क्या हम कभी नहीं सुधरेंगे ?
बच्चों को विग्यान पढ़ाती हूँ तो यह भी पढ़ाती हूँ कि मनुष्य क्यों सबसे श्रेष्ठ प्राणी
है । जानती हूँ कि यह सरासर झूठ है, किन्तु पढ़ाना पढ़ता है । कहती हूँ कि हम
दो पैरों पर चलते हैं इसलिये हमारे हाथ काम करने के लिए खाली रहते हैं । इन्हीं
हाथों से हम लिख पाते हैं , औजार उपयोग कर सकते हैं । हमारा मस्तिष्क सबसे अधिक विकसित है । हम कल्पना कर सकते हैं , रचना कर सकते हैं । यह नहीं
बताती कि इन्हीं हा्थों व मस्तिष्क के बल पर हम जहाँ मन चाहे वहाँ तबाही फैला
देते हैं ।
हैदराबाद में अपने घर के लोगों , प्रिय जनों से फोन पर पूछकर कि वे ठीक हैं, चैन की साँस लेती हूँ । जानती हूँ कि जो मरे उन्हें भी नहीं मरना चाहिये था , कि वे भी
किसी के सगे सम्बन्धी हैं । किन्तु हर बार जब मरने वाला या घायल हम या
हमारे प्रिय नहीं होते तो हम केवल अफसोस करके घटना को भूल जाते हैं ।
कब तक हम एक दूसरे को यूँ मारते रहेंगे? क्या कोई यह नहीं सोचता कि एक
बच्चे को पैदा करने , बड़ा करने में माता पिता की कितनी मेहनत व प्यार लगता है ? जिस भी मनुष्य को हम मार रहे हैं वह किसी के जीवन का आधार है ।
कब तक यह होता रहेगा ? कोई तो मनुष्य को थोड़ा कम मानविक बनाए और अधिक पाशविक बनाए । क्योंकि पशु कभी इतने लोगों, अन्य पशुओं को, सामूहिक व योजनाबद्ध तरीके से नहीं मारते । वे मारते हैं तो केवल अपनी जठराग्नि मिटाने को, ना कि कोई खुन्दक निकालने या किसी अन्य कारण से ।
मैं तो बस उस दिन की प्रतीक्षा में हूँ जब मनुष्य थोड़ा कम मानव रह जायेगा । शायद तब ही हम में कुछ सुधार भी आएगा ।
घुघूती बासूती
Saturday, August 25, 2007
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Vry Good question...to self
ReplyDeleteक्या हम कभी नहीं सुधरेंगे ?
ReplyDeleteक्यों नही सुधरेंगे.
जरूर होगा परिवर्तन,
यदि करेंगे हम में से हर कोई
योगदान अपना अपना.
याद दिला दूं पहले कि
था मानव काफी जंगली
सिर्फ कुछ हजार साल पहले.
न सुना था किसी ने
नाम जनतंत्र का, न्याय व्यवस्था का,
या कानूनी सुरक्षा का.
न था तब संविधान
एकाधिपति की इच्छा के अलावा
और कुछ.
हम क्या थे,
क्या हो गये,
और क्या होंगे अभी,
आओ विचारें सब मिल कर
यह सब कुछ बोले थे
कवि.
यही मैं दिलाना चाहता हूं
याद आप सब को आज.
परिवर्तन हुआ है बहुत
कुछ.
कोशिश करे हम मे से हरेक,
तो बहुत परिवर्तन होगा
अभी और.
आओ विचारे आज यह
हम सब मिलकर.
आओ कुछ करें ऐसा आज से,
कि हो देश कल एक
सुन्दर बगिया !
विनीत
शास्त्री जे सी फिलिप
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info
हम तब तक नही सुधर सकते जब तक कि हम खुद ना चाहें
ReplyDeleteकोई तो मनुष्य को थोड़ा कम मानविक बनाए और अधिक पाशविक बनाए
ReplyDeleteबहुत संजीदा बात कही आपने।
मस्तिष्क तो विकसित हो गया, पर उसके साथ ही अपरिहार्य रूप से आ गयीँ कुछ विकृतियाँ भी, अब यह हम पर छोड़ दिया गया कि हम क्या लें और क्या न लें।
सचमुच चिन्ता और गहरे शम्र की बात है..
