ओह, कैसे-कैसे तो आप जनवैया कहां-कहां का विमर्श लेकर शुरू हो जाते हैं.. उत्तम-निष्कलुष विचारों की कोई लॉटरी-वाटरी निकलनी है क्या?
ReplyDeletebahut hi rochak lekh hai..ek to topic ekdum different hai upar se aapki analysis ne char chaand laga diye..
ReplyDeleteआपने बहुत व्यवस्थित ढंग से इस विषय को विश्लेषित किया। मुझे अभी तक कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जो गाली को इसके प्रचलित अर्थ में अच्छा और ग्राह्य कहता हो। शादी-विवाह या होली के अवसर पर प्रयुक्त गालियों की बात अलग है।
ReplyDeleteइस पर बहस की आवश्यकता ही नहीं है कि प्रयोक्ता के लिंग के आधार पर इसके गुणावगुण में अन्तर किया जाना चाहिए अथवा नहीं। बिलकुल अन्तर नहीं हो सकता।
मसला सिर्फ़ यह था कि ‘पुरुष इसे बन्द करें वर्ना स्त्रियाँ भी इसे शुरू कर देंगी’ का उद्घोष कितना उचित है। मेरा आशय मात्र इतना था कि इस बुराई को कत्तई फैलाने की बात न की जाय बल्कि इसे शू्न्यप्राय स्थिति तक लाने का सामूहिक प्रयास किया जाय। जो व्यवहार किसी रूप में आपत्तिजनक है उसे किसी प्रकार से अंगीकृत करने की बातें ठीक नहीं है। बस!
मुझे उम्मीद है कि इस पूरी चर्चा के बाद गालियों के प्रयोग में जरूर कुछ कमी आनी चाहिए। यही हमारी सफलता होगी।
मुझे ना तो गाली आती है, ओर ना अच्छी ही लगती है, कुत्ता, बेबकुफ़, गधा यह सब भी एक रुप मे गालियां ही है, ओर मेने अपने घर मे एक घरेलू कानुन बना रखा है एक गाली के 50 cent जुर्माना,
ReplyDeleteअब बच्चो को मिलते है महीने के २० € तो अगर वो गालिया ही देते रहे तो एक के पेसे खत्म दुसरे को उस के पेसे मिल जायेगे, ओर गालियां अब कोन दे???
ओर गालिया सिर्फ़ कमजोर ही देता है.
बहुत अच्छा लगा आप का यह लेख
धन्यवाद
तेरी ... यह उन लोगों के लिए जो अब तक आपका ब्लॉग नहीं पढ़ते!
ReplyDeleteघुघूती जी नमस्कार, सबसे पहले तो नए साल की शुभकामनाएं.
ReplyDeleteकिसी को नीचा दिखाना भी गाली है. जैसे कि कमीने, बेवकूफ. कुछ शब्द तो लोगों की जुबान पर तकिया कलाम बन गए है, बेशक ये शब्द ज्यादातर गालियाँ ही होते हैं. बेहतरीन पोस्ट.
मेरी आपसे एक विनती है कि आप अपनी ईमेल आईडी बता दें. मेरी आईडी नीचे लिखी है. धन्यवाद.
neeraj_panghal2008@yahoo.com
mujhe to gaaliyo se parhez rahta hai par apka alekha par ke achha laga.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteमैं और कुछ नहीं कहना चाहता, ये विडियो देख लें:
ReplyDeletehttp://in.youtube.com/watch?v=QpvaTTXvoAs
(माफ़ कीजियेगा विडियो में कुछ 'अपशब्द' हैं.)
अच्छा लेख , कभी न खत्म होने वाली बहस....
ReplyDeleteAround 90% of Slang Gaali comes from parents or friends who have got it from parents.
ReplyDeleteExpression of our helplessness, or explosion of our hatred or uneasyness for not able to get things done our way are resulting into gaali.
Very well expressed. Entirely untouched subject indeed!!
मेरी टिप्पणी को लेकर कुछ गलतफहमी फैलाई जा रही है। जब गालियों की बात उठी और कुछ सशक्त महिलाओं ने कहा कि हम भी पुरुषों की तरह छूट ले सकते हैं तो मेरी प्रतिक्रिया थी कि उन्हें कौन रोक सकता है। ज़रूर कीजिए और आगे बढिए।
ReplyDeleteसुजाता जी के विचार हैं कि-
"जैसे स्वाभाविक इच्छा किसी पुरुष की हो सकती है -सिगरेट पीने ,शराब पीने , दोस्तों के साथ ट्रेकिंग पर जाने,अपने करियर मे श्रेष्ठतम मुकाम तक पहुँचने और उसके पीछे जुनून की हद तक पड़ने,या फ्लर्ट करने, या गाली देने, या लड़कियों को छेड़ने ,या गली के नुक्कड़ पर अपने समूह मे खड़े रहकर गपियाने ...............
