पिछले लगभग दो तीन महीने से अधिक समय से ब्लॉग कम ही पढ़ पा रही थी। आज समय मिला और बहुत से नए पुराने ब्लॉग पढ़े। उनमें ही श्री सुरेश चिपलूनकर जी के लेख 'अन्तिम संस्कार के विषय में शवयात्रा, श्मसान व शवदाह( भाग१, भाग२ , भाग३ )' के बारे में तीन भागों में पढ़ा। उनके विचार व इस विषय पर जिसपर कोई भी बात करने से हिचकिचाता है, लिखना अच्छा लगा। उन्होंने इन लेखों को एक पुरुष के नजरिये से बहुत भली भाँति लिखा है। मृत्यु से जुड़ी सारी आवश्यक बातों के बारे में बात की है। यहाँ तक कि शरीर दान, नेत्र दान आदि के विषय में भी और पर्यावरण की दृ्ष्टि से विद्युत दाहघरों की भी बात की है। ये तीनों लेख सहेजने लायक हैं। परन्तु मृत्यु के साथ और भी बहुत सी भावनात्मक बातें जुड़ी हैं। मैं इन पर बात करना चाह रही हूँ। विषय कठिन व गंभीर है , सो यदि कोई भी बात कहीं गलत या हृदय को दुखाने वाली हो तो क्षमाप्रार्थी हूँ।
मृत्यु से मेरा नाता बहुत पुराना है। बचपन में ही ११ वर्ष की आयु में पहली बार इस त्रासदी को जिया था। मृत्यु क्योंकि अपनी की थी पर अपने घर में नहीं हुई इसलिए शव नहीं देखा, केवल दुख झेला। उस समय की याद करने पर यही सोचती हूँ कि आस पड़ोस के लोग आमतौर पर वयस्कों को ही संभालते रह जाते हैं व बच्चों को भूल जाते हैं। घर के वयस्क भी अपने दुख से इतने त्रस्त होते हैं कि बाल हृदय पर क्या बीत रही होगी, सोचने की सामर्थ्य खो बैठते हैं। बड़े रो लेते हैं, चीख लेते हैं, उन्हें सम्भालने को उनके मित्रों व सम्बन्धियों की पंक्ति खड़ी होती है, परन्तु बच्चे यदि रो नहीं रहे होते तो अपने हाल पर छोड़ दिए जाते हैं। आमतौर पर बच्चे सन्न रह जाते हैं, वे रो नहीं पाते। जो हो रहा होता है उसका उनको कोई पूर्व अनुभव नहीं होता। वे नहीं जानते कि उनसे कैसे व्यवहार की अपेक्षा की जाती है। माँ को वे चुप नहीं करा पाते क्योंकि माँ लोगों से घिरी होती है। यदि मृत्यु किसी अन्य शहर में हुई होती है तो पिता सूचना मिलते ही किसी के आँसू पोछने की बजाय वहाँ का रुख कर लेते हैं। घर में रह जाते हैं बिलखती माँ व नासमझ बच्चे।
जब पिताजी मृत्यु का तार लेकर आए तो मैं स्कूल जाने के लिए तैयार हो बाल बना रही थी। माँ दहाड़ें मारकर रोने लगीं व 'यह सच नहीं हो सकता, कह दो कि यह झूठ है' कह रही थीं। मैं चुपचाप स्कूल के लिए चली गई। दो तीन पीरियड स्कूल में बैठी माँ के रोने को याद करती रही। यह सोचती रही कि माँ अब भी रो रही होंगी। ना जाने उनका क्या हाल होगा। दीदी मर नहीं सकती। यह सब गलत है, सोचती रही। फिर माँ को देखने की इच्छा बलवती हुई। अध्यापक से घर जाने की अनुमति माँग घर वापिस चली गई। परन्तु तब तक तो वहाँ स्त्रियों का जमावड़ा लग गया था। मेरी माँ मेरी नहीं रही थीं। वे मेरी ओर नहीं देख रहीं थीं। वे उस पल केवल मृत दीदी की माँ रह गईं थीं। वे मुझे यह सब क्या हो गया