Thursday, June 28, 2007

हमारे चश्मे का फ्रेम !

क्या जमाना आ गया है, हर कोई हमारे चश्मे के फ्रेम के पीछे पड़ गया है । छोटे छोटे बच्चे (यही कोई २० से ४० वर्ष तक के ) भी हमारे फ्रेम के पीछे पड़े हैं । कोई कहता है मैडम, तो कोई दीदी, तो कोई आन्टी, तो कोई माँ, तो कोई मम्मा, "अपने चश्मे का फ्रेम बदल लो बड़े पुराने स्टाइल का है । " मतलब यह कि सम्बोधन बहुत तरह के पर सबका सुझाव एक ही । सो हम भी एक ही उत्तर दे देते हैं , " चश्मे का फ्रेम बदल लेंगे पर चेहरा तो वही पुराने स्टाइल का रहेगा । उसे तो नहीं बदल सकती ।" पर सच तो यह है कि हमने चश्मे का फ्रेम बदलने की दो बार नाकाम कोशिश की है ।
पहली बार तो चार घंटे की यात्रा केवल इसी प्रयोजन से की । हम राजकोट जाकर आँखों के डॉक्टर के पास गये यह सोच कर कि जब फ्रेम बदलना है तो आँखें भी दिखा ही लें , वैसे भी अपने स्वभाव के कारण हमें "आँखे दिखाने" के मौके कम ही मिलते हैं । जब हमने उन्हें आँखें दिखाईं तो उन्होंने तमाम तरह के टेस्ट भी कर डाले । एक टेस्ट में आँखों में ऐसी दवाई डाली कि उजाले में हम आँखें खोल ही नहीं पा रहे थे । राम राम करते सड़क पार की और चश्मे वाले की दुकान पर पहुँचे । सो ट्रायल व पसन्द के लिए हमें बिना नम्बर का चश्मा पहनाया गया । अब हमें तो चश्मे से ही दिख नहीं रहा था सो बिना नम्बर के से क्या दिखता ? बस दुकानदार की पसन्द का चश्मा लगवाकर घर आ गए । हमने आशा की थी कि उसकी पसन्द अच्छी रही होगी पर जब चश्मा लगाकर शीशे में देखा तो समझ आया कि उसकी पसन्द तो बाबा आदम के जमाने की है । इस बार दोहरी मार हम पर पड़ी क्योंकि हमने प्रोग्रेसिव लेंस लगवाए थे जिनकी कीमत ढाई हजार से ऊपर थी । चार वर्ष तक हम उस चश्मे को अपनी पसन्द बता झेलते रहे ।

जब मन सबसे "ये चश्मा बदल लो" सुन सुन कर थक गया तो हमने एक और प्रयास किया । अबकी बार हमने सोचा कि किसी बड़े व फैशनेबल शहर में चश्मा बनवाएँगे । सो जब हम पूना गए तब यह काम भी कर डाला । अबकी बार आँखों में दवाई और फ्रेम की पसन्द का कार्यक्रम अलग अलग दिन रखा । अपनी धूप में न चुँधियाती आँखों के साथ देखते हम पूरे आत्मविश्वास के साथ चश्मे की दुकान पर गए । पर जब दुकानदार ने खाली फ्रेम ट्राई करने को दिया और शीशा हमारे सामने कर दिया तो हमने पाया कि बिन लेंस के तो सबकुछ धुँधला दिख रहा था । हमने उसे उतारा और अपना पहन कर उस फ्रेम को देखा , वह हमें ठीकठाक ही दिख रहा था । कठिनाई यह थी कि यदि हमें दिखाई देता था तो हम नया फ्रेम नहीं पहन सकते थे और यदि नया फ्रेम पहनते तो दिखता नहीं था । इसबार हमने दुकान में काम करने वाली महिला की पसन्द पर चलने का निर्णय किया । अबकी बार तीन हजार रूपये खर्च कर हम फिर किसी और की पसन्द का चश्मा ले आए । पर हाय री किस्मत ! इस महिला की पसन्द तो राजकोट वाले दुकानदार से भी घटिया निकली । अब फिर हम चार साल से उसकी पसन्द अपनी कह कर झेल रहे हैं ।
अबकी बार सोचती हूँ कि पहले सस्ते से कॉन्टेक्ट लेंस लगवाऊँगी और फिर चश्मा ! पर कोई मुझे बता सकता है कि बिन चश्मे के मैं कॉन्टेक्ट लेंस कैसे लगाऊँगी । कई दिनों से इसी समस्या के समाधान पर लगी हूँ । मुझे तो एक ही रास्ता नजर आता है । वह है कि दो चश्मे ऐसे बनवाऊँ जिनमें एक में बाँई तरफ ही लेंस हो और दूसरे में केवल दाँई तरफ । फिर मैं बाँई तरफ लेंस ..वाले चश्मे से दाँई आँख में कॉन्टेक्ट लेंस लगाऊँगी और दाँई तरफ फ्रेम वाले से बाँई तरफ । जब दोनों कॉन्टेक्ट लेंस लग जाएँगे तो चश्मे की दुकान पर जाकर फ्रेम पसन्द करूँगी ।
फ्यू ! यह तो बहुत ही टेढ़ा काम लगता है अतः शायद मैं इसी फ्रेम से काम चला लूँगी । पर आप सबको याद रखना है कि यदि मैं ब्लॉगर्स मीट में आई तो कोई मेरे फ्रेम के बारे में कुछ नहीं कहेगा ।" हाँ .....................
घुघूती बासूती