ठीक इसी तरह ऐसे या इससे अलग बहुत सारी इच्छाएँ स्त्री की स्वाभाविक इच्छाएँ हैं।
"जब आप भाषा के इस भदेसपने पर गर्व करते हैं तो यह गर्व स्त्री के हिस्से भी आना चाहिए। और सभ्यता की नदी के उस किनारे रेत मे लिपटी दुर्गन्ध उठाती भदेस को अपने लिए चुनते हुए आप तैयार रहें कि आपकी पत्नी और आपकी बेटी भी अपनी अभिव्यक्तियों के लिए उसी रेत मे लिथड़ी हिन्दी का प्रयोग करे और आप उसे जेंडर ,तमीज़ , समाज आदि बहाने से सभ्य भाषा और व्यवहार का पाठ न पढाएँ। आफ्टर ऑल क्या भाषा और व्यवहार की सारी तमीज़ का ठेका स्त्रियों ,बेटियों ने लिया हुआ है?”
यह प्रसन्नता की बात है कि इस छूट को लगभग सभी लोगों ने नकारा है जिनमें सिधार्थ ने कहा है कि "उम्मीद के मुताबिक प्रतिक्रियाएं इस छूट के विरुद्ध रही। मनिशा जी ने भी कहा है कि महिलाओं को इस तरह का सशक्तिकरन नहीं चाहिए जिससे वो पुरुषों की बुराई को अपनाएं।
मैं आज की चिट्ठाकार विवेकजी का आभारी हूं जो उन्होंने इस संदर्भ के सभी चिट्ठे एक जगह जमा करके सुविधा पहुंचाया। संदर्भ से काट कर बात का बतंगड बना कर चरित्रहनन करना सरल है, बात को समझना अलग बात है।
बहुत सुंदर ! नव वर्ष की शुभकामनायें स्वीकार करें !
ReplyDeleteतार्किक एवं स्वस्थ्य मनोवैज्ञानिक व्याख्या।साबुन से मुँह धोने वाला प्रयोग भी खूब ही है।
ReplyDeleteआपको आने वाले २००९ साल की हार्दिक शुभकामनाये ! इस उम्मीद के साथ कि नया साल ढेरो खुशिया,सुख, समृद्धि और उत्साह लाये !
ReplyDeleteनववर्ष की शुभकामनाएँ
ReplyDeleteनए साल की हार्दिक शुभकामनाएं...
ReplyDeleteनववर्ष की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाऐं.
ReplyDeleteनव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं !!
ReplyDeleteTuesday, 30 December, 2008
ReplyDeleteगाली-वाद
मिर्जा ग़ालिब तो "गालिया खाके बे मज़ा न हुआ" वाली तबियत के मालिक थे,अब जो घुघूती जी ने गालियों वाला सोपान खोला है, रोचक बनता जा रहा है .गालियों के उदगम के नए-नए क्षेत्र उजागर हो रहे है. परंपरागत केअतिरिक्त सामंतिक,मनोवैज्ञानिक, सामाजिक,लिंग-भेदी वगेरह -वगेरह.मैंने भी गालियों के सन्दर्भ में अपने ब्लॉग ''यथार्थवादिता'' में धार्मिक और सामाजिक असहिष्णुता को लेकर चल रहे '' 'गाली-युद्ध'' का ज़िक्र किया था, जो इस तरह था:
[आप-साहब, श्रीमान, जनाब, महाशय और शिष्टाचारी रूपी सारे वह शब्दहम त्याग दे जिसे बोलते समय हमारा आशय सद नही होता। सदाशयताका विलोप तो जाने कब से हो गया। क्यों न हम यथार्थवादी बन सचमुचजो शब्द हमारी सोच में है,तीखे,भद्दे,गन्दे,गालियों से युक्त,विषायुक्तपरंतु कितने आनंद दायक जब हमें उसे प्रयोग करने का कभी सद अवसरप्राप्त होता है।क्यों न हम यह विष वमण कर दे,और इसे तर्क संगत साबित करने के लिये,इतिहास के गर्त मे सोये दुराचारो, अनाचारो,अत्याचारो के गढ़े मुर्देबेकफ़न कर दे!अच्छा ही होगा, हमे बद हज़मी से भी ज़्यादा कुछ होगया है,हमारा सहनशील पाचक मेदा अलसर ग्रस्त हो गया है!और मुश्किल यह है कि हमे लगातार तीखे मिर्च-मसाले