नहीं समझा रहीं थीं। मेरी वह माँ, जो हमसे मित्रों सा व्यवहार करती थीं, मुझे कुछ भी समझाने की स्थिति में नहीं थीं। मैं केवल अपने बल पर उस स्थिति से निपट सकती थी। उस उम्र में उस स्थिति से निपटने की कला व समझ मुझमें बिल्कुल नहीं थी। मैं केवल दीदी की बच्ची के बारे में सोच रही थी। सोच रही थी कि वह तो केवल डेढ़ वर्ष की है। सोच रही थी कि दीदी तो भगवान की अनन्य भक्त थीं। मृत्यु के दिन भी तो उन्होंने भगवान के लिए ही व्रत रखा हुआ था। पिताजी भगवान के इतने बड़े भक्त थे कि भगवान तो मेरी नजरों में सदा उनके मित्र ही रहे। जब भी मैं भगवान के बारे में सोचती थी या आज भी सोचती हूँ तो पिताजी की याद आ जाती है। बस अपना गुस्सा निकालने को मुझे भगवान ही मिले। और किससे कुछ कहती या पूछती ? सो बगीचे में जो भगवान की नकली पत्थर की प्रतिमा रख हम बच्चे पूजा का स्वांग करते थे उसे उठाकर बगीचे से बाहर फेंक दिया।
अब क्या किया जाए ? सुना था कि मृत व्यक्ति की आत्मा भगवान के पास जाती है। भगवान आकाश में निवास करते हैं । सो सारा दिन आकाश की ओर देखती रही कि शायद दीदी की आत्मा उड़ती हुई जाती नजर आ जाए। वे तो मुझे संसार में सबसे अधिक प्यार करती थीं, शायद वे कुछ पल मेरे पास भी आ जाएँ। ऐसे ही ना जाने कैसे शाम हुई। भाई व दूसरी दीदी का स्कूल कॉलेज से घर आने का समय हुआ। दोनों पास के शहर में पढ़ने जाते थे। मैं उन्हें यह समाचार देने सड़क पर चली गई। भाई को कुछ कहती इससे पहले ही उसके गालों पर आँसुओं की धार देखी। पूछा 'तुम्हें कैसे पता'तो उन्होंने बताया कि अमुक आँटी ने उन्हें जब दोस्तों के साथ हँसता हुआ आते देखा तो कहा कि,'तू ताँ एन्ना हँसदा हुआ आ रिया है, तेन्नू पता नहीं तेरी वड्डी पेण मर गई है।'उस उम्र में भी मन हुआ उस आँटी को पीट दूँ। रोते भाई व दीदी के साथ घर आई। परन्तु मेरी आँखें? उन्होंने तो अभी तक रोना ही नहीं सीखा था। बचपन से वीरांगना रही मैं दोनों को चुप करा रही थी। परन्तु वे मेरी ओर देख ही कहाँ रहे थे? वे घर आकर मेज पर बस्ते पटक उनके ही ऊपर सिर रख जो रोना शुरू हुए तो रोते ही जा रहे थे। रात हो रही थी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ। माँ की स्थिति पागलों की सी थी। भाई व दीदी जिनपर मैं निर्भर कर सकती थी, रोए जा रहे थे। मैं रसोई में गई व आलू की सब्जी व रोटी बनाकर तीनों से खाने का अनुरोध करती रही।
वह काली रात जैसे तैसे बीती। फिर वही रोना धोना। स्त्रियों का घर आकर अफ़सोस करना व घर से निकलते ही दीदी की मृत्यु के विषय में कयास लगाना। मैंने अपनी आँखों से छाती पीटती स्त्रियों को सड़क पर जाकर हँसी मजाक करते देखा। वे दृष्य मेरी आँखें कभी नहीं भूल सकतीं। तीसरे दिन वह मैं ही थी जो डाकघर जाकर दीदी की मृत्यु के वृतांत वाला पत्र लेकर घर आई। रास्ते भर पढ़ती जा रही थी व सो्च रही थी कि क्या मुझे भी किसी