Friday, June 01, 2007

दीये अब नहीं चाहिए

कितनी बार हो चुका यह
जलते दीये में मैंने उजाला ढूँढा था
पर हर बार जब मेरी आँखें
उजाले की आदी हो गईं
जब मैं अँधेरे को भूल गई
तुम अपना दीया लेकर चले गए ।

तुम आखिरी वह दीया थे
जिससे मैंने उजाला चाहा था
अब सोच लिया है ए दोस्त
उजालों से न अपना रिश्ता है
अब कितने ही दीयें आएँ राहों में
मैं अपने अँधियारों में ही घूमूँगीं ।

रखो तुम अपने उजालों को अपने पास
अब ना लाना उजालों की सौगात
मुझे न अब इनकी कोई चाहत है
जीते हैं बहुत से लोग बिन रौशनी के
मैं भी उनकी जमात में अब शामिल हूँ
इन अँधेरों में ही पाना मुझे साहिल है ।

ना चाहिए मुझे तुम्हारा साथ
ना चाहिए मुझे तुम्हारा प्रकाश
अब न तुम कभी मेरी राहों में आना
आ भी जाओ तो न मुझे बुलाना
मैं अपने अँधेरों में ही जी लूँगी
दीयों बिन ही गंतव्य पा लूँगी ।

घुघूती बासूती

17 comments:

  1. बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना है।बधाई\

    ना चाहिए मुझे तुम्हारा साथ
    ना चाहिए मुझे तुम्हारा प्रकाश
    अब न तुम कभी मेरी राहों में आना
    आ भी जाओ तो न मुझे बुलाना
    मैं अपने अँधेरों में ही जी लूँगी
    दीयों बिन ही गंतव्य पा लूँगी ।

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  2. अनूठी संकल्पना:
    "जलते दीये में मैंने उजाला ढूँढा था"
    "जब मैं अँधेरे को भूल गई
    तुम अपना दीया लेकर चले गए"

    भावुक उदगार:
    "अब कितने ही दीयें आएँ राहों में
    मैं अपने अँधियारों में ही घूमूँगीं"

    बहुत सुन्दर भाव और प्रस्तुति:
    "इन अँधेरों में ही पाना मुझे साहिल है"
    "दीयों बिन ही गंतव्य पा लूँगी"

    बहुत बधाई आपको।

    *** राजीव रंजन प्रसाद

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  3. आपकी ये दर्दनुमा प्रस्तुति से अब डर लगने लगा है...

    " जिन्दगी कितनी खूबसूरत है...
    आइये आपकी जरूरत है..."

    इसकी जगह आप गा रही हैं..

    " दो प्रिये तुम दर्द ऎसा ,
    आह बनकर रास आये.

    फैंक दो ये दर्द अब तो.... !!

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  4. Anonymous3:01 pm

    एक स्थिति - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
    गिलास को औंधा रख देने से
    गिलास की क्षमता नष्ट नहीं होगी
    यह एक स्थिति है
    नियति नहीं ।

    स्थिति
    आसानी से बदली जा सकती है ।
    केवल थोड़ी सी हरकत जरूरी है।
    तुम्हें हाथ बढ़ाना होगा
    और अपने भीतर कहीं कार्क खोलनी होगी
    और साफ - साफ समझना होगा
    कैसे और कितना ?

    संकल्प से पहले
    समझने की बात है
    और जरूरत को
    साफ - साफ पहचानने की ।

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  5. सुन्दर रचना है घघूती जी
    परन्तु इतनी रुखाई अच्छी नही वो भी उससे जो दिया दिखा रहा हो...

