आज महेन जी का ब्लॉग खोलने में बहुत कठिनाई हो रही थी । जब कोई काम कठिन हो जाए तो मैं उसके पीछे हाथ धोकर पड़ जाती हूँ । सो यदि आराम से उनका ब्लॉग खुल जाता तो बस एक रचना पढ़कर टिपिया कर चली आती । परन्तु यहाँ तो युद्ध स्तर पर प्रयत्न हो रहे थे । ब्लॉगवाणी में अब नीचे दिए हुए उनके ब्लॉग के नाम को क्लिक किया । सारी पोस्ट्स की सूची नजर आई । नजर 'जागर' शब्द पर पड़ी । यह तो ठेठ कुमाँऊनी शब्द है । परन्तु ब्लॉग तो खुल ही नहीं रहा था । हारकर url टाइप करके पहुँची । वहाँ गोपालबाबू का गाया 'घुघूती ना बासा' सुना । फिर 'जागर' सुनी । फिर जागर की हाइपरलिंक से 'Kumaoni Culture' पर पहुँची । वहाँ कई पोस्ट्स पढ़ीं । वहीं पर 'रामी (रामी बौराणी*)' पढ़ने को मिली । वह किस्सा पढ़कर मुझे अपने एक प्रिय किस्से ' को छू रे तू भागवान' की याद गई । चलिए आप भी सुनिए ।
माँ बताती थीं कि जैसा कि पहाड़ों में होता था, एक लड़की की बहुत छोटी उम्र में शादी हो गई । बच्ची थी सो गौना नहीं हुआ । वह शादी के खेल व दूल्हे को भूल भाल गई और अपने मायके में ही बड़ी होने लगी ।
पहाड़ों में मकानों के बड़े बड़े आँगन होते हैं । जिनके चारों तरफ पत्थरों से बनी दीवार होती है । उसके ऊपर स्लेट या ऐसे ही सपाट पत्थर लगाए होते हैं । ऊँचाई चौड़ाई भी ऐसी होती है कि आराम से बैठा जा सकता है । मकान आमतौर पर दुमंजिले होते हैं और नीचे की मंजिल में गाय भैंसें बाँधी जाती हैं । सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर रहने वाले कमरों में जाया जाता है । अन्दर की ओर से छत लकड़ी की होती है । बाहर से स्लेट के पत्थर होते हैं । दरवाजे बेहद नीचे होते हैं जिनको पार करने में मुझ जैसे छोटे कद वालों का सिर भी टकरा जाता था और कका से सुनने को मिलता था 'चेलियाँ की चौड़ नजर' या कुछ ऐसा ही जिसका अर्थ होता है कि लड़कियों को सिर झुकाकर रहना चाहिए ।
अब मेरी कल्पना में माँ वाली कहानी जीवन्त हो उठती है । लड़की जो अब किशोरी हो गई है दीवार पर बैठी है। शायद हिसालू या किलमोड़े या काफल ( तीनों पहाड़ी जंगली फल हैं ) या अखरोट व चूड़ा खा रही है। (अहा वह स्वाद !) या शायद दीवार पर बैठी धूप तापती हुई चौलाई का साग साफ कर रही है । या फिर आँगन में बनी ओखली में धान कूटकर चावल या चूड़ा बना रही है । एक अजनबी उनके घर आया व सीधे अन्दर ही आता गया । आँगन में आने से पहले कोई पुकार नहीं लगाई, न खाँसा ही, न किससे मिलना है ही कहा, न लड़की से उसके पिता जोशज्यू के बारे में ही पूछा । सो लड़की अपना काम या खाना छोड़कर अजनबी को सम्बोधित करके कहती है, " को छू रे तू भागवान, न पूछणीं न गाछणीं लमालम भीतरी उणीँ ?" अर्थात "कौन है रे तू भाग्यवान, न पूछ रहा है न पता कर रहा है और सीधे घर में ही घुसा आ रहा है ?"
