मैं समझ गई मित्र मेरे
कैसे जुड़े ये अपने तार
कैसे हुआ मन को प्यार
तू समझ गया मेरा सार
मैं नही् बोली कभी आभार
कुछ बात हुई तेरी मेरी
हल्का हुआ मन का भार
पल भर को तूने देखा
मैंने तो मुड़कर ना देखा
तेरा चेहरा भी याद नहीं
मेरा चेहरा तू भूल गया
याद तो इक एहसास रहा
ना तेरा मेरा इतिहास रहा
तू चला गया अपनी राहों पर
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ चौराहे पर
जिस तरफ भी जाऊँ धोखा है
तूने भी कभी ना मुझे रोका है
लौटूँ तो किस ओर मुड़ूँ
जीवन से मैं कैसे जुड़ूँ
सपने सच तो हो न सके,
सच को ही सपना बनाया है
अपने तो अपने हो न सके
अब गैरों को अपना बनाया है
साथी अपना कोई हो न सका
अब राहों को साथी बनाया है
साथी राहों में मिल ना सका
अपने तो खो गए अतीत में
अब अतीत को अपना बनाया है
हाथों से तुझको छू न सकी
तेरी परछाई को ही मैंने छूआ है
चाहा पर तुझसे ना खेल सकी
खेला हरदिन मैंने केवल जूआ है ।
घुघूती बासूती
अब से आभार कर दें हमारा...सब समस्यायें और ग्रंथियां विदा हो जायेंगी...मगर रचना की सुन्दरता तो अपनी जगह अडिग रहेगी. बधाई.
ReplyDeleteवाह...!!
ReplyDeleteपढ़्कर मन गदगद हो गया.
"सपने सच तो हो न सके,
ReplyDeleteसच को ही सपना बनाया है
अपने तो अपने हो न सके
अब गैरों को अपना बनाया है
साथी अपना कोई हो न सका
अब राहों को साथी बनाया है"
बहुत बढ़िया
सहज भाषा और सुंदर प्रवाह में लिखी गई ये कविता दिल को छू लेती है!
ReplyDeleteसहज शब्दों मे नदी -सी बहती रचना है।बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना ....बधाई
ReplyDeleteबहुत बढिया, मर्मस्पर्शी
ReplyDeleteदीपक भारतदीप
सुंदर!!
ReplyDeleteजटिलताओं को सरल भाषा प्रवाह में बुन देने की आपकी कला का मै कायल हो चुका हूं।
जी बहुत ही अच्छी कविता है आप की पढ़कर मन प्रसन्न हो गया आगे भी अच्छी-२ कविताएं पढ़ने को मिलेगी
ReplyDeleteधन्यवाद
जी बहुत ही अच्छी कविता है आप की पढ़कर मन प्रसन्न हो गया आगे भी अच्छी-२ कविताएं पढ़ने को मिलेगी
ReplyDeleteधन्यवाद
Unequivocally, excellent answer
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