बहुत से चिट्ठों में सरकार के प्रति क्रोध है, व्यवस्था के प्रति क्रोध है । यह क्रोध बहुत सीमा तक सही भी हो सकता है । परन्तु अपना क्रोध दर्शाने का सबसे सरल व अचूक तरीका, वोट भी तो हमारे हाथ में है । हम उसका उपयोग क्यों नहीं करते ? इसी तरह न्यूज़ चैनल्स पर हमारा गुस्सा निकल रहा है जो बहुत सीमा तक सही भी हो सकता है । परन्तु हमारे पास इसके लिए भी अचूक इलाज है रिमोट, हम उसका उपयोग क्यों नहीं करते ?
अब वह जमाना तो रहा नहीं कि राजा के पुत्र को झेलना ही हमारी नियति हो । फिर क्यों राजा कि पत्नी, पुत्र ,पुत्रियों, पुत्रवधुओं, नाती पोतों, पोतियों को झेलें ? बल्कि राजा को ही क्यों झेलें ? पाँच वर्ष का समय दो यदि काम पसन्द है तो फिर से चुनो अन्यथा रास्ता दिखा दो । परन्तु हम तो केवल क्रोध करते हैं । यदि कोई राजनीति की बात करे तो हम उसे तुच्छ महसूस कराते हैं । राजनैतिक लेख हम पढ़ते नहीं, राजनीति की बात हमारे लिए गाली सी बन जाती है । न हम स्वयं राजनीति में जाएंगे, न अपने बच्चों को जाने देंगे, न हम किसी राजनैतिक दल के विचार जानने का यत्न करते, न जानकर यदि सही लगें तो न चन्दा देकर, न साथ देकर उसकी सहायता करते, हम केवल किसी मसीहे की प्रतीक्षारत रहते हैं कि वह आए और हमारा उद्धार करे । मसीहे कहीं से टपकेंगे नहीं, वे हमारे बीच में ही हमारे सहयोग व प्रोत्साहन से हमारे बीच पनपेंगे। उन्हें भी खाद पानी की आवश्यकता है और पनपने के लिए उपयुक्त वातावरण की।
जीवन के प्रत्येक पहलू में दंड या पुरुस्कार की भूमिका होती है । यदि आप सही व्यक्ति को अपना वोट देकर पुरुस्कृत करेंगे और गलत को न देकर दंडित करेंगे तो अपने आप सही लोग सामने आएंगे व गलत लोग बाहर हो जाएंगे । शायद गलत व्यक्ति गलत इसीलिए होता है कि गल्तियाँ करने पर भी हम उसे दंडित नहीं करते । फिर फिर लाकर सिंहासन पर बैठा देते हैं । सही की बात हम सुनते नहीं । या यह कहें कि उससे हम बहसकर अपनी राय बताने का ही कष्ट नहीं करते । राजनीति के पचड़े में कौन पड़े जैसी बात कहने में अपना बड़प्पन दर्शाते हैं । यहाँ पर यह बात भी साफ कर दूँ कि इस हम में 'मैं' भी शामिल हूँ । आपकी तरह ही मैं भी वह पा रही हूँ जिसकी मैं अधिकारी हूँ । यथा राजा तथा प्रजा का जमाना निकल गया, अब यथा प्रजा तथा राजा का जमाना है । हम जैसा नेता, सरकार पाने के लायक स्वयं को सिद्ध करते हैं वैसा ही पाते हैं ।
सो आवश्यकता है जागने की । हममें से कितने लोग किसी दल के चुनावी घोषणापत्र को पढ़ते हैं ? हम कहेंगे कि उनका मूल्य जिस कागज पर वे लिखे गए हैं उससे भी कम है । तो क्यों नहीं हम जब उसी दल का प्रत्याशी हमारे सामने वोट माँगने आता तो उससे पूछते कि भाई/बहन, यह था तुम्हारा घोषणा पत्र इसमें से क्या तुमने किया और क्या करने की दिशा में कदम उठाया ? क्यों नहीं पूछते कि आपके दल में प्रजातंत्र कहाँ है ? क्या आपके दल में अंदरूनी चुनाव होते हैं ? मानती हूँ कि मुझमें भी यह प्रश्न करने की हिम्मत नहीं है तो फिर वोट न देकर तो हम उसे अवगत करा सकते हैं कि यदि जो कहा वह करोगे नहीं तो और अवसर नहीं मिलेंगे ।
वैसे काफी लोग निर्भय होकर लिख रहे हैं, वे भी सही दल के प्रचार प्रसार में आगे आ सकते हैं । परन्तु राजनैतिक लेखों में उनकी भी रुचि हो यह नहीं दिखता । क्या अधिक लोग जानकारीप्रद लेख नहीं लिख सकते या लिखे जाएं तो वहाँ जाकर अपनी राय नहीं दे सकते?
