क्षमा करना माँ
मैंने भी तुम्हारी इच्छाओं,
अपेक्षाओं को नज़र अन्दाज कर दिया माँ
क्षमा करना माँ ,
मैं तुम जैसी न बन सकी,
मैं प्रश्न करती रही
औरों से नहीं तो स्वयं से तो करती रही माँ,
मैं त्याग तो करती रही
किन्तु इन प्रश्नों ने मुझे
त्यागमयी न बनने दिया,
मैं ममता तो लुटाती रही
किन्तु ममतामयी न हो सकी।
मैंने तो सुहाग चिन्हों को भी नकार दिया,
साखा, पोला, लोहा, सिन्दूर, बिछिये,
चरयो कहीं पेटी में रख दिये,
सौभाग्यवती,पुत्रवती भव: न कहने दिया कभी,
समझौते के तौर पर
पिताजी बुद्धिमती ही बनाते गये मुझे
और इस बुद्धि ने ही सिखाये मुझे इतने प्रश्न
प्रश्न पर प्रश्न !
कोई मुझे उत्तर न दे सका माँ।
क्यों मेरी बेटियों के जन्म से लोग दुखी थे
क्यों मेरे जन्म पर पेड़े न बँटे थे
क्यों मेरा नाम मुझसे छिन गया
क्यों मेरा गाँव मुझसे छिन गया
क्यों मेरा मैं मुझसे छिन गया ?
मेरे प्रश्नों के मेरे पास सही उत्तर तो न थे
किन्तु एक प्रतिक्रियावाद में
मैंने मन ही मन अपना इक नाम रख लिया
मैंने खूब चाहा पुत्रवती न बनना
मैंने और अधिक चाहा पुत्रीवती बनना
शायद इच्छा शक्ति से ही
मैंने पुत्रियों को जन्म भी दे दिया।
कितनी खुश थी मैं एक पुत्री होने पर
फ़िर एक और पुत्री होने पर मैं और खुश हुई
मैंने राहत की साँस ली
अब तो मैं पुत्रवती होने से बच गई।
मुझे पुरुषों से,पुत्रों से कोई शिकायत न थी माँ
मैं तो बस उन अवाँछित आशीर्वादों से तंग थी माँ।
मैं तंग थी उस संस्कृति से माँ
जिसमें मेरा अवमूल्यन होता था माँ
जिसमें मेरी ही नस्ल के शत्रु बसते थे
जिसमें मेरी ही नस्ल उत्साहित थी
न ई न ई तकनीक आई थी
मेरी नस्ल का नामों निशां मिटाने को
हमने तो पढ़ा विज्ञान हमें आगे बढ़ाएगा
किन्तु यहाँ तो विज्ञान
हमें संसार से ही विदा कर रहा था
और मेरी संस्कृति ने, समाज ने
विज्ञान का क्या सदुपयोग निकाला
फ़िर भी सब मुझे इन्हीं दोनों का वास्ता देते थे
तो मैं, माँ, बस प्रश्न पूछती थी ,
तुमसे नहीं तो स्वयं से ।
याद है माँ,
जब मैं तुम्हारे घर आती थी
जब तुम खाना बनाती थीं
तब यही होता था प्रश्न
जवाँई को क्या है खाना पसन्द
जब मैं सास के घर जाती थी
कोई नहीं पूछता था कि क्या है मुझे पसन्द
मैं कहाँ घूमना चाहती थी
मैं क्या खाना चाहती थीं
तब भी जब मैं खाना बनाऊँ
तब भी जब कोई और बनाए
क्यों माँ ?
क्या मेरी जीभ में स्वाद ग्रन्थि न थीं
मेरा पेट न था
क्या मेरी इच्छाएँ न थीं ?
