अहमदाबाद में चिट्ठाकार भोज !
अहमदाबाद में गुजरात के न जाने कितने पकवानों से निधि जी ने हमारे चिट्ठाकार मिलन को चिट्ठाकार भोज बना दिया । ढोकले ही इतने प्रकार के थे कि हम तो चकरा गये । बहुत से
व्यंजन हमारे लिये नये थे । सो नामकरण तो हो गया अहमदाबाद में चिट्ठाकार भोज !
संजय जी ने दिशा निर्देश बहुत सही दिये थे किन्तु मुझे व मेरे ड्राइवर को बड़े शहरों में खो जाने की आदत है । सो कुछ देर से ही हम पहुँचे । संजय जी व अफलातून जी से तो दिल्ली में मिल चुकी थी , यहाँ अफलातून जी की पत्नी स्वाति जी से भी मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । पंकज बेंगाणी जी, योगेश शर्मा जी , रवि कामदार जी,अभिजीत चक्रवर्ती जी एवं अफलातून जी के मित्र सुरेश जी से मिलना हुआ ।
वातावरण कुछ ऐसा था कि लगा ही नहीं कि हममें से बहुत से पहली बार मिल रहे हैं । संजय जी व पंकज जी बहुत सहज ढंग से मेजबानी कर रहे थे। राजनीति व समाजसेवा में मेरा ज्ञान अज्ञान ही कहला सकता है । सो मैं सुनती रही और बीच बीच में अपने अज्ञान को भी दर्शाती रही । स्वाति जी, जिनका ज्ञान मुझसे बहुत अधिक है और जो इन गतिविधियों से जुड़ी हुई हैं, की चुप्पी और मेरी बीच बीच में की गईं टिप्पणियाँ मुझे बार बार याद दिला रहीं थीं कि थोथा चना बाजे घना । खैर, मैं इस कहावत को झुठलाना नहीं चाहती थी सो बजती रही । और जहाँ तक बजने का प्रश्न है हमने खाँस खाँस कर सबके कानों को क्षति पहुँचाई और इसके लिए क्षमा भी नहीं माँग पाई ।
अगली पीढ़ी के हिन्दी प्रेम को देख खुशी हुई । सबसे अच्छी बात यह है कि बहुत से लोग जो कम्प्यूटर से जुड़े हैं उन्हें हिन्दी से लगाव है । सुरेश जी व अफलातून जी दूर दराज के इलाकों के उत्थान की बातें करते रहे । मुझे एक ही प्रश्न अधिकतर परेशान करता रहा कि जिन लोगों के विचारों या भाषा से हम सहमत नहीं हैं , उन्हें दायरे से बाहर रख हम क्या सही कर रहे हैं ?
इसका उत्तर मुझे नहीं मिला । अभी भी खोज रही हूँ ।
अचानक निधि जी पकवानों की सुगन्ध के साथ प्रकट हुईं तो फिर वह सुगन्ध हमें भोजन की ओर खींच ले गई । यदि हमें पता होता इतने प्रकार का माल मिलेगा तो हम दो चार दिन उपवास करके जाते ! खैर डटकर खाया और वजन बढ़ाया ।
अब हम बैठक को समाप्त करते हुए अफलातून जी के पिताजी श्री नारायण देसाई जी के अभिनन्दन के लिए चल पड़े । उन्हें ज्ञानपीठ की ओर से गुजरात विद्यापीठ, जिसके वे कुलपति हैं, में मूर्तीदेवी पुरुस्कार दिया जाना था । दो राज्यपाल व एक भूतपूर्व राज्यपाल इस समारोह में सम्मिलित थे । उनका व्यक्तित्व व सारे परिवार की सादगी मन को छू गई । यदि कोई गाँधी जी के रास्ते पर चलकर जीवन जी रहा है तो वे नारायण देसाई जी ही हैं ।
बाहर पुस्तकों का एक स्टॉल लगा था तो हमने सोचा कि अवश्य ही वे नारायण जी की लिखी पुस्तकें होंगी । किन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं था । यहीं पर प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आबिद सूरती जी से भी भेंट हुई ।
अगले दिन स्टेशन पर मैंने गुजराती का अखबार खरीदा । उसमें हम जैसे अनाड़ियों के मिलन की तो खबर थी पर गुजरात को गौरान्वित करने वाले लेखक , समाज सुधारक के विषय में मुझे कुछ नहीं मिला । मन यह सोच रहा था कि बुकर प्राइज की तो भारत में भी धूम मचती है किन्तु अपने पुरुस्कारों की चर्चा भी नहीं । इस मानसिकता को क्या कहा जाए ? प्रति दिन टाइम्स औफ इन्डिया में मुखपृष्ठ पर किसी विदेशी मॉडेल या अभिनेत्री की तसवीर तो छपती है , पर जिन पर राष्ट्र गौरव कर सके उनकी नहीं ।
कुल मिलाकर दिन बहुत अच्छा बीता । अभिजीत जी, संजय जी व पंकज जी ने बहुत सहायता की और बहुत ही अपनत्व भरे वातावरण में मैंने उनसे विदाई ली । उन्हें बहुत बहुत धन्यवाद ।
हैदराबाद से घर पहुँचे अभी २४ घंटे ही हुए हैं और मैंने एक पैबंद लगा सा लेख लिख ही दिया ।
मेरी निधि जी से प्रार्थना हे कि अगली बार यदि सर्दियों में मिलें तो केवल ऊँधिया व बाजरे की रोटी खिलाएँ । और वे मिलन में उपस्थित रहें ।
धन्यवाद निधि जी, संजय जी ,पंकज जी व अभिजीत जी !