न्यूज़ चैनल्स पर हम भड़क रहे हैं । बहुत सीमा तक सही भड़क रहे हैं । ऐसा लगता ही नहीं कि वे निर्पेक्ष समाचार बता रहे हैं । लगता है कि सनसनी फैला रहे हैं । इन्हें हम वोट नहीं, रिमोट के जरिए बाहर का रास्ता दिखा सकते हैं । एक बार देखो, दो बार देखो, दस बार जब देख लो कि ये निर्पेक्ष नहीं हैं कि ये समाचार नहीं तमाशा दिखा रहे हैं या फिर कि इनका स्तर गिर गया है तो रिमोट हाथ में लो और इनकी टी आर पी गिरा दो । अब वह समय तो रहा नहीं कि एक ही चैनल हो जो समाचार दिखाती हो । और यदि सबका स्तर गिरा हुआ लगे तो सबका बहिष्कार कर दो । रेडियो का उपयोग समाचार सुनने के लिए करो, समाचार पत्र पढ़ो, ऐसी चैनल्स को मत सुनो । देखिए कैसे सब सही राह पर आ जाएंगी ।
आज के युग में सारा जादू वोट और रिमोट का है। वोट हमारे हाथ में है, रिमोट हमारे हाथ में है तो क्यों न हम यह जादू कर डालें !
घुघूती बासूती
Saturday, November 22, 2008
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सही कहा जी आपने !
ReplyDeleteटी आर पी भी हम आप नही ये खुद ही अपने घपलो से बढाते घटाते है :)
ReplyDeleteभ्रम में रहना लाभप्रद, मानी आपकी बात.
ReplyDeleteसङा आम यह तन्त्र है,साफ़ समझ लें बात.
साफ़ समझ लें बात, कि अब यह सुधर ना सकता.
गहरा गाङो धरती में, भारत यह कहता.
कह साधक कवि, बेहतर हो यह जल्दी करना.
घूघुती बासूती नहीं लाभ-प्रद भ्रम में रहना.
sahi kaha aapne,jab vote haare haath hai tho hame dhyan se dena chahiye,lekin indian politics mein jabran vote dena ab bhi gaon mein hota hai,kaise sambhale useko.
ReplyDeleteयह सही है कि वोट भी हमारे हाथ में है परंतु नोट देख कर रिमोट नीचे गिर जाता है और वह कोई और उठा लेता है। रह गए ना हम वहीं के वहीं!!
ReplyDeleteएक बार भारत सरकार से फिर से पुराना सवाल -"भारतीयों द्वारा स्विस बैंकों में छुपाये गए काले धन के बारे में किस दिन भारत सरकार स्विस सरकार से सूचना लेकर उसे सार्वजनिक करेगी?"
ReplyDeleteमसीहे कहीं से टपकेंगे नहीं, वे हमारे बीच में ही हमारे सहयोग व प्रोत्साहन से हमारे बीच पनपेंगे। उन्हें भी खाद पानी की आवश्यकता है और पनपने के लिए उपयुक्त वातावरण की।
ReplyDeleteबहुत सुंदर बात कही आपने ! आख़िर कुछ हमको भी त्याग और परिश्रम तो करना पडेगा ! बहुत शुभकामनाएं !
