टूटे फूटे लोग
लोग भी क्या काँच की तरह टूट जाते हैं
या फिर वे चीनी मिट्टी के बतर्नों जैसे
कप की तरह कुछ यहाँ से चटखे
कुछ वहाँ से दरके व टूटे किनारे
कुछ जगह जगह चोटों के घाव लिए
कुछ बेचारे नदारद हैंडल वाले
कुछ फैविकॉल से जुडे हैंडल वाले
हाँ, कुछ लोग ऐसे भी जीते हैं ।
या फिर कुछ घिस घिसकर
जीवन में अच्छे से रगडा लगने पर
तली में अपनी छेद ही कर लेते हैं
कुछ बिना कुछ किए ही पडे पडे
घटिया स्टील की तरह यूँ ही
मुफ्त में दरार का घाव पा लेते हैं
कुछ औरों के हुए हमलों में ही
बुरी तरह से पिचक जाते हैं ।
कुछ लोग काँच के बने होते हैं
बिल्कुल ही पारदर्शी होते हैं
इनके भीतर क्या क्या रखा है
नहीं किसी से छिपा रहता है
पर इक चोट यदि ये खाते हैं
नहीं किसी काम के रह जाते हैं
इनके ऊपर सावधानी से बरतो
का चिन्ह हरदम लगा रहता है
जब ये टूटते हैं तो औरों को भी
रक्त से यूँ ये ऐसा रंग देते हैं
कि स्वयं तो गए पर जाते जाते
चोट ये दूजों को लगा जाते हैं
किन्तु कुछ ऐसे भी सहनशील
काँच के बने लोग पाए जाते हैं
जो टूटते हैं तो स्वयं चूरा चूरा हो
किन्तु चोट दूजों को न दे जाते हैं ।
घुघूती बासूती
१७ .४. २००७
Friday, July 06, 2007
टूटे फूटे लोग...............................कविता
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सुन्दर रचना
ReplyDeleteसमय एक ऐसी तलवार, हथोडा है जिसका कटाव दिखाई नही देता, जिसकी चोट दिखाई नही देती परन्तु जिसे ये झेलना पडता है वो जानता है कि क्या क्या कटा है क्या क्या टूटा है..या चूरचूर हुआ है और यदि ये चोट किसी अपने ने दी हो तो आप समझ सकते है चोटिल का क्या हाल होगा
बढ़िया !!
ReplyDeleteलगता है चश्मे के फ्रेम का मामला डिसाइड हो गया है, तब ही टूटे-फूटे सब दिखायी दे रहे हैं। चश्मे के फ्रेम को दीर्घजीवी होने की शुभकामन
ReplyDeleteअब तबियत थीक लग रही है तब ही आप हमारा जिक्र कविता के अंतिम छंद में ले आईं. :)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना है.बधाई.
क्या बात है बर्तनो का उदाहरण देकर आपने इन्सान के बारे में बहुत कुछ लिख दिया है...
ReplyDeleteसुनीता(शानू)
कुछ लोग काँच के बने होते हैं
ReplyDeleteबिल्कुल ही पारदर्शी होते हैं
इनके भीतर क्या क्या रखा है
नहीं किसी से छिपा रहता है
पर इक चोट यदि ये खाते हैं
नहीं किसी काम के रह जाते हैं
इनके ऊपर सावधानी से बरतो
का चिन्ह हरदम लगा रहता है
अच्छी कविता है