Wednesday, August 29, 2007

मैं समझ गई



मैं समझ गई मित्र मेरे
कैसे जुड़े ये अपने तार
कैसे हुआ मन को प्यार
तू समझ गया मेरा सार
मैं नही् बोली कभी आभार
कुछ बात हुई तेरी मेरी
हल्का हुआ मन का भार
पल भर को तूने देखा
मैंने तो मुड़कर ना देखा
तेरा चेहरा भी याद नहीं
मेरा चेहरा तू भूल गया
याद तो इक एहसास रहा
ना तेरा मेरा इतिहास रहा
तू चला गया अपनी राहों पर
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ चौराहे पर
जिस तरफ भी जाऊँ धोखा है
तूने भी कभी ना मुझे रोका है
लौटूँ तो किस ओर मुड़ूँ
जीवन से मैं कैसे जुड़ूँ
सपने सच तो हो न सके,
सच को ही सपना बनाया है
अपने तो अपने हो न सके
अब गैरों को अपना बनाया है
साथी अपना कोई हो न सका
अब राहों को साथी बनाया है
साथी राहों में मिल ना सका
अपने तो खो गए अतीत में
अब अतीत को अपना बनाया है
हाथों से तुझको छू न सकी
तेरी परछाई को ही मैंने छूआ है
चाहा पर तुझसे ना खेल सकी
खेला हरदिन मैंने केवल जूआ है ।
घुघूती बासूती

11 comments:

  1. अब से आभार कर दें हमारा...सब समस्यायें और ग्रंथियां विदा हो जायेंगी...मगर रचना की सुन्दरता तो अपनी जगह अडिग रहेगी. बधाई.

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  2. वाह...!!
    पढ़्कर मन गदगद हो गया.

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  3. "सपने सच तो हो न सके,
    सच को ही सपना बनाया है
    अपने तो अपने हो न सके
    अब गैरों को अपना बनाया है
    साथी अपना कोई हो न सका
    अब राहों को साथी बनाया है"
    बहुत बढ़िया

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  4. सहज भाषा और सुंदर प्रवाह में लिखी गई ये कविता दिल को छू लेती है!

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  5. सहज शब्दों मे नदी -सी बहती रचना है।बधाई।

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  6. बहुत सुंदर रचना ....बधाई

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  7. बहुत बढिया, मर्मस्पर्शी
    दीपक भारतदीप

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  8. सुंदर!!
    जटिलताओं को सरल भाषा प्रवाह में बुन देने की आपकी कला का मै कायल हो चुका हूं।

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  9. जी बहुत ही अच्छी कविता है आप की पढ़कर मन प्रसन्न हो गया आगे भी अच्छी-२ कविताएं पढ़ने को मिलेगी
    धन्यवाद

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  10. जी बहुत ही अच्छी कविता है आप की पढ़कर मन प्रसन्न हो गया आगे भी अच्छी-२ कविताएं पढ़ने को मिलेगी
    धन्यवाद

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  11. Unequivocally, excellent answer

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