बात तो सही है... टीवी वालो को तो सनसनी से ही मतलब है बदलाव तो जनता ही कर सकती है... वोट डालकर.
ReplyDeleteहमारे हाथ में रिमोट ही तो नहीं है। वोट से कुछ नहीं होता। जनता के इन वोटों को संगठित होकर एक ताकत भी बनना होगा।
ReplyDeleteआपसे शत-प्रतिशत सहम्त हूं।
ReplyDeleteमसीहे कहीं से टपकेंगे नहीं, वे हमारे बीच में ही हमारे सहयोग व प्रोत्साहन से हमारे बीच पनपेंगे। उन्हें भी खाद पानी की आवश्यकता है और पनपने के लिए उपयुक्त वातावरण की.........
ReplyDeleteहाँ जी..........मन सहमत हूँ....और मसीहा भी हमारे ही बीच से कोई होने को है....सच...!!
वोट की ताकत म्रगतृष्णा है .वोटर वोट डालते समय हिन्दू,मुसलमान ,और तो ओर बिरादरी मे भटक जाता है .केसे सुधार हो चर्चा का विषय है . और रिमोट तो है लेकिन टाइम पर चलता नहीं .
ReplyDeleteआपने बहुत सही लिखा है. वोट डालना जरूरी है. अपनी इस ताकत का हर मतदाता को प्रयोग करना चाहिए.
ReplyDeleteसाध्वी प्रज्ञा पर किए जा रहे अमानवीय बर्बरतापूर्ण अत्त्याचार ही काफ़ी हैं यह तय करने के लिए कि किसे वोट देना है और किसे कुर्सी से उतार कर फेंक देना है.
Aapki baat kuchh had tak sahi hai, lekin hota wahi hai har baar ki hum humara rfemote 5 saal mein sirf ek baar istemaal kar ke unke haatho mein thama dete hain fir wo paanch saal tak usi remote se chnnel badalkar on-off kar ke maje lete rahte hain....
ReplyDeleteकिचड़ को साफ करने के लिए किचड़ में उतरना पड़ता है. नाक सिकोड़ कर हाय हाय करना सरल है, किचड़ साफ करना मुश्किल.
ReplyDeleteआपने सही लिखा है.
’हम यह जादू कर डालें ’आपकी अशावादी बाते लोगो को कुछ सोचने पर मजबूर करेगी । धन्यवाद
ReplyDeleteएक विचारोत्तेजक लेख के लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteसैद्धान्तिक रूप से वोट की शक्ति ही सबसे बड़ी शक्ति है। लेकिन व्यवहार में इसका जैसा प्रयोग होता है उससे नतीजे मुफ़ीद नहीं मिलते। सौ में से आधे वोट नहीं डालते। जो ५० वोट डाले जाते हैं उनका विभाजन बीस-पच्चीस उम्मीदवारों के बीच हो जाता है। उसमें सबसे अधिक १२ वोट पाने वाला ११ वोट वाले को हराकर १०० लोगों का प्रतिनिधि बन जाता है; लेकिन जीत जाने के बाद वह अपनी शक्ति का प्रयोग उन्हीं १० लोगों के लिए करता है। शेष ९० लोगों में विभाजन बना रहे इसके लिए सारे जतन करता है। जाति, धर्म, ऊँच-नीच, अगड़ा-पिछड़ा, बिहारी-मराठी, हिन्दू-मुस्लिम आदि के शोशे छोड़कर मस्त रहता है।
पाँच साल बाद ‘नागनाथ’ को बदलकर भी क्या करेंगे। उनकी जगह ‘साँपनाथ’ आ जाएंगे। तमिलनाडु में यह खेल कई बार से खेला जा रहा है। वहाँ शायद दोनो पार्टियों ने अपने बीच मौसेरा नाता बना रखा है।
इसके उलट बंगाल और गुजरात के उदाहरण दूसरी कहानी कहते हैं। समस्या के मूल में वही बात है कि योग्य नेतृत्व दे सकने लायक लोग राजनीति की काली कोठरी में जाने से कतराते हैं। इस राजनीति की स्वार्थ भरी दुनिया में किसी निःस्वार्थ देशप्रेमी को सफलता मिलने में पूरा सन्देह रहता है।
