ललित जी , जो सन्देह आपको हो रहे हैं, वे निराधार हैं । कायदे से मुझे अपने पहले चिट्ठे पर आपकी टिप्पणी .....का उत्तर देना चाहिये । किन्तु मेरे ७ सितम्बर के चिट्ठे पर दी गई आपकी टिप्पणी अधिक विस्फोटक व हानिकारक है । हम स्त्रियाँ तो बहुत कुछ सुनने की आदी हो गईं हैं व हमारे अहम् को चोट नहीं लगेगी , ना ही स्त्री पुरुष के बीच आपकी टिप्पणी से वैमनस्य जन्मेगा । किन्तु मेरे ७ सितम्बर के चिट्ठे पर दी गई आपकी टिप्पणी दो धर्मों के बीच दुराभाव जगाने का यह काम कर सकती है । सो मुझे बहुत ही विषम सी स्थितियों व समयाभाव में भी आपकी बात का ऊत्तर देना ही होगा । क्योंकि यह विषयुक्त टिप्पणी मेरे लेख पर आई इस लिये इसका उत्तर देना मेरा नैतिक कर्त्तव्य है ।
देखिये , देखिये , मेरा जन्म पंजाब में जहाँ हुआ था । वहाँ एक भी मुसलमान बाँकी नहीं बचा था । कुछ समय रहते पाकिस्तान चले गये थे व बाकी आजादी के बाद चले गए,या मारे गए । वहाँ पाकिस्तान से आए वे हिन्दु व सिख भी थे जो अपना सबकुछ व अपने प्रिय जनों को लुटाकर वहाँ आए थे। सो किसी भी एक समुदाय को दोष देने के मैं विरुद्ध हूँ । मेंने अपने बचपन में उनकी कहानियाँ भी सुनी हैं जिन्होंने लुट-पिट कर भारत आकर मेहनत मशक्कत कर एक नया संसार बसाया था , दुबारा विवाह किया था और सालों बाद पहला पति या पत्नी ढूँढता हुआ आ गया या गई । सोच सकते हो उस स्थिति को ? व्यक्ति रोए या खुश होए ? मैंने पति से कारखाने के, उस बंद कमरे के ४० वर्ष बाद ताले को तोड़कर खुलने की बात भी सुनी है, जहाँ सन्दूकों में मुसलमान परिवारों के कपड़े थे। काले पड़े गोटे के दुपट्टे , बच्चों के छोटे छोटे कपड़े , टोपियाँ , कुर्ते पजामें ! जो सब ४० साल से अपने पहनने वालों की प्रतीक्षा कर रहे थे । वे पहनने वाले जो कभी लौट कर नहीं आएँगे । जिन्हें जाने वाले वापिस आने की आस में छोड़ गए थे ।
हाँ , ललित जी सोचते हैं कि मुझे किसी मुसलमान ने धोखा दिया । देखिये , मेंने जीवन में पहली बार किसी मुसलमान को ८ वर्ष की आयु में देखा था । ११ वर्ष की आयु में पिताजी की वापिस बदली होने के बाद, फिर कभी न कक्षा में, न खेल में, कहीं भी जहाँ तक मुझे याद है किसी मुसलमान को अपने विवाह तक देखा । ८ से ११ वर्ष की आयु में भला कोई साथी मुझे क्या धोखा देता ?
