केवल पाँच दशक से कम समय पहले अमेरिका में अफ्रीकी मूल के लोगों (अश्वेत कहें या काले ? ) को अन्य निवासियों के समान मताधिकार आदि प्राप्त हुए । परन्तु इतने कम समय में आज एक अफ्रीकी मूल का व्यक्ति वहाँ का राष्ट्रपति चुन लिया गया है । वे अपने को काला व अमेरिका में कालों पर हुए अत्याचारों की दुहाई देकर या काले, पीलों, भूरों या कुछ ऐसों का गठजोड़ बनाकर नहीं जीते । सबको साथ लेकर अपने स्वयं के बल पर अपने करिश्मे के बल पर जीते ।
क्या ऐसा हमारे देश में नहीं हो सकता ? क्यों हमारे देश में दलितों को अलग दल बनाकर अपने को आगे लाना पड़ता है ? क्यों किसी धर्म या जाति विशेष के लोगों को अपने से जोड़ना पड़ता है ? इसका उत्तर हमारे मुख्य धारा के राजनीतिक दलों को देना होगा । क्यों स्वाभाविक रूप से किसी भी जाति,धर्म के लोग दलों में अपना स्थान बनाकर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नहीं आ पाते ? शायद उदाहरण के तौर पर बाबू जगजीवनराम का नाम लिया जा सकता है । यदि ऐसा होता तो काँशीराम को अलग दल नहीं बनाना पड़ता । मायावती शायद किसी मुख्यधारा के दल में अपना स्वाभाविक स्थान पा चुकी होतीं या पाने वाली होतीं । किसी पी ए संगमा या शरद पवार को अलग होकर NCP का गठन नहीं करना पड़ता ।
जब तक राजनैतिक दलों के नेता राजसी अंदाज में अपनी गद्दी अपने बच्चों को उत्तराधिकार में देते रहेंगे हमारे यहाँ कोई ओबामा मुख्यधारा के दल में पैदा नहीं हो पाएगा, पैदा होगा भी तो पनप नहीं पाएगा । शायद यही भारत व अमेरिका में अन्तर है और यही उसे विकसित व हमें चिर विकासशील देश बनाता है । अमेरिका और किसी बात के लिए महान हो या न हो परन्तु इस बात के लिए तो है। बाराक ओबामा अच्छे राष्ट्रपति साबित हों या न हों परन्तु इस बात के लिए अमेरिका की जनता तुझे सलाम !
घुघूती बासूती
पुनश्चः राजनीति की जानकारी नहीं है परन्तु मानवीय मूल्यों की समझ के अनुसार यह लेख लिखा है ।
घुघूती बासूती
Wednesday, November 05, 2008
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अमेरिकी चुनावों के बहाने आपने बहुत अच्छा मुददा उठाया है। अमेरिका में एक अश्वेत राष्ट्रपति को चुनने में जिस तरह से सभी वर्ग के लोग आगे आए हैं, उसमें ओबामा की योग्यता ही प्रमुख कारण है। दूसरा कारण है वहां की दो दलीव व्यवस्था। यदि भारत में भी दो दलीय व्यवस्था हो जाए, तभी ऐसा कुछ सोचा जा सकता है।
ReplyDeleteभारत को अमेरिकी चुनाव से सीखने में अभी बहुत वक्त लगेगा। लगता है कि अभी विभाजन का जहर समाज में और ज्यादा घुलेगा। जब यहां पर अधिकार देने की बात आती है तो अपने ही लोगों को नीचा दिखाया जाता है, यहां तो कोई बाहरी तत्व भी अब नहीं है। लेकिन विभिन्न मामलों में लड़ाने के लिए उन्हें एकता का पाठ पढ़ाया जाता है। दलितों, पिछड़ों का यही हाल है इस देश में। बहुत बढ़िया मसला उठाया आपने।
ReplyDeleteके आर नारायणन हमारे यहाँ राष्ट्रपति रह चुके हैं और हर धर्मों और सम्प्रदायों के लोग तो बनते ही रहे हैं. हाँ एक बड़ी सीखने की बात है की जीतने का मुद्दा प्रतिभा, व्यक्तित्व जैसी बातें होनी चाहिए. जाति, धर्म, क्षेत्रवाद के नाम पर हो रही गन्दी राजनीति करने वालों को इससे सीखना चाहिए.