उत्तर-प्रदेश के एक प्रतिभाशाली पुलिस अफसर (शैलेन्द्र सिंह) ने सिस्टम को ठीक करने के जज़्बे में शानदार कैरियर की नौकरी से इस्तीफा देकर स्वच्छ राजनीति करने का मन बनाया, लेकिन घोर असफलता हाथ लगी। उन्हें चुनाव में एक शराब व्यवसायी के हाथों करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। अब बियावान में भटक रहे हैं। अपना व्यवसाय शुरू कर दिया है।
"मसीहे कहीं से टपकेंगे नहीं, वे हमारे बीच में ही हमारे सहयोग व प्रोत्साहन से हमारे बीच पनपेंगे।"
ReplyDeleteबिल्कुल ठीक कहा । त्रिपाठी जी की बात पहली नज़र में ठीक लगती है पर इसे सच नहीं मान लेना चाहिए। अगर हम एक साथ मिल कर वोट और रिमोट की शक्ति का सही प्रयोग कराने लगें तो सब कुछ बदल सकता है, पहले भी बदला है।
मौजूदा चुनाव प्रक्रिया मामले को सुलझाने की बजाय और उलझाती है । सभी प्रमुख दल जीतने वाले उम्मीदवारों पर ही दांव लगाते हैं । राजनीति अब प्रोफ़ेशन हो गया है । जिस तरह हुनरमंद प्रोफ़ेशनल एक के बाद एक नौकरियां बदलता है ,उसी तरह ये दल में नेता दाल नहीं गलती देख नया ठिकाना तलाश लेते हैं । वही चेहरे घूम फ़िर कर नज़र आते हैं । लोग बेमन से एक बार इसे ,तो एक बार उसे चुन लेते हैं ।
ReplyDeleteमेरी राय में चुनाव प्रक्रिया में सुधार की काफ़ी गुंजाइश है । वोटिंग मशीन में एक बटन और लगाया जाए - इनमें से कोई नहीं ।
लोग अपना प्रतिकार सामूहिक रुप से चुनाव का बहिष्कार करके भीकर सकते हैं ,लेकिन इसके लिए मज़बूत संगठन और पक्के इरादे की ज़रुरत है ।
मौजूदा चुनाव प्रक्रिया मामले को सुलझाने की बजाय और उलझाती है । सभी प्रमुख दल जीतने वाले उम्मीदवारों पर ही दांव लगाते हैं । राजनीति अब प्रोफ़ेशन हो गया है । जिस तरह हुनरमंद प्रोफ़ेशनल एक के बाद एक नौकरियां बदलता है ,उसी तरह ये दल में नेता दाल नहीं गलती देख नया ठिकाना तलाश लेते हैं । वही चेहरे घूम फ़िर कर नज़र आते हैं । लोग बेमन से एक बार इसे ,तो एक बार उसे चुन लेते हैं ।
ReplyDeleteमेरी राय में चुनाव प्रक्रिया में सुधार की काफ़ी गुंजाइश है । वोटिंग मशीन में एक बटन और लगाया जाए - इनमें से कोई नहीं ।
लोग अपना प्रतिकार सामूहिक रुप से चुनाव का बहिष्कार करके भीकर सकते हैं ,लेकिन इसके लिए मज़बूत संगठन और पक्के इरादे की ज़रुरत है ।
बेहतरीन अभिव्यक्तिकऱण
ReplyDeleteऔर ओ पहाड़ मेरे पहाड कविता भी बेहतरीन है
बहुत अच्छा लेख है. सभी कुछ चाहिए मगर रचनात्मक जागृति (ध्वंसात्मक क्रान्ति नहीं) चाहिए. देश में अच्छे, बुद्धिमान और सेवाभावी लोगों की कमी नहीं है - ज़रूरत है उन्हें जगाने की और एक-एक सीढ़ी कर के मंजिल तक पहुँचने की. धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर लेख है. कुछ नेताओं से बात हुई. हमसे कहा गया "भाई साहब आप लोगों के वोट से हम ना तो जीतते हैं ना ही हारते हैं. हमारे माई बाप तो झोपड़ पट्टी, झुग्गी बस्ती, बांग्लादेशी, मुसलमान, ईसाई आदि हैं. और तो और आप लोग (पढ़े लिखे) वोट भी तो नहीं डालते. चिल्लाते भर रहते हो". यह यथार्थ है. आभार.