ट्रक के नीचे आकर मर नहीं जाना चाहिए। उनके बिना कैसे जिऊँगी। बचपन से सुनती आई थी कि मेरे जन्म के पीछे उनका हाथ था। उनकी किसी सहेली के घर जब छोटी बहन पैदा हुई तो उन्होंने भी 'मुझे एक छोटी सी बहन चाहिए' कहकर घर में तूफान मचा दिया था। मेरा बचपन मुख्यतः उनकी गोद में ही बीता था। मैं ही उनकी सबसे प्रिय थी। विवाह के बाद भी मुझे ही वे अपने साथ ले जाना चाहती थीं। जीजाजी तो चाहते ही थे कि मैं भी उनके साथ रहूँ।
अब सोचती हूँ तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचती हूँ कि जिस भी परिवार में किसी की मृत्यु हो,उस परिवार के मित्रों को बच्चों को नजरअन्दाज नहीं करना चाहिए। वे रो नहीं सकते तो क्या,वे अन्दर ही अन्दर घुट रहे होते हैं। उनसे बात करनी चाहिए,उन्हें रोने का अवसर देना चाहिए। और कुछ नहीं तो माँ का ध्यान उनकी ओर आकर्षित करना चाहिए। मैंने तो इस बात को गाँठ बाँध लिया है।
मेरा मृत्यु से दूसरा सामना विवाह के बाद हुआ। पास में ही पति के कारखाने में ही काम करने वाले एक सज्जन की कारखाने मे दुर्घटना हो गई। मैं पड़ोस में अपनी एक सहेली के घर चकली(एक तरह की नमकीन) बनाने गई थी। हम मिलकर ही कुछ भी लम्बा काम हाथ में लेते थे। जब घर लौटी तो पति की खून से भीगी कमीज देखी। उसे हाथ में लेकर कुछ समझने की कोशिश ही कर रही थी कि पति का फोन आया। पूछा कि तुमने कमीज देख ली। कखग की दुर्घटना हो गई है। वह खून मेरा नहीं है उनका है। मैं उन्हें सीढ़ियों से कन्धे पर उठाकर एम्ब्यूलेंस तक ले गया था इसलिए खून से मेरी कमीज भर गई। वह खून मेरे पति का न होकर किसी और के पति का था, जानकर जो राहत मुझे हुई, आज भी सोचती हूँ तो मन ग्लानि व अपने स्वार्थीपन पर लज्जित होता है। परन्तु मृतकों की सूची में आपके अपनों का नाम नहीं है जानकर कौन खुश नहीं होता होगा। खैर, उस मृत्यु में मैंने यह ध्यान रखा कि उनकी नन्हीं सी बेटी का ध्यान अवश्य रखा जाए।
मृत्यु ने हमारे घर की राह देख ली थी,सो उसने पीछा नहीं छोड़ा। घर में और भी मृत्यु हुई। मैं दूर देश में थी। असहाय सी बस उसके ताँडव को अपनी मन की नजरों से देखती रही,महसूस करती रही। वह जो मुझे जान से भी अधिक प्रिय थी,मेरी बड़ी भी थी, सखी भी थी, जिससे मन की हर बात कर लेती थी,अपने प्यार से लेकर उसके प्यार तक की, हर बात कर लेती थी, चली गई थी। और मैं, सूखी आँखें लिए बस बैठी रही।
जब हम दक्षिण भारत में थे तो एक और मृत्यु को बहुत करीब से देखा व जाना। हमारे घर के पास रहने वाले एक वरिष्ठ मैनेजर की अकाल मृत्यु हुई। मुझे पति के एक सहयोगी की पत्नी ने फोन पर सूचना दी। पति जो की वहाँ वरिष्ठतम पद पर थे बाहर गए हुए थे। मृत व्यक्ति का बड़ा बच्चा मेरी छोटी बेटी का सहपाठी था। दोनों बेटियों को लेकर उनके घर भागी। रास्ते में समझाती गई कि तुम दोनों बच्चों का ध्यान रखना। उन्हें सम्भाल लेना।