ReplyDelete'किन्तु हर बार जब मरने वाला या घायल हम या
ReplyDeleteहमारे प्रिय नहीं होते तो हम केवल अफसोस करके घटना को भूल जाते हैं ।'
इसे विडम्बना ही कहा जायेगा। जब तक दूसरे की तकलीफ को हम अपनी तकलीफ की तरह महसूस नहीं करेंगे, तब तक ऐसी घटनाओं की भयावहता को समझ पाना और इससे बचने के उपाय तलाशना नामुमकिन है।
घुघूती-बासूती...
ReplyDeleteमेरी एक बच्ची है -- छह महीने की. नाम रखा है जुनैली. मैं उसे घुघुती-बासूती पूरा सुनाना चाहता हूँ. लेकिन याद ही नहीं है. के खाली... काँ जाली... तक तो ठीक.. पर वीक बाद के छु याद नि पड़न. अगर अपुँ कैं पुरि कविता याद छु त मेहरबानी कबेर लिख दिया ...
धन्यवाद
आपने सही कहा है की जब मनुष्य थोडा कम मानव रह जाएगा तभी थोडा सुधार होगा।
ReplyDeleteनिरपराध जनता को मारकर ही ये अपनी बहादुरी दिखाते है।
शायद कुछ लोगो के लिये मानवता इसी को कहते है..और शायद यही उनका धर्म है..जहा विरोध हो ..उससे जीने का हक छीन लो..
ReplyDeleteबहुत तसल्ली हुई,कुशल क्षेम जान कर।
ReplyDeleteआपने बढिया विवेचना की है।
ReplyDeleteदीपक भारतदीप
हाँ , बहुत कुछ अभी भी हो सकता है , अगर हम इन मानसिक वृतियों के पीछे का कारण स्पष्ट रुप से संमझें , असली मुखोटे को पहचाने । क्य किसी मे इतना साहस है जो धर्म के वास्तविक चेहरे हो उजागर कर सके , अपनी जमात , अपना मजहब , अपनी पहचान , अपनी भीड , पक गये कान इन की वाहियाद बातों को सुनते-२ ।
ReplyDeleteबेनामी जी, मुझे तो कुमाऊँनी समाज छोड़े जमाना बीत गया । जुनैली को मेरा बहुत बहुत प्यार । माँ से पूछूँगी । यदि उन्हें याद होगा तो अपने ब्लॉग पर गीत अवश्य लिखूँगी ।
ReplyDeleteवैसे एक लोरी जो मैं अपनी बेटियों के लिए गाती थी , कुछ ऐसे थी
आ री चड़ी तेरे काटूँ मैं कान
तूने चुराए मेरी (बच्चे का नाम अतः) जुनैली के धान
खाए पिए चड़ी मोटी भई
मटकती (जिसे मैं मटकत्ती बना देती थी) मटकती घर को गई ।
इसे कितना भी खिंचा जा सकता है और लंबा बनाया जा सकता है ।
घुघूती बासूती
दिनकर जी ने लिखा है:
ReplyDeleteअपहरण, शोषण वही कुत्सित वही अभियान
खोजना चढ़ दूसरों के भष्म पर उत्थान
शील से सुलझा न सकना आपसी व्यवहार
दौड़ना रह-रह उठा उन्माद की तलवार
द्रोह से अब भी वही अनुराग
प्राण में अब भी वही फुंकार भरता नाग
यही मनुष्य का चरित्र है. सदियों से देखते आ रहे हैं. आपने ठीक ही कहा है. अब शायद आशा इस बात पर आकर टिकेगी कि मानव के अन्दर 'मानवता' की थोड़ी सी कमी उसे अच्छा बनाएगी.
घुघूती जी,
ReplyDeleteजघन्य हिंसा करनेवालों के लिए "पाशविक" शब्द के प्रयोग का मैं घोर विरोध करता हूँ। बेचारे पशुओं को तो गाली मत दीजिए। इनके लिए "दानविक" या "राक्षसी" या "पैशाचिक" शब्दों का प्रयोग बेहतर होगा। क्योंकि देव=सतोगुणी, पशु=रजोगुणी, दानव=तमोगुणी होते हैं। और... मानवता तो सुरत्व की भी जननी होती है। अपने सत्कर्मों और पुण्यों के द्वारा ही मानव 'देव-पद' पाता है। पशु तो सिर्फ आहार के लिए शिकार तक सीमित रहते हैं। किन्तु 'दानव' दूसरों को दुःख देकर सुख की तलाश करते हैं। ऐसे हिंसक एवं विनाशकारी कृत्य करनेवाले मानव नहीं 'दानव' हैं, जिनका संहार भगवान करते हैं।
बहुत अच्छे लगे आपके ओर हरिराम जी के विचार
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