ReplyDeletehttp://mallar.wordpress.com
पिछले साठ बरस में इस लोकतन्त्र में संभव सारे प्रयोग भारत कर चुका है.
ReplyDelete१- लम्बे समय तक हमने निष्ठा पूर्वक नेहरु-वंश के द्वारा किये गये परस्पर विरोधी प्रायोगों को झेला.
२-जे.पी.की सम्पूर्ण क्रान्ति को सफ़ल करके इन्दिरा को हटाया,मोरारजी सहित सभी वैकल्पिक नेताओं को अवसर दिया,आपस में ही लङ मरे सब.
३- राजीव गाँधी सरीखे एकदम नये उत्साही युवक को ४२१ सीटें देकर आमूल-चूल परिवर्तन कई चाह की...उसी राजीव ने देश को बताया कि केन्द्र से भेजे एक रुपये मे से मात्र १५ पैसे गरीब तक पहुँचते हैं....अब तो उतना भी नही पहुँच पाता होगा...
तो इस सर्वथा सङे-गले तन्त्र से फ़िर कोई उम्मीद करना कौन सी बुद्धिमानी है?
नया मार्ग बनाना ही होगा, भले ही कितना ही मुश्किल क्यों ना लगता हो, करना तो पङेगा..
और भारत यही करता आया है...
१९७७ में इन्दिरा को हटाया...
१९९२ में ५०० वर्षों के कलंक को ५ घंटे में धूल-धुसरित किया...
५००० वर्ष पूर्व सात अक्षौहिणी सैना ने ग्यारह अक्षौहिणी सैना को हराया...
१८ लाख वर्ष पूर्व देव-जयी रावणी सैना को बन्दर-भालूओं से पिटवाया...
उससे भी पूर्व हिरण्याकश्यप को, जो किसी भी तरह नहीं मर सकता था- ना धरती पर, ना आकाश में, ना दिन में ना रात में,- ना मानव से ना पशु से, - ना अश्त्र से, ना शस्त्र से....उसे भी भारत ने ही यमलोक पहुँचाया था.
तो अब क्या मुश्किल है!
माना उनके पास कानून है, न्यायालय है,,,संविधान की सुरक्षा है...मानवाधिकार है, यु,एन.ओ. है...पर ये सब मिलकर भी क्या रावणी शक्ति से ज्यादा हैं?...नहीं
तो बदलेंगे.
हम ही बदलेघॆ...जल्दी...साधक
बहुत सही।
ReplyDeleteaapne bilkul sahi likha hai. vote dene ke samay aage aana bahut jaroori hai, main to is saal election me vote dungi hi, maine apne doston ko bhi abhi se is bare me kahna shuru kar diya hai, halanki abhi to koi bhi taiyar nahin hai, par i am sure ki persuasion se kuch log to taiyaar ho hi jaayenge. is jaise aur bhi posts ki jaroorat hai apni jimmedariyon ka ahsaas karane ke liye. aapka bahut bahut shukriya is post ke liye.
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