मेरा जीवन के पहले मुसलमान बच्चे को देखना भी एक ऐसी घटना थी जिसे याद कर मैं आज भी अपनी मूर्खता या अबोधता पर हँस पड़ती हूँ । पिताजी की बदली मध्य प्रदेश में हुई । मैं खेलने बाहर निकली तो जो पड़ोस के बच्चे मिले उनके नाम मेरे लिए विचित्र थे। एक मुझसे काफी बड़ी लड़की ने अपना नाम किश्वर बताया , उससे बड़ी दीदी ने महमूदा , मेरे से ३ वर्ष बड़े ने घर का नाम बच्चन और स्कूल का एहसान अली , बहुत बड़े भाई साहब ने गुड्डन आदि बताया । ये नाम मेरे लिए अनोखे थे । मुझे अचरज में पड़ा देख गुड्डन भाई ने बताया कि वे मुसलमान हैं । मैं आश्चर्य से उन्हें देखती रही और अभी आई कहकर घर भाग गई । काम में व्यस्त माँ को हिला हिलाकर बोला ..माँ मुसलमान तो बिल्कुल हमारे जैसे होते हैं । माँ बोली तो और कैसे हो सकते हैं । हम उनके जैसे वे हमारे जैसे , जाओ खेलो , सब एक जैसे होते हैं । बाद में माँ ने अपने बचपन व बाद के जीवन में आने वाले मुसलमान पड़ोसियों व सहेलियों के बहुत से किस्से सुनाए । रोज हम बच्चे मिलकर खेलते , एक दूसरे के घर भी जाते । विवाह के बाद न जाने कितने मुसलमानों से हमारी दोस्ती हुई , कितने धर्मों के बच्चों को मैंने पढ़ाया ।
विवाह के बाद मैं हमारी एक मुसलमान ताईजी से मिली जिन्होंने हमें बहुत स्नेह दिया , जिनके लिए हम साऊदी अरब से जमजम पानी और कफन का कपड़ा लाए , जो उनकी माँग थीं । ताऊजी ने दंगों के समय अपनी स्त्री मित्र यानि ताईजी के परिवार की रक्षा की थी । उन्हें भारत पाक सीमा तक छोड़ने गए थे । कुछ ही समय बाद ताईजी ने अपने परिवार को छोड़ भारत आ ताऊजी से विवाह की इच्छा व्यक्त की थी और ताऊजी एकबार और सीमा पर जा अपनी भावी पत्नी को ले आए थे ।
जिससे प्रेम किया वे ही मेरे पति बने, मेरी स्वयं की पसन्द के हैं , भाई की मैं बहन हूँ , पिता को तो किसी को धोखा देना नहीं आता था । आपकी तरह मैं भी कुछ बुरे लोगों,नर व नारी दोनों के विषय में जानती हूँ । मुझे किसी पुरुष से कोई शिकायत नहीं है । केवल एक सुन्दर बराबरी के समाज की कल्पना भर करना चाहती हूँ , जहाँ स्त्रियाँ ना पूजी जाएँ ना दुत्कारी जाएँ । न हमें देवी बनना है न प्रतिमा, केवल व्यक्ति बनकर रहना है । क्या यह बहुत बड़ी माँग है ? बताइये ललित जी !
घुघूती बासूती
mam
ReplyDeletethat you want mr lalits opinion to live like a "human " is not right
we are born humans and we dont need to prove it to people who have no ethics or value
man and woman are born equals , mother gets the same labor pain when she gives birth to male or female child
i am younger to you by age and experience so forgive me if my comment is too vocal
मैने कोई टिप्पणी वगेरे नहीं पढ़ी, आपका लिखा देखा तो इसे पढ़ा.
ReplyDeleteमेरी भी बचपन से लेकर अब तक विभिन्न मुसलमानो से मित्रता रही है और आपस में किसी ने धोखा नहीं दिया.
आपका जवाब बिल्कुल ठीक है. जिन साहब ने भी ऐसे विचार रखे थे उनको अपनी सोच पर गौर करने की जरूरत है. इंसान की बातों में 'हिंदू' और 'मुसलमान' को लाना ठीक नहीं. लेकिन क्या करें. कैफी साहब ने लिखा है न;
ReplyDeleteअपनी गली में हिंदू-मुसलमा जो बस गए
इंसा की शक्ल देखने को हम तरस गए.
मेरे माँ की एक सहेली थीं. मुसलमान थीं. हम उन्हे मौसी कहते थे. नाम था सीता. उनके प्रति हम सभी का आदर आज भी वैसा ही है, जैसा सालों पहले था.................
