जब सहारे ही कोमल बेल बन जाएँ
तो बेलें सहारे को कहाँ जाएँ ?
दूर रहने लगें जो मित्र थे अपने
तो मित्र खोजने कहाँ जाएँ ?
जब परछाई ही अपनी डराने लगे
तो निर्भय होने कहाँ जाएँ ?
जब रिसने लगें चट्टानें हीं
तो सिर टकराने कहाँ जाएँ ?
खिसकने लगे पैरों तले की धरती
तो पैर टिकाने कहाँ जाएँ ?
जब सरक जाएँ दीवारें ही अपनी जगह से
तो छत टिकाने को कहाँ जाएँ ?
जब टुकड़ा टुकड़ा आकाश टूटे
तो उन टुकड़ों को लगाने कहाँ जाएँ ?
जलाने लग जाए चाँद गगन का
तो जलन बुझाने कहाँ जाएँ ?
जब घायल कर जाएँ तितलियाँ भी
तो बचने को कहाँ जाएँ ?
जब रुलाने लगें कहकहे भी
तो मुस्कराने को कहाँ जाएँ ?
रूठने लगे जिन्दगी ही जब हमसे
तो जीने को कहाँ जाएँ ?
जब खो दें घर का पता अपना
तो खुद को ढूँढने कहाँ जाएँ ?
घुघूती बासूती
Monday, October 13, 2008
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कविता पर आप के सद्य अतीत का बहुत असर है, होना भी चाहिए। ऐसे में बेलें जमीन पर चलती हैं और मजबूत हो जाती हैं।
ReplyDeleteअच्छी रचना के लिए बधाई।
ईतने दिनों बाद आपको फिर ब्लॉग पर देखना अच्छा लगा। अच्छी कविता।
ReplyDeleteघुघूती जी,
ReplyDeleteविषाद का स्वर सिर्फ कविता मेँ ही रहे और आप स्वस्थ व सानँद रहेँ
यही कामना है ~~
पल्लवी जी भी आपकी खबर पूछ रहीँ थीँ और हम सभी को आपका इँतज़ार था ..
आज आपकी कविता पढकर
खुशी हुई कि आप आ गईँ :)
स स्नेह्, सादर,
- लावण्या
जब रुलाने लगें कहकहे भी
ReplyDeleteतो मुस्कराने को कहाँ जाएँ ?
बहुत बढिया। वाह। किसी ने कहा है कि-
हर राह जिन्दगी की पुरखार आजकल।
जीना है आदमी का दुश्वार आजकल।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
Itni dumdaar wapasi, har line/para jabardasst hai puri kavita to comment me copy nahi kar sakta.
ReplyDeleteSwasthya wagerah sab thik thak hai na.
ईतने दिनों बाद आपको फिर ब्लॉग पर देखना अच्छा लगा।
ReplyDeleteजब सहारे ही कोमल बेल बन जाएँ
ReplyDeleteतो बेलें सहारे को कहाँ जाएँ ?
welcome back
जाना कहाँ है, यहीं रहना है.
ReplyDeleteकाफी दिनो बाद आपकी वापसी सुखद लग रही है.
जब टुकड़ा टुकड़ा आकाश टूटे
ReplyDeleteतो उन टुकड़ों को लगाने कहाँ जाएँ ?
जलाने लग जाए चाँद गगन का
तो जलन बुझाने कहाँ जाएँ ?
जब घायल कर जाएँ तितलियाँ भी
तो बचने को कहाँ जाएँ ?
is kavita mein ek bechaini nazar aati hai...bahut khoob kavita hai!poori kavita mein mool bhaav bakhoobi dil mein utar jata hai!
and welcome back..sir jaldi theek ho jaaaye ye kaamna hai!
जब टुकड़ा टुकड़ा आकाश टूटे
ReplyDeleteतो उन टुकड़ों को लगाने कहाँ जाएँ ?
जलाने लग जाए चाँद गगन का
तो जलन बुझाने कहाँ जाएँ ?
जब घायल कर जाएँ तितलियाँ भी
तो बचने को कहाँ जाएँ ?
