नारियों के,
भारतीय नारियों के जलने पर
क्यों अफसोस है
वे तो सदा से ज्वलनशील रही हैं
उसमें न हमारा कोई दोष है,
नहीं तो कोई
उसके जीवित जलने की कल्पना
भी कैसे करता?
तब, जब हम चला रहे थे
अग्नि बाण
जब उत्कर्ष के चरम पर था
हमारा इतिहास
तब भी माद्री बन रही थी
जीवित मशाल।
तब जब हम थे भाग रहे
मुगलों से मुँह छिपा
जब पतन की गर्त में था
हमारा इतिहास
तब भी हम गौरान्वित थे,
क्या हुआ जो हम
न बचा सके अपनी
बेटियों की लाज,
ब्याह रहे थे उन्हें मुगलों से
पाने को कुछ स्वर्ण ग्रास
तब भी पत्नियाँ तो थीं हमारी
सीता, सती व सावित्री
कूद रहीं थीं पद्मिनियाँ
जलने को जौहर की आग में।
फिर जब बन रहे थे
पढ़ अंग्रेजी
जैन्टलमैन बाबू हम
तब भी इन ज्वलनशील नारियों
ने डुबाया था नाम देश का
आना पड़ा था इक
राजा राममोहन रॉय को,
जब भी कोई भद्र
मरणासन्न बूढ़ा खोलता था
करवा कन्यादान
किन्हीं नन्हीं बालाओं के
माता पिता के स्वर्गद्वार
तब उसके मरने पर
बैठ जातीं थीं चिता पर
ये नन्हीं बालाएँ
प्यार में उस वृद्ध के।
आज जब हम
दौड़ में बहुत आगे हैं
हमने आइ टी में रचा है
इक नया इतिहास
तब भी क्या करें
ये ज्वलनशील नारियाँ हमारी
कभी भी
इक माचिस की तीली की
छुअन से जल जाती हैं,
हम नहीं चाहते परन्तु ये
न जाने क्यों भस्म हो
जल मर जाती हैं?
हम भी तो हैं फूँकते
न जाने कितने अरब
सिगरेट और बीड़ियाँ
क्या जली है मूँछ भी
कभी गलती से हमारी आज तक?
फिर न जाने क्या गलत है
डी एन ए में
भारतीय ही नारी के
क्यों ज्वलनशील है वह
हम नहीं हैं जानते।
घुघूती बासूती
पढ़कर मजा आया।
ReplyDeleteबहुत बहुत अच्छी कविता .कई बार पढ़ी ..
ReplyDeleteफिर न जाने क्या गलत है
डी एन ए में
भारतीय ही नारी के
ज्वलनशील है वह
हम नहीं हैं जानते।
लाजवाब कर दिया आपकी इस कविता ने मुझे ...
बहुत अच्छी कविता है. निरुत्तर है. वैसे भी मूंछ को बचाने के लिए सारी उर्जा खर्च करनेवाला हमेशा निरुत्तर ही रहेगा.
ReplyDeleteसिगरेट और बीड़ियाँ
ReplyDeleteक्या जली है मूँछ भी
अब इस पर क्या जवाब दें?
bhaav ki ushmaa yahan tak pahunch rahi hai....jilaye rakhiye ..
ReplyDeleteबहुत गहरी बात पर इसमें बेचारे पुरूष का भी क्या दोष.. शायद नारी को जलाने का जीन भी उसके डी एन ए में मौजूद हो.. सदियों से।
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी .. हमेशा की तरह इस रचना ने भी दिल को गहरे तक छू लिया और सोचने पर विवश कर दिया कि क्यों ज्वलनशील है नारी...!
ReplyDeleteमैम बहुत ही तगड़ा कटाक्ष किया है वाह!
ReplyDeleteघुघूती जी, इस बेहद सम्वेदनशील कविता पर टिप्पणी बाद में करूंगा लेकिन अभी तो प्रथम टिप्पणीकार अनुजा जी से यह जानने की इच्छा है कि इस कविता में भी ‘मजा’ कैसे आया।
ReplyDeleteइशारो इशारों में सब कह गयी आप.....
