Tuesday, September 11, 2007

थक गयी है सीता

 

 

थक गई हूँ
थक गई हूँ सीता बन अग्नि परीक्षा देते देते
थक गई हूँ मैं सती सावित्री बन जीते जीते ।
कितना भागी यम के पीछे
सत्यवान को छुड़ाने के लिए

कितना गिड़गिड़ाई सत्यवान
को वापिस लाने के लिए ।
थक गई हूँ कर हर पल राम का अनुसरण
कुछ पल डगर मुझे अपनी चुनने दीजिये ।
कितना तड़पी इक युग भर
शापित अहिल्या शिला बनकर

कितनी प्रतीक्षा की राम की
पत्थर बनी उसकी डगर पर ।
थक गई हूँ शापित शकुन्तला बनकर
अब कुछ पल श्राप मुझे देने दीजिये ।
थक गई हूँ मन्दिरों में मूर्ति बन

कुछ पल पूजा तुम मेरी छोड़िये
थक गई हूँ रिश्तों के बोझ ढोकर
कुछ पल बेलगाम मुझे छोड़िये ।
थक गई हूँ पूज्या बनकर जीते जीते
अब केवल व्यक्ति मुझे बनने दीजिये ।

माँ, बहन, बेटी ,पत्नी ,सखी और प्रेयसी
कितने रूप में जग में जानी गई हूँ मैं
किन्तु हर रूप में रह गई कुछ प्यास सी
पाया बहुत कुछ पर खो गई खुद ही मैं ।
थक गई हूँ हर समय जीकर

औरों के लिए
अब कुछ पल स्वयं के लिए भी जीने दीजिये ।

- घुघूती बासूती

14 comments:

  1. Anonymous2:10 pm

    कवि होता तो राम की व्यथा सुनाता.

    वैसे सीता बनने को कहता ही कौन है. नारी बस नारी बनी रहे और नर बना रहे नर. इतना ही बहुत है.

    अब कविता परा...

    सुन्दर भाव, सुन्दर शब्द, सुन्दर रचना.

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  2. घुघूति जी
    बहुत सुन्दर रचना, प्रतिकों का अच्छा उपयोग किया,पर हर सच्चाई के दो पहलु होते हैं, इस लिए सजंय जी के कमेंट को भी नकारना ठीक न होगा। हम औरतों ने बहुत कुछ सहा सदियों से,इस पीड़ा ने हमें मुझे लगता है हमें तपा कर सोना बना दिया हम सोना नहीं बनना चाह्ते थे ये अलग बात है

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  3. Anonymous2:51 pm

    we are ourselfs responsible for our degrada

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  4. थकान राम बनने में भी है और सीता बनने में भी.
    सहज बन कर देख जाये.

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  5. नारी ह्रदय की संवेदनाओं को अच्छी तरह उजागर किया है......

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  6. लगता है इस कविता के शब्दों में नारी वर्ग का सारा दर्द, दुःख, थकावट, निकल कर बह गया है। अब फिर से अथाह शक्ति भरकर जागें और चिर 'अथक' होकर समास्याओं को समाधान निकालें।

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  7. सीता सदियों से थकती आ रही हैं
    और हम कुछ नहीं कर पाते हैं

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  8. नारी की व्यथा का अति सुंदर चित्रण पेश किया है

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  9. कम से कम शब्दों में आपने बहुत ही सशक्त तरीके से कहा है:

    माँ, बहन, बेटी ,पत्नी ,सखी और प्रेयसी
    कितने रूप में जग में जानी गई हूँ मैं
    किन्तु हर रूप में रह गई कुछ प्यास सी
    पाया बहुत कुछ पर खो गई खुद ही मैं ।
    थक गई हूँ हर समय जीकर

    अंत में आपने जो अनुरोध जोडा है, मेरा अनुमान है कि यह हर स्त्री का अनुरोध है:

    औरों के लिए
    अब कुछ पल स्वयं के लिए भी जीने दीजिये ।

    -- शास्त्री जे सी फिलिप



    आज का विचार: चाहे अंग्रेजी की पुस्तकें माँगकर या किसी पुस्तकालय से लो , किन्तु यथासंभव हिन्दी की पुस्तकें खरीद कर पढ़ो । यह बात उन लोगों पर विशेष रूप से लागू होनी चाहिये जो कमाते हैं व विद्यार्थी नहीं हैं । क्योंकि लेखक लेखन तभी करेगा जब उसकी पुस्तकें बिकेंगी । और जो भी पुस्तक विक्रेता हिन्दी पुस्तकें नहीं रखते उनसे भी पूछो कि हिन्दी की पुस्तकें हैं क्या । यह नुस्खा मैंने बहुत कारगार होते देखा है । अपने छोटे से कस्बे में जब हम बार बार एक ही चीज की माँग करते रहते हैं तो वह थक हारकर वह चीज रखने लगता है । (घुघूती बासूती)

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  10. नारीमन को आपने यहां रख दिया है इतने आसान से शब्दों में।
    सुंदर!


    हिन्दी किताबों के संदर्भ में विचार अति-उत्तम हैं सहमत

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  11. बहुत सुन्दरता से नारी जीवन संघर्ष की थकान को शब्दबद्ध किया है, बधाई.

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  12. Anonymous9:44 pm

    the poenm is very nice but the end is not so strong
    man1

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  13. Anonymous9:44 pm

    the poenm is very nice but the end is not so strong
    man1

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  14. बहुत सुंदर भाव और एक बहुत ही अच्छी रचना है यह आपकी

    माँ, बहन, बेटी ,पत्नी ,सखी और प्रेयसी
    कितने रूप में जग में जानी गई हूँ मैं
    किन्तु हर रूप में रह गई कुछ प्यास सी
    पाया बहुत कुछ पर खो गई खुद ही मैं ।
    थक गई हूँ हर समय जीकर

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