कोई किसी को केवल इस लिए धोखा दे सकता है कि वह मुसलमान है, कुछ अच्छा नहीं लगा. उससे भी बुरा लगा किसी का कहना कि; 'लगता है आपको किसी मुसलमान ने धोखा दिया है'...
क्या बात है!..
ReplyDeleteमाफ़ कीजीयेगा मै आपकी ये श्रखंला पहले नही देख पाया था..पर अब देखा , इस पूरी श्रखंला मे सच से सिर्फ़ और सिर्फ़ ललित जी को ही परेशान देखा,शायद उनकी अपनी कुछ गाठे इस लेख से खुल रही होगी..इसीलिये उन्होने बे सिर पैर के उदाहरण देकर पहले अपनी घटिया सोंच को शब्द देकर प्रकट किया..ललित जी अपने ११ बिटियाओवाले पडोसी से पूछिये सच का पता वहा आपकॊ चलेगा..कि एक बेटे की चाह मे ११ आ गई..चलिये वो आपकी अपनी दिक्कते है.. पर आपने जो अपने अविकसित मस्तिष्क के उदगार अपनी पिछली छिछोरी टिप्पणी मे किये ..उनके लिये तो आप माफ़ी बहुत दूर की बात है,,इनसान कहलाने के लायक भी नही रहे आप.? आप क्या अपने घर मे अपनी बडी बहन से,मा से इसी प्रकार की बात चीत करते है..शायद आपको कभी इनसानो के बीच रहने का सौभाग्य प्राप्त नही हुआ..आप हर जगह हिंदू मुस्लिम और इस प्रकार के घटिया संदर्भ ही ढूढते रहते है..मै हिंदू भी हू पर उससे पहले मुसलमान,और उससे भी पहले सिख,और उससे पहले इसाई,पारसी सब हू मै ..मा है वो मेरॊ ..आप बताये आपको क्या समस्या है..तुरंत अपना किसी अच्छे साईकेट्रिस्ट से इलाज कराये..और भविष्य मे मुह खोलने से पहले देख लिया करे..कही अपना थूका आपके ही मुह मे ना आ गिरे..:)
ReplyDeleteबहुत बढ़िया जवाब दिए हैं आपने उन साहबान को!!
ReplyDeleteभैंस के आगे बीन बजाने से क्या फायदा? व्यक्तिगत बात में उत्तर काहे ? हमारे शब्द हमारे विचारों के और विचार ही हमारे व्यक्तित्त्व के परिचायक हैं/ उत्तर हैं।
ReplyDeleteघुघूती जी!
ReplyDeleteआज आपका एक और रूप देखा, और सच मानिये धन्य हो गया. जिन साहब की बकवास का यहाँ आपने ज़वाब दिया, ऐसे घटिया लोगों को जवाब देना ही पड़ता है क्योंकि इन्हें दूसरी भाषा समझ नहीं आती. वैसे उन्हें इससे कोई फर्क पड़ेगा, इसमें मुझे संदेह है. क्योंकि ये मुझे ऐसे जीव (मनुष्य नहीं कह पाऊँगा) लगे जो सिर्फ दूसरों पर कीचड़ उछाल सकते हैं, सोचना-समझना इन के बस का रोग नहीं. अरुण जी ने भी इन्हें जैसा जवाब दिया है, ये उससे भी ज़्यादा के हकदार थे.
वैसे तो ऐसे लोगों को जवाब नहीं देना चाहिये.. पर आप ने जवाब देकर अपनी बात को और भी स्पष्ट किया है..
ReplyDeleteआपने अपनी बात बहुत सयंत तरीके से रखी । इतना संतुलन बनाये रखना, ऐसी टिप्पणियों के परिपेक्ष्य में , बडी बात है । उम्मीद है कि मुख्य मुद्दे पर आप फिर लौटेंगी ।
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ReplyDeleteआपसे पूरी तरह सहमत हूँ और आपके इतने संयम और सजगता से अपनी बात कह जाने के अंदाज को साधुवाद देता हूँ. आज संयम सबसे ज्यादा आवश्यक है.