मृत व्यक्ति पति से कनिष्ठ थे। पत्नी मुझसे उम्र में दो चार साल कम। अकाल मृत्यु थी। वह व्यक्ति घर लौटे ही थे,पत्नी पानी ला ही रही थी कि वे बिस्तर पर गिरकर मर गए थे। पत्नी को अभी भी विश्वास नहीं था कि वे मर गए थे। मैंने एकबार फिर दो डॉक्टरों को बुलाया कि उन्हें विश्वास हो जाए। शाम से रात हो गई। उनका हम पड़ोसियों के अलावा वहाँ कोई अपना ना था। रात होने पर सब अपने अपने घर लौट गए। हिन्दी भाषी कम ही लोग थे। वह महिला मृत पति के साथ अकेले रात बिताने की बात सोचकर ही घबरा रही थी। उनके बच्चों को अपनी बच्चियों के हाथ सौंप मैंने वहाँ रात बिताई। हम दो स्त्रियाँ व एक मृत शरीर ! आज भी सोचकर ही झुरझुरी होने लगती है। मृतक के शरीर के बचाव के लिए बर्फ का जुगाड़ करवाया। अपने घर के ए सी निकलवाकर उसके शरीर को ठंडा रखने के लिए लगवाए। उनका अपना घर इतना दूर था कि उनकी बहन ही अगली शाम तक पहुँच पाईं व बोली, 'दीदी आप रुक जाओ मुझे डर लगता है।' सो अगली रात भी वहाँ ही गुजारी। तीसरे दिन मृतक का परिवार वहाँ पहुँच पाया। तब जाकर अन्तिम संस्कार हो पाया। इस बीच उनके बेटों व मेरी बेटियों की वार्षिक परिक्षाएँ भी हुईं। जो बच्चों ने मिलकर दीं व सफल भी हुए। बस मन में यही विचार था कि उनका कष्ट जितना बाँट सकूँ बाँट लूँ। मृत्यु से एक ना एक दिन हम सबको जूझना ही पड़ेगा। यदि मिलकर यह करेंगे तो थोड़ी सी सरलता होगी।
फिर पिताजी गए। मुझे सेवा का पूरा अवसर देकर। परन्तु जब गए तो मैं वहाँ नहीं थी। भगवान के भक्त थे। अपनी मृत्यु का दिन भी मुझे बता गए थे। जैन मुनियों की तरह भोजन, दवा का त्याग कर केवल राम नाम जपते थे। 'हे राम' कहकर चले गए। भाई ने खबर दी, साथ ही यह कहा कि वे मेरे पहुँचने की प्रतीक्षा नहीं करेंगे। ठीक भी था। क्यों शरीर रखकर किसी मृत की मिट्टी पलीत करना! मैं रात भर अपने बगीचे में स्थित बैडमिंटन कोर्ट के एक बेंच पर अकेली बैठी आँसुओं की प्रतीक्षा करती रही। परन्तु वे अपना पूरा जीवन जीकर अपने प्रिय भगवान के पास गए थे, रोना गलत होता।
अब प्रश्न मृत्यु उपरांत के संस्कारों का आता है। सदा यही सोचती थी कि ये सब ढकोसलें हैं। परन्तु जब घर में एक और अकाल मृत्यु से सामना हुआ तो समझ आया कि ये ही सब हमें दुख के उन पलों में पागल होने से बचाते हैं। दुख इतना होता है कि मनुष्य बर्दाश्त न कर पाए। परन्तु जब सारी की सारी क्रियाएँ की जाती हैं तो हम इतने अधिक व्यस्त हो जाते हैं कि एक मशीन की तरह काम करते जाते हैं। उनका शव घर लाया जाना। बर्फ सा ठंडा वह शव जिससे एक महीने पहले ही मैं गले लगी थी, जिसकी गर्माहट इतनी थी कि अपनी बिटिया उन्हें सौंप आई थी, जिसे मैं अपने हाथों से श्रृंगारकर दुलहन बना अपने घर लाई थी, उस ही का एक बार फिर श्रृंगार करने को मुझे कहा गया। स्नान करवाना, नई लाल साड़ी पहनाना, सिन्दूर व बिंदी लगाना,कुछ सोना नाक या मुँह में डालना