आँखों में नींद नहीं
है किसका इन्तजार
मन में चैन नहीं
क्यों हूँ बेकरार
कोई भी तारा नहीं
क्यों है अन्धकार?
न कहीं है चन्द्र मेरा
न उसकी कहीं प्रभा
बादलों ने यूँ मानो
ढका है आकाश को
ढक दिया है जैसे
मेरे ही मन आकाश को ।
शायद चन्द्र यों छिपा
बचने को मेरे प्रश्न से
जानता है प्रति निशा
होगा उसका मुझसे
मेरी बाट तकती आँखों
व मेरे प्रश्नों से सामना ।
जानता वह नहीं यह
बंदी वह फिर भी रहेगा
चाहे कितना वह भाग ले
मेरे मन में जब बस गया
तो कैसे वह मुझसे दूर है
बंद मेरी आँखों में चन्द्र है ।
नित पूछूँगी वही प्रश्न उससे
चाहे कितना भी वह टाल दे
बादलों को मैं बोल दूँगी अब
ना उसको यों परदे में छिपा
लुका छिपी तो बहुत हो गई
अब कुछ अपना उत्तर भी बता ।
सोचती हूँ चन्द्र से क्या
कोई और भी कभी करता
इतने सारे अन्तस के प्रश्न
या मैं ही हूँ इक बांवरी
जो नित जिज्ञासा लिए
करती रहती हूँ इन्तजार ।
घुघूती बासूती
Monday, October 08, 2007
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सोचती हूँ चन्द्र से क्या कोई और भी कभी करता
ReplyDeleteइतने सारे अन्तस के प्रश्न या मैं ही हूँ इक बांवरी
जो नित जिज्ञासा लिए करती रहती हूँ इन्तजार।
सुंदर छवियां, कोमल भावनाएं। पढ़कर अच्छा लगा।
सुंदर!! बड़े दिन बाद आपकी कोई कविता दिखी!!
ReplyDeleteइंतजार की माया ही ऐसी है। जार-जार हो जाता है तन-मन।
ReplyDelete"या मैं ही हूँ इक बांवरी"
ReplyDeleteइतना तो यकीन है कि आप अकेली नहीं है।
सुंदर कविता।
या मैं ही हूँ इक बांवरी
ReplyDeleteजो नित जिज्ञासा लिए
करती रहती हूँ इन्तजार
वाह मेम बहुत दिनों के बाद आपको पढ़ा है आज बहुत अच्छा लगा
Beautiful ..
ReplyDeleteto wait & watch for the outcome so lucid and crafted.
Abhi
बहुत खूब
ReplyDeleteअति सुंदर. पहली बार पढ़ा आप को. रचना बहुत अच्छी लगी. भविष्य में आपकी रचनायें ज़रूर पढ़ना चाहूंगा.
ReplyDeleteमीत