इससे पहले कि अजनबी कोई उत्तर देता लड़की की इजा(माँ) घर से बाहर आती है और लड़की से बोलती है," ना चेली यस नी कुणीं, यो तो तेर पाण्डेज्यूँ छन ।"( न बेटी ऐसा नहीं कहते, ये तो तेरे पाण्डेजी हैं, (पाण्डे पति का सरनेम है) ।) लड़की अपने उस अजनबी पति को सिर से पैर तक निहारती है और घर के अन्दर चली जाती है।
आज भी यह किस्सा मुझे रोज याद आता है । जब भी दरवाजे पर मेरे पति आते हैं तो मैं यही शब्द " को छू रे तू भागवान, न पूछणीं न गाछणीं लमालम भीतरी उणीँ ?" कहकर उनका स्वागत करती हूँ । परन्तु दुख इस बात का होता है कि मुझे टोकने को कोई इजा नहीं होती ।
घुघूती बासूती
( कुमाँऊनी बन्धु क्षमा करें, मुझे कुमाँऊनी बोलनी नहीं आती जितनी समझ आती थी वह भी बचपन व घर छूटने के साथ भूल गई हूँ, सो बहुत सी गल्तियाँ होंगी परन्तु भाव गलत नहीं हैं । क्यूँल तो निश्चित रूप से गलत है । परन्तु कुमाऊँनी की धातु तो याद नहीं ! कौ, कौल दोनों ही गलत लग रहे हैं सो क्यूँल ही लिख दिया था । रात को सोए में याद आया यह कुणीं हो सकता है सो अब वह कर दिया । )
घुघूती बासूती
Saturday, December 13, 2008
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बड़े स्नेह से लिखा गया मालूम होता है. पढ़कर निर्दोष-सा गुनगुनाता भाव मन में एक मखमली एह्सास पैदा कर रहा है. लोक की छुपी संवेदना आपकी मधुर आत्मीय प्रस्तुति से और भी निखर गयी है .
ReplyDeleteभावना उत्फ़ुल्ल होकर आपको यह कहते हुए सुन रही है -" को छू रे तू भागवान, न पूछणीं न गाछणीं लमालम भीतरी उणीँ ?"
मतलब आप छोटे कद की हैं . लेख सही है .
ReplyDelete"को छू रे तू भागवान, न पूछणीं न गाछणीं लमालम भीतरी उणीँ?" पढ़कर जितना अच्छा लगा "मुझे टोकने को कोई इजा नहीं होती" पढ़कर उतना ही दुःख भी हुआ. म्हें जी के ब्लॉग पर जाकर गीत भी सूना - धन्यवाद!
ReplyDeleteआपके साथ हम भी पहाड़ घूम आये.. धन्यवाद.
ReplyDeleteयही तो अपनी माटी की महक है, ठसक है। मजा आ गया। पढ़कर नई जानकारी और अनुभूति मिली। घुघुती जी, आभार।
ReplyDeleteहमारे लोक जीवन की सुन्दर यादें ! चोलाई का साग याद आ गया आपकी इस पोस्ट से ! अब यहां शहरों मे कहां वो चोलाई और बथुए का साग ? सब दूर की बाते हो गई ! सिर्फ़ यादे...
ReplyDelete" को छू रे तू भागवान, न पूछणीं न गाछणीं लमालम भीतरी उणीँ ?" इतने सुन्दर शब्द कि मैं तो कविता कि तरह गुनगुनाए जा रहा हुं !
एक बात आज मालूम पडी कि पति को पांडे जी बुलाते हैं तो पत्नि के लिये क्या सम्बोधन होता है आपकी भाषा मे ! बस एक जिग्ग्यासा है !
राम राम !
कहानी पढ़कर अच्छा लगा.. सच में मिट्टी कि महक लिये था..
ReplyDeletebahut achhi lagi kahani aur kuch pahadi shabdh bhi.
ReplyDeleteमजेदार किस्सा है यह तो ..अच्छा लगा इसको पढ़ना ..
ReplyDeleteन, न ताऊ, पति को पाण्डे नहीं कहते । पाण्डे तो सरनेम है । लड़की का मायके का सरनेम जोशी है और ससुराल का पाण्डे ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
इब ताऊ को क्या पाण्डे और क्या जोशी वहाँ तो जो भी हो लट्ठ से हाँक दिया जाता है।
ReplyDeleteआप की कथा सुन कर वाकई लोक रंग याद आ गए। हालांकि हम अपने ही देस में हैं लेकिन शहर होने से भी बहुत फर्क हो जाता है।
आप को पढ़ने से तो कद लम्बा ही लगता है। आप ने फिजूल ही बता दिया कि आप छोटे कद की हैं।
मुझे तो लड़की की ठसकदार भाषा पसंद आई। यह कोई नितान्त अजनबी से बोल सकता है या पूर्णत: अंतरंग से। और पाण्डे दोनो ही है!
