Saturday, September 01, 2007

मोह गणित.......क्यों तुम आते हो

क्यों तुम आते हो


क्यों तुम आते हो जाने को
क्यों तुम जाते हो आने को


नित दिन का यह जाओ कहते
इक टुकड़ा मुझसे मेरे मुझ का


संग अपने तुम ले जाते हो
जब तुम कहते हो 'तुम हो '


उस टुकड़े का इक टुकड़ा
वापिस मुझे दे जाते हो


इतने टुकड़ों में बँट गई हूँ
कितने टुकड़े पास तुम्हारे


कितने मेरे पास बचे हैं
ना लग पाता अनुमान


शायद इस गणित के लिए
नया गणित ही रचना होगा


शायद नाम मोह गणित ही
उसका मुझे रखना होगा ।


घुघूती बासूती

16 comments:

  1. Anonymous6:37 pm

    बेहद ताज़गी है , तटका

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  2. घुघूती बासूती जी,बहुत सुन्दर! सच है यह मोह हमेशा हम को बाँटता रहता है...

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  3. हाँ इंसान का वज़ूद ही इधर-उधर तारों में बिखरा पड़ा है
    और हम अपने वातावरण के किसी खास के साथ ज्यादा जुड़ाव अनुभव करते हैं
    कभी तो बेचैनी इतनी हो जाती है कि तड़प सँभलती नहीं-
    ऐ हक़ीकते मुंतज़िर कभी नज़र आ लिबासे-मज़ाज़ में
    कि हज़ारों सज़दे तड़प रहे हैं मेरी एक ज़बीने-नियाज में

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  4. जब इतना कुछ रचा है तो एक नया गणित भी रच ही डालिये. शुभकामनायें.

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  5. Anonymous8:48 pm

    you are pating very nice poems nowdays what will be my luck if i will able to hear from yo, miss you too much,
    man1

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  6. सम्बंध में यह जोड़-बाकी कभी-कभी हमने भी महसूस किया है. पर उसे अलग करना होता है. उसमें हिसाब है - स्पन्दन नहीं.
    बहुत अच्छा और बहुत सरल लिखा आपने.

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  7. Anonymous9:10 pm

    घुघूती बासूती जी,बहुत सुन्दर

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  8. घुघूती बासूती जी,
    नया नाम " मोह गणित " बहुत पसँद आया और आपकी कविता भी !
    --लावण्या ...

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  9. बहुत बढिया प्रस्तुति
    दीपक भारतदीप

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  10. Anonymous10:20 pm

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  11. Anonymous10:25 pm

    घुघूती बासूती जी,आप की गणित की क्लास हम कब जाँइन कर सकते है जरा जल्दी से जवाब भेजियेगा .........................................आप मेरी नारद रजिस्टर होने मे मदद करे़ मेने नारद पर पजियण लिंक मे मेरा नाम 20-25 दिन पहले आ चुका है पर आज तक मेरी पोस्ट नारद पर नही आ पा रही ..... मेरी सहायता करे़....................

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  12. हम तो समझे थे की यहा गणित पढाया जायेगा है..:)पर शुक्र है बच गये जी..मुकेश जी आप नाहक परेशान है आपका लेखन नारद जी को पसंद नही आया होगा..मस्त रहिये वैसे भी नारद पर आजकल जाता कौन है..:)

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  13. जैसे आपकी कविताएं दिन ब दिन और सुंदर होती जा रही है वैसे ही, दिन ब दिन आप जटिल भावनाओं को सरल शब्दों मे आसानी से उकेरने मे और सफ़ल होती जा रही हैं।
    शुक्रिया जटिल भाव-गणितों को सरलतम तरीके से समझाने के लिए!!

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  14. नित दिन का यह जाओ कहते
    इक टुकड़ा मुझसे मेरे मुझ का
    संग अपने तुम ले जाते हो
    जब तुम कहते हो 'तुम हो '

    बहुत बढिया

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  15. उस टुकड़े का इक टुकड़ा
    वापिस मुझे दे जाते हो
    इतने टुकड़ों में बँट गई हूँ
    कितने टुकड़े पास तुम्हारे

    बहुत सुंदर है ..घुघूती बासूती जी,

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  16. dhanyavaad

    Aapki kavitaayen padee. Bahut achchhi hai.

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