वह निर्भय थी । भय क्या होता है, उसने कभी नहीं जाना था । ना उसे अन्धेरे से भय लगता था, ना साँप या बिच्छू से । छात्रावास में जब साँप या बिच्छू निकलता तो वही उन्हें मारती या भगाती थी । ना उसे भूत प्रेत का भय था ना अकेले रहने से । बिल्कुल नए शहर में भी वह नए मकान में रात को अकेले रह जाती थी । सभी उसके साहस की दाद देते थे । उसकी बड़ी बहन तो यहाँ तक कहती थी कि काश मुझे थोड़ा कम डर लगता और इसे थोड़ा सा डर तो होता । जिस लड़की ने सदा अपने निर्णय स्वयं लिए , जिसे ना परिणामों का डर था ना कठिन रास्ते का । जिसने जो उसे सही लगा सदा वही किया, वह आज कैसे डर गई ?
हुआ यूँ कि वह मुम्बई शहर में नई नई गई थी । वहाँ गई भी अकेली थी । बिना किसी की सहायता के वह रोज लोकल ट्रेन से सफर कर रही थी । वह दिन भी और दिनों सा था । कुछ नया या अलग नहीं था । स्टेशन पर ट्रेन आई व वह उसमें चढ़ गई । उसे अजीब या कुछ गलत तब लगा जब कोई और उस डिब्बे में नहीं चढ़ा । तभी कुछ लोग चिल्लाने लगे कि उतरो उतरो, यह ट्रेन तो यार्ड में जा रही है । इतने में ट्रेन चल पड़ी । उसके पास बस एक क्षण था निर्णय लेने का । या छलांग लगाए या यार्ड पहुँच जाए । उस एक क्षण में उसे लगा यार्ड जाना याने शायद वहाँ अकेली स्त्री होना व शायद बलात्कार की संभावना और छलांग लगाना याने मरना या घायल होना । बस चलती ट्रेन से उसने छलांग लगा दी । भाग्य से जान बच गई बस कुछ चोटें ही आईं पर सबसे बड़ी चोट उसके अहम् व उसकी निर्भयता को लगी ।
रात को जब उसने घर फोन किया तो वह पिता को पूरी बात बताती रही तथा चेन खींचने का खयाल न आने के कारण स्वयं पर हँसती रही । पिता भी तसल्ली देते रहे और मजाक करते रहे कि अभी तो जेब कटने, मोबाइल चोरी होने का अनुभव बाँकी है । जब तक यह सब ना हो तो मुम्बई का अनुभव अधूरा है । फिर उसने माँ से बात की । माँ उसके दर्द को अनुभव कर रही थी । पर उसका दर्द चोट का नहीं था । वह रो रही थी और कह रही थी, "माँ आज मैंने जाना कि स्त्री होने की क्या हानि है । मैंने कभी भी स्वयं को कमजोर नहीं समझा था । मुझे कभी भी भय नहीं लगा था । इस भय को मैंने पहली बार जाना । क्या यह भय स्त्री में नैसर्गिक होता है ? माँ , उस एक पल में मैं कल्पना कर सकी कि केवल पुरुषों की उपस्थिति में उस यार्ड में मेरे साथ क्या हो सकता था । और वह कल्पना इतनी भयानक थी कि मैंने चलती गाड़ी से छलांग लगा मरना या घायल होना बेहतर समझा । माँ यह नग्न भय था । भय अपने सबसे खूँखार रूप में । इस भय में कोई मिलावट या सोचने जैसा कुछ नहीं था । माँ मैं ऐसे भय के जीवन से घृणा करती हूँ । माँ यह उचित नहीं है, यह न्याय नहीं है । मुझे भय केवल इसलिए लगा कि मैं स्त्री हूँ । यदि पुरुष होती तो न डरती । माँ मैं इस संवेदना से घृणा करती हूँ । मैं ऐसा जीवन नहीं जीना चाहती जिसमें भय हो । ओह माँ, मैं उस संवेदना के बारे में सोच कर ही सिहर जाती हूँ । माँ, मुझे स्त्री क्यों बनाया तुमने ? यदि पुरुष मुझमें ऐसी भावना जगा सकते हैं तो मुझे पुरुष पसन्द नहीं । मैं कभी किसी पुरुष को जन्म नहीं दूँगी । हम ही उन्हें जन्म दें और फिर उन्हीं से डरें । जिसे तुमने जन्म दिया उससे तुम कैसे डर सकती हो ? क्या तुमने कभी इस डर का अनुभव किया ? यदि किया था तो मुझे भी इसे झेलने को जन्म क्यों दिया तुमने ? बचपन में जब क्षत्राणियों द्वारा जौहर को उनकी वीरता, उनकी महानता के रूप में पढ़ती थी तो बहुत आश्चर्य होता था कि यह क्या तुक हुई । पर माँ आज मैं उनके जौहर को समझ सकती हूँ । बलात्कार या मृत्यु की संभावना में से मैंने भी मृत्यु की संभावना को चुना । क्यों माँ, यह गलत है । मैंने तो पढ़ा था कि जीने की चाह ही स्वाभाविक है । तो फिर स्त्री के लिए यह अलग कैसे हो गया ? क्यों जीने की स्वाभाविक चाह मृत्यु से हार गई ?"
