ओ पहाड़, मेरे पहाड़,
बुला ले वापिस पहाड़
मन व्याकुल है पाने को
तेरी ठंडी बयार ।
तेरे चीड़ और देवदार
दाड़िम,काफल और हिसालू
आड़ू,किलमोड़े और स्ट्रॉबेरी
मन होता है खाने को बारबार ।
तेरी साँपों सी वे सड़कें
शेर के मुँह वाले वे नलके
वे चश्मे और वे नौले
वह स्वाद ठंडे मीठे पानी का ।
ऊबड़ खाबड़ वे रस्ते
वे चीड़ के पत्तों की फिसलन
वे सीढ़ीदार खेत तेरे
वे खुशबू वाले धान तेरे ।
नाक से बालों तक जाते
लम्बे और शुभ टीके
वे गोरी सुन्दर शाहनियाँ
वे सुन्दर भोली सैणियाँ ।
स्वस्थ पवन का जोर जहाँ
घुघुती का मार्मिक गीत जहाँ
काफल पाक्यो त्यूल नईं चाख्यो
की होती गूँज जहाँ ।
हर पक्षी कितना अपना है
हर पेड़ जहाँ पर अपना है
कभी शान्त तो कभी चट्टानें
बहा लाने वाली तेरी नदियाँ ।
वे रंग बिरंगे पत्थर
मन चाहे समेटूँ मैं उनको
हीरे भी मुझे न मोह सकें
पर तेरे पत्थरों पर मोहित हूँ ।
वह छोटा सा शिवाला है
वह गोल द्याप्त का मन्दिर है
हर शुभ काम में साथ मेरे
वे गोल देव जो द्याप्त तेरे ।
वह चावल पीस एँपण देना
वह गेरू से लीपा द्वार मेरा
चूड़े अखरोट का नाश्ता
वे सिंहल और वे पुए ।
पयो भात के संग पालक कापा,
और रसीला रसभात तेरा
बाल मिठाई और चॉकलेट
अब और कहूँगी तो रो दूँगी ।
ओ पहाड़, मेरे पहाड़,
सुन ले तू पुकार
मेरे मन की पुकार
ओ पहाड़, मेरे पहाड़ !
घुघूती बासूती
शब्दार्थः
शाहनियाँ= शाह स्त्रियाँ, शाह कुमाँऊ(उत्तराखंड का पूर्वी भाग ) के साहूकार लोग होते हैं शायद।
सैणियाँ= स्त्रियाँ
घुघुती = एक पक्षी, देखिए घुघूती बासूती क्या है कौन है?
काफल पाक्यो त्यूल नईं चाख्यो = काफल ( एक फल) पक गया है , तूने नहीं चखा है। पहाड़ में एक पक्षी काफल पाक्यो बोलता है और बच्चे उसको चिढ़ाने को कहते हैं कि तूने नहीं चखा है ।
गोल द्याप्त = गोल देवता, हमारे इष्ट देव।
एँपण = कुँमाऊ में फर्श पर दी जाने वाली रंगोली
चूड़ा= घर में पूरे पकने से पहले कूटकर धान से बनाया हुआ स्वादिष्ट पोहा
सिंहल=पुए जैसा एक कुँमाऊनी पकवान जो हर शुभ काम में बनता है ।
पयो= कुमाँऊनी कढ़ी
कापा= पालक पीस कर बनाई एक विशेष सब्जी
रसभात =भट्ट (काले सोयाबीन )पीसकर एक विशेष तरह का व्यंजन
बाल मिठाई= खोये की बनी एक कुमाँउनी मिठाई
चॉकलेट = एक मिठाई जो बाल मिठाई जैसी ही होती है । बाल मिठाई के बाहर होम्योपैथिक गोलियों जैसे मीठे दाने लगे होते हैं चॉकलेट के नहीं ।
यह सब मैं अपनी सीमित यादों में धुँधलाई जानकारी के अनुसार बता रही हूँ । बहुत सी गल्तियाँ भी हो सकती हैं । कुमाँऊनी पाठकों से अनुरोध है कि वे भूलों का सुधार अवश्य कर दें । धन्यवाद ।
घुघूती बासूती
Wednesday, November 12, 2008
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बहुत सुन्दर। जैसे आपको पहाड़ याद आते हैं वैसे मुझे गंगा किनारे सील मछली याद आती है - धूप सेंकती।
ReplyDeleteपहाड़ तो दिख भी पायेंगे, गंगा का मेरे बचपन वाला किनारा तो अब लौटने से रहा। कितनी छोटी हो गयी हैं गंगा।
अतीव सुन्दर।
ReplyDeleteनाक से बालों तक जाते
ReplyDeleteलम्बे और शुभ टीके
वे गोरी सुन्दर शाहनियाँ
वे सुन्दर भोली सैणियाँ ।
कितनी पुरानी यादो में लौटा ले गई आप ! काश वापस अपने गाँव और उस हरियाली में लौट सकता ? पर अब सब कुछ वैसा कहाँ ? शायद आपके पहाड़ तो वैसे ही होंगे अब भी ? बहुत शुभकामनाएं इतनी सुंदर और भावप्रवण कविता के लिए !