बताया जाना, मेरा अपनी चेन उतारकर देना, लोगों का 'नहीं नहीं इसके चरयो (मंगलसूत्र) का सोना ही डालो' कहना,फिर इसका रंगवाली पिछौड़ (एक तरह की कुमाऊँनी ओढ़नी जो शादी आदि शुभ कामों में पहनी जाती है) तो लाओ की पुकार! घर छोड़े हुए २३ साल हो गए थे सो मुझे क्या पता कि क्या कहाँ है। न मिलने पर इनकी एक घरजोड़ा जैसी कुछ कहलाने वाली गुजराती साड़ी, जो शुभ अवसरों पर पहनी जाती है, वही लाकर उन्हें ओढ़ा देना। उन्हें विदा करना। वे इन्जिनिरिंग के छात्रों को पढ़ाती थीं, उनके छात्रों, सहकर्मियों के साथ बैठ उनकी बातें याद करना। सुनार का फोन आना कि मैडम ने लक्ष्मी की मूर्ति और्डर की थी वह तैयार है, बंगाली साड़ी वाले का साड़ी लेकर आना कि मैडम हर बार लेती थीं, उन सबको बताना कि मैडम अब नहीं रही।
पूजा पाठ,पंडित जी की न जाने कितनी आवश्यकताएँ होती हैं। (पंडित जी भी ऐसे जिन्हें हम क्या देने की हैसियत रखते! लाखों के फार्म हाउस के मालिक, बेटे विदेश में, पेसमेकर लगाकर जी रहे,हमारे घर में अनुष्ठान करवाने केवल इसलिए आ रहे क्योंकि उनके पिता के हाथों मेरी व मृतक की शादी संपन्न हुई। यहाँ परदेस में कोई और कुमाऊँनी पंडित कहाँ मिलता!) जिन्हें पूरा करते करते होशोहवास खो बैठते हैं। दिन भर अफसोस करने वालों का जमघट। रात होते होते शरीर इतना पस्त हो जाता है कि मस्तिष्क भी काम करने की शक्ति खो बैठता है। मुझे याद है, अफसोस करने आने वालों को तीन जगह अलग अलग बिठाया जाता था। कुछ मित्र इसके तो कुछ उसके, कुछ मृतक के सहपाठी तो कुछ उनके छात्र, तो कोई उनके पिताजी के छात्र, कोई उनके पति के सहकर्मी, कोई रिश्तेदार! उन्हें पानी देना,चाय पिलाना,क्या हुआ,क्यों हुआ बताते बताते शरीर व मन जड़ हो जाते थे। यदि यह सब ना होता तो शायद दुख सहा नहीं जाता। इन्हीं सब बातों में तेरहवी बीत गई। तब तक मन व शरीर दोनों थक हारकर सबकुछ स्वीकार चुके थे।
मृत्यु ही अन्तिम सत्य है, सदा जाना था, परन्तु जब मृत्यु को झेल लो, वह भी बारबार, तो मृत्यु का महत्व समझ आता है और समझ आता है कि मृत्यु को झेलना या किसी और के घर की मृत्यु को थोड़ा सहज बनाना भी एक कला है, जो हमारे बुजुर्गों को भली भांति आती थी। सुख के समय पड़ोसी से कोई मतलब न रखो, परन्तु मृत्यु झेलने की कठिन घड़ियों में उन्हें कभी अकेला न छोड़ो, विशेषकर उनके बच्चों को। मैंने तो मृत्यु की बारबार अपने दरवाजे पर होती दस्तकों से यही सीखा है। शेष तो आप श्री सुरेश चिपलूनकर जी के लेख से समझ गए होंगे।
घुघूती बासूती
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इस लेख से यह सीख लिया कि विषम स्थिति में बच्चों को उपेक्षित न किया जाये।
ReplyDeleteइस पोस्ट को मैं बहुत महत्वपूर्ण पोस्ट रेट करता हूं अपने लिये।
मैं ज्ञान जी से सहमत होता हुआ इस पोस्ट को उच्चतम कहता हूँ...आपकी सोच और लेखनी को नमन!! आभार !!
