सन्नाटे
सन्नाटे की चीखों ने कान मेरे फाड़े हैं
कब तक करूँ बर्दाश्त कोई बता दे मुझे
क्या कोई शब्द नहीं है इस संसार में
जो गूँजे और तोड़ डाले इस सन्नाटे को ?
पशु, पक्षी, यहाँ तक कि हवा भी चुपचाप है
भंवरे भी मेरे बाग के गाना भूले लगते हैं
तड़ित से कह रही हूँ कि वह जोर से कड़के
बादलों से कर रही निवेदन वे जोर से गरजें ।
सुन रही हूँ केवल मन में उठते विचारों को
अपनी ही साँस लगती मुझे है दहाड़ शेरों की
हृदय का धड़कना है जैसे टिकटिक घड़ियों की
नब्ज सुनाई देती है ज्यों हो थाप ढोलक की ।
ऐसे ही पलों में लोग बात खुद से करते हैं
नजरों में संसार की वे लोग विक्षिप्त लगते हैं
करके कोई तो बात इनसे देखे और ये जाने
किसने बनाया विक्षिप्त किसने दिये ये वीराने ।
.................घुघूती बासूती
Monday, September 03, 2007
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बहुत खूब!! बहुत बढ़िया लिखा है आपने!!
ReplyDeleteसन्नाटों की गूंज बहुत खतरनाक ही होती है।
Language... has created the word "loneliness" to express the pain of being alone. And it has created the word "solitude" to express the glory of being alone.
ReplyDeletePaul Tilich
घूघूती जी
ReplyDeleteये सन्नाटे और गहराते जाते हैं।
नजरों में संसार की वे लोग विक्षिप्त लगते हैं
करके कोई तो बात इनसे देखे और ये जाने
किसने बनाया विक्षिप्त किसने दिये ये वीराने ।
ये लोग विक्षिप्त क्युं बने कह दो ऐसे लोगों को खुद दोस्त अपने बनें और सन्नाटों से प्यार करें ,फ़िर देखे अपने अन्दर की दुनिया कितनी हसीन है।
लेकिन कविता बहुत मार्मिक हैं…॥ बधाई
घुघूतीजी कहां है सन्नाटा,हमरे ब्लाग पर आइये ना वहां पूड़ी है, परांठा है, सिंपैथी है।
ReplyDeleteपर आप हैं कि सिर्फ सन्नाटे का छंद सुन रही हैं।
अजी दिल्ली में ब्लू लाइन में एक दिन बस में सफर कर लीजिये, फिर सपने में भी ना आने का सन्नाटा, मार धड़ाम-धूं धूं, खौं खौं।
क्षमा करें, अब यह चिरकुट व्यंग्यकार टिप्पणी करेगा, तो क्या करेगा।
कविता दिल को छूती है। ऐसा सन्नाटा हो काश।
जब दर्द ठहर जाता है
ReplyDeleteजीना आसान होजाता है
शब्द ही नहीं
मौन भी शांत हों जाता है
अपने बचपन के एक छोटे कस्बे में गरमी की एक दोपहर में.. दिख रही है मुझे एक स्त्री..अकेले घर में अकेली..
ReplyDeleteऐसे ही पलों में लोग बात खुद से करते हैं
ReplyDeleteनजरों में संसार की वे लोग विक्षिप्त लगते हैं
करके कोई तो बात इनसे देखे और ये जाने
किसने बनाया विक्षिप्त किसने दिये ये वीराने ।
बहुत ही सुंदर लिखा है आपने कभी कभी दिल की बात यूं आ जाती है
लफ्ज़ दिल में होते हैं पर सुनायी कही और देते हैं ..
रहो खामोश मेरे दिल
यूं धड़क के शोर न मचाओ
कही अपने लफ्ज़ ही
कोई सन्नाटा न बुन दे यहाँ
बधाई
बहुत भावुकता पूर्ण कविता है।
ReplyDeleteदीपक भारतदीप
आह्ह!! ये सन्नाटा-और ये सन्नाटे की चीख. बहुत गहरी उतर गई. कहाँ कहाँ तक सुनाई दे रही है. वाह!
ReplyDeleteशोर सुनना ही पड़ता है - चाहे बाहर का हो या अन्दर का. उस शोर में अपने को एकाग्र करें तभी असली सन्नाटा आता है.
ReplyDeleteऔर कहते हैं कि आता है तो फिर जाता नहीं - सही है या गलत; पता नहीं.
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ....बधाई
ReplyDeleteबहुत बढिया रचना है बधाई।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर्…॥
ReplyDeleteघूघूती जी, गहरी अभिव्यक्ति,बहुत ही सुंदर्…बहुत ही मार्मिक हैं…कविता , बधाई.
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