ReplyDeletemarm ko chhone waali par sawaal jas ka tas hain, kyon aaj bhi jal rahi hain ladkiyan.
ReplyDeleteफिर न जाने क्या गलत है
डी एन ए में
भारतीय ही नारी के
क्यों ज्वलनशील है वह
हम नहीं हैं जानते।
Bahritay naari ke nahi purushon ke DNA/gene me gadbadi hain???
पता नही लोग ऐसी बातो मे भी कैसे मजा ले लेते है शायद यही सोच लोग बहू को दहेज के लिये जलाते समय भी रखते होगे . मजा आया, पता नही काहे मे आया क्यो आया. आपका आज का लेखन गंभीर सोच का विषय है मजे का नही
ReplyDeleteघुघूती जी बहुत मार्मिक कविता है ! खासकर कविता का आखिरी अंश समाज पर अघरा व्यंग्य करता है साथ ही कई सवाल मन में पैदा करता है!
ReplyDeleteसिद्धार्ध जी, जो हमें दिखता है वह सदा सच नहीं होता। मैंने जब यह कविता पोस्ट करनी चाही तब मेरे नेटवर्क में कुछ समस्या थी। एक मित्र से कविता पोस्ट करवाई और पाया कि कविता का केवल आखिरी पहरा पोस्ट हुआ था। सौभाग्य से दो तीन कोशिश के बाद में पूरी कविता पोस्ट कर पाई। अनुजा जी व पहले तीन चार टिप्पणीकारों को मेरी कविता का केवल आखिरी पहरा दिखा। सो हो सकता है उन्हें यह मज़ेदार लगा हो। कृपया, बिना जाने निष्कर्ष पर न पहुँचिए।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
GB Mam
ReplyDeletekavita ki tareef karuy aur aap ki kavita ki , itnii yogytaa nahin par phir bhi aanch haen aur vishvaas rakhey jo aanch aap jalaa rahee haen usko ham sab hawaa daetey rahegae jab tak ज्वलनशील नारियों
ko jawaala naa bannaa aajaye
सही है.
ReplyDeleteसही है.
ReplyDeleteबहुत ही मर्मस्पर्शी कविता..
ReplyDeleteविचारोत्तेजक कविता!
ReplyDeletebahut khoob kaha aapne..teekha par sateek kataksh
ReplyDeleteअब ये आग
ReplyDeleteसिर्फ हौसलोँ मेँ रहे ..
हमेशा के लिये,
सती प्रथा बँद हो
यही आह्वान है -
-लावण्या
@“कृपया, बिना जाने निष्कर्ष पर न पहुँचिए।”
ReplyDeleteमेरी पिछली टिप्पणी को दुबारा देखकर बताइये कि मैने क्या निष्कर्ष निकाला है। मुझे ‘पंगेबाज’ अरुण जी की तरह ‘मजा’ का तत्व थोड़ा अटपटा लगा जरूर था लेकिन मैने विनम्रता से पूछा भर था-“कैसे?” निष्कर्ष पर तो आप पहुँच गयीं।
आपको ‘प्रणाम’ करके खिसकता हूँ। बाप रे!
बहुत उम्दा...विचारोत्तेजक कविता!
ReplyDeleteनि:संदेह विचारोत्तेजक।
ReplyDeleteअक्सर जब आप इस तरह की खबरें अखबारों में पढ़ती होंगी तबकी आपकी स्थिति का चित्रण शायद मैं कर सकता हूं।
" आक्रोशित मन पर कुछ न कर सक पाने की हताशा भी"
इस आक्रोश की अभिव्यक्ति मार्मिक बन पड़ी है । सही कटाक्ष किया आपने -
ReplyDeleteमूछ बचाने के प्रयास और उसमें सफलता के पीछे खोखली पुरुष मानसिकता और अहम उजागर हो रहा है ।
विचारोत्तेजक.
ReplyDeleteझकझोर देनेवाली कविता.
आभार.