घुघूती बासूती
Friday, October 12, 2007
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इसे पैबंद कह रही हैं तो जब साजा लिखेंगी तब तो क्या हाल होगा-हमें तो यही पढ़ते भूख सी लग आई.
ReplyDeleteअच्छा विचारों का आदान प्रदान हुआ. नारायण देसाई जी के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ-बहुत सफल भोज कहलाया.
उम्मीद है संजय और पंकज यह परंपरा जारी रखेंगे और खास तौर पर निधी जी. :)
अच्छा रहा यह रपट पढ़ने का अनुभव.
आपके इस भोज ने भूख बढ़ा दी.लगता है अब अहमदाबाद जाना ही पड़ेगा.
ReplyDeletehहम तो सूचना पत्र को ढूँढ़ते रह गये और वहाँ सारी प्लेटें साफ़
ReplyDeleteढोकले ही इतने प्रकार के थे कि हम तो चकरा गये ।
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ढ़ोकले के अनेक प्रकार होते हैं?! वाह!
व्यंजन विधि पर पोस्ट या पोस्ट शृंखला की दरकार है।
बिलकुल वाजिब प्रश्न है आपका कि, "जिन लोगों के विचारों या भाषा से हम सहमत नहीं हैं, उन्हें दायरे से बाहर रख हम क्या सही कर रहे हैं?"
ReplyDeleteएक बात और कहनी थी। ऊपर अहमदाबाद और नीचे के पैराग्राफ में हैदराबाद...शायद नीचे गलती से हैदराबाद लिख दिया है आपने।
बहुत खूब! ढोकले कितने प्रकार के होते हैं बताया जाये। अफ़लातूनजी को बधाई।
ReplyDeleteजो भी "जी जी और जी" की रट लगाये, कृपया अहमादाबाद न पधारें, बाकि सबका स्वागत है.
ReplyDeleteनारायनभाई के जीवन को तो छोड़ीये हम तो उनकी भाषा शैली के भी कायल हो गये.
आपको नहीं लगता, आपने कुछ ज्यादा ही.... :)
अनिल जी, बिल्कुल गलती नहीं की या कहिये गलती से गलती नहीं की क्योंकि आमतौर पर गलती करती हूँ । अहमदाबाद का कार्यक्रम इसलिये बना पाई क्योंकि मुझे वहाँ से हैदराबाद की गाड़ी पकड़नी थी । हैदराबाद में लगभग २५ दिन अपनी बिटिया व जवाँई के साथ बिता कर लौटी हूँ ।
ReplyDeleteसंजय यह जी का चक्कर तो मुझे भी जी का जंजाल लगता है पर 'व्हेन इन रोम डू एज द रोमन्स डू !'
और ज्यादा कुछ नहीं हुआ । आप सबके स्नेह को बयान करने को शब्द ही नहीं हैं मेरे पास !
काकेश जी , अहमदाबाद आएँ तो यहाँ हमारे जंगल में भी पधारिये ।
समीर जी, यह तो आपकी खासियत है कि हर रचना में कुछ ना कुछ अच्छा ढूँढ लेते हैं ।
राकेश जी दाने दाने पर लिखा होता है खाने वाले का नाम ।
ज्ञानदत्त जी व अनूप जी ढोकले की ही क्या निधि जी से तो बहुत सारी पाक विधि सीखनी पड़ेगीं । पर जो बात समझ नहीं आ रही है वह यह है कि इतना स्वादिष्ट भोजन करके भी ये बन्धु इतने पतले दुबले कैसे हैं । इस रहस्य से भी परदा उठना चाहिये ।
घुघूती बासूती
अच्छा लगा, इस चिट्ठाकार भोज के बारे में जानकर।
ReplyDeleteनारायण देसाई जैसे सच्चे गांधीवादी लेखक को मूर्तिदेवी पुरस्कार मिलना खुद इस पुरस्कार का सम्मान है।
सभी साथियों को इस अनुपम आयोजन के लिए बधाई।
चलिए घर तो लौटीं आप, अब नियमित रहेंगी आप!!
ReplyDeleteबधाई कि मिलन भी हुआ और भोज भी साथ मे देसाई जी के दर्शन भी हो गए आपको!!
शुक्रिया विवरण के लिए!!