अच्छी कविता है। बधाई।
ReplyDeleteghughu bhai,
ReplyDeleteaap kee pukar
pahad sun lega
lekin yah samaj nahin sunega
uske man ka pahad bahut kala hi
really fascionating
ranjit
वे रंग बिरंगे पत्थर
ReplyDeleteमन चाहे समेटूँ मैं उनको
हीरे भी मुझे न मोह सकें
पर तेरे पत्थरों पर मोहित हूँ ।
चित्र सा बन गया इसको पढ़ते पढ़ते ...बहुत प्यारी लगी आपकी यह कविता
सुंदर चित्रण !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर शब्दचित्र ।प्राकृतिक सौंदर्य पर बहुत सुन्दर रचना लिखी है।बधाई स्वीकारें।
ReplyDeleteऊबड़ खाबड़ वे रस्ते
ReplyDeleteवे चीड़ के पत्तों की फिसलन
वे सीढ़ीदार खेत तेरे
वे खुशबू वाले धान तेरे ।
bahut khubsurat aur bahut sare naye shabdon se parichay bhi hua,shukran
घुघूतीजी,
ReplyDeleteरसभात वो नही है जो आप कह रही हैं, भट्ट पीसकर बने व्यंजन को (भट्ट के) डुबके या डुबक कहते हैं। रसभात वास्तव में रस और भात २ अलग-अलग हैं, भात पके हुए चावल को कहते हैं और रस विभिन्न दाने दार दालों से बना व्यंजन होता है जिसमें दालों को पकाकर फिर अलग कर दिया जाता है और उसे अलग से साईड डिश की तरह खाते हैं और दालों के दानों को अलग करने से बने या बचे रसदार व्यंजन को रस कहते हैं। रस को भात के साथ खाया जाता है इसलिये रसभात कहते हैं। रस उसमें पड़े मसालों और दालों की वजह से ठंडी में गर्मी देता है इसलिये ज्यादातर सर्दियों में बनता है।
आपकी कविता बहुत बढ़िया हैं, अगर आप ईजाजत दें तो मैं अपने उत्तराखंड वाले ब्लोग के लिये उपयोग करना चाहूँगा, धन्यवाद।
ये बचपन के वातावरण का मोह नहीं छूटता। पहाड़ सभी को प्रिय होते हैं। दूर दूर तक कोई पहाड़ न होने पर भी मुझे भी प्रिय हैं। पर वे सब के नसीब में और हमेशा नहीं होते।
ReplyDeleteतरुण जी, आपकी टिप्पणी के लिए धन्यवाद। सही करने के लिए भी धन्यवाद । हाँ आप इस कविता को अपने ब्लॉग में उपयोग कर सकते हैं ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
नराई लग रही है आपको पहाड़ की.
ReplyDeleteमुझे भी आपकी कवित पढ़कर कुछ ऐसा ही हो रहा है!
बहुत बढ़िया!!
किलमोड़े ? क्या होते हैँ ?