माँ क्या उत्तर देती ? है किसी के पास इसका उत्तर ?
घुघूती बासूती
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मुझे लगा यह अति है. हरदम तो ऐसा नहीं होता. एक खराब मछली हजार मछलियों को बदनाम करती है. मुझे लगता है कि और अधिक आत्म विश्वास की आवश्यक्ता है, बस. कौन ज्यादा ताकतवर. आप निरीह हो जायें तो सब लूटेंगे वरना किसकी मजाल. बस यही सोच जगाना होगी...किस बात का भय और कैसी भावना!!! निरीह बने पुरुष को पुरुष ही रौंद जाता है...ऐसा न सोंचे. वैसे बहुत दिन बाद दिखीं, क्या बात है?
ReplyDeleteयह भय तो वैसा ही है कि कल मुझे कोई भ्रष्ट कहे - या प्रमाणित कर दे तो मैं जीने की बजाय मरना पसन्द करूं.
ReplyDeleteहर व्यक्ति - नर या नारी अपने लिये जो सीमा बनाता है तो अपने को भय के अधीन करता है.
भय से मुक्ति, सोच में निहित है - सामाजिक मान्यताओं में नहीं. मैं सदा विक्तोर फ्रेंकल को याद करता हूं जो नात्सी उत्पीड़न केंद्रों में भी मात्र अपनी सोच के साथ भय मुक्त रहे - अपने उत्पीड़कों से भी अधिक मुक्त!
आपकी बात में सच्चाई तो है पर यह भय तो मानसिक है वास्तविक नहीं, ये भय स्त्री को हो सकता है तो पुरुष को भी हो सकता है..कि क्या होगा उसका अकेले वो जायेगा तो..इतने अनजाने लोगों के बीच.मन को यदि थोड़ा सा मजबूत कर लें तो सारे भय स्वत: मिट जाते हैं.इसके लिये हमें अपनी नयी पीढ़ी को ऎसी सकारात्मक शिक्षा देने की जरूरत है जिससे वह इन भयों से मुक्ति पा सके.
ReplyDeleteभय सिर्फ एक निर्मिति है, हम और हमारा वातावरण इसे चारों और गढ़ते हैं- ये हमारे अंधेरे गुहों ये निकलकर जब तब झपट लेता है हमें, ताक में हमेशा ही होता है- वह डरी क्योंकि मिथ्या ही वह मानती आयी थी कि अपने भयों की वह अकेली नियंता है, सिर्फ वह अपने भय निर्मित करेगी- उका भय वाकी भी निर्मित करते हैं।
ReplyDeleteऔर जिसे जन्म देती है उससे नहीं डरती, उनके अलावा से ही डरती है हर दोपाया लिंगधारी पुत्र नहीं हो सकता जेसे कि हर दोपाया लिंगधारी बलात्कारी नहीं होता।
और हॉं मुझे न जाने क्यों 'आशंका' हो रही है, (अभी पूरा विश्वास तो नहीं) कि ऊपर समीरजी ने आज यह टिप्पणी पोस्ट पढ़कर की है।
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा लिखा.. साहस और संवेदना का अद्भुत मिश्रण है आपमें.. साहस सिर्फ़ अँधेरे अकेले कमरे में सो जाने का ही नहीं.. ऐसे विषयों पर कलम चलाने का.. और अपनी निर्भय छवि को तोड़ सकने का भी..