ReplyDeleteमैं ज्ञान जी से सहमत होता हुआ इस पोस्ट को उच्चतम कहता हूँ...आपकी सोच और लेखनी को नमन!! आभार !!
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर और सहजता से लिखा हुआ लेख....जिसकी उम्र आने वाले कई सालो तक रहेगी...
ReplyDeleteमृत्यु से साक्षात्कार होने पर बहुतेरे ऐसे अनुभव होते हैं जिनके बारे में हम सामान्य परिस्थितियों मे सोच भी नहीं पाते। २७ मई २००८ को मेरे ९८ वर्षीय दादा जी का देहावसान हुआ तो मुझे भी एक मानसिक त्रासदी से गुजरना पड़ा था। वहाँ से लौटकर मैने इसकी चर्चा यूँ की थी।
ReplyDeleteहालांकि आपने मेरे लेखों का उल्लेख किया है, लेकिन आपकी "प्रवाहपूर्ण" लेखनी का कोई मुकाबला नहीं… बेहतरीन पोस्ट
ReplyDeleteआज आपने बहुत सी बातें उठायी है ,मैंने भी एक म्रत्यु देखी है अपने बड़े भैय्या की ,तब मई बहुत छोटा था तीसरी चौथी क्लास में ,घर के सबसे बड़े थे ,मेडिकल में तभी तभी प्रवेश मिला था ,हमें कोई स्कुल से लेने आया ..घर पहुंचे तो पिता को रोते देखा ..दहल गया था क्यूंकि इतनी चोटी उम्र में पिता ही आपके हीरो होते है उन्हें कभी रोते नही देखा था ,माँ बार बार बेहोश हो रही थी ..बहुत छोटे थे ओर माँ को देखकर भी डर गये थे खासतौर से मेरा छोटा भाई ......शायद तभी से मेरे मन में भी एक इच्छा बलवती हुई थी पिता का सपना पूरा करने की .....पर कई महीनो तक डरावने सपने आते रहे थे बड़े भाई को लेकर ...आपने अपने लेख में ढेरो ऐसी बातो को समेटा है जिसकी अक्सर हम चर्चा नही करते ..वैसे द्रिवेदी जी ने भी अपने किसी लेख में थोड़ा अलग विषय वास्तु चुनकर कभी एक लेख लिखा था .आज तक मेरे घर में बड़े भाई की फोटो सामने नही राखी जाती क्यूंकि माँ को दौरे पड़ जाते है....
ReplyDeleteसबसे पहले तो आपकी लेखन शक्ति को प्रणाम.आपकी हिम्मत को भी सलाम जो उन यादों को फ़िर से जी कर उनके बारे में लिखा.बच्चों की मानसिक हालत का बहुत ही सच्चा और मार्मिक विवरण किया आपने.
ReplyDeleteसच में भावों का सहज प्रवाह धाराप्रवाह पढ़ने में सहायक....ऐसे समय में छोटे बड़े सभी को मानसिक बल देने की ज़रूरत होती है... मृत्यु का सत्य जान लेने पर जीना और आसान हो जाता है...
ReplyDeleteबहुत महत्वपूर्ण पोस्ट
ReplyDeleteबार बार आपके लेख को पढा ! भावनाओं को व्यक्त करने के लिए शब्द नही हैं ! वैसे माँ के महाप्रयाण के समय से ही "म्रत्यु" में गहन रुची हुई ! उस समय कठोपनिषद पढा था ! और पढ़ना आज तक भी जारी है ! उत्कंठा थी म्रत्यु को समझने की, पर नही समझ आ रही !