14 comments:

  1. चश्मा बिना लगाये फ्रेम को कैसे देखा जाय? और खाली फ्रेम से तो पास का दिखेगा ही नहीँ (यदि पास की नज़र कमज़ोर हो तो) आपकी समस्या तो वास्तव में गंभीर है - पर होगी बहुतेरों को - तब तो शायद कोई हल हो इसका। मुझे तो यह एक रोचक पहेली की तरह लगी। अब देखिये क्या सुझाव मिलते हैं। मेरा एक शेखचिल्ली जैसा सुझाव यह है कि इसमें एक डिजिटल कैमरे की मदद लें। कुछ संभावित फ्रेमों को पहनकर उनकी तस्वीरें खिंचवायें। फिर आराम से ठीक लेंस वाला (पुराना ही सही) चश्मा पहनकर इन तस्वीरों को स्वयं भी देखें और दूसरों को भी दिखायें और तब जो उपयुक्त जान पड़े उसका चयन करें। डिजिटल कैमरा सिर्फ इसीलिये कहा कि इसके प्रयोग में आसानी भी होगी, तुरंत तस्वीर भी मिल सकेगी और साधारण रूप से कई तस्वीरों को डिजिटल रूप में लेने में कोई विशेष मेहनत या खर्च भी नहीँ आयेगा।

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  2. जितना सोचना है सोचें. चश्मा/बिना चश्मा/बिना लेंस के चश्मा/बिना चश्मे के लेंस.... पर उपयोग वही करें जिससे चीजें यथा रूप दिखें.
    सही चीज सही दिखना है. बाकी सब तो ऐड-ऑन है. बाकी सब तो कॉम्प्लीकेशन है.
    ज्यादा बोझिल टिप्पणी हो गयी क्या? स्माइलीज लगा देते हैं - :) :) :)

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  3. ये तो पब्लिक के साथ अन्याय है, चश्मा लगाके, फोटु खिंचाके, पन्ने पर लगाके, तब बात करिए न. नारद पोर वोट लगावा दें, बेंगाणी जी से अनुरोध करके. घुघूती बासूती जी का चश्मा कैसा
    लग रहा है?

    मॉडर्न
    एवरेज
    एंटीक

    लोग वोट करेंगे, दूध का दूध, पानी का पानी हो जाएगा. जनमत के साथ चलें, लोकतंत्र है.

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  4. आपकी पोस्ट अधूरी है।
    पहले फ्रेम दिखाइये।
    फिर उस फ्रेम में अपना चेहरा दिखाइए।
    फिर जितने वैकल्पिक फ्रेम हैं, उन सबमें अपनी फोटू खिंचाईये, पोस्ट कीजिये।
    फ्रेम विमर्श कोई इतना आसान है।
    मीरा तक इससे परेशान रही हैं। उन्होने लिखा है-
    ऐ री मैं तो फ्रेम दीवानी, मेरा दर्द ना जाने कोय।
    कालांतर में अज्ञानियों ने फ्रेम का प्रेम कर दिया।
    हम सब ब्लागर आपके फ्रेम के दर्द को निपटाने को तैयार हैं। पर पूरा मसला कायदे पेश कीजिये, फोटू समेत।

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  5. सभी चश्मे पहनने वालों का दर्द बयां कर दिया आपने..