ReplyDeleteबहुत सुंदर जवाब
ReplyDeleteलिखा हुआ हर लफज़ सच्चे दिल का दर्पण है
जवाब न केवल सुन्दर है बल्कि बहुत ही रोचक भी है !!
आपके पहले वाले लेख मे हिन्दू मुसल्मान कि बात कहा से आ गयी.
ReplyDeleteठीक बात है।
ReplyDeleteअतुल जी , यही तो मैं जानना चाहती हूँ ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
आपका लेख और टिप्पाणी दोनो पढे।जवाब वाजिब दिया गया है ।शायद ज़रूरी भी है कि गलत अर्थो को थोपने पर ऐतराज़ किया जाए।
ReplyDeleteआपका लेख बहुत उम्दा था ।यहविमर्श जारी रहे ।
मुझे भी लगता था कि ऊट-पटांग टिप्पणियों का क्या जवाब देना . पर आपकी पोस्ट को पढकर लगा कि जवाब देना चाहिए और इस तरह देना चाहिए . बहुत संयत,संतुलित और सटीक उत्तर दिया है आपने .
ReplyDeleteसही लिखा है…।
ReplyDeleteघुघुती जी आप ने एकदम सही जवाब दिया है ललित जी को, खैर मुझे ये देख कर अच्छा लगा कि ललित जी की साप्र्दायिक टिप्पणी ने सिर्फ़ आप को ही नहीं और भी बहुत से लोगों को चोट पहुंचाइ हैं।
ReplyDeleteघुघूती जी, एक गैर जरूरी और विकृत ज़हनीयत का सटीक और जबरदस्त जवाब। हालांकि सच तो यह है कि ऐसी किन किन बातों का आप जवाब देती रहेंगी... स्त्रियों को तो यह पितृसत्ता ऐसी प्रपंचों में फंसाती रहती है... अग्निपरीक्षा के लिए मजबूर करती रहती है... आप अपनी बात जरूर लिखिये पर इनकी अग्निपरीक्षा के लिए नहीं। यह होते कौन हैं...
ReplyDeleteदेखिये, आज इस दावे से सिर्फ काम नहीं चलने वाला है कि किसी के कितने दोस्त हिन्दू या मुसलमान हैं। दोस्त का मतलब क्या है... अहम बात यह है कि हम अपने रोजमर्रा की जिंदगी में, अपने काम में दूसरे मज़हब, जाति या लिंग वाले लोगों को कितनी महत्वपूर्ण जगह देते हैं। उन्हें बराबरी का दर्जा देते हैं या नहीं। उनके सुख में नहीं बल्कि तकलीफ और संकट में अपनी जान उनके लिए खतरे में डाल सकते हैं या नहीं।...
आप अपने साझा अनुभव और साझा करें। शायद कुछ लोगों को सोचने की थोड़ी खुराक मिले।
घुघुती जी
ReplyDeleteआपके मुद्दे को पढ़ा। आपकी सारी बातें तथ्य सटीक हैं मेरा सवाल है कि आज तक कोई ऐसा पुरुष नहीं मिला जिसकी अग्नि परीक्षा ली गई हो। समय बदला है लेकिन औरत के जीवन में बहुत बदलाव नहीं आया है। कुछ शहरों तक ही बदलाव की बयार सीमित है। बाकी गाँवों के भारत में बहुत अँधेरा है। क्योंकि बदलाव की बत्ती अभी भी शहरों में ही जल रही है।
क्या बात है. हमे अपने नजरिये को जरा व्यापक करने की जरूरत है
ReplyDeleteआपको किसी मुस्मान ने धोका नहीं दिया, ये आपकी ख़ुशकिस्मती है।
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