ReplyDeleteकिंतु जो अनुभूती कठोपनिषद पढ़ कर होती है !
वही अनुभूत कर रहा हूँ ! कुछ भी कमेन्ट करने में
अपने आपको असमर्थ पा रहा हूँ ! कुछ उलटा सीधा लिखा गया हो तो मुझे क्षमा कर दीजियेगा !
आपने बड़ी मार्मिक और सार्थक बात समझाई है. ऐसे मौकों पर बच्चों के कोमल मन पर क्या गुजरती होगी, सोचकर ही रोएँ खड़े हो जाते हैं. पोस्ट पढ़ते समय ऐसे बिम्ब उभरते रहे जिनकी कल्पना मात्र से दिल दहल जाता है.
ReplyDeleteआपने एक और अद्भुत बात कही है कि हमारे बुजुर्गों ने मृत्यु और मृत्यु के बाद उसकी भयावहता कम करने के लिए सामाजिकता के बहाने कई उपाय निकाल लिए थे. अलग-अलग क्षेत्रों, समाजों और भूगोलों में ये तरीके भिन्न हो सकते हैं लेकिन इनकी सार्थकता इसी में है कि ये दुःख को घनीभूत होने से रोकते हैं. अगर ये सब गतिविधियाँ न हों तो आदमी शोक से मर जाए!
इस मार्मिक पोस्ट के लिए आपको हजारहा बधाई!
यह एक महत्वपूर्ण लेखों की श्रेणी में आता है।
ReplyDeleteसच का सामना सच के साथ ही किया जा सकता है।
आपके लेख से इसका एहसास तो हो गया। अभी तक पढ़े लेखों में सबसे उपयोगी ।
सुख के समय पड़ोसी से कोई मतलब न रखो, परन्तु मृत्यु झेलने की कठिन घड़ियों में उन्हें कभी अकेला न छोड़ो, विशेषकर उनके बच्चों को। मैंने तो मृत्यु की बारबार अपने दरवाजे पर होती दस्तकों से यही सीखा है।
ReplyDeleteसुलझे हुए...अनुकरणीय विचार
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डा.चन्द्रकुमार जैन
bahut hi mahatvpoorn lekh...atyant maarmik.mratyu par isse achcha dastavej koi nahi ho sakta.
ReplyDeleteअन्तिम सत्य के बारे में बहुत अच्छी तरह लिखा है आपने. साथ ही बाल मनोविज्ञान की भी अनुभवजन्य प्रस्तुति है. काश सभी लोग आप जैसे सुलझे हुए और साहसी होते. यह सब लिखकर आपने बहुत सी आँखें खोली हैं. धन्यवाद.
ReplyDeleteआपने बहुत ही बारीकी से मृत्यु का और उसके साथ जुड़े पहलुओं का वर्णन किया है। पढ़कर बहुत सी ऐसी बातें समझ आई जिन्हे आम लोग भूल अपने दुख में जाते हैं । एक विस्तृत सोच और विशद वर्णन के लिए आभार।
ReplyDeletemrityu se darte darte ham kaise uska saamna kare..yahii bhool jaate hain. Apke lekh ko padhkar laga ki abhi kitna kuch sochna aur taiyaar hona baaki hai. is gahan lekh ke liye aabhar
ReplyDeletemritu....... ye shabda ye ghatanaa badi paas paas se dekhi hai, bade khaas khaas ki dekhi hai, aur isi ke chalte shayad bas in lekho se hil jaati hun kuchh kah nahi paati......!
ReplyDeleteमुआफी चाहूंगा काफी देर से पढ़ा, इसे पर आपने बहुत सटीक व अनछुए मुद्दे पे अपने विचार रखें है।
ReplyDeleteअपने घर मे ही एक गमी के मौके पर यह बातें काफी हद तक महसूस की है मैने।