Monday, February 04, 2008

मेरी सखी

तुमसे मिलकर मुझे ऐसा लगा
जैसे पिछले ये तीस वर्ष
एक मरुस्थल से,रेतीले, कंटीले,
गर्म हवाओं के धूल भरे गुबार से
हमारे बीचोंबीच खिंच गए हैं ।


तुम उस पार खड़ी थीं
और मैं इस पार,
हमारे बीच रबर बैंड सा खिंचा
इतने वर्षों का अनजानापन ।


जब इस तने रबर बैंड को
जिसने बाँध भी रखा था
और तीस वर्षों की
निस्शब्द दूरी को
धुंध सा हमारे बीच
तान भी रखा था ।


मैंने खोलने की चेष्टा की तो
वह खुला और मेरे हृदय पर
चटाक एक थप्पड़ सा वार कर
वापिस अपने स्थान पर तन गया ।


इससे पहले कि मैं तुम्हारे चेहरे पर लिखे
दर्द की भाषा को पढ़ पाती
मेरा हृदय रक्तरंजित हो चुका था ।


अपने बीच पसरे इस कुँहासे को चीरकर
जब मैंने तुम्हें देखने की चेष्टा की
तो ऐसा लगा कि मुस्कराने के प्रयास में
एक टीस बादल बन हमें लपेट रही है ।
यह बादल यदि बरसता तो
क्या जल की बूँदे बन बरसता ?
या इस बादल से तेजाब की बूँदें बरसती ?


मैं कुछ सहमी, कुछ सकुचाई ,
इन बूँदों से अपनी आत्मा को भिगोने को आतुर
खड़ी रही, प्रतीक्षा में खड़ी रही ,
पर वह बादल न जल संचित था न तेजाब ।


वह बादल तो एक खामोशी , एक उदासी
या शायद जीवन की कड़ुवाहट को
वर्षों तक खौलाकर तैयार किए
एक अनजाने तत्व से बना धूँआ भर था।


ना वह पिघला, ना मैं भीगी,
ना भीगा मेरा प्यासा मन ।
कोरी सी रह गई मेरी आत्मा
अतृप्त सी रह गई मेरी तृष्णा ।


कहाँ गया सखी वह स्नेह का अमृत
जो केवल तुम और मैं पीते थे ,
कहाँ गई वह संकेतों की भाषा
जो केवल तुम और मैं समझते थे ?


वह किशोरावस्था का साथ
वह हँसी व खिलखिलाहट,
दिन भर की हर परिचर्या का
मिलकर दिया हिसाब किताब ।


जब जीवन को प्यार ने पहली बार छुआ था
जब अपने अपने प्यार को हमने मिलकर साथ जिया था
जब जीवन का हर विष हर अमृत हमने साथ पिया था
हर अनुभूति को जब शब्दों में दोहराकर एक बार फिर जिया था
अपनी राह के हर काँटे व पुष्प को जब हमने साथ छुआ था ।


जब लगता था कि जीवन की हर राह में
सखी हम साथ चलेंगे ,
जब यूँ लगता था जीवन के हर मोड़ में
सखी हम साथ रहेंगे ।


कितने आँसू इक दूजे के हमने पोंछे
कितने घावों को सहलाया था ,
कितने राज इक दूजे के हमने जाने
कितनी बातों ने हमें गुदगुदाया था ।


उन्हीं बीते क्षणों को फिर से जीने
तुम्हारी मन आत्मा को फिर से छूने
सखी इतनी दूर से मैं आई थी
बीते वर्षों से संजोया स्नेह
देने मैं तुम्हें आई थी ।


कितना कुछ सुनने को था
कितना कुछ सुनाने को
इस बार सोचा था सखी
मिलकर सपने ना हम देखेंगे,
इक दूजे के टूटे सपनों के
सोचा था, मिलकर काँच बटोरेंगे ।


पर बन्द सीप सी,
अपनी आँखों से निकले
हर मोती को
तुम अपने में ही समेटे थीं
यूँ लगता था सीप को खोलूँ
तो आँसू की न बाढ़ आएगी
न धो पाएँगे उसमें हम अपना मन
अपितु हिमखण्ड से जमे ये आँसू
हिम मानव सा हमें जमा जाएँगे ।


तभी तो सीप सी बंद तुमसे मैं मिली
सीप सी बंद तुम्हें मैं छोड़ आई ,
वापिस अपने संग यादों का
ये बंद पिटारा ले आई ।


कई बार यत्न किया था खोलूँ अपने उस बंद पिटारे को
किन्तु देख दर्द से भीगी उन आँखों को
मैं खेलती रही ताले से यादों के उस पिटारे के
कितनी बार चाभी तुम्हें देनी चाही
पर हिम आँसू संजोई तुम्हारी वे आँखें
देख न पाईं मुट्ठी में बंद चाभी ।


अब सखी वापिस जा रही हूँ
भाग रही ये ट्रेन है
उससे भी अधिक तेज
यादों की ये आँधियां हैं
चल रही मेरे मस्तिष्क में ।


पटरियों से समानान्तर
चल रहे हमारे ये जीवन क्या
अब कभी न मिल पाएँगे ,
जब कभी अवसर लगेगा
झाँकने इक दूजे के हृदय मे
हम सखी अवश्य आएँगे ।


घुघूती बासूती

13 comments:

  1. अन्तिम पंक्तियां आशा हैं - निराश होने पर भी जीवित रहने वाली। यह सोचती कि बादल कभी तो परिपक्व होंगे। कभी तो बरसेंगे।
    बहुत सुन्दर।

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  2. ना वह पिघला, ना मैं भीगी,
    ना भीगा मेरा प्यासा मन


    क्या बात है

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  3. sundar bhaav....samay anjaaney hi DUURIYAAN gud_h detaa hai...

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  4. आशा वादी बहुत सुन्दर कविता !!

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  5. पटरियों से समानान्तर
    चल रहे हमारे ये जीवन क्या
    अब कभी न मिल पाएँगे ,
    जब कभी अवसर लगेगा
    झाँकने इक दूजे के हृदय मे
    हम सखी अवश्य आएँगे ।


    ---वाह!! अति उत्तम-यही आशा की किरण चाहिये हर वक्त साथ में.

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  6. देख न पाईं मुट्ठी में बंद चाभी ।
    ऐसा ही कई बार होता है.कोई चाभी देने की कोशिश करता है और हम देख नहीं पाते.न वो मुट्ठी पूरी खोल्ने की हिम्मत रखता है,न हम मुट्ठी के अन्दर झाँकने की.
    हमेशा की तरह संवेदनशील !!!

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  7. तभी तो सीप सी बंद तुमसे मैं मिली
    सीप सी बंद तुम्हें मैं छोड़ आई ,
    वापिस अपने संग यादों का
    ये बंद पिटारा ले आई ।

    बहुत खूब...........

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  8. बढ़िया!
    सुंदर कविता!

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  9. Anonymous11:26 am

    क़ाबिले-तारीफ़

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  10. यादों की ये आँधियां हैं
    चल रही मेरे मस्तिष्क में ,,,,,, भी ! भावभीनी कविता

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  11. जद्दोजहद पहचान के साथ अनचिन्हेपन की ! सहरा की रेत पर आसमान में जल भरे बादल लौटें कि बरसें !
    मन की उथल पुथल को खूब अभिव्यक्त करती हैं पंक्तियाँ !

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