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  6. आलोक भाई का पूर्ण समर्थन...पहले चश्में की फोटू लगायें..आप भी किन चक्करों में पड़ गई..आजकल तो एन्टीक याने कूल कहलाता है...इस तरह की बात आपसे किसने की जो आप दुखी हो गई..आपको कोई दुखी करे यह बर्दाश्त नहीं होगा...जरा नाम बताना..पंगेबाज को भेजते हैं. :)

    -वैसे लिखा बेहतरीन है, मजा आया पढ़कर.

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  7. पहली बात : आप "आंखें दिखाती" ही नहीं हैं तो कोई क्या खाक आपको पत्ता देगा ..मींस फ्रेम सुझायेगा

    दूसरी बात : आजकल लोगों को फ्रेम बदलने का बहुत शौक हो गया है .. हर फ्रेम को आजमाते हैं ..फिर हर चस्मे के साथ अलग अलग बातें ..क्या ये ठीक है...जी आप
    तो वही फ्रेम और चश्मा रहने दें .. ज्यादा आंखें ना दिखायें...
    :-)

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  8. आप ये वोटिंग फ़ोटिंग के चक्करो ना पडे,वरना आप चशमा लगाना ही छोड बैठेगी.
    कोन्टेक्ट लेन्स लगाईये और फ़िर कोई खुबसूरत सा फ़्रेम सादे शीशो के साथ,बताईयेगा मत किसी को.
    इससे जब आप चशमा नही लगाये होगी तब सब के उपर नजर भी रख सकेगी,बाकी यही सोचते रहेगे आप नही देख पा रही होगी.:)
    बाकी नाम बताईये किसने आपकॊ दुखी किया,अब समीर भाइ ने कह ही दिया है तो हम पीछॆ थॊडे ही है :)

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  9. वेरी सिम्पल. अपना चहरा चिट्ठे पर चिपकाईये, हम बता देते है, कैसा फ्रेम सूट करेगा :)

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  10. मैं आलोक जी की बात से सहमत हूं
    'आपकी पोस्ट अधूरी है।
    पहले फ्रेम दिखाइये।
    फिर उस फ्रेम में अपना चेहरा दिखाइए।
    फिर जितने वैकल्पिक फ्रेम हैं, उन सबमें अपनी फोटू खिंचाईये, पोस्ट कीजिये।
    फ्रेम विमर्श कोई इतना आसान है।'
    :-) :-)

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  11. उपर इत्ते लोगन ने सुझाव दे दिये है, जब इनके सुझाव आजमा लेंगी आप , उसके बाद अपन सोचेंगे कि इन सबके सुझाव ठीक रहे या गलत! फ़िर अपन अपना अमूल्य सुझाव देंगे!!
    चलेगा ना!!

    हाल बढ़िया बयान किया आपने अपना!

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  12. आप आईये तो सही ब्लागर मीट में हम ही बन जायेंगे आपकी आँखें क्या करेंगी चश्मा लगा कर...वैसे कोई बात नही चश्मा लगाने से चेहरे पर नूर आ जाता है...काला चश्मा लगा रह किसी को भी ध्यान से देखा जा सकता है...
    आप आईये तो सही...मिलने को हम बेचैन हो गये है...


    शानू

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  13. आलोक जी की बात का मैं भी समर्थन करता हूँ पहले देखे तो कौन सा जंचता है…। फ्रेम पर चेहरा या चेहरे पर फ्रेम…। :) :)

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  14. वैसे घुघुती जी अब तो एक अच्‍छा उपाय आ गया है, जो मुंबई के ज्‍यादातर चश्‍मे वालों के पास है । और वो है डिजिटल फोटो का । चश्‍मे की दुकान वाले कैमेरा लगाये रहते हैं और आउटपुट कंप्‍यूटर पर होता है । आप अलग अलग चश्‍मे लगाईये, तस्‍वीर खिंच जाती है फिर आप अपने पुराने चश्‍मे से ही देख सकते हैं कि आपका फ्रेम आप पर ठीक लग रहा है या नहीं । बस हो गया । मैं तो इसी उपाय से अपना फ्रेम तय करता हूं । और बहुत खुश हूं । इससे पहले मैं क्‍या करता था । मैं अपने एक चश्‍मू मित्र शंकर को लेकर ही चश्‍मा बनवाने जाता था । वो हमेशा मेरे लिए फ्रेम पसंद करता था और उसकी एक्‍सपर्टीज़ का मुझे फ़ायदा मिलता था । आज भी मिलता है ।

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