बड़ी बड़ी बातों को छोड़ो माँ
छोटी छोटी बातें भी सालती हैं।
फ़िर वे ही प्रश्न
कितने सारे प्रश्न
जो मुझे ममता, गरिमा व त्याग
सबके प्रचुर मात्रा में होने पर भी
ममतामयी नहीं बनने देते
गरिमामयी नहीं बनने देते
त्यागमयी नहीं बनने देते
कुल मिलाकर मेरे स्त्रीत्व को
(मेरी नजर में नहीं समाज,
संस्कृति वालों की नजर में )
मुझसे चुरा लेते हैं।
काश, ये प्रश्न न होते
पर माँ ,इन्हीं प्रश्नों पर तो
मेरा बचा खुचा मैं टिका है।
जानती हो माँ,
आखिर समय बदल गया
अब जब मैं पुत्रियों के घर जाती हूँ
वे व जवाँई पूछते हैं
क्या खाओगी माँ
कहाँ चलोगी माँ
कौन सी फ़िल्म देखोगी माँ
कौन सी पुस्तक खरीदोगी माँ
अचानक इस पुत्रीवती माँ की भी
पसन्द नापसन्द हो गई
उसकी जीभ में फ़िर से सुप्त स्वाद ग्रन्थियाँ उग गईं
उसकी आँखों,उसका मन,
उसका मस्तिष्क, सबका पुनर्जन्म हो गया
और मैं पुत्रीवती, माँ व्यक्ति बन गई ।
देखो माँ, अव्यक्ति मानी जाने वाली
इन स्त्रियों, मेरी पुत्रियों ने
मुझे व्यक्ति बना दिया।
घुघूती बासूती
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बहुत ही सुंदर. अधिक शब्द इस्तेमाल करने की जरुरत नहीं-पूरी रचना सशक्त है, बधाई.
ReplyDeleteअद्भुत
ReplyDeleteसंभव नहीं बांध पाऊं में शब्दों मे इस अभिव्यक्ति को
ReplyDeleteकेवल इतना कहा विवेचन सुन्दर सरल और अनुपम है
.
बेटी की भावनाओं पर आधारित कविता बहुत अच्छी लगी।
ReplyDeleteयह जबरदस्त अभिव्यक्ति और प्रसारित होनी चाहिए।अपने समूह की पत्रिका 'सामयिक वार्ता' में छापने के अनुमति दीजिए।
ReplyDeleteबहुत खूब पर दीदी पर आपको नही लगता महिला ही महिला की ज्यादा दुशमन है हो सकता है मै गलत हू पर जो मैने महसूस किया है ये वही है क्यो अभी भी एक महिला को जो खुद पुरुषो से ज्यादा समर्थ है,लडकी के जन्म पर उसे वोह खुशी क्यो नही होती, जो लडके को देख कर होती,जन्म से पहले हुई हत्याओ मे घर की महिलायो का योगदा्न तो सर्वविदित है ही
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर रचना है ......बिल्कुल सही लिखा है आपने .......
ReplyDeleteसंभवतया यह आपकी अब तक प्रकाशित कविताओं में सर्वश्रेष्ठ है, भावनाएँ बिलकुल वैसे ही निकली है, जैसे पैदा हुई थी... कोई मैकअप नहीं।
ReplyDeleteप्रश्न होने महत्वपूर्ण हैं, उत्तर चाहे न भी मिलें. प्रश्न हैं आपके पास - यह नियामत है.
ReplyDeleteसच्ची और ईमानदार.. और बहुत सुन्दर..
ReplyDeleteयह है अनुभव . यह है भरोसा . यही है परिवर्तन की बयार . और अन्ततः यही है स्त्री सशक्तीकरण .
ReplyDeleteबेहतरीन कविता . मर्मस्पर्शी कविता . बेहद जटिल अनुभवों को सहज अभिव्यक्ति देती कविता .
आशापूर्णा देवी के उपन्यास 'प्रथम प्रतिश्रुति' और उसके बाद इसी त्रयी के 'सुवर्णलता' और 'बकुल कथा' उपन्यास पढकर भी ऐसी ही अनुभूति हुई थी जैसी आपकी कविता पढकर हुई . वह भी एक-के-बाद-एक तीन पीढी की स्त्रियों के संघर्ष और विजय की अनुपम गाथा है .
आभार! साधुवाद!
बेहद सुन्दर . सरल शब्दों में आपने जैसे आग भर दी . इसे कहते हैं कविता जो हृदय से फूटती है... धन्यवाद इतनी सुन्दर कविता के लिये.