बहुत दिनों बाद आपका लिखा पढ़ा बहुत अच्छा लगा ..लिखती रहे
उदास उदास बातें करने लगी हैं आप और वो भी इतने दिनों बाद।
ReplyDeleteख़ुशी हुई आपको वापस पढ़कर
एक उदास कविता के बाद लंबे वनवास से जैसे लौटी .......अच्छा लगा आपको देखकर ,उम्मीद है सब कुशल होगा !अगली बार कोई मुस्कान देने वाली कविता का इंतज़ार रहेगा
ReplyDeleteजब खो दें घर का पता अपना
ReplyDeleteतो खुद को ढूँढने कहाँ जाएँ ?
बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति!
इतने लंबे समय तक अनुपस्थित रह आपने चिंतित कर दिया था ? ऐसे बिना बताये न चली जाया करें,कुछ संदेश छोड़कर जायें आपसे यही आग्रह है.
ReplyDeleteविषाद के रंगों में रंगी रची यह रचना मन बोझिल कर गई.पर बहुत सुंदर लिखा है आपने.
अंतर्विरोधों का सुंदर संयोजन।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteअंतरमन की कशमकश है
जब रिसने लगें चट्टानें हीं
ReplyDeleteतो सिर टकराने कहाँ जाएँ ?
खिसकने लगे पैरों तले की धरती
तो पैर टिकाने कहाँ जाएँ ?
जब सरक जाएँ दीवारें ही अपनी जगह से
तो छत टिकाने को कहाँ जाएँ ?
khoob kha aapne .
wow...too good , but my initial interpretation still stands...:)
ReplyDeleteजब रिसने लगें चट्टानें हीं
ReplyDeleteतो सिर टकराने कहाँ जाएँ ?
बहुत सुंदर।
ब्लॉगजगत में नया होने के कारण आपसे पहली बार आपकी इस कविता के माध्यम से परिचय हुआ है। आशा है भविष्य में उम्दा रचनाये पड़ने को मिलेंगी। सादर
kavita padhker achha laga
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद तशरीफ़ लायीं आप ब्लॉग जगत में लेकिन एक जबरदस्त कविता के साथ...बेहद खूबसूरत लफ्ज़ और कमाल के भाव...वाह...
ReplyDeleteनीरज
आप बहुत दिनों बाद आयीं. आपकी रचनाएँ बहुत खूबसूरत होती हैं ये दिल के गहराइयों से निकलती हैं तभी तो दिल को छो जाती हैं.
ReplyDeletehmmmm Samvedanshil rachana.... yaad aa gaya geet.... sawan jo aag lagaye use kaun bujhaye
ReplyDeleteSWAGAT hai AAPKAAAAAAAA......
ReplyDeleteआदरणीय घुघूती जी,
ReplyDeleteआपको दुबारा यहाँ पाकर बहुत खुश हैं हम। हाँलाकि यहाँ आने में हमने खुद ही बहुत देर कर दी है। छुट्टियों का मौसम जो रहा है इन दिनों।
आपकी कविता पढ़कर मैं सोच में पड़ गया। किस स्थिति की कल्पना कर बैठी हैं आप?
...जब सहारे ही कोमल बेल बन जाएँ, दूर रहने लगें जो मित्र, जब परछाई ही अपनी डराने लगे, जब रिसने लगें चट्टानें हीं, जब खिसकने लगे पैरों तले की धरती, जब सरक जाएँ दीवारें ही अपनी जगह से, जब टुकड़ा टुकड़ा आकाश टूटे, जब जलाने लग जाए चाँद गगन का, जब घायल कर जाएँ तितलियाँ भी, जब रुलाने लगें कहकहे भी,जब रूठने लगे जिन्दगी ही , जब खो दें घर का पता अपना...
यह सब जब होने लगेगा तो हम होंगे ही कैसे? यह तो साक्षात् प्रलय का वर्णन है। कामायनी की प्रारम्भिक पंक्तियाँ याद आने लगीं। बेहद भावुक हो चलीं हैं आप... और अब हम भी।