ReplyDeleteसही कहा - अमरीकी जनता को सलाम। यहां की जनता को क्या कहें जो उत्तरोत्तर जाति-धर्म-वर्ग के नाम पर धूर्त लोगों के बहकावे में चयन करती है!
ReplyDeleteयहां तो भ्रष्टता और दुश्चरित्रता पर प्रीमियम है।
Rajniti ki jaankaari to mujhe bhi nahi hai, lekin ye sach hai ki jaatigat raajniti yadi khatam ho jaye to bahut si samasyae.n sulajh jaye.n hamari
ReplyDeleteभारत की जो भी खामियाँ हों ..वो अपनी जगह
ReplyDeleteलेकिन
अमरीका की जनता तब महान कहलायेगी जब
-ओबामा के साथ साथ 'की पोज़िशंस' पर सब या ज़्यादा संख्या में अश्वेत लोग हों , अभी तो पावर पोज़िशन पर ओबामा माईनोरिटी हैं और राजनितिक नियम/जोड़तोड़ उन्हें अपने मन की कितनी कर देगी ये कहने वाली बात नहीं
- जब वहाँ रंगभेद खत्म हो जाये ..सिर्फ एक ओबामा से सारे अश्वेत लोगों की स्थिति बदल जाये , सब अवधारणायें खत्म हो जायें , ऐसा सोचना भोलापन होगा
-जब अमरीका दूसरों देशों के प्रति अपना अतंकवादी नज़रिया छोड़ दे
- जब वो भूल जायें कि उनको कोई व्हाईट्स मैंस बरडेन नहीं दिया गया है दुनिया "सुधारने" के लिये
लिस्ट लम्बी है .. कुछ अच्छा है बहुत कुछ वहाँ भी गलत है ..स्वाभाविक है..हर जगह हर तरीके के लोग होते हैं और चीज़ें बदलती हैं , ओबामा बदलाव की तरफ सिर्फ एक छोटा कदम भर हैं ..शायद कई लोगों के हिडेन एजेंडा को इससे समर्थन भी मिले ? वैसे , इतनी गहरी (या कैसी भी ) राजनितिक समझ हमें भी नहीं ।
अमरीका की उम्र है,सिर्फ़ चार सौ साल.
ReplyDeleteलाखों युग से अनवरत, भारत का ये हाल.
भारत का यह हाल,विश्व-बंधुत्व चलाया.
वसुधैव-कुटुम्बकम का पाठ पढाया.
कह साधक अब धारा कुछ बदली-बदली है.
पुनः सँवर जायेगी बन्धु क्या जल्दी है .
अमरीका की उम्र है,सिर्फ़ चार सौ साल.
ReplyDeleteलाखों युग से अनवरत, भारत का ये हाल.
भारत का यह हाल,विश्व-बंधुत्व चलाया.
वसुधैव-कुटुम्बकम का पाठ पढाया.
कह साधक अब धारा कुछ बदली-बदली है.
पुनः सँवर जायेगी बन्धु क्या जल्दी है .
राजनीति सब जगह राजनीती ही होती है.इसमे भ्रष्टता का प्रतिशत केवल कम ज्यादा है सब जगह.जहाँ तक हमारे देश का सवाल है,यहाँ जाती धर्म आधारित दल इसलिए नही खड़ा करते कि बड़े दलों में उन्हें जगह नही मिली,बल्कि सबको देश रुपी इसी एक रोटी के बड़े से बड़े टुकड़े की ललक है,जिसके लिए साम दाम दंड भेद निति अपना,ये दल कुछ भी करने को तैयार रहते हैं.
ReplyDeleteआज यदि अपने ही देश में द्वि दलीय व्यवस्था तो जाए बहुत बड़ी बात नही कि एक लोकप्रिय डिजर्विंग नेता सत्तासीन होगा.
अपना देश जात पात धर्म से उपर उठकर कुछ देखे तो कुछ बात हो..
