यदि बनाया होता मुझे किसी भगवान ने
मुझे किसी भगवान ने नहीं बनाया,
यदि बनाया होता तो सम्पूर्ण होती
निर्दोष होती ,उत्तम होती ।
या फिर वह भगवान ही सम्पूर्ण नहीं है,
शायद मुझ पर व तुम पर वह अभ्यास कर रहा है,
और इक दिन जब वह निर्दोष बनेगा ,
तब हमारे इस संस्करण को वह रद्द कर देगा ।
तब वह मनुष्य का एक नया संस्करण बनाएगा ।
उसने बनाया होता तो न जलती मैं उसकी ही धूप में
न ठिठुरती जाड़ों की रातों में पीड़ित हो उसके हिम से
होती न इतनी असहाय जन्म से लेकर मरने तक
एक चमक होती,
पीड़ा न होती तन में
और न होती कसक मन में,
न होते आँसू आँखों में,
वहाँ बस मरना भी कुछ ऐसा न होता
दीन- हीन- करुण ।
न शरीर ऐसा होता
जिसे शीघ्रातिशीघ्र करना पड़ता आग या भूमि के हवाले ।
वह तो शायद कुछ ऐसा होता,
जो मरने पर इक पुफ़ के साथ
बन जाता राख का इक ढेर,
या बन जाता इक ढेरी भर खाद ।
न होती इतनी अपूर्ण मैं
न होती इतनी असुरक्षित
यदि बनाया होता मुझे किसी भगवान ने ।
घुघूती बासूती
Thursday, October 04, 2007
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वाह। इस नजरिये से कभी सोचा नही।
ReplyDeleteबधाई।
सोच का एक नया अद्भुत आयाम...
ReplyDeleteइस तरह से सोचने पर मैने पाया कि कम से कम मुझे तो अभ्यास के प्रथम चरण में ही बनाया होगा. :)
मैं शायद अभी अधूरा ही हूँ
ReplyDeleteन होती इतनी अपूर्ण मैं
ReplyDeleteन होती इतनी असुरक्षित
यदि बनाया होता मुझे किसी भगवान ने।
एकदम सही। लेकिन हमें तो प्रकृति ने बनाया है, अपने-आप में पूर्ण बनाया है। यहां तक कि खुद को रिपेयर करने की इन-बिल्ट सुविधा भी दी है। हमें इतनी बुद्धि और कल्पना शक्ति दी है कि हमने भगवान तक को बना लिया। पर कितनी विचित्र बात है कि जिस पत्थर को हम ही कहीं से लाकर रखते हैं, उसी से बाद में डरने लगते हैं। वो प्रभु बन जाता है और हम दास!!!
एक कृति कैसे तय कर सकती है कि वह पूरी है या अधूरी! कृति अपनी समग्रता में आनन्द ले और अधूरे-पूरे के गणित से मुक्त रहे!
ReplyDeleteचलो अब इस तरह से भी सोच के देख लेते हैं.
ReplyDeleteबढ़िया विचाराभियक्ति!!
ReplyDeleteपर ज्ञानदत्त जी का कथन ज्यादा सही प्रतीत होता है!1
अदभुत कविता। एक नया नज़रिया, एक नई भावाभिव्यक्ति।
ReplyDeleteवैसे, आप कविता में ज्यादातर तो शरीरकी ही बातें करती रहीं, जो पंच महाभूतों से बना है। इसे तो वापस उन्हीं में मिलना है।
परमात्मा का जो अंश है हमारे भीतर वह तो चैतन्य है, वह तो उतना ही अक्षर, पूर्ण और परम है, जितना कि खुद वह परमात्मा।
सुख-दुख की अनुभूतियां तो मन को होती हैं। आत्मा तो साक्षी ही रहता है।
वैसे, यह मेरा घिसा पिटा प्रवचन है। आप इसे तवज्जो न दें।
आत्मा में मग्न रहने वाले आत्मज्ञानी कविता नहीं कर पाते। यह उनके बूते की बात नहीं।
कविता वाकई बहुत सुन्दर लगी।
एक नई सोच से सोचा इसको पढ़ के पर यह उतनी ही सच के क़रीब लगी
ReplyDeleteबहुत सुन्द भाव हैं और कही इसने दिल को छुआ जरुर है शुक्रिया आपका
और बधाई !!
अच्छी अभिव्यक्ति है, क्रम बनाए रखें.
ReplyDeleteअगर हम पूर्ण होते तो फिर उसको पुछते ही नही....
ReplyDeleteकविता अच्छी बनी है :)
्बहुत ही सुन्दर कल्पना है, बहुत ही वाजिब सवाल कि क्या भगवान खुद पर्फ़ेक्ट है…वाह
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