घूघूती जी
ReplyDeleteजाईये हम आपसे बात नहीं करेंगे आपसे सख्त नाराज हैं आप हैदराबाद में पच्चीऽऽऽऽऽऽऽऽस दिन ठहरीं और हमें सूचित तक नहीं किया।
सृजन शिल्पी जी ने हमें आपके हैदराबाद में होने का समाचार दिया और हमने आपको मेल भी किया और फोन नंबर भी दिय़ा पर आपने जवाब भी नहीं दिया। खैर शायद हमें इस लायक ना समझा हो आपने।
कम से काम खाने पर मुझे भी याद कर लेना था न, मेर पेट भी भर जाता... आगे से याद रखियेगा :D
ReplyDeleteशुक्रिया इस विवरण के लिए।
ReplyDeleteसागर जी , आपने किस पते पर पत्र लिखा जो मुझे नहीं मिला ।शायद याहू पर लिखा होगा, उसे मैं कम ही खोलती हूँ । मैं तो स्वयं थोड़ा सा खिन्न या कहिये आहत थी कि आपके शहर में आने पर आपने याद तक न किया, जबकि सृजन जी से बात हो चुकी थी । गलती मेरी भी है कि मैंने स्वयं सम्पर्क नहीं किया , किन्तु मैं स्वयं को किसी पर थोपना नहीं चाहती थी । खैर , बिटिया वहाँ है तो आती ही रहूँगी ।
ReplyDeleteअगली बार पहले ही बता दूँगी । कृपया मुझे जी मेल पर ही लिखें । हाँ , जरा कम गुस्से वाली फोटो लगा लीजिये !
घुघूती बासूती
चलो अच्छा है पहले सिर्फ मीट पकता था अब भोज भी होने लगा है। बधाई आपको पहले चिट्ठाकार भोज का हिस्सा बनने पर।
ReplyDeleteकलम वालो सियासी जुल्म की रूदाद लिख देना.
ReplyDeleteक़यामत जब भी लिखना हो अहमदाबाद लिख देना.
दिल्ली के करोड़ी मल कोलेज के एन.सी.सी. समारोह में अलीगड़ से आये एक छात्र को जब पता चला कि मैं अहमदाबाद से ताल्लुक रखता हूँ तब उसने मुझे ये शेर नज़र किया था.
अहमदाबाद में और भी मौसमी पकवान देश विदेश तक मशहूर हैं ख़ास कर इंसानी कबाब.
मैने एक ग़ज़ल में इस शहर की तासीर को परखा है-
तीर उसकी कमान पर अब भी .
हैं परिन्दे उड़ान पर अब भी .
भूल कर आईना तू देख जरा,
दाग़ हैं गिरहबान पर अब भी.
सच को कहने की आरजू न गई,
काट दी है ज़बान पर अब भी.
ख़ैर ऐसी संजीदा बातें करना तहजीब से खारिज हैं.आप तो ढोकलों का तब्सिरा ज़ारी रक्खे.
अहमदाबाद के लोग घर में राशन और रास्ते में अपनी पेट्रौल की टंकी हमेंशा फुल ऱखते है उनमें से मैं भी एक हूँ.कब किस की ख़ातिर दारी की ज़रूरत पड़ जाये.हम महमान और मेज़बान में भेद नहीं ऱखते.
हमारे शहर में कई बार्डर हैं खास मौसम मौसम में जरा सी गफलत जानलेवा बन जाती है. दहशत में जीने वाले लोग ये बातें समझ सकते हैं.आप लोग तो मीठी दाल और मीठी कढ़ी पर गदगद हों.
बकौले मीर तकी मीर-
सारे आलम पे हूँ मैं छाया हुआ.
मुस्तनद हूँ मेरा फ़र्माया हुआ.
डॉ.सुभाष भदौरिया
अध्यक्ष हिन्दी विभाग
गुजरात आर्टस सायंस कॉलेज अहमदाबाद.
ता.13-10-07
अगले दिन स्टेशन पर मैंने गुजराती का अखबार खरीदा । उसमें हम जैसे अनाड़ियों के मिलन की तो खबर थी पर गुजरात को गौरान्वित करने वाले लेखक , समाज सुधारक के विषय में मुझे कुछ नहीं मिला । मन यह सोच रहा था कि बुकर प्राइज की तो भारत में भी धूम मचती है किन्तु अपने पुरुस्कारों की चर्चा भी नहीं । इस मानसिकता को क्या कहा जाए ? प्रति दिन टाइम्स औफ इन्डिया में मुखपृष्ठ पर किसी विदेशी मॉडेल या अभिनेत्री की तसवीर तो छपती है , पर जिन पर राष्ट्र गौरव कर सके उनकी नहीं
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा पढ़कर ....सही लिखा है आपने
इस बार हैदराबाद आयें तो हमें भी मिलने की इच्छा रहेगी...सागर भाई की तरह
ReplyDelete:)
घुघूती जी बहुत ही बड़िया ले्ख है, भई, ये विविध प्रकार के व्यंजनों की रेसिपी हमें भी चाहिए। काश! ऐसी कोई मीट बम्बई में भी होती
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