ReplyDeleteभारतीय जनचेतना पर अभी भी सामंतवादी संस्कार हावी हैं। उन्हें निर्मूल करने के लिये हमारी सदिच्छाएं
ReplyDeleteपर्याप्त नहीं हैं। सचेतन संघर्षों व प्रयासों के अतिरिक्त अन्य कोई रास्ता नहीं है।
आपकी बात से सहमत हूँ ! अमरीकी जनता का यह फैसला जात पात, धर्म, और वर्ग भेद से से ऊपर उठकर है ! हमारे यहा भी ऎसी परिपाटी रही है ! पर वहा के चुनाव और हमारे यहाँ के चुनाव में मुझे कुछ फर्क लगता है ! जिससे हमारे यहाँ भी जात, पात और वर्ग भेद से ऊपर उठ कर जो व्यक्ति चुने गए हैं उससे हर व्यक्ति संतुष्ट नही देखाई देता ! पर अमरीकी प्रजतात्न्त्र शायद हमसे ज्यादा मेच्योर है ! मैं श्री अभिषेक ओझा साहब की टिपणी से अपनी राय को ज्यादा करीब पाता हूँ !
ReplyDeleteराजनीति की इतनी समझ नहीं है .पर बदलाव उस दिशा में अच्छा लगता है जब कुछ काम जनता और इंसानियत की भलाई के लिए हो और अपने स्वार्थ से ऊपर उठ कर हो ...देखते हैं आगे क्या होता है ..
ReplyDeleteNischit roop se yeh badlav ki shuruaat to hai. Saparivar behtar swasthya ki shubhkaamnaon ke sath swagat mere blog par bhi.
ReplyDeleteप्रत्यक्षा जी बात से सहमत हूँ..देखे वक़्त किस करवट बैठता है....भारत में भी कमजोर जाती वाले लोग ऊँचे पदों पर रहे है पर इनसे शोषण पर कोई फर्क नही पढता हाँ वहां का मतदाता यहाँ की अपेक्षा ज्यादा जागरूक है ओर उसके पास चुनने के लिए दो ही ऑप्शन है
ReplyDeleteहमें समझ लेना चाहिए कि जाति, धर्म, रंग, लिंग सब कृत्रिम भेद है। इन्सान इन्सान बराबर हैं।
ReplyDeleteYes this is the true democratic process and historic moment for America and for the globe and will have far reaching consequences.
ReplyDelete.
ReplyDeleteमैं आपसे असहमत होने की अनुमति चाहूँगा, घूघूती जी !
दोनों देशों की तुलना नितांत गैर-व्यवहारिक है ओबामा की जीत, निश्चित ही स्वागतयोग्य है,किन्तु..
अपने यहाँ, इतनी ढपलियाँ हैं और नित नये निकाले जाते इतने राग हैं, कि यह संप्रति तो कल्पनातीत ही लगता है
अमेरीकी जनता बहुत जल्दी ही किसी भी चीज से ऊब जाती है, व नित नये परिवर्तन की तलाश में रहा करती है
यहाँ तो ’राम रचि राखा' अब तक गाये जा रहे..
फलस्वरूप नागनाथ साँपनाथ बन कर और साँपनाथ नागनाथ बन कर हाज़िर हो जाते हैं
सही दिशा मेँ सही कदम है ..
ReplyDeleteआगे कई कठिनाइयाँ आयेँगीँ
- लावण्या
ओबामा की विजय सचमुच ऐतिहासिक है. अमेरिकी तंत्र में भी बहुत कमियाँ हैं जहाँ वे हमारे अनुभवों से सबक ले सकते हैं मगर हमें तो अपने ज्ञानचक्षु काफी ज़्यादा खोलने हैं. हमारे नेता आज भी तोड़ने की राजनीति ही कर रहे हैं.
ReplyDeleteअमिरिकियों को काफी दूरदर्शी कहा जाता है.
ReplyDeleteदेखना है की ओबामा महाशय कहाँ तक जाते हैं.
बेशक सही विवेचना आपकी किन्तु डां अमर जी का तर्क भी अकाट्य नहीं
ReplyDeleteबहरहाल आप दोनों को बधाई
यहां का तो पता नही क्या है लेकिन सचमें अमेरिका की जनता को सलाम तो हम भी करते हैं।
ReplyDeleteओबामा 'अमेरिका में कालों पर हुए अत्याचारों की दुहाई देकर या काले, पीलों, भूरों या कुछ ऐसों का गठजोड़ बनाकर नहीं जीते'लेकिन मायावती कुछ इसी प्रकार की दुहाई और गठजोड़ के भरोसे प्रधान मंत्री की कुर्सी की तरफ़ ताक रही हैं | अपनी योग्यता के भरोसे नहीं |
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