ReplyDeleteअच्छा लगा किस्सा.
ReplyDeleteमन प्रसन्न हुआ. घर की बनावट का जहाँ उल्लेख हुआ है उसके आस पास एक चित्र लगा देते तो समझने में आसानी होती. हमने ऐसे घर देखें हैं जहाँ नीचे मवेशी रहते हैं और ऊपर के मंज़िलों में अनाज, परिवार आदि. लकड़ी और पत्थर से बने. एक बात और कहनी थी. आपके ब्लॉग टाइटल के साथ जो इमेज है, वह अनावश्यक रूप से चौड़ी है. वह पट्टी २ या २.५ इंच से अधिक का नहीं होना चाहिए. परिवर्तन करने पर ब्लॉग का सौंदर्य निखर जाएगा. आभार.
ReplyDeleteअच्छा हुआ आपने स्पष्ट कर दिया ! मैने ,(" ना चेली यस नी कुणीं, यो तो तेर पाण्डेज्यूँ छन ।") सहज रूप से इसका मतलब पति से लगा लिया था ! शायद बाद मे तो अब आपने वहा स्पष्ट कर दिया है ! और चेली तो बेटी को ही कहते होंगे ना ? अबकी बार तो शायद मैं सही होऊंगा ! :)
ReplyDeleteआपका आज आलेख मुझे बहुत लाजवाब लगा ! इसको पढ्ते पढते गांव मे ही पहुंच गये !
राम राम !
वाह, बहुत अच्छे।
ReplyDeleteसुब्रह्मनियम जी, आपका सुझाव बढ़िया है परन्तु मैं थोड़ा टेक्नॉलोजिकली चैलेन्ज्ड हूँ । ब्लॉग पर बहुत से सुधार के काम करने को हैं परन्तु नहीं कर पा रही हूँ । मेरे पास तो केवल एक ही हथियार है कल्पना का बस उसे ही चलाती रहती हूँ । कभी अवसर मिला तो किसी की सहायता से सुधार करूँगी ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
bahut sundar ... man ko shanti si prapt hui , aapki rachana padhkar ..
ReplyDeleteaaap bahut accha likhti hai . mujhe hunar seekhane padenge aapse ..
bahut badhai
kabhi mere blog par aakar meri nazmen bhi padkar kuch salaah dijiyenga .
vijay
http://poemsofvijay.blogspot.com/
आपकी कथा पढ़ कर पहाडों की और शिवानी के लिक्खे उपन्यासों याद आ गयी.
ReplyDeletesabne itna kuch khe diya ki mai ab naya kya boluin.......
ReplyDeleteaap bahut sundar yadon ko samete huye hain..
jo aapke sath sath dusron ko bhi sukhi jeevan ka ehesaas karati hain...
घुघूती जी, मैं भी एक बार पहाडों पर गया था. जाते ही मेरा स्वागत हुआ- सिर छत में टकराने से. धूप में उस पथरीली दीवार पर बैठकर सेब खाने का भी मजा लिया है मैंने.
ReplyDeletepahli bar aapke blog par aaya hun bahut achcha laga!
ReplyDeletebahut pyaara likha hai. bahut accha laga padh kar.
ReplyDeleteआपका बहुत-बहुत शुक्रिया मैम....इस खास संस्कृतिकी एक और झलक दिखाने के लिये
ReplyDelete"कुमाऊँ" ये शब्द,ये लोग,ये जगह---सब मेरी साँसें,मेरा जुनून है...
जय कुमाऊँ
आपकी पहाडोँ की बातेँ और यादेँ शिवानी जी की याद करवा रहीँ हैँ घुघूती जी :)
ReplyDeleteऔर फिर नायिका और नायक की आगे की कथा भी तो बता दीजिये...
कब मिले ?
और "इजा" की याद पर ठिठकी हुई कहानी को आगे ले जायेँ ...
स स्नेह,
लावण्या
रात कोई ग्यारह बजे के आसपास आपकी यह पोस्ट पढी है । जैसे-जैसे पढता गया, नींद आंखों से दूर होती गई और कुमाऊं का गांव आंखों में बसता गया । एक बार, बस से, मण्डी जाते हुए सडक के दोनों ओर वैसे ही घर देखे थे जिनका वर्णन आपने किया है । बस से देखे गए मकानों में मानो आज प्रवेश कर लिया । शानदार, इन्द्रधनुषी शब्द-चित्र पढ कर (क्षमा करें, देख कर) आत्मा तृप्त हो गई । पौष कृष्ण प्रथमा की आधी रात को आपने मेरा गांव मेरे सामने ला अब कर दिया ।
ReplyDeleteअब, नींद कब आ पाएगी, कहना मुश्किल है ।
बहुत दिलचस्प लेख और साथ में कुमाउनी भाषा का तड़का...मजा आ गया...