निःसंदेह ही एक तल्ख़ सच्चाई और झकझोर देने वाली कविता ,
ReplyDeleteमाहौल बड़ा सेन्टी सेन्टी हो रहा है, इस मर्ज़ की दवा फिलहाल
कोई निकाल न सका है, सो दर्द को कम करने की जिम्मेदारी यह
नाचीज़ अपने ऊपर लेता है..
घुघूती जी, मैंने तो अपनी मूँछ भी साफ़ करा दी है,
या करवा दी गयी है, बीड़ी सिगरेट का तो सवाल ही नहीं अपुन के
पास..फिर भी मेरी पंडिताइन क्यों जलती कुढ़ती रहती हैं ?
मेरा मज़ाक काल्पनिक सही, किंतु कई मित्रों को बिसूरते देखा है,
सो रस्मी टिप्पणियों से हट कर यह प्रेषित कर ही लेने दीजिये..
किंतु यह कविता झकझोर देने वाली एक तल्ख़ सच्चाई, दो राय नहीं !
कविता सचमुच विचारणीय है, किसी को दोष नही दे सकते हैं,नारी खुद नारी की दुश्मन बनी बैठी है सदियों से,पिता का हमेशा बेटी के प्रति प्यार दिखाया जाता है,और दिखाया क्या हम महसूस नही करते कि हमारे पिता हमे कितना प्यार करते है, मगर माँ हमेशा पुत्र को अधिक प्यार करती आई है,यह सच है, नारी हमेशा से ज्वलनशील रही है,इर्ष्या भी तो नारी में कम नही होती एक दूसरे के प्रति,वो अन्दर से भी जलती है और बाहर से भी जलती है...खुद अपने अहम की वजह से अपनी बेफ़कूफ़ियों की वजह से जलती है,पुरूष क्यों नही सती होते उसे ही क्या जरूरत है,पुरूष क्यों नही विधवा भेष धारण कर बैठते,मगर यह सब नारी खुद करती है,आज भी तो जाग गई है अपने अधिकारों के लिये,मगर आज भी क्या कर रही है,चोरी छिपे ही सही जल तो आज भी रही है....जिस दिन सचमुच नारी अपना अस्तित्व अपनी मान-मर्यादा समझ जायेगी,अपने अन्दर से इर्ष्या-द्वेष की भावना को खत्म कर देगी,और नारी नारी की रक्षक बन जायेगी,मै समझती हूँ उसे कोई जला नही पायेगा...
ReplyDeleteभारत में कुछ ज्यादा लेकिन इस कविता का मूल पूरे विश्व भर के महिलाओ और मूंछ वालो के लिए है
ReplyDeleteयह कविता नहीं, सचाई से सामना है । बिजली के करण्टदार तार हाथों में थमा दिए । इन सवालों के जवाब बातों से नहीं, आचरण से ही दिए जा सकते हैं जिसकी तैयारी कहीं नजर नहीं आती । जो कुछ कहना चाहता हूं वह अनुभूति के मुकाबले बहुत कम लगता है । अत्यन्त विचारोत्तेजक और नि:शब्द कर देने वाली प्रस्तुति ।
ReplyDeleteउधार की दो पंक्तियां याद आ रही हैं -
पीडाओं के सौ-सौ सागर मैं ने हंस-हंस पी डाले
लेकिन तेरे पनघट पर तो मेरा कवि भी हार गया है
अब भी हर रोज ऐसी कितनी ख़बरों से सामना होता है,कभी देह जलती है,कभी रूह।
ReplyDeleteघुघूती जी
ReplyDeleteमेरी पोस्ट के लिए दिया लिंक सही काम नहीं कर रहा है.
हो सके तो कृपया ठीक करदें.
सच है.
ReplyDeleteएक और बेहतरीन, मर्मस्पर्शी कविता....
ReplyDeleteशायद ऐसे ही शब्दों के बारंबार आघात से कुंद पड़ चुकी संवेदनशीलता फिर से जग सकेगी।
बालकिशन जी, लिंक ठीक कर दी है। असुविधा के लिए खेद है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
बेहतरीन...सार्थक रचना...
ReplyDeleteआपकी होली शुभ हो...