ReplyDeleteयह भय एक सत्य है और इससे मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। बातों की लीपा पोती से इस पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। यहाँ भी कोई इस बात को नहीं स्वीकार नहीं कर रहा कि एक लड़की को रात को किसी निर्जन स्थान पर जाने में क्यों भय है। सब एक जैसे नहीं होते परंतु जो मिलेंगे वो कैसे होंगे, किसे पता। पहली बार जिस भय का अनुभव किया तो ऐसे विचार बन जाना स्वाभाविक है। ये अतिशयोक्ति लगे तो उन बालक बालिकाओं के बारे क्या जो बचपन में ही वीरान यार्ड में अंजान से नहीं बल्कि घर में, पास-पड़ौस में अपनों से इस भय को पा लेते हैं।
ReplyDeleteउत्तर तो शायद ही कोई दे पाए।
घुघूती जी मैने कई बार इस बारे में सोचा मगर हर बार खुद को अकेले पाया...एसा नही की औरत में आत्मबल नही है या उसमे साहस नही है...सब कुछ है औरत मे पुरूष की अपेक्षा आत्मबल और साहस दोनो ज्यादा है मगर इश्वर की और से उसे एक नाजुक मन और नाजुक शरीर दिया गया है मै मानती हूँ की समीर भाई ने जो लिखा वह ठीक है मगर ऐक औरत अपना बचाव कैसे कर पायेगी जब चार या पाँच बलात्कारियों के बीच फ़ंस जायेगी?
ReplyDeleteहाँ ये बात भी सत्य है की उस वक्त एक प्रतिशत वह अपने चातुर्य से बेवाकूफ़ बना पाये मगर इंसान और वहशी दरिंदे में फ़र्क होता है...औरत को पुरूष से डर नही डर है तो उनसे जो अपना पुरूषत्व खो बैठे है...जब रक्षक ही भक्षक बन जाये तो क्या किया जाये... जैसे एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है वैसे ही आजकल दिन रात होने वाली वारदातों ने डर पैदा कर दिया है...
मगर फ़िर भी मेरे खयाल से एक माँ अपनी बेटी को यही कहेगी की तुम डरो मत,तुम्हारा साहस तुम्हारा आत्मबल ही सबसे बढ़ा साथी है उस वक्त जब तुम अकेली हो या घबरा रही हो...
सुनीता(शानू)
समाज का आधे से अधिक हिस्सा एक लड़की के भय को समझने की संवेदना भी नहीं रखता !
ReplyDeleteक्या कहूं इस बात पर!!
ReplyDeleteजिस परिस्थिति की बात आप कर रही है उस परिस्थिति में पहुंचकर हर नारी डर ही जाती है!!
नारी एकबारगी चोर-उचक्को से नहीं डरेगी पर ऐसे हालत में डरती ही है……
अफ़लातून जी की बातों में सच्चाई नज़र आती है मुझे!!
वैसे मुम्बई में स्त्रियाँ रात के 1:30 बजे भी सफर करती है… हाँ भय का कोई कारण नहीं होता और स्थान-2 का फर्क भी होता है किंतु जब हम आत्मबल को छोड़ दे तो और हम पर हावी होने में समय नहीं लगायेंगे।
ReplyDeleteसभी के अपने अपने द्रष्टिकोण है
ReplyDelete"मुझे भय केवल इसलिए लगा कि मैं स्त्री हूँ । यदि पुरुष होती तो न डरती । " यह दावा पुख्ता नही लगा. ..
समीर जी की बात "निरीह बने पुरुष को पुरुष ही रौंद जाता है..." काफी असरदार सच्चाई है...
लेख बढिया लगा..शब्द सच कह रहे है..
Sabhi ke views ki kadra karate huye likhti hoo ki, aapke savaal ka ek matra jabab hai ki sabhi civilized or humane log ek behtar samaj banane mei sakriya bhaagidaari nibhaye. Rape ka dar sirf kisi ek jagah par kendrit nahi hai. Jitana unsafe railway ka khali yard hota hai, utana koi surkshit ghar bhi, school bhi?
ReplyDeleteHam apani bhumika as a individual bhi nibha sakate hai or kisi samajik process ka part bankar bhi.
Sunsaan sadak mei nikalate samay dar lagta hai, par jaise hi koi doosari women nazar aati hai safety ka ahsas hota hai. Adhik se adhik aurate agar ghar se bahar nikle, din me, raat mei, safe, unsafe sabhi jagah par to aadhi se adhik problem solve ho sakti hai.
Women have to reclaim common place for them and for safer society.
Baki marna/suicide kisi baat ka hal nahi hai. Agar koi rape ka shikar hota bhi hai, to himmat rakhe/himmat de, or justice ke liye fight kare, as a individual or as a society. Ham jungle mei nahi rahate. Priyadarshini Matto ke Father or friends ne ye karke dikhaya hai.
Doosara, apane bacho ko bhai bahano ko, sabhi ko safety se avagat karaye, apani safety ke protocol banane padte hai. or self-confidence ko bhi reality ke dharatal par rakh kar hi dekhana chiye.
By the way mene is tarah ki galati ki hai, or mei is tarah ke yard se sahi salamat bahar nikal kar aayi hoo.
Ye achcha hai ki aapne Daar ki problem ko is bahas mei shamil kiya hai.