ReplyDeleteबहुत ही प्यारी कविता है !
और सच अँत आते तो आँखोँ मेँ
सपना बन कर बस गई -
बहुत स्नेह के साथ,
--लावण्या
इसे पढ़ते हुए हम मानो पहाड़ पर ही पहुँच गये। उम्दा शब्द चित्र खींचा है आपने। बधाई और शुभकामनाएं।
ReplyDeleteमैं तो पहाड़ों का दीवाना हूँ और मेरे लिए यह कविता यात्रा के टिकट से कम नहीं है।
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता।
अच्छा लिखा है हमेशा की तरह पर ओरिजनल पहाड के बारे मे नही लिखा है जिसमे मानव की दखल न हो। आपके इस पहाड मे तो खेत है। कभी ओरिजिनल पहाड पर भी लिखियेगा।
ReplyDeleteकह दो दुनियावालों से कि इतनी खूबसूरती से नराई न लगाएं पहाड़ों की। तकलीफ़ होती है भई।
ReplyDeleteलावण्या जी, किल्माड़ और अल्माड़ दरअसल दो तरह की जंगली घासें होती हैं और अल्माड़ के नाम पर ही अल्मोड़ा शहर का नाम है।
ओ पहाड,मेरे पहाड...सच में जैसे मै पहाडों पर घूम रहा हूँ...बहुत सुंदर कविता
ReplyDeleteलावण्या जी, किल्मोड़ा एक तरह का जंगली फल है । यह कुछ जामुनी से गहरे रंग का ओवल व लंबे से आकार का होता है । हाँ हिसालू छूट गए । वे संतरी रंग के दानेदार से (जैसे शहतूत होते हैं ) छोटे छोटे जंगली फल होते हैं ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
बहुत खूब......अन्तकरण से निकली कविता प्रतीत होती है.
ReplyDeleteकविता का आनंद वही ले सकता है जो सच्चा पहाड़ी है -
ReplyDelete'पयो भात के संग पालक कापा' अहा मुंह में पानी आ गया | लाख कोशिश कर के भी इस प्रवासी शहर में न वैसा पालक मिल सकता है न वैसा कापा बन सकता है |
.....इतनी ऊपर आकर तो साँस वैसे ही फुल गई है...धौंकनी की तरह चल रही है...कहूँ तो क्या कहूँ...यात्री तो यहाँ आकर लौट भी चुका....और अब मैं यहाँ आकर जो मटरगश्ती कर रहा हूँ वो कोई अच्छी बात थोडी है...वैसे यहाँ तक ले-कर आने के लिए आपको बहुत-बहुत साधुवाद....!!
ReplyDeleteरचनाधर्मिता का पहाडों से एक गहरा सम्बंध है। आपकी रचना भी इस बात को प्रमाणित करती है।
ReplyDeleteअद्भुत अभिव्यक्ति...प्राकृत
ReplyDeleteसहज...स्वाभाविक !
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बधाई
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
घुघूती-बासूती का आगाज पढ़कर चकित रह गया...आपको धन्यवाद...और आप वो ही हो,जान कर भी अच्छा लगा...एक और धन्यवाद....................
ReplyDeleteबेड़ू पाको बारा मासा
ReplyDeleteबहुत समय बाद ..................सचमुच हज़ारो यादें ताज़ा हो गयी...
वाह! वाह! और बेहतर लिख सकते हैं आप थोड़ा कसाव चाहती है रचना। आप की अनुभूति ज़बरदस्त है।
ReplyDeleteतेरे चीड़ और देवदार
ReplyDeleteदाड़िम,काफल और हिसालू
आड़ू,किलमोड़े और स्ट्रॉबेरी
वाह -वाह !!!
कुमोउन की सुंदर यादें
धन्यवाद घुघूती बासूती
नम आँखों के साथ ...
M.Adhikari "sehar"
sabakii yaadon men ek na ek pahaD hota hai. aapakii kavita ne Duub men aa chukii Tiharii kii yad diladii. aane walii piidhii to bas ab kitabon men hii paDHegii tiharii ko .-joshikavirai.
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