ReplyDeleteआपने इस चिट्ठे पर जब पहली कविता पोस्ट की थी तब मैंने टिप्पणी की थी -
ReplyDeleteआपके भीतर महान लेखिका और कवयित्री के संस्कार और बीजांकुर हैं। उन्हें आप बाहर निकालें और हिन्दी साहित्य को समृद्ध करें।
मैत्रेयी पुष्पा भी प्रौढ़ावस्था में आकर साहित्य के मैदान में कूदीं थीं और आज वह हिन्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय महिला साहित्यकारों में से हैं।
आप मेरी धारणा को लगातार पुष्ट करती गई हैं और अब सभी लोग उसे स्वीकार करने लगे हैं। मेरे हर्ष का कोई पारावार नहीं है। दरअसल आपके बारे में मेरी यह धारणा तब से थी जब आप हिन्दी चिट्ठाकारी से परिचित नहीं थीं और शायद हिन्दी में लिखती भी कम ही थीं। लेकिन ऑनलाइन मित्र के रूप में आपसे बातचीत के दौरान मुझे महसूस हो गया था कि आपके जैसी संवेदनशीलता औऱ सहृदयता से समृद्ध मन के द्वारा यदि कविता या साहित्य का सृजन हो तो वह सत्यम् शिवम् सुन्दरम् के आदर्श को पूरी तरह चरितार्थ करेगा।
आपकी यह कविता तो वाकई हिन्दी कविता के नगीनों में से है। यह देश की किसी भी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका में प्रमुखता से छपने योग्य है।
मै भी अपनी दूसरी बेटी के जन्म पर बहुत खुश थी..मै भी दो पुत्रियो की मां परिवर्तन देख पा रही हूं, किसी दिन मै भी ’व्यक्ति’ बन जाने पर आपको जरुर बताना चाहूंगी!!
ReplyDeleteघुघूती बासूती जी, बस नम हो गई आंखें खासतौर से इन पंक्तियों को पढ़ते हुए
ReplyDelete"देखो माँ, अव्यक्ति मानी जाने वाली
इन स्त्रियों, मेरी पुत्रियों ने
मुझे व्यक्ति बना दिया।"
माफ़ी चाहूंगा लेकिन मुझे नहीं मालुम कि इस रचना के लिए आपकी तारीफ़ क्या कह कर करूं।
शायद आपकी बाकी रचनाएं एक तरफ़ और यह अकेली रचना एक तरफ़
और हां जैसा कि प्रियंकर जी ने कहा है कि आशापुर्णा देवी के उपन्यास त्रयी के बारे में, उस से पुर्णरुपेण सहमत हूं,अद्भुत गाथा है यह उपन्यास त्रयी, मन को कहीं गहरे तक छू जाने वाली।
माँ...सिर्फ "माँ " होती है ...जो कभी अपनी आहुति देकर भी शिसु की प्र्रण रक्षा करते हँस कर ,
ReplyDeleteआँखोँ से अद्रश्य हो जाती है परँतु शिशु के मन से, कभी भी विस्मृत नहीँ हो पाती -
पुत्रीयाँ आज के समय मेँ पुत्रोँ से ज्यादा अपने माता पिता का ध्यान रखतीँ हैँ ऐसा देखा है
आपके जमाई सभ्य व सुसँस्कारी हैँ जिन्हेँ आपकी पसँद को पूरा करवाने की तमन्नाएँ और तलाश है !
समय बदल रहा है --
स स्नेह,
लावण्या
मां, पुत्रियों की नजर में व्यक्ति बन गयी, शायद यह पुत्रों के नजर में भी सत्य है। कानून भी महिला को व्यक्ति का दर्जा देता है पर समाज ... ? समाज की भी तस्वीर बदल रही है, उसे बदलना होगा।
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता लिखी आपने! बधाई!
ReplyDeleteघुघूती बासूती नाम बहुत अच्छा है। इसका अर्थ क्या है?
ReplyDeleteवाह! बस इतना ही कह सकूँगी... :)
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