खिलाये जा रहेहै-- धर्म के, दीन के, स्वर्निम इतिहास की अस्मिता के नाम पर,जबकिनैतिक पतन के इस दौर में ये शब्द अर्थ-हीन होते जा रहे है।मज़हब की अफ़ीम से , नींद आ भी जाये परन्तु 'अल्सर' तो दुरस्त नहीहोगा।इस अल्सर को कुरैद कर काट कर उसमें से अपशब्दो को बह लेने दो।इसमें मरने का तो डर है, परन्तु अभी जो स्थिति है उससे बेह्तर है।मैने तो सभ्य बनने की कौशिश में शिष्टाचार का जो आवरण औढ़ रखा हैउसमें गालियां भी दुआए बन कर प्रवेश होती है। परन्तु अप शब्दो कामैरे पास भी टोटा नही,छोटपन दिखाने के लिये मैरा कद भी आप से कम छोटा
नही।शब्दो के मैरे पास वह बाण है कि धराशायी कर दूंगा तमाम कपोल-कल्पितमान्यताओ को,वीरान इबादत गाहो को,परन्तु नमूने की कुछ ही बानगीपरोस कर ही मै यह दान-पात्र आपके बीच छोड़ना चाह्ता हुँ।इस अवसर को महा अवसर मान कर बल्कि महाभारत जान कर कूद पड़ो]
मेरा यह मानना है की गालियों के उदगम में मूलत: गुस्सा ,असहिष्णुता,असंतुष्टि और असहजता ही व्याप्त होती है जिस पर मनुष्य का बस कम होता है. ऐसे में वह गाली वाला अस्त्र सहजता से प्रयुक्त हो जाता है. अगर यह सफल रहा तो सामने वाले को दबा देता है या प्रत्युत्तर में तगड़ा वार् झेलना पड़ता है. अक्सर गाली देने वाला गाली झेलने में कमही सक्षम होता है.
परम्परानुसार, लिंग-भेद के चलते स्त्री-लिंग ही गालियों की ज़द में अधिकतर आता है,जो हमारे सामाजिक उत्थान के स्तर को दर्शाता है. इसी स्तर की स्थिति ने हमें परेशान किया है की हम ''गाली-पुराण'' पर गंभीरता से चर्चा करनेको उद्वेलित हुए है एक कमेन्ट में 'मीठी'' गाली का भी ज़िक्र आया , अच्छा लगा. यह ''मिठास'' भी मधु-मह का precaution लेते हुए प्रयोग की जाए तो बेहतर है.यह अस्त्र कम संहारक होता है. एक दान-पात्र ऐसी मीठी गालियों के लिए मे अपने
ब्लोगर साथियो के बीच छोड़ना चाहता हू, इसे भर कर नवाजिश फरमाए, इसी बहाने यह बहस और कुछ दूर तकचलने दे.
म.हाश्मी .
मन तो यही कहता है .....कि पुरूष को उसके द्वारा दी गई गालियों का जवाब स्त्री गाली के रूप में ही दे....मगर सच तो यह है....कि स्त्री भी पुरूष की तरह हो गई तो ये धरती बड़ी "सडेली" जगह हो जायेगी....बात यह है...कि सारा मामला ताकत का है.....बजाय मुहं की गाली के....स्त्री धन के आवागमन के साधनों पर मालिकियत हासिल करके उक्त काम कर सकती है....हालांकि यह आसान नहीं है....मगर ज्यादा मुश्किल भी तो नहीं.....नहीं ना......??
ReplyDeleteपता नहीं क्यूँ देते हैं गाली... चाहे जितना भी काबू रखे जब गुस्सा चरम पर होता है तो गाली निकल ही जाती है..... :(
ReplyDeleteफिर नया साल आनेवाला है.... बधाई,शुभकामनाएं
ReplyDeleteजिस समाज में गाली नही दी जा सकती वह नीरस और दम घोटू समाज होगा | पुरुष सत्तात्मक समाज में गालियों की प्रकृति स्वभाविक है स्त्री केंद्रित होगी | एक स्वस्थ अकुंठ समाज में शायद गालियों की जरूरत ही न हो | लेकिन वह बेहद लम्बी यात्रा है इस दौरान बेहतर यह होगा कि हम नयी नयी गालियाँ गढें , प्रयोग करे और ध्यान रहे अद्यतन गालियाँ दे पाने से वंचित किसी भी समूह को इस मामले में अतिरिक्त छूट भी दी जा सकती है |
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