ReplyDeleteनीरज
मैं आलसी। जब देखा घुघूती वाली पोस्ट पर टिप्पणियां आने लगीं तो लगा शायद किसी ने लिंक लगाया होगा और वो आप निकलीं।
ReplyDeleteकुमाऊँनी तो चकाचक है। मेरी पत्नी तो मुझे ऐसे नहीं टोक सकती क्योंकि कुमाऊँनी नहीं है मगर कठुआ कहना मेरी माता जी से सीख लिया और वो मुझपर आजमाती रहती है।
संस्मरण तो बड़ा अच्छा लगा. इस भाषा की बिल्कुल समझ नहीं है... पर उसकी जरुरत नहीं पड़ी.
ReplyDeleteअब मैं लिखूं तो क्या लिखूं....पहले तो आपका प्यारा सा चित्रण.....उस पर फिर इत्ती सारी टिप्पणियों का विचित्रण.....अब जाकर भूतनाथ का आगमन....देर हो गई.... सॉरी.....क्या कहूँ....सारे जग में फिरना होता है.....अब तो आपके घर के ऊपर से गुजरुंगा तो आपको पुकार लूंगा....अरे नहीं भाई....बात घूमा नहीं रहा आपकी चित्रलिपि-सी रचना वाकई अच्छी है...सच...!!
ReplyDeleteमनोहर श्याम जोशी के उपन्यास कसप में ये सारे शब्द पढ़े थे, मसलन- ईजा, दाज्यू, हिसालू, चेली, झन ( छन नहीं) आज महीनों बाद एक बार फिर उस उपन्यास की आपने याद दिला दी।
ReplyDeleteभाषा भले ही कम समझ में आती हो( कसप पढ़ने के बाद कुछ समझ में आने लगी है) परन्तु भाव तो सीधे मन में गहरे उतर जाते हैं।
बहुत बढ़िया, इस श्रेणी में और लेखों (आपकी स्मृतियों) का इन्तजार रहेगा।
बड़ा अच्छा लगा!!!!!!!!1
ReplyDeletevaakai mein aapaki meethhi-madhur bhasha jaadui asar paida kar rahi hai!.... bahut achchha mehsoos ho raha hai, dhanyawaad!
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ReplyDeleteDil ko Chhu jane wala lekh likha hai apne. Bahut achha laga
ReplyDeleteबहुत अच्छी कहानी है,मजा आ गया। सचमुच माँ की बताई हुई बातें ताउम्र याद रहती हैं।
ReplyDeleteएक जिज्ञासा है बता दें तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा- घुघूती बासूती का मिनिंग क्या है।
भावपूर्ण पोस्ट। पढ़ कर बहुत अच्छा लगा।
ReplyDelete'ठतवाड़' ज्यस लाग्न्यी,
ReplyDeleteयो काउ काउ दुःख.
'टपुकी' हे गयीं यो
नाना नान सुख...
यो व्जले ...
लगे-लगे बेर खानैया,
जीवण-भातक दाग्यद,
सुखक 'टपुकी'
कुमाँउ घूमने का मौका मिलता ही रहता है
ReplyDeleteसो भाषा भी सीख ली
इसलिये बहुत आनंद आया
सुंदर अभिव्यक्ति
धन्यवाद
कुछ ही पंक्तियों मै ह्रदयस्पर्शी कहानी कह दी !इस सुखद अनुभूति के लिए धन्यवाद ..........
ReplyDeleteaaj furst me aapkee ye post padhee ..bahut achchhe lagee...
ReplyDeleteaaj furst me aapkee ye post padhee ..bahut achchhe lagee...
ReplyDeleteकुमाऊँनी आती तो नही पर शिवानी के उपन्यास पढे हैं तो परिचय तो है ही तो आज मैं भी आपके ब्लॉग पर लमालम उणी हो रही हूँ । लेख में मज़ा आया ।
ReplyDeleteघुघुती बासूती ज्यू तुमर भोते भल ब्लॉग छ यो.
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