    न तो अन्धकार स्थायी है न रोशनी ...
    फ़िर आजकल तो चाईनीज लाईट आ गयी हैं दिया कौन जलाता है... दीपावली पर भी नहीं

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  6. "अब सोच लिया है ए दोस्त
    उजालों से न अपना रिश्ता है
    अब कितने ही दीयें आएँ राहों में
    मैं अपने अँधियारों में ही घूमूँगीं ।"

    हर बार चोट खाने पर सोचते हैं, फ़िर ऐसा नहीं होने देंगे, बहुत दर्द सह लिया, और नहीं! पर फ़िर, जीवन है जो पुरानी कसमें भुला देता है. जब दिये की रोशनी आती है, तो चाहो या न चाहो, अँधेरा अपने आप ही साथ छोड़ देता है, और उसे पाने सिर्फ एक ही रास्ता है कि आँखें बंद कर ली जायें. जीवन क्या आँखें बंद करने के लिए है? जब दर्द आयेगा तो देखा जायेगा, आज तो रोशनी में आँखें खोलना ही अच्छा है! :-)

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  7. प्राण का दीपक जले गंतव्य आता द्वार तक खुद
    एक निश्चय मंज़िलों की राह लघु करता रहा है
    आंधियां चाहे चलें कितनी विरोधाभास लेकर
    पंथ आलोकित दिया इक आस का करता रहा है

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  8. रचना में बड़ी खुबसूरती से भावों को सजाया है. बस जिस दृढता को उजागर किया है वो मायूसी जनित है. इतना मायूसियत को हाबी होने देना उचित नहीं है.

    -आजकल आप टिप्पणी समर में भी हिस्सा नहीं ले रही हैं. उम्मीद करता हूँ सब ठीकठाक होगा.

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  9. ये अँधेरे मुझे इसलिये है पसंद ,
    इनमे साया भी अपना दिखायी ना दे ,
    यूं अंधेरों मे घूमने की आदत मत पाल लीजियेगा ... नही तो उजालों मे ऑंखें चुन्दिया ना जाये

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  10. to good to comment on beautiful play of words

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  11. अच्छा लिखा है आपने...बहुत ही खूबसूरत..हाँ घोर पीड़ा और दुखः झलक रहा है..मगर एक अटल विश्वास भी दिखाई दे रहा है...
    सुनीता(शानू)

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  12. मनोभावों को अच्छे से कविता का रूप दिया है आपने..

    इतनी वेदना से डर लगता है ....

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  13. कविता सुंदर लगी,
    पर,
    अंधेरों के साथ,
    बहुत दूर तक,
    ले नहीं जाता है,
    रात का मुसाफिर,
    दिन के पड़ाव पर,
    अवश्य आता है।

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  14. रखो तुम अपने उजालों को अपने पास
    अब ना लाना उजालों की सौगात
    मुझे न अब इनकी कोई चाहत है
    जीते हैं बहुत से लोग बिन रौशनी के
    मैं भी उनकी जमात में अब शामिल हूँ
    इन अँधेरों में ही पाना मुझे साहिल है ।

    बहुत ही सुंदर और सच्ची बात लिखी है आपने ..

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  15. मै बस अफ़लातून जी के शब्दो को दोहराना चाहता हू

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  16. Anonymous1:42 pm

    वाह!

    ग़ज़ब का आत्मविश्वास झलक रहा है आपकी इस कविता में, ख़ासकर इन पंक्तियों में -

    रखो तुम अपने उजालों को अपने पास
    अब ना लाना उजालों की सौगात
    मुझे न अब इनकी कोई चाहत है
    जीते हैं बहुत से लोग बिन रौशनी के
    मैं भी उनकी जमात में अब शामिल हूँ
    इन अँधेरों में ही पाना मुझे साहिल है ।


    बहुत ही सुन्दर लिखा है, बधाई स्वीकार करें।

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  17. रखो तुम अपने उजालों को अपने पास
    अब ना लाना उजालों की सौगात
    मुझे न अब इनकी कोई चाहत है
    जीते हैं बहुत से लोग बिन रौशनी के
    मैं भी उनकी जमात में अब शामिल हूँ
    इन अँधेरों में ही पाना मुझे साहिल है ।
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    यह पंक्तियां बहुत बढ़िया हैं-दीपक भारत दीप

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